Wednesday, June 23, 2010

उम्मीद की विरासत में "रावण" और “शिंबोर्स्का”

विरासत में हमें उम्मीद भी मिली है.....पहली बार इसे पढ़ें तो लगता है कुछ अपनी कहानी है। कुछ देर बाद फिर इन पंक्तियो में झांके तो लगता है कि इस आग्रह ने मनुष्य को शिथिल बना दिया है। और कुछ पढ़ कर अगर आंखों के सामने तैरते समाज के अक्स में इन पंक्तियो को फिर से पढ़ें तो समझ जायेगें कि इस देश में बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है?

उम्मीद के आसरे फिल्म रावण देखने गया। उम्मीद के आसरे नोबेल विजेता पोलिश कवियित्री विस्वावा शिंबोर्स्का की रचनाओं को पढ़ा। फिल्म रावण का जिक्र इतना कर ही किया जा सकता है कि मणिरत्नम अभिषेक बच्चन को कलाकार नहीं बना सकते...यह उन्हें मान लेना चाहिये। कैमरा...कोरियोग्राफी और एडिटिंग फिल्म नहीं होती। फिल्म कहानी और कलाकार के मिश्रण से भी बनती है जो दो से तीन घंटे बाद पोयटिक जस्टिस करके उम्मीद छोड़ जाती है। लेकिन फिल्म देखने से पैदा हुई निराशा को तोड़ने के लिये शिंबोर्स्का की कविता ने सच को डिगाया.....

उम्र चाहे जितनी लंबी हो
/ विवरण संक्षिप्त होना चाहिये / जरुरी यह है कि कुछ चुने हुये तथ्य / तरतीबवार लिख दिये जायें/ दृश्यों की जगह पते ले लें/ धुंधली यादों की जगह / स्पष्ट तारीख दें / प्यार चाहे कितनी बार किया हो / जिक्र सिर्फ शादी का करें / और उन्हीं बच्चों का जो जन्म ले सके । पढ़ते ही लंदन में रावण के प्रीमियर का दृश्य घूम उठा। अमिताभ बच्चन से सवाल पूछा गया कि अभिषेक तो बिजनेस के घंधे में जाना चाहते थे लेकिन फिल्मो में कैसे आ गये ....क्या आपने उसे मनाया। बच्चन का जवाब था- एक दिन अचानक अभिषेक आया और बोला कि वह फिल्मों में काम करेगा। बस फिर फिल्मों का सिलसिला चल पड़ा। तो आप खुश हुये। बिलकुल । जब आपकी लाइन में बेटा भी आ जाये तो खुशी तो होगी ही। कितनी जायज खुशी है यह ....सोचा अगर हरिवंश राय बच्चन सोचते कि मुन्ना भी कवि बन जाये और अमिताभ कहीं कविता लिख रहे होते.....नहीं अमिताभ ऐसा करते नहीं क्योंकि उन्होंने पिता हरिवंश राय बच्चन की गरीबी को अपनी नंगी आंखों से देखा है।

रात के दो बजे-तीन बजे बच्चन जी जब कविता पाठ कर घर लौटते तो अमिताभ कई बार घर का दरवाजा खोलते और पिता से यह सवाल भी कर बैठते ...जरुरत क्या है इतनी रात.......तब हरिवंश राय बच्चन का यही जबाव होता-
बेटा पैसे आसानी से नहीं मिलते। लेकिन इलाहबाद से चला तो मुंबई का सफर बदला भी। जब रात बे रात अमिताभ बच्चन शूटिंग कर घर लौटते तो बच्चन जी दरवाज खोलते और सवाल करते ....इतनी रात.....जरुरत क्या है इतने पैसों की। हो सकता है कभी अमिताभ ने भी जवाब दिया हो कि पैसे आसानी से नहीं मिलते। लेकिन मुंबई से मुंबई के इस सफर में अभिषेक विराम है इससे इंकार नहीं किया जा सकता । रावण फिल्म में पैसा अनिल धीरुभाई अंबानी का लगा है। नायिका घर की बहू एश्वर्या है। निर्देशक मणिरत्नम यूं ही नहीं हैं। तमिल फिल्म भी साथ बनाने का समझौता भी पैसा लगाने वाले के साथ पहले ही किया गया। यानी मणिरत्नम को अंदाज पहले से था ....फिल्म तमिल में ही चलेगी। और अदाकारी विक्रम की ही होगी। इसलिये रावण और रावणा देखते वक्त आपका एहसास जाग सकता है कि लगा जो संगीत...जो दृश्य ....तो भाव-भंगिमा फिल्म को गूथती है, वह उस रावण की है ही नहीं, जिसे रामचरितमानस में तुलसीदास जीते हैं।

चित्रकूट से सीता हरण का किस्सा एश्वर्या के अपहरण में कहीं फिट बैठता नहीं। रामचरितमानस पढ़ते वक्त आपको एक एहसास यह भी हो सकता है कि जहां जहां सीता के पांव पडते हैं, वहां की खूबसूरती निखर उठती है। लेकिन फिल्म में खूबसूरत दृश्यों में किसी मॉडल की तरह एश्वर्या चस्पा हो जाती हैं । और अभिषेक आदिवासी या रावण की तरह चस्पा इसलिये नहीं हो पाते क्योंकि दोनों के परिवेश का कैनवास इतना बड़ा है कि कैमरे उसे समेट नही सकते। रावण जिस न्याय की लड़ाई लडता है, वह आदिवासियों के संघर्ष का पसंगा भी नहीं है। और अमिषेक की पहचान चाहे पूरी फिल्म में झिक-झिक
, झिक-झिक,झिक-झिक, झिक-झिकझिक-झिक, झिक-झिकझिक-झिक, झिक-झिकझिक-झिक, झिक-झिक.....दस सिर कहने से आगे न बढ़ पायी हो लेकिन इस देश में संघर्ष, करने वाले आदिवासी एक सत्ता-सरकार को चेताने की अवस्था में आ रहे है, और कैमरा इसे कैसे पकडेगा।

जाहिर है मणिरत्नम को यही पर राम-रावण का भेद खड़ा करना था। सो फिल्म में फैसला तत्काल लिया गया। और राम बनी सत्ता-सरकार तत्काल रावण हो गयी और रावण का चरित्र राम सरीखा लगने लगा। लेकिन रावण देखने के बाद शिंबोर्स्का की कविताओ को पढ़ते वक्त बेहद साफ लगा कि अभी हम सच को सच बताने की स्थिति में नही आये हैं..... क्या किसी बाज ने अपना गुनाह माना है
?/ शिकार पर छपटने से पहले कभी झिझका है कोई चीता? / डंक मारते हुये बिच्छू शर्मिंदा नहीं था/ और अगर सांप के हाथ होते/ वह भी बेदाग ही बताते/ भेडिए को किसी ने पछताते हुये नहीं देखा / शेर हो या जुएं--- / खून पूरी आस्था से पीते है/ और क्यों ना हो / जबकि वे जानते हैं / कि रास्ता उन्हीं का सही है / नरभक्षी व्हेल का दिल यों / चाहे एक टन का हो / और सभी मायनो में बिलकुल हल्का होता है / सूर्यमाला के तीसरे ग्रह पर / पशुता की पहली निशानी है / निर्द्वन्द आत्मा और अडिग विश्वास। .....हो सकता है यही भरोसा अभिषेक को खुद पर और अमिताभ को अभिषेक पर हो । लेकिन सवाल मणिरत्नम का है.....इसीलिये कवियित्रि शिंबोर्स्का को पढ़ें तो अहसास होगा समाज में रावण को भी अच्छा काम करते वक्त रावण नहीं राम ही कहा जायेगा और राम का बुरा काम भी राम के मत्थे नहीं मढा जायेगा...बल्कि वह रावण के ही हिस्से में चला जायेगा।.......क्या वाकई विरासत में मिली उम्मीद सही है?

8 comments:

डॉ .अनुराग said...

हम चाहे शब्दों के कितने खेल खेल ले .....तोड़ मोड़ करके कितनी व्याख्या कर ले .....पर इस फिल्म को...इसके सब्जेक्ट को बेहतरीन नहीं बना सकते.....फिल्म सिर्फ संतोष शिवन की है ....मणि रत्नम फेक्टर गायब है ....जब युवा देखता हूँ या दिलसे को याद करता हूँ तो उसके पीछे के सन्देश को भी याद करता हूँ या एक थीम को पकड़ता हूँ....युवा में सन्देश साफ़ था अगर बदलाव लाना है तो युवा पीढ़ी को सत्ता में दाखिल होना पड़ेगा.....दिल से नायक अपने प्यार ओर देश दोनों के साथ न्याय करता है ....बॉम्बे एक लव स्टोरी के बहाने कई सवालों को साथ उठाती थी.........यहाँ तर्क गायब है ....एक हिस्से के तर्क है......मणि रत्नम में एक खूबी थी वे किसी कंटेंट को कमर्शियल एंगल के साथ समान्तर रखते हुए आम दर्शक को अपने साथ जोड़े रखते थे .........यहाँ वे अपनी क्लास से अलग होते प्रतीत हुए है .......अमिताभ पिछले कुछ सालो से सिर्फ पिता सरीखा व्योव्हार करने लगे है .निष्पक्ष कलाकार सा नहीं.....

Sarita Chaturvedi said...

WHAT'S IN A NAME? ROMEO AND JULIET KA YE QUOTE YAHI GALAT HO JATA HAI, KYOKI RAM RAM HI RAHEGA AUR RAWAN RAWAN HI RAHEGA. ISLIYE , VIRASAT ME HAR MILI UMMID SAHI NAHI HO SAKTI.

anoop joshi said...

good review sir.

Pratibha Katiyar said...

आपसे नारा$जगी है प्रसून जी. शिंबोस्र्का की कविताओं को आपने जाया किया है. ये अच्छी बात नहीं.

पंकज मिश्रा said...

प्रसून जी बहुत सटीक विश्लेषण किया है आपने। मैंने तो बहुत दिन बाद कोइ्र फिल्म फस्र्ट डे फस्र्ट शो देखी, वह भी इतनी घटिया।
बात जहां तक अमिताभ की है। उनकी और अभिषेक की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि दोनों में से कोई भी यह मानने को तैयार नहीं कि अभिषेक अभिनय नहीं कर सकते। इतना समय हो गया है अभिषेक को लेकिन एक आध फिल्म छोड़ दे तो किसी भी फिल्म में वे अभिनय करते नहीं दिखे। जिस व्यक्ति से मणिरत्नम अभिनय नहीं करा सकते उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। पहले यह कहा गया कि उन्हें अच्छे निर्देशक नहीं मिले इसलिए उनकी प्रतिभा नहीं निखर कर नहीं आ रही है। अब उन्हें और कौन सा निर्देशक चाहिए। यह बड़ा सवाल है। अभिषेक पढ़े लिखे है नौजवान हैं उन्हें नौकरी मिल सकती है या फिल्म बिजनेस भी कर सकते हैं। वे बेवजह यहां समय बर्बाद कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि अमिताभ कह रहे हैँ कि फिल्म का संपादन ठीक प्रकार से नहीं हुआ। अरे संपादक का क्या खुद थोड़े ही अभिनय करेगा। उसे जो कुछ मिला है उसी से ही सर्वश्रेष्ठ देगा ना। टीवी का तो पता नहीं पर अखबार में अक्सर ऐसे आरोप रिपोर्टर डेस्क वालों पर लगाते हैं। खैर अब अमिताभ और अभिषेक की मर्जी हम और आप क्या कर सकते हैं।

सम्वेदना के स्वर said...

पुण्य प्रसून जी! आपकी पूरी समीक्षा का निचोड़ अंतिम पंक्तियों में समाया है… जो बात आपने कह दी, उसके बाद फिल्म का औचित्य समाप्त हो जाता है... दरसल इस फिल्म के पहले भाग को संतोष शिवन के भरोसे नेशनल ज्योग्रैफिक की तरह बनाया गया है... यह खेल हम पहले भी अशोका में देख चुके हैं... बीरा को ओंकारा बनाने के लिए जितना ओजपूर्ण गीत लिखा गया और संगीतबद्ध किया गया, वो सब अभिषेक के अभिनय ने मिट्टी में मिला दिया (यदि उसे अभिनय कहें तो)... सभी सहकलाकारों ने बहुत अच्छा काम किया है...

Richa Sakalley said...

सही है सर..."हमें विरासत में उम्मीद भी मिली है...और मिला है विस्मृति का वरदान,तुम देखोगे कि किस तरह हम,विनाश के बीच सृजन के बीज बोते हैं.."- विस्साव शिंबोर्स्का

न तो मणिरत्नम की 'रामायण' में दम था और न ही प्रकाश झा की 'महाभारत' में...

अब ऐसा तो था नहीं कि मणिरत्नम नहीं जानते कि अभिषेक के बस का बीरां का रोल था नहीं...हिन्दी के दर्शक भी अभिषेक को देव के रोल में पसंद करते और विक्रम को बीरां के रोल में...विक्रम की अदाकारी से सब वाकिफ हैं और अपरिचित फिल्म में उन्होंने जैसा डर पैदा किया वो रावण में बीरां बनकर भी पैदा कर देते उन्हें किस झिक-झिक झिक झिक की जरुरत नहीं पड़ती लेकिन मणिरत्नम दबाव में बो रहे थे सृजन के बीज...और वो ये भी जानते हैं कि जो फायदा उन्हें लेना था वो तमिल फिल्म के जरिए उठा लेंगे..विस्मृति का वरदान तो दर्शकों को मिला ही हुआ है...ऋचा साकल्ले

दीपक बाबा said...

वैसे में ज्यादा फिल्मे तो देखता नहीं, पर राजनीति देखने का मन था - नहीं देखि. पर रावण देखने का मन तो बिलकुल ही नहीं था. कारन जो भी - अब अपने को दिल की आवाज पर भरोसा हो गया है.
दूसरी बात, जिस प्रकार आज राजनीतिक परिवारों के बच्चे - राजनीती का कक्काहरा सिखने के लिए तुरंत विधयक की टिकट से सुरुवात करते हैं - उसी प्रकार अभिषेक बच्चन जैसे अदाकार भी सिर्फ बाप हीरो था इसलिए फिल्म में हीरो बन जाते हैं.