मीडिया के पेड न्यूज की कहानी सत्ता के लिये लॉबिंग और कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिये बिचौलिये की भूमिका तक पहुंचेगी, यह किसने सोचा होगा। खासकर उस दौर में जब पूंजी ही एक नयी सत्ता बनकर लोकतांत्रिक सत्ता को चुनौती दे रही हो। वैसे मीडिया का राजनीति से प्रेम आज का किस्सा नहीं है। पत्रकारों की एक बड़ी फौज आज भी यही मानती है कि पत्रकारिता एक लकीर के बाद कुंद पड जाती है इसलिये राजनीति ही उन पत्रकारों के लिये एकमात्र रास्ता है, जो सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में बतौर पत्रकार काम करते रहे हैं। इसलिये पत्रकार के राजनेता बनने को सकारात्मक भी माना गया। लेकिन तब सोच यही रही कि अच्छे नेता और अच्छे पत्रकार का काम कमोवेश एक सरीखा ही होता है । इसलिये कभी पत्रकारिता ने राजनीति को प्रभावित किया तो कभी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक प्रधानमंत्री रहते हुये यह कहने से नही चूके कि पत्रकार तो वह भी रह चुके हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में यह सवाल दूर की गोटी बन चुका है कि प्रधानमंत्री बनने के लिये पत्रकार या नेता होने की भी जरुरत है। इसलिये पत्रकार के सत्ता के गलियारे में लॉबिंग करना या फिर सत्ता का पत्रकारों को अपने हुकुम का गुलाम बनाने के नये अंदाज में मनमोहन सिंह के दौर की राजनीतिक परिस्थितियों को समझना होगा, जिसने आजादी के बाद की पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था का काम तमाम कर दिया है। मनमोहन सिंह संसदीय राजनीति से उपजे नेता नहीं है। आम चुनाव में भागीदारी कर आम जनता के बीच से निकले हुये नेता भी मनमोहन सिंह नहीं है। तो फिर मनमोहन सिंह के सरोकार आम आदमी के साथ कैसे हो सकते हैं,, यह सवाल तुरंत उभरेगा।
लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी उठेगा की 2009 के चुनाव में तो मनमोहन सिंह की राजनीति के खिलाफ संसदीय राजनीति के जरीये अपना कद बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी मैदान में थे। तो फिर जनता ने उन्हें खारिज क्यों कर दिया। जबकि आम जनता से सरोकार की बात आडवाणी ताल ठोंककर करते रहे और मनमोहन के सरोकार आम आदमी से नहीं है, यह भी ताल ठोंक कर ही बताते रहे। लेकिन यूपीए की जीत और मनमोहन सिंह के दोबारा प्रधानमंत्री बनने से पहली बार उस राजनीति पर सवालिया निशान लगा जो जनता के बीच राजनीति कर अपना वोट बैंक बनाने पर भरोसा करती है। मसलन वामपंथियो का भी आम चुनाव में फेल होना। जबकि देश का सच यही है कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से समाज में असमानता बढ़ी। आर्थिक सुधार से देश बाजार में तब्दील हुआ। नागरिकों से ज्यादा उपभोक्ता होना महत्वपूर्ण हो गया। बीते पांच साल में लखपति और करोड़पतियों की तादाद में अगर दशमलव सात फीसदी बढ़ोतरी हो गयी तो गरीबी की रेखा से नीचे की तादाद में सात फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। यानी आर्थिक नीतियो का लाभ अगर देश के एक करोड़ लोगों को परोक्ष-अपरोक्ष हुआ या उन्हें लगा कि आर्थिक सुधार से वह उपभोक्ता हो गया तो सीधा नुकसान 10 करोड़ से ज्यादा लोगो को हुआ। यानी संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति के लिये एक उम्दा माहौल तैयार हुआ। जिसमें जनता चाहती तो सत्ता पलट सकती थी। बावजूद इसके मनमोहन सिंह की जीत का मतलब साफ था कि जो नेता चुनावी राजनीति को सरोकार की राजनीति मानते है , उनका सरोकार आम जनता से कट चुका है। आम आदमी जिस अवस्था में रहता है, नेताओं का जीवन उससे कोसों दूर है। सीधे कहा जाये तो एक देश के एक छोटे से तबके की सुविधा के लिये मनमोहन सिंह ने जो आर्थिक नीतियां परोसीं, उसका लाभ उठाने में ही समूची राजनीति भिड़ गयी। जिसने धीरे धीरे नेताओ का जीवन और राजनीति करने के तौर तरीको में तो पांच सितारा माहौल जड़ दिया लेकिन आम आदमी के जीवन का हर सितारा ही नही उजड़ा बल्कि संसदीय राजनीति के जरीये देश बदला जा सकता है, यह परंपरा भी चुनाव मैदान में खारि्ज हो गयी।
लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की पहचान चुनाव है तो हर नीति के सफल-असफल की कहानी भी इसी चुनाव परिणाम पर टिकी है। तो मनमोहन सफल हैं, यह साबित हुआ । यह साबित नहीं हुआ कि संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीके ही मनमोहन की आर्थिक नीति तले असफल हो गये। राजनीति के इस घालमेल में मंडल की राजनीति बीस साल में चक्र पूरा करती नजर आयी और बीजेपी सरीखी पार्टी भी जाति आधारित जनगणना पर तैयार हो गयी और कांग्रेस भी जातीय राजनीति का ढोल बजाने लगी। असल में मीडिया की सफलता - असफलता भी इसी दायरे में आ गयी। मीडिया में भी कुछ ऐसा ही अंतर आया और पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य आधुनिक मीडिया के सामने खारिज हो गये। मनमोहन सिंह की आर्थिक व्यवस्था ने पारंपरिक राजनीति-सामाजिक लक्ष्य को ही व्यवस्था में बदल दिया। यानी आजादी के बाद पचास बरस तक जो संसदीय राजनीति देश को हर क्षेत्र में स्वावलंबी बनाकर आर्थिक तौर पर मजबूती प्रदान करने में भिड़ी थी, उसे मनमोहन सिंह ने व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर आर्थिक लाभ का एक ऐसा घेरा बनाया, जिसमें स्वावलंबन शब्द गायब हो गया। और आर्थिक मजबूती ही नया मंत्र बन गया।
पास में पूंजी रहे तो हर सुविधा भोगी जा सकती है । इसके लिये खेती का इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने की सोच हाशिये पर चली गयी। उत्पादन से जुड़े धंधों को चौपट करने की दिशा में बकायदा नीतिगत फैसले लिये गये। इससे इतर सट्टेबाजी की महत्ता देश के सामने उभारी गयी यानी पूजी से पूंजी बनाने का खेल ही विकास की हकीकत है। क्योंकि पूंजी रहे तो राजनीतिक और सामाजिक मान्यता पायी जा सकती है। पूंजी रहे तो संसद से लेकर कॉरपोरेट घरानों के अंतर को भी मिटाया जा सकता है। और पूंजी रहे तो हर संस्थान को देखने-दिखाने का एक ही नजरिया समूचे समाज के सामने परोसा जा सकता है। पूंजी रहे तो कल्याणकारी राज्य की सोच बेमानी साबित की जी सकती है। और पूंजी के आसरे संसदीय सत्ता को भी बेबस पेश किया जा सकता है। मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में इसका ताना-बाना किस हुनर से किया गया यह सत्ता में अगर कॉरपोरेट घरानों के दखल से समझा जा सकता है तो कॉरपोरेट घरानों की सत्ता के आगे संसदीय सत्ता के नतमस्तक होने से भी जाना जा सकता है। वह दौर पुरातन काल का प्रतीक है, जब पैसे वालो को संसद में पहुंचने से रोकने के लिये खुद राजनीति ही सामने आ खड़ी होती थी। अब तो हर कॉरपोरेट घराने के सर्वेसर्वा को राज्यसभा में लाने के लिये राजनीति ही चिरौरी करती है।
जब मनमोहन की अर्थनीति के घेरे में कल्याणकारी राज्य की समझ ही गुम हो चुकी है और संसदीय राजनीति अपना आस्तितव ही पूंजी के मुनाफे तले टटोल रही है तो मीडिया की क्या बिसात। इस व्यवस्था में मीडिया को परिभाषित करने के लिय पत्रकारिता के बोल नहीं बल्कि पूंजी और मुनाफे के बोल ही मान्यता पा सकते हैं। यानी मनमोहन सिंह की व्यवस्था में पैसा कमाना ही पहला और आखिरी सच बन चुका है। ऐसे में लोकतंत्र का कोई खम्भा यह दावा नहीं करता कि बगैर उसके देश नहीं चल सकता और कोई खम्भा यह भी नहीं सोच पाता कि उसकी मौजूदगी तो चेक एंड बैलेंस के तहत है। इसीलिये राजनीति से सरोकार के पारंपरिक मूल्य भी बदले हैं। जो मीडिया पहले राजनीतिक सत्ता को अपनी लेखनी से प्रभावित करता था अब वह वित्तीय संस्थानों और कॉरपोरेट घरानों को प्रभावित करने लगा है। पहले राजनीति ही पत्रकार की मंजिल हो जाया करती थी। अब कॉरपोरेट घरानों से उसका सरोकार बढ़ा तो मंजिल भी कॉरपोरेट घराने हो चले हैं।
इसका असर पत्रकारीय क्षेत्र में कारपोरेट घरानों के लिये काम कर रहे पत्रकारो की फौज से भी समझा जा सकता है। दो सौ से ज्यादा पत्रकार दिल्ली के राजनीतिक गलियारो में या नौकरशाहो के दप्तरो में अपने अपने आकाओं के धंधे के मुनाफे के लिये दस्तावेज जुगाड़ने से लेकर राजनीतिक लॉबिंग करते नजर आते हैं। इन पत्रकारो ने पारंपरिक पत्रकारिता छोड़ कर कॉरपोरेट सेक्टर के मीडिया ब्रांच में नौकरी करना ज्यादा बेहतर समझा। इसलिये अब बाबूओ के दप्तरो से कोई पत्रकार किसी दस्तावेज को नहीं पाता। क्योंकि कभी खबरों के लिये या कहे देश हित के लिये जो बाबू मुफ्त में पत्रकारों को दस्तावेज दे देता था, अब उस दस्तावेज की कीमत लगने लगी है। और कॉरपोरेट सेक्टर हित-अहित देखकर दस्तावेजों को मीडिया में रिलीज करता है और उन दस्तावेजो को कोई ना कोई पत्रकार जो कॉरपोरेट के लिये काम कर रहा है , अनमोल कीमत देकर खरीद लेता है। यानी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक को अगर फक्र होता कि वह पत्रकार भी रह चुके थे और संपादक मंडली के कई बड़े पत्रकारों ने अगर राजनीति में सीधी भागेदारी करके यह जताया कि वह जनता की सेवा राजनीति में आकर करना चाहते थे तो मनमोहन सिंह के दौर में हालात बिलकुल बदल चुके हैं। अब पत्रकार का रास्ता कॉरपोरेट घरानो की दिशा में जाता है। और किसी कंपनी का मालिक या कॉरपोरेट घराने में नीतियों को बनाने में लगा कोई व्यक्ति कह सकता है कि वह भी पत्रकार है। और जो यह बात कह रहे हैं या कहेंगे उनकी मान्यता सत्ता से लेकर मीडिया के क्षेत्र में भी ज्यादा होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिये लॉबिग या कॉकस बनाने पर मीडिया या पत्रकार को घेरकर यह सवाल तो उठाया जा सकता है कि पत्रकारिता पटरी से उतर चुकी है लेकिन संसदीय राजनीति का लोकतंत्र ही पटरी से उतर चुका है, इस पर बहस नहीं की जा सकती । इसीलिये प्रेस कान्फ्रेन्स में प्रधानमंत्री से कोई पत्रकार बीते छह साल में एक लाख से ज्यादा किसानो की खुदकुशी पर कुछ नहीं पूछता । बीपीएल का आंकडा 47 करोड़ पहुंच जाने पर कोई सवाल नहीं करता। रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 12 करोड़ पहुंचने के कारणों पर सवाल नहीं करता तो समझना यह भी होगा कि मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहकर मीडिया कहकहा तो लगा सकती है लेकिन इस सच को अपने अक्स में देखना नहीं चाहती कि कमजोर कहने की ताकत भी वही सत्ता दे रही है, जो दिनोंदिन मजबूत होती जा रही है। और उसका राजनीतिक विकल्प अब भी पारंपरिक संसदीय राजनीति में देखा जा रहा है जो खुद मनमोहन की अर्थनीति से लाभ कमाने में जुटी है और आम जनता से कट चुकी है ।
15 comments:
Manmohan jaise log bharat ki janta ka nabz samajhte hai. bharat ki janta apna jeb bharane mein lage hai. inhe jab bhukh lagegi tab chillayenge
"लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी उठेगा की 2009 के चुनाव में तो मनमोहन सिंह की राजनीति के खिलाफ संसदीय राजनीति के जरीये अपना कद बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी मैदान में थे। तो फिर जनता ने उन्हें खारिज क्यों कर दिया। जबकि आम जनता से सरोकार की बात आडवाणी ताल ठोंककर करते रहे और मनमोहन के सरोकार आम आदमी से नहीं है,..."
मनमोहन सिंह की अपनी आइडेंटीटी होती तो बन्दा एक बार तो लोक सभा के जरिये जनता में खुद के लिए वोट मांगने जाता, राज्य सभा से नहीं !
रही बात जीतने हारने की तो जनता बेवकूफ है , अत: भुगत रही है आजकल , और रही सही कसर वोट बैंक पूरी कर देता है, जिसे इस देश से कुछ नहीं लेना देना !
सर
जनता की अदालत में तो मनमोहन सिंह जी जा तो चुके हैं। ये अलग बात है कि तब सत्ता के केंद्र दिल्ली की ही जनता ने उन्हें नकार दिया था। ऐसे में बैक डोर राज्यसभा ही बचती है। पर क्या ये भी सच नहीं है कि 2009 के चुनाव को कांग्रेस की जीत से ज्यादा विपक्ष की हार न माना जाए। मीडिया में आई गिरावट की वजह हम सब जानते हैं। संसदीय प्रणाली कब तक पटरी से उतरी रहेगी कहा नहीं जा सकता। आखिर देश के लोगो के पास कोई विकल्प भी तो नहीं है। जो भी पार्टी है उसके पास ऐसा कौन सा कार्यक्रम है जो जनता को विश्ववास दिलाए। अगर है भी तो जनता की समझ में जबतक आएगा नहीं, तब तक कुछ होने वाला नहीं। सधारण बहुमत के खेल में पूंजी तो आसानी से जीतेगी है। यही तो वो मैदान है जहां पूंजी बिगड़ी बिसात को अपने पक्ष में कर लेती है। वोट देने से परहेज करता मध्यम वर्ग बदलाव इतना ही चाहता है कि वो आसानी से भौतिक सुविधा जोड़ सके, उच्च वर्ग से उपर नहीं तो उनकी कुछ नकल कर सके। रही आम जनता तो वो तो पूरी तरह से निराश है।
टेलिविज़न मीडिया एक बन्दर है जिसने अपनी विश्वस्नीयता खो दी है.
इस बन्दर ने विज्ञापनों के अंगूरी पैसों से बनी मदिरा पी रखी है इस पर “सर्वशक्तीमान होने के अहंकार” के बिच्छू ने इसे डस लिया है. अब हालात इतने खतरनाक हो चुके हैं, कि “भ्रष्ट नेताओं तथा उधोगपतियों” का भूत इसकी सवारी कर रहा है.”
kya baat kahi hai...
samvedna ke swar ...jai ho!
गोदियाल जी से सहमत अगर वास्तब में आप हौसले वाले विश्पक्ष पत्रकार हो तो वक्त निकालकर हमारे दे लेख(प्रधानमन्त्री मनमोहन खान की साऊदी अरब यात्रा) व (देशभक्त कांग्रेसियों के नाम खुला संदेश पढकर अपनी राय जरूर देना।आप चाहेगे तो हम अपनी कही हर बात का प्रमाण आपको देंगे। बैसे जो हमने कहा है वो प्रमाण सहित ही है
@सम्वेदना के स्वर said... टेलिविज़न मीडिया एक बन्दर है जिसने अपनी विश्वस्नीयता खो दी है.
इस बन्दर ने विज्ञापनों के अंगूरी पैसों से बनी मदिरा पी रखी है इस पर “सर्वशक्तीमान होने के अहंकार” के बिच्छू ने इसे डस लिया है. अब हालात इतने खतरनाक हो चुके हैं, कि “भ्रष्ट नेताओं तथा उधोगपतियों” का भूत इसकी सवारी कर रहा है.”
बेहतरीन कमेन्ट ,चूँकि मैंने आधे अधूरे प्रोफाइल वाले ब्लॉग पर भी कमेन्ट देना बंद कर दिया है ,लेकिन इस टिपण्णी करने वाले जनाब से मेरी फोन पर पहचान है ,इसलिए इस बेहतरीन टिपण्णी पर प्रतिकिर्या देने की अपनी इक्षा को रोक नहीं सका | इसमें मैं इतना और जोड़ना चाहूँगा की प्रसून जी आप बहुत ही अच्छा और सार्थक बहस पर लिख रहें हैं ,ऐसे ही अगर आपके जैसे सारे पत्रकार ब्लॉग पर भी लिखना शुरू कर दे तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा |
RAH PE CHALTE KABHI US SHAKSH KO DEKHA HAI JO SIR SE PAAW TAK KHUN SE LATPATH HAI ,HAR KOI USE IGNORE KAR RAHA HAI,KUCH AISE KI KUCHH HUAA HI NAHI AUR LOG USKE PAS HI KHADE HOKAR HASI THATA KAR RAHE HAI, KISI NE USASE NAHI PUCHHA KI KAISE HUA YA HOSPITAL LE CHALE. IS GARMI KI DOPAHAR ME YADI KOI BRIDH MAHILA FOODPATH PE YOO HI LETI HO,TO KYA KISI NE USASE PUCHHA HAI KI TUM IS TARAH YAHA KYO HO? NAHI , KOI KISI SE NAHI PUCHTA ,KYOKI SABHI AKELE HAI.ISLIYE, MEDIA KI TARAF SE AGAR SAWAL NAHI PUCHHE JAATE TO KAUN SE AASCHARYA JANAK GHATNA GHAT GAI HAI. JANTA KE BHITAR KITANI SANWEDNA SHESH HI KI SARKAR SE HAM AAS LAGAYE. JANTA KHUD KO NAGRIK KE TAUR PE NAHI UPBHOKTA KE TAUR PE DEKHTI HAI TABHI AAJ MAHMOHAN SATTA ME HAI.PATRAKAR HONE KA GUMAAN AAJ KOI NAHI KARNA CHAHTA ,YAHI WAJAH HAI KI SATTA KE GALIYARE ME AB INKI SIRF PUCHH HILTI HAI. CHANNELS PAR AAKAR JAB KOI NETA PATRKAR KO CHUP HONE PAR MAJBOOR KAR DETA HAI TABHI DIKHTA HAI KI SATTA KE HONE KA MATLAB KYA HAI. JAB KALAM SE BHI BAAT N BANE AUR APNI JABAN KO BHI KAST DEKAR N BAAT BANE TO PHIR KYA KIYAA JAY? JONH MILTON NE TO APNI AAKHE KHO DI THI PAR UNHE NAZ TO THA KI JIS MAKSAD KO UNHONE CHAHA THA WO UNHE MIL GAYA PAR AISA AAJ KAUN HAI JO SATTA KE CHULHE HILA DE?
आप इसकी चिंता न करें। मुझे तो लगता है अब किसी पर भी विश्वास का जमाना ही नहीं रहा। पिछले लेख में भी आपने तथ्यों को छुपाया, जो कहीं से भी यथोचित नहीं है। आपको मीडिया के दलालों के नाम प्रकाशित करने चाहिए थे।
खैर! जब अपनी गोटी हर कोई सेंक रहा है तो कोई भी पीछे क्यों रहे!
प्रसून जी आप के लेख को पढ़ कर गालिब का एक शेर याद आ रहा है।
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह में रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
देखिए प्रसून जी मनमोहन सिंह की जहां तक बात है वो तो UPA सरकार की देन है जो प्रधानमंत्री बन गये वो भी बिना चुनाव जीते... कभी मैदान में उतरे तो गांव में होने वाले प्रधानी के चुनाव भी न जीत पाएंगे,और दूसरी बात कि इस कृर्षि प्रधान देश में इतनी मंहगाई है कि गरीबो की जो पूरानी कहावत है कि दाल रोटी खाएंगे प्रभू के गुण गांएगे, अब गरीब लोग क्या कहावते कहेगे क्योकि आप की सरकार ने तो कहावत और नेवाला दोनो छीन लिया। मुझे मुराद लखनवी का शेर याद आ रहा है कि...
सारे बदन का खून पसीने में जल गया
इतना चले कि जिस्म हमारा पिघल गया
चलते ही गिन रहे थे मुसीबत के रात दिन
दम लेने हम जो बैठ गये दम निकल गया
अच्छा हुआ जो राह में ठोकर लगी हमें
हम गिर पडे तो सारा जमाना संभल गया
वहशत में कोई साथ हमारा न दे सका
दामन की फिक्र की तो गरेबां निकल गया
इस मंहगाई में जेब में पैसे न रहे तो पता चलता है।प्रधानमंत्री और उनकी पूरी टीम बिना पैसे के औऱ बिना कुछ खाये पूरा दिन रह ले,तो पता चलेगा कि क्या है मंहगाई और क्या है गरीबी
प्रसून जी लेख अच्छा है पर मैं कुछ और कहने की कोशिश कर रहा हूं। पहली बात तो यह कि आप लिख रहे हैं कि
बीते पांच साल में लखपति और करोड़पतियों की तादाद में अगर दशमलव सात फीसदी बढ़ोतरी हो गयी तो गरीबी की रेखा से नीचे की तादाद में सात फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। यानी आर्थिक नीतियो का लाभ अगर देश के एक करोड़ लोगों को परोक्ष-अपरोक्ष हुआ या उन्हें लगा कि आर्थिक सुधार से वह उपभोक्ता हो गया तो सीधा नुकसान 10 करोड़ से ज्यादा लोगो को हुआ।
अच्छी बात है पर क्या आप जानते हैं कि बीपीएल सूची में नाम जुड़वाने के लिए गरीब होने की जरूरत नहीं। जुगाड़ की जरूरत है। इसलिए मेरा मानना है कि जो आंकड़ा आप दे रहे हैं वह भ्रामक हो सकता है। बहुत से गरीब फर्जी भी हो सकते हैं।
दूसरी बात आपने लिखा है कि
"लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी उठेगा की 2009 के चुनाव में तो मनमोहन सिंह की राजनीति के खिलाफ संसदीय राजनीति के जरीये अपना कद बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी मैदान में थे। तो फिर जनता ने उन्हें खारिज क्यों कर दिया। जबकि आम जनता से सरोकार की बात आडवाणी ताल ठोंककर करते रहे और मनमोहन के सरोकार आम आदमी से नहीं है
तो साहब आप सुन ही रहे होंगे कि हैदराबाद की नेटइंडिया कंपनी के बाद अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने भी यह साबित कर दिया है कि इवीएम के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है। क्या गारंटी है कि जनता ने यूपीए को चुना हो। कहीं गड़बड़ी तो नहीं की गई। फिर कैसे कहा जा सकता है आडवाणी के मुकाबले लोगों ने मनमोहन को पसंद किया।
मेरी बात खत्म अब आप बताइए।
http://udbhavna.blogspot.com/
bohot jayda complaint hai media se jo bhi hua media ke hato se kyun nahi ish mudda ko uttaya gaya kyuuuu.... behaad dukh hai mujhe.......
kaise kahu ki mitti ke hukum murano ne aisa feshla de diya jo mere haq mai na ho.....
jab ke mai he hu ush ko sehne wala...
aaj jb badi khabar dekunga jab he bolg ko update karunga dekene chata hu jis ko mai apna idol khete hu woh kya kheta hai ish ko ....
paroon u r my idol n i always would like to admire to you...
u r great but what the hell is going on after 25 year only 2 year....
never very angry...
वाजपेयी जी आपने कुछ ऐसी बातें लिखी है जिनपर क्या कहा जाये ये सोचने के लिये अभी कुछ साल और लगेगे...लेकिन हर कोई गरीब की बात करता है अमीर की बात करता है लेकिन मध्यमवर्गीय की बात कोई नहीं करता जिसकी जेब से सरकारे चलती है जो बाज़ार का सबसे बड़ा उपभोक्ता है...अब यही मध्यमवर्गीय गरीबी को ओर बढ़ चला है....और ये सब मनमोहन की नीतियों का नतीजा और दुख है कि कांग्रेस सरकार में वापसी भी कर लेती है.
aaj telivisionmedia apne mukhy raaste se bhatak kar kewal netaaon ,raajnetaaon ke peechhe lagaa rahtaa hai jab ki ye raaj netaa media se darte to hain magar fir bhi inki baaton ko koi khaas tool nahin dete ,aaj media ko chaahiye ki innetaaon or raajnetaaon ko sahi raaste par laakar inse jantaa ko justice dilaaye varnaa ek din inko sarkaar ret ke mahal ki bhaanti dah jaayegi kyon ki ye log khaali apni roti senkne me lage hain inko jantaa se kuchh lenaa denaa nahin hain ye to jantaa ko vot lene ke liye chunaaw men yaad karte hain
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