मनमोहन सिंह चाहे केन्द्र की अधूरी पड़ी योजनाओं के लिये नीतीश कुमार को कटघरे में खड़ा कर ‘विकास का दिल्ली राग’ बिहार में चाहे गा आयें। लेकिन बिहार में घूमते वक्त पग पग पर इसका एहसास साफ हो जाता है कि बिहार में विकास का मतलब है कानून व्यवस्था। चुनावी गीत ढोल और चौपाल भी बिहार में अब शाम ढलने के बाद ही सजती है। जो पांच साल पहले शाम ढलते ही समेट ली जाती थी। इलाका सीमाचंल का हो या गया का या फिर पूर्णिया या मुंगेर का। कोई हो इलाका। जहां विकास के नाम पर सड़क नहीं पहुंची। जहां विकास तले नरेगा फेल है। जहां विकास के जरिये रोजगार मुहाल है...वहां लालटेन-डिबरी या पेट्रोमेक्स की रोशनी में चुनावी चौपाल सज रही हो और इसे ही विकास का पर्याय माना जा रहा हो तब आप क्या कहेंगे?
सवाल पांच साल में करीब 46 हजार अपराधियों को सजा देने के आंकडों का नहीं है, जिसे नीतीश कुमार यह कह कर गिनवा रहे हैं कि 2005 में तो वह शाम सात बजे लौट जाते थे और 2010 में सात बजे के बाद ही सभा सजती है। सवाल है कि अपराधियो की पत्नियां अब यह कहने से डर रही हैं कि उन्होंने कभी बंदूक को छुआ भी है। या फिर हथियारों को घर में भी रखा। गया जिले के अतरी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रही कुंती देवी की रात नौ बजे सभा होती है जो पंचायत या चौपाल सरीखी ही गांव-गांव में सजती है और कुंती देवी मासूमियत से कहती हैं कि हमने तो कभी बंदूक तक नहीं देखी। पति को अपराधियों ने जाति संघर्ष में फंसाया। कुंती देवी के पति राजेन्द्र यादव जेल में हैं और लालू ने उनकी पत्नी को टिकट दे कर अपराध से हाय-तौबा करने का नया मंत्र दे दिया है। अपराध या अपराधियों को खारिज कर अपराधविहिन समाज की कल्पना इस चुनाव में नयी परिबाषा के साथ उभर रही है।
कुख्यात आंनद मोहन की पत्नी लवली आनंद कांग्रेस के टिकट पर आलमनगर की चुनावी सभाओं में आंनद मोहन के प्रेमी दिल को भी बताने से नहीं चूकतीं। वहीं शाहपुर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही मुन्नी देवी हो या रुपौली सीट से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रही बीमा भारती। दोनों अपनी पति के किस्से कुछ इस तर्ज पर सुनाती है, जिससे प्रेम की गंगा में भी खौफ का एहसास हो। मुन्नी देवी के पति भुअर ओझा हो या जेठ विश्वेस्वर ओझा दोनो के अपराध बंदूक तले ही पनपे। लेकिन मुन्नी देवी का घूंघट हर खौफ में नजाकत भरते हुये डराता है या कभी बंदूक का साया न पड़ने देने का भरोसा दिलाता है, इसे अभी भी शाहपुर के वोटर समझ नहीं पा रहे हैं। जबकि बीमा भारती तो अपने पति के अपराधिक छवि को नीतीश कुमार के अपराध पर नकेल कसने में ही जीत मान चुकी हैं। बीमा भारती का संवाद भी सीधा होता है, जिस नेता ने साल दर साल अपराधियो को सजा दिलाने में पांच साल गुजार दिये उससे बेहतर सीएम कोई दूसरा कैसे हो सकता है।
रुपौली में तो बकायदा पोस्टर भी ऐसा बनाकर चिपकाया है, जो बताता है कि 2006 में 6839 , 2007 में 9853, 2008 में 12007, 2009 में 13146 और 2010 में चुनाव ऐलान से पहले यानी अगस्त तक 7256 अपराधियों को सजा दी गयी । जिसके नीचे लिखा है अल्पसमय में कायालपट । खास बात यह भी है कि यह पोस्टर जदयू और भाजपा के उन आधे दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में ही दिखायी देता है, जहां अपराधियों के परिवार में से किसी ना किसी को इन दलों टिकट दिया है। हालांकि इस पोस्टर का मजाक भी यह कर खूब उड़ाया जा रहा है कि अल्प समय में कायापलट का मतलब यही है.....अपराधियों को सजा और परिवार वालो को टिकट।
लेकिन बाहुबलियों की गाथा से न कोई दल बचा है और न ही किसी भी अपराधी के परिवार वाले अपने बाहुबली पति या भाई के किस्सों से कोताही कर रहे हैं। गोविंदगंज में लोजपा के टिकट से चुनाव लड रहे मंटू तिवारी की सभा ही राजन तिवारी के किस्सों से शुरु होती है। अगर मंटू की माने तो राजन तिवारी से बडा न्यायविद् और कोई हो ही नहीं सकता । क्योकि राजन तिवारी ने कभी अपराध नहीं किया, हमेशा न्याय किया । इसका दूसरा चेहरा लालगंज में जदयू के टिकट से चुनाव लड रही मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला में नजर आता है। जहां एक ही किस्सा है न्यायप्रिय नीतीश कुमार न होते तो मुन्ना शुक्ला कभी सुधरता नहीं। यह धमकी है या वोट मांगने का सुशासित तरीका इसे अभी भी लालगंज का वोटर समझ नहीं पाया है।
वहीं बिहारी गंज से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड रही पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन का मानना है कि जब अजित सरकार का बेटा अमित मेलबोर्न से लौट आया है और अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहा तो अब पप्पू यादव अपराधी कैसे रहे। फैसला तो चुनावी मैदान में ही होना चाहिये। यानी अपराध की परिभाषा अपराधियो के साथ चुनाव में उसी कानून व्यवस्था से इतर न्याय तलाश रही है, जिसके आसरे नीतीश कुमार बिहार में घूम घूम कर बता रहे है कि उनके सुशासन में विकास का मतलब है कानून व्यवस्था का पटरी पर लौटना । वैसे बाहुबल की नयी परिभाषा जमुई और चकाई में भी गूंज रही है जहां नरेन्द्र सिंह के बेटे चुनाव लड़ रहे हैं। जदयू में मंत्री नरेन्द्र सिंह वही शख्स हैं, जिन्होंने नीतीश कुमार को नक्सलियो के अपरहण संकट से उबारा था। और इस बार उनका एक बेटा अजय सिंह जमुई से जदयू के टिकट पर तो दूसरा बेटा सुमित सिंह चकाई से झामुमो के टिकट पर चुनाव मैदान में है। और यहां एक ही नारा गूंज रहा है। बाहुबली और अपराधियो में दम है तो नक्सलियों का सामना कर दिखायें। जैसे नरेन्द्र सिंह ने किया । इसका असर यह हुआ है कि लालू और पासवान भी नक्सल मुद्दे पर अब यही कह रहे हैं कि सत्ता में आये तो नक्सली संगठनों पर दमन के बजाये बातचीत करके रास्ता निकालेंगे। क्योकि नक्सलवाद की बुनियादी वजह सामाजिक उत्पीड़न है। और यहां समाधान बंदूक से नहीं निकल सकता है। यानी पहली बार बिहार चुनाव में बंदूक के आतंक की जगह उसके एहसास हा खौफ है। और विकास इसी को कहते हैं।
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Wednesday, October 20, 2010
पत्नियों ने बदली बिहार में बाहुबलियों की परिभाषा
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:35 AM
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बिहार चुनाव
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4 comments:
jee bahoot sahi ...jaha per c m ka pad bhi patni hone ke nate mil jata hai ...ek g k hai bharat ke wo kaun kaun se cm hai jinki sadi ek din ek sath huai hai ...to jawab hai ki bihar ke cm rahe lalu aur ex cm bihar ravdi devi ....www.tarangbharat.com
jee bahoot sahi ...jaha per c m ka pad bhi patni hone ke nate mil jata hai ...ek g k hai bharat ke wo kaun kaun se cm hai jinki sadi ek din ek sath huai hai ...to jawab hai ki bihar ke cm rahe lalu aur ex cm bihar ravdi devi ....www.tarangbharat.com
@सवाल पांच साल में करीब 46 हजार अपराधियों को सजा देने के आंकडों का नहीं है,
@अल्प समय में कायापलट का मतलब यही है.....अपराधियों को सजा और परिवार वालो को टिकट।
@यह धमकी है या वोट मांगने का सुशासित तरीका इसे अभी भी लालगंज का वोटर समझ नहीं पाया है।
@और यहां समाधान बंदूक से नहीं निकल सकता है।
@यानी पहली बार बिहार चुनाव में बंदूक के आतंक की जगह उसके एहसास हा खौफ है।
बिहार की राजनीति और समाज को हमारे जैसे लोग मात्र प्रकाश झा की फिल्मो से ही समझ रहे है या फिर जो कुछ मीडिया (आप लोग) कह कह रहे है.
इत्ता तो सभी लोग मान रहे है की श्री लालू यादव के कुशासन से नितीश ने छुटकारा दिलाया है.. और समाज धीरे धीरे ही सही - पर पटरी पर आ रहा है.
Punya Prasun Ji, baat wahan se shuru karte hain. Jahan dusare band kar dete hain. Yani khabar ke andar ka sach. Charo taraf Nitish ki waah-wahi ho rahi hai to ise Nitish ke media management ka hin kamal samajhiye.
Warna yah sawaal puchane ki jaroorat hai ki aakhir Anant Sinh, Dhumal Sinh/Manoranjan Sinh, Munna Shukla jaise logo ka charitra pramanpatra bhala kisane issue kiya.
Aur kaise Sahebganj Vidhansabha kshetra ke log batate hain ki wahan ki nivartaman JD(U) pratyashi Raj Kumar Sinh ek kilo sattu me chunav lad lete hain. Gandhiwadi samajhane ki bhool na kariyega.....mananiya nakali dawa ke kukhyat vyawasaayee hain.
Kahan ka tatparya yah katai nahi ki Laloo, Nitish se behatar hain. Lekin yah kaise bhula ja sakata hai ki 1994 me Janata Dal chhorane se pahle Bihar me hue 40 jatiya railiyon me mukhya aayojak Nitish hin hua karte the. Aur aaj bhi Bandopadhyay committee ke jariye shant jal me patthar marne ka kaam Nitish hin kar rahe hain.
60-70 bigha jamin jotane waale ki salaana kamai Prasoon Ji ke maasik ke chauthai me hin baithati hogi....shayad.
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