जैसे 76 सीआरपीएफ जवान माओवादियों के बारुदी सुरंग की चपेट में आकर सवा महीने पहले शहीद हुये थे, ठीक वैसे ही सीआरपीएफ के 8 जवान सवा महीने बाद 8 मई को मारे गये। सवा महीने पहले देश के गृहमंत्री पी चिंदबरम खुद छत्तीसगढ़ के दांत्तेवाड़ा गये थे। लेकिन सवा महीने बाद छत्तीसगढ़ के बीजापुर में देश के गृहमंत्री नही गये। सवा महीने पहले हर शहीद जवान का शव उसके घर पहुंचाने के लिये समूचा देश भिड़ा हुआ था। राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर जिले के अधिकारी तक राजकीय सम्मान के साथ शहीदों के शवों पर गमगीन नेत्रों से सेल्यूट मारते दिख रहे थे। सवा महीने बाद कोई मु्ख्यमंत्री तो दूर, मारे गये जवान के गृह जिले के अधिकारियो को भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि वो मारे गये जवान के घर पहुंचकर परिजनों के आंसुओं और गम में शरीक हो पाते। सवा महीने पहले संसद का सिर झुका हुआ था। माओवादी हमले पर जवाब देते गृहमंत्री चिदंबरम की आवाज डबडबा रही थी। लेकिन सवा महीने बाद संसद का बजट सत्र खत्म हो गया था तो हर कोई सर उठा कर चल रहा था। गृहमंत्री की आवाज भी नहीं डगमगायी। और इन तमाम दृश्यों को पकड़ने के लिये सवा महीने पहले हर न्यूज चैनल का कैमरा भी दांत्तेवाडा से लेकर शहीद जवानों के घरो की चौखट पर लगातार घूम रहा था। गृहमंत्री का इस्तीफा देने के बाद संसद के भीतर आंखों में आंसू और बोलते बोलते गले का भर्राना भी न्यूज चैनल ने पकड़ा और शहीद जवानों के परिजनो के दर्द को भी न्यूज चैनल के स्क्रीन पर उभारा गया। लेकिन सवा महीने बाद किसी न्यूज चैनल के स्क्रीन पर ऐसा कुछ भी दिखायी नहीं दिया।
सवा महीने पहले हर न्यूज चैनल ने बताया कि शहीद हुये 76 जवान देश के हर प्रांत के हैं। बकायदा नाम से लेकर घर के पते भी टीवी स्क्रीन पर 48 घंटे तक नीचे की पट्टी में चलते रहे । लेकिन सवा महीने बाद किसी न्यूज चैनल वाले को पता नहीं है कि मारे गये जवान किस प्रांत के हैं और किसका नाम क्या है। जबकि बंगाल के एस के घोष, बिहार के हजारीलाल वर्मा, यूपी के संतोष कुमार, महाराष्ट्र के इलाप सिंह पटेल, राजस्थान के राकेश मीणा से लेकर दक्षिण भारत के सुब्रमण्यम तक इस हमले में मारे गये। लेकिन किसी न्यूज चैनल में यह सवाल तो दूर कि सीआरपीएफ की 168 बटालियन कैसे देश की विभिन्नता में एकता का प्रतीक है, यह सवाल भी नहीं रेंगा कि मारे गये जवानों के आंगन का दर्द कितना गहरा है।
सवा महीने पहले ही सीआरपीएफ की उस बख्तरबंद गाड़ी पर सवालिया निशान लगा था जो बुलेट प्रुफ और बारुदी सुरंग का सामना करने के लिये ही बनायी गयी थी। लेकिन सवा महीने बाद बुलेट प्रुफ और बारुदी सुरंग का सामना करने वाली जीप को लेकर कोई सवाल नहीं उठा कि उसके परख्च्चे कैसे उड़ गये। सवा महिने पहले शहीद हुये सीआरपीएफ जवानों की बदहाली का सवाल भी उठा था, कि वह कैसे किन परिस्थितियों में बिना सुविधाओं के जंगल नापते फिरते थे। लेकिन सवा महिने बाद मारे गये 8 जवानो की त्रासदी पर कोई सवाल नहीं उठा कि वह बिना पानी और बिना बुलेट प्रुफ जैकेट और बिना स्थानीय पुलिस के सहयोग के बूटो में छेद के साथ कैसे जंगलों को नापते फिरते हैं ।
सवा महिने पहले शहीद जवानों की ट्रेनिंग पर भी सवाल उठे थे, जिसका जवाब गृहमंत्रालय ने 18 से लेकर 45 दिनों की ट्रेनिंग कराने के दस्तावेजों के साथ दिये थे । लेकिन सवा महीने बाद सीआरपीएफ की बटालियन 168 के मारे गये जवानो को जंगल की कोई ट्रेनिंग नही है, इस पर किसी ने कोई सवाल नहीं किया। संसद में जवाब देते गृहमंत्री से जब लालकृष्ष आडवाणी ने शहीद जवानों को मिलने वाली राहत का वक्त तय करने की मांग की थी तो गृहमंत्री ने तीस अप्रैल की तारीख नियत की थी और 30 अप्रैल को बकायदा गृह सचिव पिल्लई ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जानकारी दी कि सभी शहीद जवानों के परिजनो को राहत मिल गयी है। लेकिन आठ जवानो के परिजनों को मिलने वाली राहत पर सरकार भी मौन है और जो पारंपरिक राहत मिलती है उसकी भी कोई तारीख तय नहीं है क्योंकि कोई पूछने वाला नहीं है। और यह तमाम सवाल भी सवा महीने पहले कमोवेश हर राजनीतिक दल के सांसद उठाते रहे। लेकिन सवा महीने बाद किसी पार्टी का कोई सांसद भी नहीं है जो इन सवालों को उठाये और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर यह सवाल रेंगने लगे। सवा महिने पहले शहीद हुये 76 जवानो को लेकर करीब 48 घंटे तक माओवाद और चिदंबरम की थ्योरी को लेकर न्यूज चैनलों में बहस इस तरह गरमायी कि काग्रेस के नेता दिग्विजय के इकॉनामिक टाइम्स में छपे लेख पर भी तमाम राष्ट्रीय न्यूज चैनल भिड़ गये कि माओवाद को रोकने का कौन सा तरीका सही होगा। लेकिन सवा महिने बाद किसी चैनल ने ऐसे कोई सवाल नहीं उठाये कि मारे गये 8 जवानों की संख्या में और इजाफा न हो इसके लिये माओवादियो को लेकर सरकार का नजरिया ग्रीन हंट का होना चाहिये या फिर विकास का।
असल में मुश्किल यही है कि जो हमला बड़ा हो, जहां मारे गये जवानों की संख्या एक रिकार्ड बना दे और जिन परिस्थितियों से सरकार को लगे कि वह कोई निर्णय ले सकती है यानी निर्णय लेने की सफलता का एहसास सरकार या मंत्री को हो, तब तो वह हादसा राष्ट्रीय हो जाता है। लेकिन छिटपुट हमले और आठ-दस जवानों की मौत कोई मायने नहीं रखती। जाहिर है इसीलिये सवाल लोकतंत्र के हर खम्भे पर उठ रहा है। क्योंकि शक नियत पर हो चला है। माओवाद अगर संकट है और जवानों के मरने पर अगर सरकार को दुख होता है तो फिर हर माओवादी हमले के बाद ग्राउंड जीरो पर उसी तरह की पहल क्यों नहीं दिखायी देती जो सवा महिने पहले 76 जवानों के मरने पर दिखायी दी थी। फिर जवानो की संख्या 76 हो या 8 अंतर या ट्रीटमेंट अलग अलग क्यों होना चाहिये। जबकि बीते सवा साल में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवान और दो सौ से ज्यादा पुलिसकर्मी माओवादी हिंसा में मारे गये। हर बार मरने वालो की संख्या सात-आठ ही रही है। लेकिन गृहमंत्री या मुख्यमंत्री तो दूर स्थानीय विधायक तक की राजनीति में यह फिट नहीं बैठता है कि वह दो-चार जवानों के मरने पर दो आंसू बहाकर शवों को सुविधा के साथ उनके परिजनों तक पहुंचाने की व्यवस्था भी करा दें। सवा महिने पहले जो 76 जवान शहीद हुये, उनके शवों को तो 24 घंटे के भीतर दांत्तेवाडा के जंगलों से निकाल कर घरों तक पहुंचाया गया लेकिन सवा महिने बाद ग्राउंड जीरो से ही चंद किलोमीटर दूर बीजापुर लाने में ही शवों को 24 घंटे से ज्यादा का वक्त लग गया। और शवों को रखने के लिये लकड़ी के आठ ताबूत भी नहीं मिल पाये।
यह हालात एक नये संकट की ओर इशारा करते हैं। जिसमें जवान का मतलब नौकरी बजाना है। और नौकरी का मतलब माओवाद या ऐसी ही किसी भी उस समस्या से जुझते हुये जान दे देना है, जिसके आसरे सत्ता को राजनीति की छांव मिल जाये। और लोकतंत्र के हर खम्भा इस छांव की ओट में आकर सत्ता से हमझोली करें। इसीलिये लाल गलियारे में ग्रीन हंट करते जवान अब यही मनौती मांगते हैं कि मरे तो एक साथ रिकॉर्ड संख्या में। क्योंकि शहीद तभी कहलायेंगे और खबर तभी बनेंगे अन्यथा सिर्फ इतना भर कहा जायेगा कि 8 जवान मारे गये।
20 comments:
खाओ कुछ भी यह सबसे बड़ा लोकतन्त है .
अभी हाल का मुद्दा ले लियिजे बीजेपी के एक नेता जी ने कुछ ऐसे टिपणी की आचानक से देश की राजनीती मे इतनी तेजी आ गयी जैसे किसी नेता ने संसद मे गरीब की आवाज बुलंद कर दी हो,मुझे कुछ समझ मै नहीं आया की आचानक से इतना जोश दिखा पटना की सडको मै जैसे हर कोई आदमी एक ऐसा मुद्दा ढूंड रहा हो जिस से वह दूर तक ले जाये,भला वह अपने मुद्दों के क्यूँ नहीं इतना जोश दिखा सकते मगर यह लोकतन्त देश है यहाँ ऐसे ही मुद्दो की तलाश रहेती है.
बाजपेई जी, जहाँ एस.एम.एस. पोल कराकर एक घंटा में देस का राय बता दिया जाता है, जहाँ 56% मतदान में 28% भोट पाकर एगो पार्टी सरकार बना लेता है, ओहाँ आप इससे बेसी उम्मीदो का कर सकते हैं. आप त अपने पढे लिखे अदमी हैं, ऊ के कहा था कि जम्हूरियत ऊ तर्जे हुकूमत है जहाँ अदमी को तौला नहीं जाता है गिना जाता है. त ई त मामूली हिसाब है कि 76 के तुलना में 8 का न तो कोनो गिनती है न कोनो वजन. अऊर अगर गिनती कम है त त मरे वाला को कोनो बड़ा अदमी से जुड़ा होना चाहिए. काहे से कि अमीर अदमी मरता है त ऊ खबर बनता है ..आम अदमी त पैदे होता है मरने के लिए... अऊर सीआरपीएफ का जवान को तो तनखाहे मरने के लिए मिलता है.अब केतना सोक मनाएगा देस ऊ लोग के लिए.. मात्र 16000 रुपया महीना कमाने वाला, देस सेवक नेता के मरने पर सब लोग को लगता है कि देस का महान सेवक चल बसा, अपूरनीय छती हो गया, नेता खो दिया, राजकीय सोक… आप भी फालतू बात लेकर बईठ जाते हैं.
जवान का असल मतलब है गद्दार और भ्रष्ट को देखते ही गोली मार देना ,और हमारे देश के जवान जिस दिन इस बात को समझ जायेंगे की हम जिस भ्रष्ट मंत्री की रक्षा कर रहें है वो गद्दार और देश का दुश्मन है और इसको गोली मारने से हमारे देश का भला होगा ,तथा इस बात पर बहुत सोच विचार और तथ्यों को परखकर अगर जवान ,गद्दार चाहे मंत्री हो या कोई और को गोली मारने लगेंगे, उस दिन से असल जवानों का दर्दनाक मौत बंद हो जायेगा और इस देश में कानून व्यवस्था एकदम सुधर जाएगी /
अगर पुण्य प्रसून बाजपेयी इ के अंदाज़ मे कहू तो उनका मनपसंद एक कहावत याद आती है की जिस को वो बड़ी बात मे अक्सर कहे जाते है "बात निकली है तो दूर तलक जाएगी " मगर पुण्य प्रसून बाजपेयी जी मे आपकी बात से बिलकुल सहेमत हु की अकिर हो क्या गया है इसह मुल्क की आवन को , कैसे आप जेपी की बातो का ज़िक्र किये करते है उस को सुन कर तो ऐसा लगता है की आप की जवानी का दौर ही आचा होगा हमारी जवानी के दौर से ,
कम से कम उस दौर मे सरकार से बगावत की छूट तो थी....
dear vajpaiji aaj fir vahi sms yad aa gaya -- sagar me fish ki beti puchhti hai maa hm dharti pr kyo nhi rah sakte.. maa kahti hai beti hm fish hai.. dharti pr selfish hi rah sakte hai.
aapka chintan jayaj hai aapka chintan waqt ki aawaj hai.jis desh ke loktantra ke pratham do sthambh ki aatma mar chuki ho aur tisre sthamb ki aatma chhatpata rhi ho vha aap jese chintak ghor andhere me kisi prakash ke bindu hai.par kafi mushkil nazar aata hai jaha kanoon banane ka adhikar bhi unhi makkaro ko ho jinke hatho me desh ki bagdor ho.good luck
sanjay parashar
ये कुछ नया नहीं है, हमारे देश व राज्य की सरकारें हमेशा से ही ऐसा करती आई हैं. कोई भी मौका नहीं छोड़तीं अपने वोट बैंक बढ़ाने का. ये कभी भी ऐसे इंतजाम नहीं करतीं जिससे समस्याओं का निराकरण किया जा सके वरन ये दुर्घटना घटने के पश्चात शहीदों कि शहादत कि बोली लगाती आई हैं. जितनी बड़ी दुर्घटना उतनी अधिक अनुदान राशी. किसी छोटी-मोटी घटना पर इनका ध्यान भी नहीं जाता. रही बात न्यूज़ चैनल्स की तो उसको आप से बेहतर और कौन जनता है? आप ने ही अपनी पुस्तक "ब्रेकिंग न्यूज़" में ज़िक्र किया है कि ' मुंबई में आई हुई बाढ़ कि त्रासदी तो सभी न्यूज़ चैनल्स दिखाते हैं पर किसी का भी ध्यान बिहार में प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ पर नहीं जाता'. खैर दुख होता है, यह सब देखकर. समझ में नहीं आता कि धनकुबेरों ने पत्रकारिता को अपनी रखैल कैसे बना लिया है और पत्रकार अपने स्वभिमान का सौदा कर के कैसे जिन्दा हैं? क्या जीवन यापन का सवाल स्वाभिमान और निजी मूल्यों से इतना बड़ा हो जाता है? आखिर कब तक ऐसे ही चलता रहेगा? कब तक हम दर्शकों की भरमार बढ़ाने के लिए ख़बरों से समझौता करते रहेंगे? इलेक्ट्रोनिक मीडिया अब अपनी शैशवास्था से युवावस्था की ओर आ रहा है, अब तो कम से कम इसे कुछ गंभीर हो जाना चाहिए. यदि ये अगर ऐसे ही अपने लक्ष्य को छोड़कर अंधे रस्ते पर भागता रहा तो निश्चित रूप से यह अपनी प्रासंगिकता खो देगा.
जब तक एक-एक जवान के जान की कीमत नहीं समझी जाएगी तब तक माओवादी भरी पड़ेंगे. यह वोट-बैंक नहीं कि अधिक मरे तो संवेदना का दरिया बहाओ और कम मरें तो भूल जाओ.
राजनीति में जो भी क्रिया-प्रतिक्रिया होती हुई दिखाई देती है, वह राज करने की नीति का अभिन्न अंग होता है. अतएव हम अपने राजनेताओं से तो किसी तरह की उम्मीद नहीं ही रख सकते हैं, रखना भी नहीं चाहिए. बेवजह दुख होगा. लेकिन जब बात मीडिया की आती है, तब यह सवाल विचारणीय हो जाता है. हमारी मीडिया इस तरह के संवेदनशील मुद्दो से अपने को कैसे दूर रख पा रही है. आज भी गांवों में कोई घटना घटती है, तो स्थानीय लोग पुलिस को बुलाने से पहले मीडियाकर्मी को बुलाना ज्यादा फायदेमंद और सहुलियत वाला समझते हैं. कहने का मतलब यह है कि मीडिया में आज भी लोगों का विश्वास है. कम से कम मीडिया को तो लोगों का विश्वास नहीं ही तोड़ना चाहिए. हम मीडिया वाले ही जब संवेदनशून्य हो जायेंगे तब समाज को संवेदनशून्य होने से भला कौन बचा सकता है.
आशुतोष कुमार सिंह
zashusingh@gmail.com
www.aapandesh.blogspot.com
सच तो ये है के हमारी भावनाए भी रिमोट सरीखी है .चैनल बदलते ही संवेदनाये फुर्र !!!!!
स्केल दरअसल हर स्तर पर अलग-अलग है। और ये स्केल खतरनाक है। सवाल ये भी है कि क्या राजनीति और मीडिया का नेक्सस तैयार हो चुका है। ये नेक्सस पिछले दिनों सूचना एवं संचार मंत्री के मामले में भी सामने आया पर हुआ क्या? क्या बहस हुई और अगर कहीं हुई तो निकला क्या? दरअसल मीडिया और राजनीति के नेक्सस ने मीडिया को राजनीति का घाघपन दे दिया और राजनीति ने मीडिया से खबरें बनाना सीख लिया।
नेता का असल मतलब है गद्दार और भ्रष्ट को देखते ही गोली मार देना ,और हमारे देश के जवान जिस दिन इस बात को समझ जायेंगे की हम जिस भ्रष्ट मंत्री की रक्षा कर रहें है वो गद्दार और देश का दुश्मन है और इसको गोली मारने से हमारे देश का भला होगा ,तथा इस बात पर बहुत सोच विचार और तथ्यों को परखकर अगर जवान ,गद्दार चाहे मंत्री हो या कोई और को गोली मारने लगेंगे, उस दिन से असल जवानों का दर्दनाक मौत बंद हो जायेगा और इस देश में कानून व्यवस्था एकदम सुधर जाएगी
"uffff" but today's show was good n badi khabar is too short .... it should be 1 hour with you....
sir ji ko salam. Yeh blog bastar ke dantewada me padha aur vahin se likh raha hoon. Mujhe achraj hota hai ki desh ki media ko kya ho gaya hai. Sabhi jagah mudde ki bat goom. Shahadat 76 ho ya 8 bhale hi dilli ko phark na padata ho per jahan is tarah ki ghatnayen hoti hain vahan ke logon ko to phark padata hi hai. dantewada me kai tarah ki forses ne kam kiya
पुण्य जी प्रणाम
मीडिया के सरोकारों से जुड़े कई सवाल हैं। जिसपर मुझे लगता है गंभीर बहस की ज़रूरत है। मेरा सवाल है कि आखिर मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में राजनीति, अपराध या फिर ग्लैमर से जुड़ी खबरों का दायरा क्यों बढ़ रहा है? क्या इसकी वजह भी कोई फिनॉमिनन है? एक बहस के दौरान आपको सुन रहा था आपने कहा था कि दरअसल मीडिया में 'रिपोर्टिंग' खत्म हो रही है। तो क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि इतनी बड़ी मीडिया इंडस्ट्री, दूसरों की नैतिकता पर सवाल उठानेवाले माध्यम pseudo-journalism या छद्म पत्रकारिता कर रहे हैं? उम्मीद करता हूं ये सवाल आप गुम नहीं करेंगे। जवाब देंगे। यकीन मानिए ये ज़रूरी भी है। आपके ब्लॉग पर इसका इंतज़ार रहेगा।
Sarkar, Janta sab ka aik jaisa hal hai. Bachho ko ye to yad rahta hai ki kis match me kisne kitane chauke mare ya kaun man of the match tha par asli hero ke bare me to wo jante hi nahi,sirf unka nahi parents aur yua brigade ka bhi yahi hal hai. Agar prtiyogi parichawo par bhi gaur kare to cricket se sambandhit 4 sawal to mil hi jayege par in Jawano ke liye waha bhi jagah nahi. Ham youraj ke todu hone par report to dikhate hai par abdul hamid ke pariwar ko usi screen par nahi dikha sakte .Ab sawal janta ka nahi usi media ka hai jo tv par kuchh aur ho jati hai aur blog par kuchh aur ho jati hai.Aisa kyo...?
सर आज समझ आया ""बड़ा है तो बेहतर है"" का क्या मतलब होता है. सवा महीने पहले बड़ी मात्र में सैनिक सहीद हुए थे,बड़े बड़े नेता दुःख में सामिल थे, बड़े मुख्यमंत्री और ग्रहमंत्री सामिल हुए इसलिए वो मामला सबको बेहतर लगा.
samay ke saath sab kuch bhula diya jata hai,es ke liy kis ko dosh diya jay aur kahi na kahi hum sab log kaam doshi nahi hai,kahte to hai liken kuch bhi nahi karte hai es systeam ko badalne ke liy.....
जनाब कुछ कहेना ठीक नहीं होगा की यह मुद्दा और कितने बेकसूरों की जान लेगा आब थो दोनों को आगे आना होगा और एक एसा रास्ता खोजना होगा जिस से हम लोग दुबारा न सुने की सुकमा मे या कहीं भी कोई बेकसूरों का खून बहा है,बातचीत हे सारा मुद्दा हल कर सकती है और कोई रास्ता नहीं है मगर कोई दंग का कदम तो ले ....
स्रिफ कहेने से कुछ नहीं होगा उम्मीद है की आप जरू कुछ करेंगे इश मुद्दे पर इंतज़ार रहेगा आप का प्रोग्राम का बड़ी खबर रात १० बजे तक...
sir where were you,did not come in your program ??
प्रसून जी , एक किसी एक दो चार आठ को कोस कर से बात एकदम से खारिज हो जाऐगी...
सवाल राजनीति से ज्यादा सामाजिक नही हैं हमारी संवेदनाऐ के पतन का प्रतिक नही हैं , अब हम आप कारर्पोरेट हो चुके हैं जब तक जिन्दा हैं तब तक तो हम हम ही हैं, आप भी हर नऐ के पीछे पुराने को छोड देते हो तो ऐसा क्यो न हो....
सतीश कुमार चौहान भिलाई
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