Tuesday, May 18, 2010

....अब सवाल मनमोहन के आगे का

पहली बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड तैयार कर रहे हैं। बीते छह साल में मनमोहन सिंह को कभी जरुरत पड़ी नहीं कि वह अपनी सरकार का रिपोर्ट-कार्ड दें। अगर बीते पांच साल को देखें या यूपीए-1 के दौरान मनमोहन सिंह के रिपोर्ट कार्ड को देखें तो वह हर वर्ष बजट सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति के अभिभाषण से ही झलकता था, जिसे लेकर अक्सर यही कहा जाता कि एक रबर स्टाम्प का कच्चा-चिट्टा एक दूसरा रबर स्टाम्प अगर दे रहा है तो बहस कौन करें ?

लेकिन पहली बार यूपीए-2 में यह परंपरा टूटेगी जब दूसरी बार सरकार बनाने के एक साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया के सामने सरकार का समूचा कच्चा-चिट्टा लेकर बैठेंगे। परंपरा का टूटना क्या महज संयोग होगा या फिर प्रधानमंत्री किसी सोची-समझी रणनीति के तहत रिपोर्ट-कार्ड तैयार कर रहे हैं। पहला मौका है जब प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में शामिल कैबिनेट मंत्रियों को लेकर सवाल खड़े हुये हैं। कोई दागदार है तो कोई जनता के प्रति जिम्मेदारी निभाने के बजाय किसी खास लॉबी को मदद कर रहा है। कोई मंत्री बनकर भी लक्ष्मण रेखा पार कर रहा है तो किसी के लिये प्रधानमंत्री से ज्यादा कॉरपोरेट मायने रख रहा है। और इन सब के बीच आर्थिक नीतियों से समाज में बढ़ती खाई को बताने के लिये और कोई नहीं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ही मिट्टी ढोने से लेकर दलित के घर रात बिताने तक का फार्मूला अपनाये हुये हैं। यह वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने कभी प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल पर अंगुली नहीं उठायी लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार से लेकर संचार मंत्री ए राजा के कामकाज को लेकर अपनी राजनीतिक कोटरी में सवाल जरुर खड़े किये। तो क्या यूपीए-2 के साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री की रिपोर्ट कार्ड मनमोहन सिंह को राजनीतिक तौर पर स्थापित करने का प्रयास होगी। या फिर उस राजनीतिक कयास का जवाब होगी जो मनमोहन सिंह की उल्टी गिनती और राहुल की ताजपोशी में जा सिमटी है।

महिने के आखिरी हप्ते में होने वाली मनमोहन की इस प्रेस कान्फ्रेंसमें जाहिर है
, पहला सवाल संचार मंत्री राजा को लेकर ही उठेगा की झक सफेद मनमोहन सिंह को दाग अच्छे क्यों लग रहे हैं। मनमोहन सिंह इस सवाल के जबाब से ही खुद के पाक-साफ बता सकते हैं। इसलिये वह भी जरुर चाहेंगे कि यह सवाल उठे। ए राजा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने का मतलब यह कतई नहीं है कि मनमोहन सिंह भ्रष्ट हैं। राजा एक राजनीति मजबूरी हैं और मनमोहन राजनीति से नहीं आर्थिक नीति से देश चला रहे हैं। अगर राजा भ्रष्टाचार में लिप्त है तो भी यह बात उन्हीं के प्रयास से ही सामने आयी है। क्योंकि राजा तक पहुंचने के राडिया के रास्ते की जांच बिना पीएमओ के इशारे पर हो ही नहीं सकती। और तत्कालीन गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने यूं ही अंधेरे में ही राडिया के फोन टैप करने का निर्देश नहीं दे दिया था। तो राजा का दाग अगर गहरा है तो मनमोहन के लिये अच्छा है। क्योकि जो दाग दिखायी दें, उसे कभी भी धोया जा सकता है।

राजा के सवाल पर संसद में हंगामे के बाद पीएमओ ने ही राजा की फाइल कानून सचिव के पास भेज कर जानकारी चाही की कानूनन राजा के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है या नहीं। और जो जवाब लॉ- सचिव का आया उसने मनमोहन सिंह को भी राजनीति का पाठ ही पढ़ाया। राजा के दस्तावेज पर लिखा गया -
"नो" । लेकिन मौखिक तौर पर जानकारी दी गयी, "ऐज यू विश "। यानी पीएमओ कार्रवाई चाहे तो तुरंत हो सकती है। लेकिन राजनीति का तकाजा है कि कैबिनेट मंत्री के खिलाफ कानूनी कार्रवाई ठीक नहीं। और नौ अप्रैल 2010 को पीएमओ में जिस आखिरी फैसला पर मुहर लगायी गयी अगर उसे सही मानें तो सोनिया गांधी के किचन कैबिनेट के महारथी और राहुल गांधी के पालिटीकल मेंटर ने मनमोहन को यही रास्ता सुझाया कि राजा को भ्रष्टाचार के तहत हटाना तो आसान सा काम है लेकिन मंत्रिमंडल को सहेज कर रखते हुये आगे का राजनीतिक रास्ता साफ करना ज्यादा जरुरी काम है। यानी राजा की जरुरत राजनीतिक तौर पर कांग्रेस को भी है और मंत्रिमंडल पर लगे दाग की वजह राजनीतिक दाग को बताने की जरुरत मनमोहन सिंह की है।

हो सकता है प्रधानमंत्री के सामने दूसरा बडा सवाल शरद पवार का आये। महंगाई से लेकर आईपीएल धंधे के घेरे में आये शरद पवार को मंत्रिमंडल में कोई प्रधानमंत्री कैसे शामिल रख सकता है। पवार कद्दावर राजनीतिज्ञ जरुर हैं लेकिन वह सरकार के नहीं राजनीति के प्रतीक है और इस सवाल का जवाब देना भी मनमोहन सिंह के झक सफेद छवि पर आंच आने नहीं देगा। अगर राजा के जरीये डीएमके और तमिलनाडु की साझा सरकार चल रही है तो पवार के जरीये महाराष्ट्र की साझा सरकार भी चल रही है और राजनीति से चलने वाली सरकारों से मनमोहन सिंह का कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसीलिये सवाल आईपीएल का हो या महंगाई के जरीये आम आदमी की बढ़ती तकलीफों का। पवार अगर शुगर लॉबी से लेकर हवाला लाबी को शह देते हुये राजनीति कर रहे है तो प्रधानमंत्री क्या कर सकते है। फैसला तो उस राजनीति को करना है जो मुंबई के मेट्रो में सवार होकर ठाकरे परिवार से लेकर पवार की राजनीति को आईना दिखाने में जुटी है। यानी फैसला मंत्रिमंडलिय दायरे में नहीं कांग्रेस कार्यसमिति के दायरे में होना है। यानी फैसला पीएम को नही सीडब्लूसी को करना है। लेकिन रिपोर्ट कार्ड रखे जाते वक्त एक ही मयान की दो तलवारों पर भी सवाल हो सकते है। एक तरफ आर्थिक नीति के जरीये दुनिया में भारत के धाक जमाने की बात अगर मनमोहन सिंह कर रहे है तो राहुल गांधी गली गली धूमकर उस तबके के घावों पर मलहम लगाने में क्यो जुटे हैं, जिसे मनमोहन सिंह देश का नागरिक या कहे उपभोक्ता ही नही मानते। इस सवाल का जबाव भी मनमोहन सिंह के झक सफेद छवि को तोड़ता नहीं है। क्योंकि मनमोहन की अर्थनीति कभी राजनीति का जवाब नहीं देती और राहुल राजनीति के प्रतीक है, जिसके जरीये कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ सकता है। लेकिन सरकार महज राजनीति से नही अर्थनीति से चलती है। इसलिये राहुल कांग्रेस के लिये और मनमोहन यूपीए सरकार चलाने के लिये जरुरी है। तब सवाल यह भी खड़ा होगा कि अगर दाग भी अच्छे है और राजनीति से छत्तीस का संबंघ भी सही है तो फिर इसकी उम्र क्या होगी। यानी राहुल
2014 तक भटकते रहेंगे या आम आदमी के युवराज होने का सपना कांग्रेस बेचती रहेगी और पीएम एक अर्थशास्त्री ही रहेगा। अगर यह ज्यादा वक्त तक नहीं चलेगा तो संकेत के इन जवाबों में पहली बार दोतरफा खेल भी शुरु हुआ है। एक राजनीति का है, जिसमें दिग्विजय पाठ पढ़ा रहे हैं, तो दूसरा कॉरपोरेट जगत का है, जो नेताओं के बीच अपनी पोजिशन तय कर रहा है। चिदंबरम की नक्सल थ्योरी की यूं ही दिग्विजिय धज्जियां नहीं उड़ा रहे और देश के भीतर और बाहर पूंजी और बाजार के जरीये मुनाफा बनाने वाले घरानों का नया खेल भी य़ूं नही शुरु हुआ है। अभी तक कारपोरेट घराने अगर देश की सीमा में सिमटे थे और उनकी भूमिका बिचौलिये के जरीये होती थी, वहीं अब कॉरपोरेट ने देश की सीमा बंधन को भी तोड़ा है और बिचौलियो को छोड़ सीधे सत्ता बदलने के संकेत के बीच खुद को फिट करने में लग गये है।

मनमोहन सिंह का संकट यहीं से शुरु होता है। राजा के पीछे चाहे टाटा नजर आये और सुनिल मित्तल चाहे दयानिधी मारन के पीछे नजर आये और नीरा राडिया का रास्ता चाहे ए राजा तक जाता हुआ नजर आये। या फिर कोई भी कॉरपोरेट कहीं किसी भी मंत्रालय या मंत्री के पीछे नजर आये
, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थनीति ने बीते छह सालों में जो व्यवस्था खड़ी की उसमें भारत सबसे बड़े बाजार के तौर पर ही पहचान बनाने में जुटा है। और इस बाजार पर कब्जा करने के लिये कॉरपोरेट घरानों के लिये कुछ इस तरह रेड कारपेट बिछायी गयी कि संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी नपुंसक बनाने में हर उस कारपोरेट घराने ने पहल की जिसने मनमोहन की अर्थनीति को ही गीता माना।

मनमोहन सिंह की विकास की थ्योरी में कारपोरेट घरानो की भूमिका नब्बे के दशके के एनजीओ सरीकी हो गयी। और एक वक्त जिस तरह एनजीओ ने देश के भीतर के उन आंदोलनों को खत्म किया जो मावाधिकार और हक का सवाल खड़ा करते थे तो कारपोरेट घरानों ने उस संसदीय व्यवस्था को खत्म किया, जिसमें जनता की नुमाइन्दगी करने वालो का समूह ही प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में देखा जाता था । नयी परिस्थितियों में किसी मंत्री या मंत्री के विभाग का मतलब आम जनता की जरुरत या जनता से जुड़े सरोकार नही बचे बल्कि मंत्रालय के जरीये कितनी की उगाही कॉरपोरेट कर सकते हैं, अचानक यह महत्वपूर्ण हो गया। सरल शब्दों में कहा जाये तो हर मंत्रालय की एक कीमत होती है और आधुनिक विकास की थ्योरी यह कहती है कि जो मंत्रालय सबसे ज्यादा मुनाफा दे पाये उसका मंत्री सबसे लायक होता है। इसीलिये अपने विभाग की बोली कोई मंत्री खुद इसलिये नहीं लगा सकता क्योंकि वह उस जनता के बीच से राजनीति कर के निकला होता है, जहां भी संघर्ष दो जून की रोटी का है। लेकिन कॉरपोरेट इस खेल में माहिर होते है
, और मंत्रिमंडल में कौन सा मंत्री उनके अनुकूल काम कर सकता है। इसकी राजनीति अगर पर्दे के पीछे तय होती है तो मंत्रिमंडल की बोली खुले तौर पर लगती है, जैसे संचार मंत्रालय की लगी। यहां राजनीतिक संकेत मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होने से भी समझा जा सकता है। चूंकि मनमोहन सिंह राजनेता नहीं अर्थशास्त्री है, तो वह बाजार के महत्व को समझते है। लेकिन राहुल गांधी उस परिवार के है, जिसका जीवन ही राजनीति के मैदान से शुरु होता है। तो क्या अर्थशास्त्र की राजनीति की जगह राजनीति के अर्थशास्त्र की जरुरत कांग्रेस को है और इसीलिये कारपोरेट जगत में हलचल खुद को नये तरीके से फिट करने की है। या फिर कारपोरेट और अंतराष्ट्रीय पूंजी मिलकर सत्ता बदलने या हथियाने का खेल देश में शुरु कर रही है।

यह तो सही है कि ए राजा के खेल ने कुछ नये नियम-कायदे भी बना दिये, जिसके बाद मनमोहन सिंह को लेकर यह कयास लगाये जा रहे है कि उनकी अर्थनीति का रास्ता यही तक आता था। और मनमोहन की बनायी लीक पर अब किसी ऐसे नेता को बैठाना जरुरी है जो इसके नुकसान को ना समझे। क्योंकि मनमोहन सिंह अपनी बाजार अर्थव्यवस्था को इतना खुला नहीं छोड़ सकते ही आईपीएल सरीखे धंधे ही विकास की चकाचौंध बन जाये। खासकर अरब वर्ल्ड और उसमें भी संयुक्त अरब अबीरात का पैसा हर हाल में भारत आने के लिये जब बेताब हो तो उस पर अंकुश की अर्थनीति राजनीति में बदल जाती है। नयी परिस्थितिया कुछ इसी तर्ज पर कारपोरेट राजनीति में भी चल निकली है। अगले साल अंबानी बंधुओं के बंटवारे के सात साल पूरे हो रहे है यानी उसके बाद समझौते के मुताबिक मुकेश और अनिल हर वह धंधा कर सकते हैं, जो दोनों में से कोई भी एक कर रहा है। तो रुका हुआ पैसा कहा किस रुप में लगेगा और नये धंधे के लिये नये रास्तों से भी पूंजी की जरुरत अंबानी बंधुओं को पड़ेगी
, तो उसके लिये मंत्रालय भी अनुकूल होने चाहिये और सरकार भी। इसमें देश के भीतर निशाने पर कोई आयेगा तो वह टाटा ही है। यानी कारपोरेट युद्द में अग्रणी टाटा के पर और कोई नहीं भविष्य में अंबानी समूह की कतरेगा। इसलिये समझना यह भी होगा कि नीरा राडिया सरकार और कारपोरेट घरानो की एक नयी प्रतीक है, जो मंत्रालय को ही धंधे में बदलने की कुव्वत रखती है और लेकिन नयी परिस्थितयों में सवाल सरकार को ही धंधे में बदलने का है। जिसके लिये मनमोहन सिंह फिट नहीं बैठते। फिट वही बैठेगा जो चुनाव जीतकर देश को बाजार में बदलने का माद्दा रखता हो क्योंकि सरकार तभी टिकेगी या कहे संसदीय राजनीति को लोकतंत्र का चोगा तभी पहनाया जा सकेगा। मनमोहन इस सच को समझ रहे है इसीलिये सरकार की यूपीए-2 के एक साल पूरे होने पर रिपोर्ट-कार्ड बताकर एक आखिरी दांव भी खेलना चाह रहे हैं, जहां आकाओं को बता सकें कि खिलाड़ी वह भी हैं।

13 comments:

honesty project democracy said...

बहुत ही अच्छी प्रस्तुती, जिसने इन गिरगिटों के बदरंग और मुखौटों पे मुखौटा लगाये शर्मनाक चेहरे को बाहर लाने का प्रयास किया है / ऐसे चेहरों ने पूरे देश को नरक में धकेल कर हर सच्चे हिन्दुस्तानी को शर्मसार किया है / आपसे एक आग्रह इस पोस्ट http://jantakifir.blogspot.com/2010/05/blog-post_17.html को पढ़िए और इंसानियत की हर संभव मदद कीजिये /

रंजन (Ranjan) said...

आप अच्छा लिखते है.. पर हम इतना नहीं पढ़ पाते हे..

SANJEEV RANA said...

ठीक कहा

anoop joshi said...

ranjan g or sanjeev g aap jaante hai. sar itna kyon likhte hai kyonki ye comment pane ke liye nahi,hame jaaankari dene ke liye likhte hai. plz pura padha kijiye. dhnyabad

किशोर बड़थ्वाल said...

आप के एक पत्रकार बरखा दत्त का नाम भी आ रहा है.. आप उस के बारे मे क्या कहेंगे.. मुझे आप से बहुत उम्मीद है.. आशा है कि आप वही करेंगे जो पत्रकरिता और देश के हित मे होगा..

Shah Nawaz said...

honesty project democracy said...
बहुत ही अच्छी प्रस्तुती, जिसने इन गिरगिटों के बदरंग और मुखौटों पे मुखौटा लगाये शर्मनाक चेहरे को बाहर लाने का प्रयास किया है / ऐसे चेहरों ने पूरे देश को नरक में धकेल कर हर सच्चे हिन्दुस्तानी को शर्मसार किया है / आपसे एक आग्रह इस पोस्ट http://jantakifir.blogspot.com/2010/05/blog-post_17.html को पढ़िए और इंसानियत की हर संभव मदद कीजिये /



पुण्य प्रसून बाजपेयी जी आपसे मदद की पूर्ण अपेक्षा है. आप उपरोक्त घटना पर मेरा लेख भी पढ़ सकते हैं.

http://premras.blogspot.com/2010/05/blog-post_17.html

सम्वेदना के स्वर said...

पुण्य प्रसून जी. पत्रकारिता शायद पर्दे के पीछे चल रहे इस खेल को समझने और सम्झाने का नाम ही है, जो आप अपने ब्लोग पर बताते हैं.
आप जो "सत्ता की मलाई से मुह मोडे बैठे हैं" इस लड़ाई मे अकेले हैं और अकेले ही रह जायेंगें. सवाल ये है कि पूरा मीडिया इन बातों को ज़ोर-शोर से प्रचारित और प्रसारित करे. पर वो भला क्यों करेगा? आप पहले अपने मीडिया के भ्रष्ट साथीयों के नाम लेकर उनके काम उदघाटित कीजिये.

वरना - "अब तो अपनी लेखनीं से नाडा ही तू डाल रे!" यथार्त बनते देर नहीं लगती.

http://samvedanakeswar.blogspot.com

Unknown said...

बिगड़ते हालात का सुन्दर बिबेचन।
हो सके तो हमारा एक लेख
मनमोहन की साऊदी अरव यात्रा जरूर पढ़ें।
http://samrastamunch.blogspot.com
पर
आपके मार्गदर्शन का इन्तजार रहेगा

Rohit Singh said...
This comment has been removed by the author.
Rohit Singh said...

सर
पूंजी का खेल ही है जो मनमोहन जी को सत्ता में टिकाए हुए है। अपना रिपोर्ट कार्ड अब वो खुद बनाएंगे. क्योंकी जनता तो शायद अपना काम करना भूल ही गई है। मनमोहन की आर्थिक नीति ने जहां काम के नए नए रास्ते खोले, नए धनकुबेर पैदा किए वहीं एक सदी से भी ज्यादा की मेहनत से खड़े किए गए मजदूरों से जुड़े़, आम जनता से जुड़े मुद्दों को, सवालों को हाशिए पर पहुंचा दिय़ा है। आज मजदूर की चिंता किसे है। खाए पिए अघाए समाज को कतई नहीं।....
औऱ मंत्रिमंडल जो उनका है उसमें लगता है कि मंत्री ही कमजोर है, बाकी सब मजबूत। .चिंदबरम को ही लिजिए..जरा सोचिए अगर चिदंबरम ताकत के बल पर कुछ समय के लिए ही सही नक्सलियों पर लगाम लगा देते हैं तो क्या उनकी छवि राहुल गांधी के लिए चुनौती नहीं बन जाएगी। ऐसी किसी भी संभावना को नकारने के लिए ही क्या दिग्विजय सिंह लगातार चिंदबरम की मुखालफत नही कर रहे। दिग्विजय सिंह बिना आलाकमान के इशारे के या तो बोल नहीं सकते...या फिर वो कांग्रेस की मिट्टी पलीद करने में कोई कसर नही छोड़ रहे। जैसे की जयराम औऱ थरुर पहले ही कर चुके हैं। मगर मुशिकल ये है कि मंत्रीमंडल में दिग्विजय सिंह हैं नहीं..तो उन की तो सिर्फ शिकायत ही कर सकते हैं देश के प्रधानमंत्री या सीईओ साहव..औऱ इस सबके बीच संसद बनाने वाली जनता मौन नहीं हैं..बल्कि सोई हुई है..

Sarita Chaturvedi said...

UPA-2, REPORT CARD TO BAHUT ACCHA HAI. PRAMAR CHAHIYE TO HINDUSTAN SAMARCHAR PATR AAPKA SWAGAT KARTA HAI,KUCHH AUR BHI CHAHIYE TO VARISTH PATRKAR DEWANG SE PUCHIYE,UNKI NIGAH ME TO YE PAHLI SARKAR HAI JO JANTA SE JUDI HUI HAI, YE ALAG BAAT HAI KI WO JO KAR RAHI HAI WO 10 SAAL BAAD SAMNE AAYEGA ,PAR ,TAB TAK TO JANTA KO AISE HI MARNE KE LIYE CHOD DENA CHAIYE.AASUTOSH , JI, WAHI IBN WALE,UNIC KARNE KE LIYE NA JANE KIS ISTAR TAK JA SAKTE HAI PAR UNKA TARK KISI CHOTE BACHHE KE MANIND BEHAD HASYASBAD HO JATA HAI,KAHI AUR CHAPE N CHAPE HINDUSTAN ME DIKH HI JATE HAI.SHASHI SHEKAR ACHHE PATRKAR HO SAKTE HAI PAR UPA-2 KO LEKAR WO JIS TARAH SE PICHLE 2-3 MAHINO SE PES AA RAHE HAI WO TO HINDUSTAN PAR HI SAWAL KHADA KAR RAHA HAI.

सतीश कुमार चौहान said...

बाजपेयी जी, मनमोहन जी और सोनिया के बारे में ये तो पुख्‍ता ही हैं कि प्रजातात्रिक मूल्‍यो की कसौटी पर औरो से तो बेहतर ही हैं ,
आम जिन बातो का ज्क्रि कर रहे हैं वह व्‍यवसायिक चातुर्य का खेल हैं जिसमें हर कोई उलझा चाहे मीडिया ही क्‍यो न हो , आपका विश्‍लेषण तो रहता ही कमाल का हैं.......
सतीश कुमार चौहान भिलाई
satishkumarchouhan.blogspot.com
satishchouhanbhilaicg.blogspot.com

Nikhil Srivastava said...

कोई पढ़े या न पढ़े, कोई देखे या न देखे, युवा पत्रकार आपके लेखों को हमेशा पढ़ते हैं. राजनीतिक समझ और नजरिया हमेशा विस्तृत होता है. जिसे सीखना है वो आपका लेख पढता है, जिसे वाह वाह या आह आह करनी है, उनके लिए कई ब्लॉग हैं. दुःख इस बात का है कि जहाँ मतलब की बात होती है, वहां लोग कम झांकते हैं.