हो-हल्ला और जोर जोर की आवाज सुनकर सदाकत आश्रम के पीछे जैसे ही घुसा तो सैकड़ों पार्सल पैकेटों पर नजर पड़ी। इन पैकेटों को लेने को लेकर कुछ कांग्रेसी चिल्ला रहे थे। किसको कितने पार्सल देने हैं यह फाइल लिये एक महिला बता रही थी, बल्कि वो बाकियों पर चिल्ला रही थी। सैकड़ों की तादाद में जमीन पर बिखरे पड़े इन पार्सलों में है क्या... पूछने पर पता चला कि दो किलोग्राम से दस किलोग्राम तक के इन पार्सल पैकटों में चुनाव प्रचार की सामग्री है। जो हर कांग्रेसी उम्मीदवार को बांटी जा रही है। जिसमें गांधी परिवार के सदस्यों की ही तस्वीर,पोस्टर या बैनर है। इसके अलावा बैच और गले में लपेटने के लिये कांग्रेसी गमछा भी है, जिसमें गांधी परिवार की ही तस्वीर है। इस हंगामे को सुनता या कुछ और जानना चाहता, इससे पहले अचानक कांग्रेस हेडक्वार्टर के पिछवाड़े में टीन के शेड तले गदंगी और कूड़े के बीच पड़ी राजीव गांधी की मटमैली मूर्ति पर नजर पड़ी। शेड के नीचे एक एम्बेसडर कार लगी थी और पास कूड़े तले राजीव गांधी की डेढ फुट की इस मूर्ति की छांव में एक कुत्ता भी मजे में सो रहा था।
असल में यह पूरी तस्वीर ही बिहार में कांग्रेस के हाल को बयां कर रही थी। जिस जगह पर पार्सल में प्रचार के लिये गांधी परिवार को लेने की होड़ थी वह सदाकत आश्रम का मजबूत कंक्रीट का हिस्सा था। जबकि जिस टीन के शेड में राजीव गांधी की मूर्ति आंसू बहा रही थी, वह 1966 से पहले के कुछ बरस के दौरान सदाकत आश्रम की पहचान समेटे हुये था। पता चला कि जिस शेड में आज राजीव गांधी की मूर्ति तले कुत्ता मजे में सो रहा है कभी इसी शेड पर खपरैल थी और इसके तले सैकड़ों कांग्रेसी भी सोये हैं। 1962 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन पहली और आखिरी बार पटना में हुआ था। तब सदाकत आश्रम की इमारत तैयार नहीं हुई थी। लेकिन, सदाकत आश्रम की नींव इसी टीन के शेड में थी और बडी तादाद में कांग्रेसियों का हूजुम यहां पुआल-दरी और सफेद चादर के ऊपर पटा पडा रहता था। 1962 में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के अध्य़क्ष थे और नेहरू ने अपने भाषण में चंपारण की यात्रा के जरिये महात्मा गांधी को याद किया था लेकिन राजेन्द्र प्रसाद पर खामोशी बरती थी जिनकी मौजूदगी से सदाकत आश्रम आबाद हुआ था। इस अदिवेसन के अगले ही साल 1963 में राजेन्द्र प्रसाद की मौत हुई और सदाकत आश्रम में सूनापन छा गया।
मगर 2 अक्टूबर 1966 को जैसे ही सदाकत आश्रम की कंक्रीट की इमारत का उद्घाटन हुआ वैसे ही सदाकत आश्रम का मिजाज बदला और आश्रम दफ्तर में तब्दील हो गया। लेकिन सदाकत आश्रम की पहचान बदलने के 44 साल बाद कांग्रेस की इबारतें भी बदल जायेंगी...यह किसने सोचा होगा। कंक्रीट के बने सदाकत आश्रम की पहली मंजिल में एयर कंडीशनर फिट कर रहे रामानुज को इस बात से परेशान है कि तीन एसी तो वह फिट कर देंगें लेकिन करंट कहा से आयेगा इसकी कोई व्यवस्था बिल्डिंग में है ही नहीं । यानी पावर प्वाइंट है लेकिन उसमें करंट नहीं है यानी तार तक नहीं है। यह एसी बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष लल्लन कुमार के कमरे में लग रहा है। जहां तक करंट यानी पावर नहीं पहुंचा है। लेकिन, कांग्रेसियों को क्या लगने लगा है कि अब बिहार में पावर उनके हाथ आ सकता है। शायद सदाकत आश्रम की इमारत की तरह ही बिहार में कांग्रेस भी है। एसी है तो पावर नहीं...इसी तरह पैसा है लेकिन उम्मीदवार नहीं। कोई नेता ऐसा नहीं जिसके आसरे मुद्दों को लेकर आस जगायी जा सके या फिर कांग्रेस में आस जगे कि वह चुनावी दौड़ में है। दिल्ली की छांव तले बिहार में कांग्रेस को जगाने की कवायद का असर सिर्फ इतना है कि बाजार का ग्लैमर विकास की परिभाषा में जोड़ने की सोच प्रवक्ताओ में रेंगनी लगी है।
दीवारों पर महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के दौर के बीच तमाम उन कांग्रेसियो की तस्वीरें धूमिल हो चुकी हैं जिन्होंने बिहार में कभी कांग्रेस को खडा किया था। इसलिये उम्मीदवारों की होड़ चुनाव में जीतने या कांग्रेस की पैठ बढ़ाने से ज्यादा कांग्रेसी पैसे को कमाने पर है। उम्मीदवारों को 75 लाख रूपये लड़ने के लिये मिलेंगे...यह सच हो या शिगूफा लेकिन कांग्रेस का टिकट पाने के लिये असली होड़ की वजह यही है। क्योंकि सदाकत आश्रम का इतिहास किसी सूचना पटल की तरह एकदम सीढि़यों पर चढ़ने से पहले ही नजर आता है। जिसमें 1921 से लेकर 2010 तक के 37 अध्यक्षों को जिक्र है। बीते इक्कीस साल यानी 1989 से लेकर 2010 के दौरान कांग्रेस ने सबसे बुरे दिन बिहार में देखे हैं और इसी दौर में सबसे ज्यादा अध्यक्ष भी बने और बदले गये। 13 प्रदेश अध्यक्ष इन 21 साल में बने और हटे। लेकिन कोई भरोसे का चेहरा ऐसा नहीं मिला जो कांग्रेस की वैतरणी को पार लगा दे।
1921 में पहले अध्य़क्ष मो. मजरुल हक थे और 90 साल बाद 2010 में अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कौसर हैं। लेकिन, मुस्लिमों का भरोसा बिहार में डगमगाया हुआ है। सिर्फ नाम के जरिये नुमाइंदगी किसी भी कौम में कैसे हो सकती है यह सवाल कोई आम मुस्लिम नहीं बल्कि टिकट की चाहत में सदाकत आश्रम पहुंचे बेलागंज के मो. इकराम और आरा के डॉ. अब्दुल मलिक भी खडा करते हैं। चुनाव के ऐलान से ऐन पहले बिहार प्रदेश अध्यक्ष बन महबूब अली कौसर इतनी हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं कि वह सदाकत आश्रम में आकर बैठ जायें। कौसर ही नहीं पदों पर बैठे किसी भी कांग्रेसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह जूते-चप्पल और गाली गलौज को रोककर कांग्रेसी परंपरा की दुहाई दे। सदाकत आश्रम के दरवाजे दरवाजे पर अपनी हूकुमती अंदाज में घुमते कांग्रेसी कार्यकर्ता जयलक्ष्मी तो सीधे कहती हैं, जो हो रहा है उसमें तो कांग्रेस का लालूकरण हो जायेगा। इसे रोकिये हर कोई राहुल गांधी और सोनिया गांधी की ओर ही टकटकी लगाये बैठा है। यहां ना कोई महिला है, ना कोई युवा, और ना ही कोई पुराना कांग्रेसी। जो धंधेबाज है, माफिया है वही टिकट ले जा रहे हैं। क्योंकि टिकट की भी कीमत लग रही है और कांग्रेसी खुश हैं कि पहली बार टिकटों को लेकर मारामारी है यानी कांग्रेस लोकप्रिय हो चली है।
लेकिन कांग्रेस का सच तो कांग्रेस शताब्दी कक्ष तले भी रो रहा है। 14 अक्टूबर 1984 को चन्द्रशेखर सिंह ने शताब्दी कक्ष का उद्घाटन करते हुये कहा था अब कांग्रेस ही देश का सच है और देश के इतिहास के साथ कांग्रेस का इतिहास जुड़ चुका है और इस इबारत को मिटाने की हैसियत इस देश में किसी राजनीतिक दल की नहीं है। लेकिन शताब्दी कक्ष की चौखट पर ताश में रमे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को देख यही लगा कि सदाकत आश्रम एक आधुनिक आश्रम में बहल रहा है। और सदाकत आश्रम के गेट पर राहुल गांधी और सोनिया गांधी की लटकती तस्वीरों के पीछे बैनर-पोस्टर की दुकान लगाये आशीष सिंह ने यह कहकर आखिरी कील ठोंकी कि साहब इन तस्वीरों से काग्रेस की नैया बिहार में पार नहीं लगेगी इन्हे सशरीर आना होना। सशरीर मतलब.....मतलब सिर्फ भाषण नहीं... जुटना होगा खुद को बिहार से जोड़ना होगा। एक दिन में सौ रुपये का भी पोस्टर बैनर नहीं बिकता तो फिर काग्रेस पर बटन कौन दबायेगा।
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Friday, October 15, 2010
आश्रम से कंक्रीट में बदल चुकी है बिहार कांग्रेस
Posted by Punya Prasun Bajpai at 4:50 PM
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5 comments:
gandhi g ne sahi kaha tha ki, azadi ke baad congress ko khatam kar dena chaiye...........
न वो नेता बचे हैं....... जो जनता कि नब्ज़ पहचानते थे...... न वो जनता है - जो चुनाव को उत्सव मानती थी..... और नेता को नेता मानती थी..........
पैसा .....
पैसा.......
और पैसा........
पार्टी को पैसा चाहिए.......
ईमानदार के पास पैसा नहीं.........
जिसपे पैसा है वो ईमानदार नहीं........
Prasun jee u brought a very nice matter to the fore. aapki parkhi nazar ke hi to hum sab vidyatrti kayal hain.
Bikash Kumar Sharma
AB CONGRESSIO KO KUCHH TO SOCHNA HOGA..SONIA YA RAHUL TAB TAK ASAR NAHI DIKHA SAKTE JAB TAK BIHAR KA ASAR CONGRESS ME NA DIKHE.KUCHH TO BIHAR JAISA NAJAR ANA HI CHAHIYE..
congress ke jish ko apne ujagar kiya hai wah prasansniya hai. congress jis banawati utsah ko logo ke samne parosh rahi hai uski hawa chunaw ke bad to nikal hi jaye gi. is lekh ki liye badhai.
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