सवाल मि. क्लीन का है या देश का ? देश की कमाई को अगर कोई मंत्री अपने और अपनों के बीच बंदरबांट कर नियम कायदे-कानून को ताक पर रख दें और प्रधानमंत्री उस मंत्री की इस हरकत को सत्ता की चाबी माने रहें तो फिर न्याय कौन करेगा? न्याय तो सत्ता करती है। लेकिन जब सत्ता ही गठबंधन के आंकडों तले अन्याय के सौदे से शुरु हुई हो तो फिर न्याय कौन करेगा। और लंबी खामोशी के बाद 20 नवबंर को जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहकर चुप्पी तोडी कि, "स्पैक्ट्रम घोटाले के किसी भी दोषी को वह बख्शेंगे नहीं।" तो पहला सवाल यही निकला क्या मनमोहन सिंह एक बार फिर बताना चाहते है कि वह तो मि.क्लीन हैं। इसलिये यह भी कह रहे हैं कि "मैं कितने इम्तिहान दूं।" तो क्या मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश इम्तिहान देगा....प्रधानमंत्री नहीं। बार बार कौन किसका इम्तिहान ले रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है। जिस देश में बीते छह साल से बजट तैयार करते वक्त साठ फीसदी आबादी के पेट से जुडे मुद्दो को जगह नहीं दी गयी। सत्तर फीसदी आबादी जिस खेती पर टिकी है, उसे सीमेंट और लोहे का इन्फ्रास्ट्रचर निगलते जा रहा है। लेकिन खेती-किसानों के नुमाइन्दगों को कभी उस रायसिना हिल्स की ड्योडी पर यह कहने-बताने के लिये भी चढ़ने नहीं दिया गया कि मि.क्लीन चकाचौंघ भारत की जो तस्वीर बना रहे हैं, उसमें 70-80 करोड़ लोग क्या सरकारी पैकेज और राहत कोष पर ही जीयेंगे। जबकि 80 के दशक में ही रायसिना हिल्स की ड्योडी पर चढते हुये धीरुभाई अंबानी ने कह दिया था , "यह वह जगह है, जहां जितना चढ़ावा चढ़ेगा, उससे कई गुना ज्यादा वापस मिल जायेगा।" यानी गंगोत्री से निकलने वाली गंगा से उलट भ्रष्ट्राचार की यह गंगोत्री सारी धाराओ को सोख कर गोमुख की जगह संसदीय लोकतंत्र में ऐसे पीएमओ को बना चुकी है, जहा लोकतंत्र के सारे पिलर से भ्रष्ट्राचार की गंगोत्री निकल रही है। और भ्रष्टाचार की गंगोंत्री में बैठ कर मि. क्लीन प्रधानंमत्री देश से सवाल कर रहे है, मेरी गलती क्या है। मैं तो मिं. क्लीन हूं ।
त्तो जरा 2 जी स्पैक्ट्रम तले आर्थिक घोटाले और घोटाले तले लोकतंत्र की ही घज्जियां उड़ाती सत्ता की महक में मि. क्लीन को परखना जरुरी है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री रायसिना हिल्स में साउथ ब्लॉक के सबसे किनारे वाला दप्तर पीएमओ है। जहां की मजबूत लाल दीवारों में उतने ही कमरे हैं, जितने देश में कैबिनेट मंत्री। हर मंत्रालय पर नजर रखने के लिये नौकरशाहो की पूरी फौज यहां से काम करती है। इसलिये सवाल यह नहीं है कि सुब्रमण्यम स्वामी के उस पत्र पर मि.क्लीन ने चुप्पी क्यों साधी, जिसमें स्वामी ने टेलीकॉम मंत्री ए राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की इजाजत प्रधानमंत्री से मांगी थी। सवाल स्वामी के पत्र से पहले जांच एंजेसियो की कार्रवाई पर भी मि. क्लीन की चुप्पी और देश की सत्ता की डोर थामे कारपोरेट के आगे नतमस्तक मि.क्लीन प्रधानमंत्री का है। स्वामी ने तो पहला पत्र 29 नबवंर 2008 को लिखा। लेकिन इस पत्र से एक हफ्ते पहले 21 नवबंर 2008 को ही सीवीसी यानी मुख्य सतर्कता आयुक्त ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर स्पैक्र्ट्रम घोटाले की समूची रिपोर्ट भेजते हुये ए राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की प्रक्रिया शुरु करने की मांग की थी। लेकिन पीएमओ ने इस तथ्य पर कोई ध्यान देना तो दूर पीएमओ के एक डायरेक्टर ने यहां तक टिप्पणी की सीवीसी सिर्फ वाच डाग है। वह जांच करने वाली एजेंसी खुद को ना माने। सीवीसी को आज तक पीएमओ से राजा के मामले में भेजी रिपोर्ट पर कोई जवाब नहीं मिला है। कमोवेश सीवीसी ने जो बात कही थी, वही तथ्य नत्थी करके सुब्रमण्यम स्वामी ने 29 नवबंर 2008 को पहला पत्र प्रधानमंत्री को यह सोच कर लिखा कि उनकी पहल से तमिलनाहु की राजनीति में उनके सौदेबाजी का दायरा बढ़ेगा । क्योंकि स्पैक्ट्रम को लेकर गरमाती दिल्ली की राजनीति से दूर तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि भी इस मुद्दे पर आमने-सामने खड़े थे और अभी भी खड़े हैं। और जयललिता का विरोध राजा को करुणनिधि की नजर में और बड़ा नेता ही बना रहा था। सुब्रमण्यम का पांसा तो कोई खेल राजनीतिक तौर पर नहीं कर पाया। इसलिये सुब्रमण्यम स्वामी पहले पत्र के बाद खामोश हो गये।
लेकिन 11 महिने बाद फिर 31 अक्टूबर 2009 को तभी जागे जब सीबीआई ने अपना खेल शुरु कर दिया। सीबीआई ने स्वामी की प्रधानमंत्री को भेजी दूसरी चिट्ठी से दस दिन पहले ही स्पैक्ट्रम घोटाले में ना सिर्फ इन्टैंट घोटाला की प्राथमिकी दर्ज की बल्कि छापा मारना भी शुरु किया। 22 अक्टूबर 2009 को सीबीआई ने डीओटी यानी डायरेक्ट्रोरेट आफ टेलिकाम्युनिकेशन के दिल्ली दफ्तर पर छापा मारा । जो फाइलें जब्त की, उसमें उन कंपनियो के दस्तावेज थे जिन्हे 2 जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस कौडिये के मोल दिया गया। खास कर वह आठ कंपनियां, जिन्होंने 20 से 25 सितंबर 2007 को कौडियो के मोल लाइसेंस लिया और ठीक एक साल बाद सिंतबर-अक्टूबर 2008 में लाखों करोडों की रकम का मुनाफा लेकर दूसरी कंपनियो को लाइसेंस बेचा । यूनिटेक वायरलेस, स्वान टेलिकाम,लूप टेलिकाम,सिस्टिमा,एलायंज,डाटा काम,श्याम टेलेलिंक लिं,टाटा टेलिसर्विसेस,आईडिया सेलुलर और स्पाइसलकम्युनिकेशन के दस्तावेज 22 अक्टूबर 2009 को ही सीबीआई ने अपने हाथ में ले लिये। और इसके अगले 24 घंटे के भीतर ही दिल्ली,मुबंई,चेन्नई,अहमदाबाद जयपुर, नोयडा, गुडगांव और मोहाली के 19 दफ्तरो पर छापा मारकर सीबीआई ने जो दस्तावेज जब्त किये उसने भ्रष्टाचार की उस नींव को ही हिला दिया। जिसमें टेलीकॉम मंत्री ने 22 अक्टूबर 2009 को डीओटी के दफ्तर में छापा पडने के बाद उसी दिन रात में पत्रकारों से यह कहा था कि उनका स्पेक्ट्रम को बांटने से सीधा कोई ताललुक सीबीआई ने नहीं बताया है। इसलिये इस्तीफा देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
लेकिन 23 अक्टूबर को पडे सीबीआई छापे में जो दस्तावेज मिले उसमें स्पैक्ट्रम के लाइसेंस पाने वाली कंपनियों के उस पत्र की भी प्रतिलिपी सीबीआई को मिली, जो साफ बताती थी कि कैसे यह कंपनियां आगे अपने कितने शेयर बेचेंगी और उससे नये कितने लाइसेंस टेलीकॉम मंत्रालय को जारी करने पडेंगें। इतना ही नहीं, पत्र ऐसे भी मिले जिसमें नये लाईसेंस बेचने की एवज में लाइसेंस आवंटन से दूरसंचार विभाग को कितनी रकम मिलेगी और बाजार मूल्य कितना ज्यादा होगा। जिसके बदले कितनी रकम कहां पहुंचेगी। छापे में सीबीआई को चेन्नई के स्टेल ग्रूप से 225 मिलियन डालर में बिटेल को बेचे गये 45 फिसदी के दस्तावेज भी मिले और श्याम टेलिसर्विसेस ने रुसी फार्म सिसटिमा को को जो 70 फिसदी शेयर चार सौ मिलियन डालर से ज्यादा में बेचा थी उसके दस्तावेज भी मिले । साथ ही स्वान के दफ्तर से यूएई की कंपनी एतिसालात के साथ 45 फिसदी अंश बेचकर 4195 करोड रुपये की डिल और यूनिटेक वायलेस का नार्वें की कंपनी टेलीनार के साथ 60 फिसदी अंश बेचने की एवज में 6120 करोड रुपये की डिल के दस्तावेज भी मिले। जबकि ए राजा ने इन सभी को डेढ़ से पौने दो हजार करोड़ रुपये के बीच लाइसेंस शुल्क ले कर लाइसेंस दे दिया था। वहीं सीबीआई को उस दस्तावेज से भी हैरानी हुई, जो उन्हें यूनिटेक और स्वान के दफ्तर से मिला...और उसमें जिक्र इस बात का था कि कैसे इन दोनो कंपनियो ने जितनी अंशपूंजी बेची है, उसके एवज में नौ नये 2 जी लाइंसेसो के लिये दूरसंचार को सिर्फ दस हजार सात सौ बहत्तर करोड़ 68 लाख मिलेंगे। जबकि बाजार में इसकी कीमत सत्तर हजार बाईस करोड 42 लाख है। और 59 249 करोड 74 लाख रुपये कहां कैसे कैसे किधर बांटेंगे। अब सवाल है जब देश की सबसे बडी जांच एंजेसी सीबीआई ही संचार मंत्री और संचार मंत्रालय के घोटालो को खोद खोद कर निकाल रही थी तो फिर जांच रुकी कहां और कानूनी कार्रवाई जो ए राजा के खिलाफ शुरु होनी थी, वह हुई क्यों नहीं। जबकि इस दौर में उस वक्त के वित्त मंत्री पी चिदबंरम हो या कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, दोनों के मंत्रालय ने राजा के स्पेक्ट्रक्म बेचने के तरीको को लेकर भी अंगुली उठाय़ी और उससे देश को लगते चूने का आंकड़ा भी कैग के जरीये भेजा। कैग ने आज नहीं बल्कि 2007 के आखिर में ही एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपये के राजस्व की क्षति की बात कही थी। वही वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट भी पीएमओ गयी थी। वित्त मंत्रालय ने ट्राई यानी भारतीय दूरसंचार नियमन प्राधिकरण के वह दिशा निर्देश भी प्रधानमंत्री को जानकारी के लिये भेजे गये पत्र में नत्थी किये थे...जिसमें ट्राई ने संचार मंत्रालय से कहा था कि स्पैक्ट्रम लाइसेंस देते वक्त प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये। क्योकि दूसरा कोई मापदंड है नहीं। वैसे भी 2001 में जहा सेलफोन के ग्राहक 40 लाख थे वह 2007 में बढ़कर चार करोड तक जा पहुंचे हैं। यह अलग बात है कि राजा ने ट्राई के दिशा निर्देश उसी दिन खारिज कर दिये जिस दिन यह जारी किये गये । लेकिन सवाल पीएमओ का है । जिसने वित्त मंत्रालय के सवालों पर भी खामोशी बरती। और इस दौर में संकेत हर किसी मंत्रालय को यही दिया गया दस्तावेजो की पड़ताल की जा रही हैं। लेकिन जांच को लेकर असल खेल फरवरी से शुरु हुआ। जब बजट तैयार करते वक्त हर घाटे की भरपायी को 3 जी स्पैक्ट्रम की कमाई से जोडा जाने लगा तो एक सवाल यह भी आया कि जब 3 जी स्पेक्ट्रम की कीमत इतनी ज्यादा है तो फिर 2 जी स्पेक्ट्रम की इतनी कम कमाई को लेकर भी सवाल उठेंगे । ऐसे में सीबीआई की इन्वेस्टिगेटिंग विंग ने ए राजा या कहे संचार मंत्रालय समेत जिन भी कॉरपोरेट हाउसों की कंपनियो के खिलाफ जो भी दस्तावेज अपने पास रखे हुये थे, उसे सरकार ने अपने कब्जे में करने के लिये सीबीआई की ही प्रासिक्यूशन विंग का सहारा यह कह कर लिया कि राजा के खिलाफ कानूनी कार्रावाई से पहले उस पर कानूनी राय जानना भी जरुरी है। जैसे ही दस्तावेज सीबीआई के प्रोसीक्यूशन विंग के पास पहुचें, वैसे ही कानून मंत्रालय ने तमाम दस्तावेज अपने पास मंगा लिये। यहां यह समझना जरुरी है कि सीबीआई तो स्वायत्त है लेकिन सीबीआई की प्रोसीक्यूशन विंग कानून मंत्रालय के अधीन आती है। और कानून मंत्री की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री को लेकर है। सीबीआई के छापो के बावजूद जब राजा ने खुद को पाक-साफ बताया तो विपक्ष ने संसद में खासा हंगामा किया और बजट सत्र के दौरान प्रधानमंत्री की मिं. क्लीन छवि को लेकर भी सवाल उठे।
याद कीजिये तो इसी साल मई के पहले हफ्ते में ही करुणानिधि जब दिल्ली पहुंचे और उन्होने 10 जनपथ जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की और पहले दिल्ली फिर चेन्न्ई पहुंच कर यही कहा कि राजा के इस्तीफा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता । और राजा को हटाया गया तो समर्थन वापस ले लिया जायेगा।
जाहिर है समर्थन के मसले पर सोनिया गांधी को सियासत समझनी थी और राजा से लगे मंत्रीमंडल पर दाग को प्रधनमंत्री को साफ करना था। सोनिया ने डीएमके से समझौता किया और मिं क्लीन की छवि लिये प्रधानमंत्री ने कानून मंत्रालय से वह सारे दस्तावेज अध्ययन के लिये मंगा लिये, जिन्हे सीबीआई ने प्रोसीक्यूशन विंग से कानूनी राय के लिये भेजा था। जब सारे दस्तावेज पीएमओ चले गये तो फिर कानून मंत्रालय, प्रोस्क्यूशन विंग या फिर सीबीआई भी राजा पर कोई टिप्पणी कहा कर सकती है। सो हर कोई खामोश हो गया । पीएमओ में कानून मंत्रालय को देखने वाले डायरेक्टर ने बिना देर किये कानून मंत्रालय से ए राजा की सारी फाइल अपने पास मंगवा ली। कानूनी सलाह की हरी झंडी मिले बगैर सीबीआई इससे आगे जा नहीं सकती थी तो सीबीआई यही आकर रुक गयी। और यह जानकारी जब चेन्नई में डीएमके की तरफ से इस भरोसे के साथ लीक हुई की संचार मंत्री ए राजा के खिलाफ सीबीआई कानूनी कार्रवाई कर नहीं सकती है तो सुब्रमण्यम स्वामी हरकत में आये और तीसरा पत्र 8 मार्च को उन्होंने प्रधानमंत्री को भेजा। और उसके पांच दिनो बाद 13 मार्च 2010 को चौथा और आखिरी पत्र भेजकर राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की इजाजत पर हां-नहीं अन्यथा सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की घमकी दी। असल में सुब्रहमण्यम स्वामी के पत्र का पेंच सिर्फ इतना ही है कि राजा को लेकर सरकार कोई भी पहल बिना पत्र का जवाब दिये या फिर स्वामी के आरोपो का जिक्र किये बगैर आगे बढ़ नहीं सकती है। इसलिये स्वामी ने जवाब आते ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उधर स्वामी के इस आखिरी पत्र का असर यही हुआ कि हफ्ते के भीतर पीएमओ का जवाब वही आया जो सीवीसी से लेकर सीबीआई तक को मौखिक तौर पर दी गयी थी कि, " सबूतों का अध्ययन किया जा रहा है। कानूनी कार्रवाई की इजाजत देने पर विचार करना जल्दबाजी होगी। "
लेकिन सबूत जो सीबीआई को मिले और सीबीआई ने जो दस्तावेज अपने तौर पर तैयार किये उसने झटके में पीएमओ की खामोशी के पीछे के उन तथ्यो को उघाड कर रख दिया जिसके आसरे सत्ता के कई चेहरे है । खासकर मनमोहन की इक्नामिक्स ने बाजार जरुर खोला लेकिन वह लाइसेंस राज से आगे महा-लाइसेंस राज की स्थिति में ले आया। और चूंकि इस दौर में मामला लाखो या करोड़ों का नही बल्कि अरबों-खरबों का हो चुका है तो उस पर लाईसेंस की निगरानी भी और कोई नहीं मंत्री ही रखना चाहते है। और मंत्रिमंडल के मुखिया प्रधानमंत्री की भूमिका इस महा-लाईसेंस राज में सर्वेसर्वा की भी हो गई। क्योकि सरकारी कान्ट्रैक्ट से लेकर खनन और इलेक्ट्रॉनिक का कैनवास जितना बडा होता जा रहा है, उसमें 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला तो एक शुरुआत है। जिसमें करुणानिधि गठबंधन की सौदेबाजी का दायरा बड़ा होता देख रहे हैं। वहीं ए राजा मंत्री बनने से लेकर लाइसेंस बांटने में जब बदनाम हुये तो जिन चेहरो ने राजा से मुनाफा पाया या कहे लाइसेंस पाया कारपोरेट के वही चेहरे राजा को दुबारा मंत्री बनवाने में जुटे। सीबीआई ने स्पैक्ट्रम घोटाले के दौर में सिर्फ नीरा राडिया का फोन टेप किया और करीब 5851 फोन कॉल को रिकार्ड में ला कर दस्तावेज का रुप दिया गया है, जो 8 हजार पन्नो का है। जाहिर है इन दस्तावेजो में वह सबकुछ है, जो लोकतंत्र के हर पाये को घोटाले से जोड़ता है। यानी सत्ता और कारपोरेट की फिक्सर के फोन टेप ने उन चेहरो को सामने ला दिया जो हमेशा से भ्रष्टाचार और फिक्सर के खिलाफ थे। 2009 में जब 22 मई को पहले कैबिनेट के मंत्रियो में ए राजा का नाम नहीं आया तो राजा को मंत्री बनवाने की मशक्कत उसी सत्ता ने की, जिनके मुनाफे तले देश को 1.76 लाख करोड़ का चूना लगा। कारपोरेट के दिग्गजो ने अपने चेहरे छुपाये और सामने बिचौलिये की भूमिका निभाने वाली नीरा राडिया को रखा। टेलीकाम,एवियशन,पावर और इन्फ्रास्ट्रक्चर जेसे क्षेत्रों में रिटायर्ड नौकरशाहो की फौज के जरीये चार कंपनियों की मालकिन नीरा राडिया ने ए राजा को मंत्री बनाने से लेकर संचार मंत्रालय दिलाने की जो सुपारी कारपोरेट दिग्गजो से ली। उसका असर यही हुआ रतन टाटा और मुकेश अंबानी से लेकर वित्तीय संस्थानो के प्रमुख और मीडिया के नामचीन चेहरे और न्यूज चैनल-अखबार तक का इस्तेमाल राजा को मंत्री बनाने से लेकर संचार मंत्रालय दिलाने तक में जुटा। भ्रष्टाचार कर देश को चूना लगाने के इस खेल में सिर्फ संचार मंत्रालय ही आया ऐसा भी नहीं है। अगर सीबीआई के दस्तावेजो को देखे तो टाटा किसी भी हालत में मुरोसोली मारन को संचार मंत्री बनने देना नहीं चाहते थे और सुनील मित्तल हर हाल में मारन को ही संचार मंत्री बनवाना चाहते थे। ऐसे में बिचौलियो या फिक्सर की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, इसका अंदाजा इससे भी लगता है कि नीरा राडिया, जो कि टाटा और मुकेश अंबानी ग्रुप के लिये काम कर रही थीं, उसे अपने साथ लाने के लिये सुनील मित्तल ने भी आफर किया। लेकिन नीरा राडिया ने टाटा का साथ नहीं छोड़ा और सुनिल मित्तल को ना कर दी। लेकिन देश को चूना लगाकार अपनी इंडस्ट्री को फैलाने का खेल भी इसी स्पैक्ट्रम घोटाले के दौर में सीबीआई को फोन काल टेप करने पर पता चले। मसलन फिक्की चैयरमैन तरुण दास जो कि हल्दिया पेट्रोकेम में सरकार के नुमाइन्दे थे , वह मुकेश अंबानी को हल्दिया पेट्रोकेम दिलाने में लग गये। ओर इसके तार भी नीरा राडिया के जरिये ही जुडे। मुकेश अंबानी के साथ मुबंई में डिनर से पहले सरकार के नुमाइन्दे नीरा राडिया से यह बात करते है कि वह किस तरह हल्दिया प्रोजेक्ट पर अंबानी का कब्जा करवा देंगे। सीबीआई की रिपोर्ट में इसका भी जिक्र है कि तरुण दास ने इसके लिये सीपीएम के नेताओ के पकड़ा और सीपीएम के निरुपम सेन ने सीपीएम महासचिव प्रकाश के साथ एक बैठक भी करवाई। भ्रष्टाचार का यह खेल सरकारी एजेंसियों में भी किस तरह घुसता जा रहा है, इसके संकेत भी सीबीआई द्वारा जब्त दस्तावेजो और फोन काल टेप में मिलते हैं कि पीइपलाइन रेगुलेटरी एंजेसी में भी रिलायंस के लोगो को घुसाया जाता है। और हाइड्रोकार्बन के डायरेक्टर जनरल वी के सिब्बल के लिये रिलायंस { आरआईएल } बंगाला भी खरीदता है। बातचीत में इसका जिक्र भी है कि आरकाम के 4 अधिकारियो के खिलाफ सीवीसी जांच कर रहा है उसे कैसे रोका जाये। या फिर मामले को कैसे रफा-दफा करवाया जाये । सरकार को चूना लगाने के इस खेल में नीरा राडिया वित्त मंत्रालय का भी दरवाजा खटकटाती है, जिससे रिलायंस गैस को खनिज तेल के निकालने में 7 बरस का टैक्स माफ हो जाये। इतना ही नहीं देश की संपत्ति गैस पर कब्जे की लडाई में जनहित याचिका को भी हथियार यही कारपोरेट अपने फायदे के लिये बनाते हैं। गैस युद्द में रिलायंस इंडस्ट्री लिं और एडैग {एडीएजी } एक दूसरे के खिलाफ जनहित याचिका का खेल भी खेलते हैं। और एक दूसरे अधिकारी को फंसाने के लिये स्टिंग ऑपरेशन को भी अंजाम देते हैं। कारपोरेट युद्द में एक दूसरे के खिलाफ कई एनजीओ को फांस कर पीआईएल दाखिल करवाने का काम बिचौलिया नीरा राडिया भी करवाती हैं। इस खेल में डीएलएफ का मामला भी आता है और रिल-आरपीएल के विलय का मामला भी। सीबीआई के अलावे ईडी और इन्कम टैक्स ने अब जब नीरा राडिया के खिलाफ केस दर्ज कर जांच शुरु की है तो उसमें नीरा राडिया की कंपनियो के बैंक एकाउंट और केश फ्लो भी कई नौकरशाहो और मीडिया के घुरन्धरों को कटघरे में खड़ा कर रहा है। खासकर नीरा राडिया की कंपनी वैश्नवी कारपोरट कंसलटेंट प्राईवेट लिं जो टाटा, यूनिटेक और मिडिया के एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड की सलाहकार थी। लेकिन इस कंपनी का ज्यादा काम मीडिया को मैनेज करना ही था। और ईडी के दस्तावेज इसके साफ संकेत देते है कि वैश्नवी के एकांउट से ही कइयो को चैक से लेकर घर, गाडी और अन्य सुविधाये दी गयीं। इन्वोर्समेंट डिपारटमेंट ने 24 नवबंर को नीरा राडिया को उन्ही एकाउंट की पूछताछ के लिये बुलाया भी। जाहिर है सीबीआई के यह समूचे दस्तावेज कहीं ना कही यह भी संकेत देते हैं कि काग्रेस के नेता हो या सरकार के मंत्री-नौकरशाह सभी उसी कॉकस का हिस्सा बन गये, जिसके प्रभाव से ए राजा मंत्री बने और मंत्री बनकर घोटाले करते रहें। इस कॉकस को परिभाषित करने के दौरान यह कहा जा सकता है मिं क्लीन को सही वक्त पर उचित जानकारी बाबुओं और कानून मंत्रालय ने नहीं दी। लेकिन सरकार या कांग्रेस की मुश्किल यही है कि अगर 2 जी स्पैक्ट्रम की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी करेगी तो यह परिभाषा भी सटीक नहीं बैठेगी क्योकि सारे दस्तावेज हर राजनीतिक दल के पास होंगे और फिर भ्रष्टाचार सिस्टम के हिस्से से निकल कर अपने आप में ही सिस्टम दिखायी देगा। और ईमानदारी का नारा काग्रेस के हाथ नहीं बचेगा साथ ही मिं क्लीन की छवि मनमोहन सिंह पर चस्पां नहीं हो पायेगी। ऐसे में जो नयी तस्वीर मनमोहन सिंह या मिं क्लीन की उभरेगी उसमें प्रधानमंत्री की हैसियत कुछ ऐसी हो जायेगी जैसे देश में किसी हादसे का उपाय प्रधानमंत्री के पास ना हो तो वह प्रधानमंत्री राहत कोष से रकम बांट कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले। और बाद में पता यह चले कि हादसा करवाने के पीछे जो थे, उन्हीं की रकम ही प्रधानमंत्री राहत कोष में थी। ठीक इसी तरह स्पैक्ट्रम के जरीये देश को बेचने वालों में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने वाले भी हैं और आंकडों का जुगाड कर सत्ता बनाने वाले भी हैं। वहीं मनमोहन सिंह के चकाचौंघ भारत के सपने को पूरा करने वाले कारपोरेट भी है और उस चकाचौंध का गुणगाण करने वाला मीडिया भी ।
{पूरी रिपोर्ट पत्रिका "प्रथम प्रवक्ता" में }
Monday, November 29, 2010
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राडिया...राजा और टाटा बनाम मि. क्लीन प्रधानमंत्री का सच |
Thursday, November 25, 2010
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2जी स्पैक्ट्रम घोटाला मामले में विश्लेषण की आगे की कड़ी ! |
2जी स्पैक्ट्रम घोटाले को देश का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा है। देश की राजनीति में इस घोटाले ने भूचाल ला रखा है। इसी घोटाले की तह तक पहुंचने के लिए 24 तारीख को प्रवर्तन निदेशालय ने नीरा राडिया से आठ घंटे तक पूछताछ की। इन दिनों कई पत्रिकाओं और चैनलों पर भी घोटाले में कथित तौर पर शामिल लोगों के टेप सुनाए जा रहे हैं। लेकिन, करीब छह महीने पहले हमने अपने ब्लॉग पर पूरी रिपोर्ट में इस घोटाले पर अपने विश्लेषण में साफ कर दिया था कि यह बहुत बड़ा मामला है और प्रधानमंत्री किस तरह कॉरपोरेट के आगे बेबस हैं। लेकिन, अब सोमवार को हम आगे की कड़ी में बताएंगे कि यह पूरा खेल अब क्या है। किन मुद्दों पर अभी भी निगाह नहीं पहुंच पा रही है। सीबीआई के पास कौन कौन से दस्तावेज हैं और इसमें प्रधानमंत्री किस तरह फंसे हुए हैं।
तो आप सोमवार को अगली कड़ी जरुर पढ़िए लेकिन उससे पहले एक बार वही पुरानी पोस्ट-कॉरपोरेट के आगे प्रधानमंत्री भी बेबस---
ठीक एक साल पहले प्रधानमंत्री अपने नये मंत्रिमंडल में जिन दो सांसदों को शामिल नहीं करना चाहते थे, संयोग से दोनो ही डीएमके के सांसद थे और दोनो पर ही भ्रष्टाचार के आरोप थे। असल में 2009 के आमचुनाव में जिस तरह कांग्रेस का आंकडा 200 पार कर गया और यूपीए गठबंधन को बहुमत मिला उसके पीछे मनमोहन सिंह की साफ छवि को एक बडा कारण बताया गया। मनमोहन सिंह के जेहन में भी यह सवाल था कि 2004 में चाहे वह कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी के आशीर्वाद से प्रधानमंत्री बन गये लेकिन 2009 में चुनावी जीत के पीछे उनकी मेहनत रंग लायी है और प्रधानमंत्री बने रहने के उनके दावे को कोई डिगा नहीं सकता। खुद सोनिया गांधी भी नहीं। इसीलिये 2004 के मंत्रिमंडल को बनाते वक्त जो मनमोहन सिंह खामोश थे, वही मनमोहन सिंह 2009 में अपने मंत्रिमंडल को लेकर कितने संवेदनशील हो गये थे, इसका अंदाज उनकी इस मुखरता से समझा जा सकता है कि उन्होंने साफ कहा कि मंत्रिमंडल में कोई दाग नहीं लगेगा। और डीएमके के टी.आर. बालू और ए राजा को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किये जाने के संकेत भी दे दिये।
लेकिन 22 मई 2009 को जिन 19 कैबिनेट मंत्रियों ने शपथ ली, उसमें टी आर बालू का तो नहीं लेकिन ए राजा का नाम था। उस वक्त कहा यही गया कि मनमोहन सिंह की यूपीए में सहयोगी दल डीएमके पर नहीं चली और डीएमके के सर्वसर्वा करुणानिधि ने बालू के नाम से तो पल्ला झाड़ लिया लेकिन अपनी तीसरी पत्नी राजाथी के अड़ जाने पर ए राजा को कैबिनेट मंत्री बनाने पर सहमति दे दी। जिसे मानना प्रधानमंत्री की मजबूरी थी। लेकिन प्रधानमंत्री की मजबूरी के संकेत यही नहीं रुके। जब पोर्टफोलियो यानी विभागों के बंटवारे की बात आयी तो डीएमके के हिस्से में कैबिनेट के जो तीन विभाग गये थे, उसमें टेक्सटाइल, संचार व सूचना तकनीक और कैमिकल-फर्टिलाइजर थे।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस हकीकत को समझ रहे थे कि सबसे संवेदनशील कोई मंत्रालय है तो वह संचार व सूचना तकनीक का है, जो न सिर्फ देश को आधुनिकतम सूचना क्रांति से जोड़ेगा बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास में तालमेल बनाये रखने के लिये जो पूंजी सरकार को चाहिये होगी, वह भी संचार मंत्रालय से ही आयेगी। क्योकि स्पेक्ट्रम के जरीये ही पूंजी बनायी जा सकती है। इसलिये प्रधानमंत्री यह भी नहीं चाहते थे कि ए राजा को यह मंत्रालय दिया जाये
, क्योकि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे राजा के जरीये संचार मंत्रालय को चलाने का मतलब यह भी था कि निजी मुनाफे के लिये एक लॉबी के अनुकुल ए राजा कार्रवाई करें। प्रधानमंत्री की यहां भी नहीं चली और ए राजा देश के संचार व सूचना तकनीक मंत्री बने। लेकिन प्रधानमंत्री की अगर यहां नहीं चली तो इसके पीछे डीएमके प्रमुख करुणानिधि या उनकी तीसरी पत्नी राजाथी का भी दबाव नहीं था। फिर कौन थे राजा के पीछे जो हर हाल में संचार मंत्रालय को अपने हक में देखना चाहते थे और जिनके सामने प्रधानमंत्री भी कमजोर पड़ गये?
देश के बड़े चुनिन्दा कॉरपोरेट जगत के महारथी, जिनकी जरुरत संचार मंत्रालय के जरीये अपने काम को बेरोक-टोक विस्तार देते हुये मुनाफा कमाना था, असल में राजा के पीछे वही लॉबी थी। लेकिन संचार मंत्रालय हथियाने से लेकर उसे अपनी जरुरतों के अनुकूल चलाने का खेल जिन माध्यमों के जरीये रचा गया, उसकी सीबीआई जांच के दस्तावेज बताते हैं कि सरकार के गलियारे में सबकुछ मैनेज करने के लिये कॉरपोरेट सेक्टर को वित्तीय सलाह देने वाली चार कंपनियो की सर्वेसर्वा नीरा राडिया को हथियार बनाया गया। और नीरा राडिया का मतलब है सरकार की नीतियों तक में परिवर्तन। सरकार को करोड़ों का चूना लगाकर कॉरपोरेट के हक में अंधा मुनाफा बनाने की परिस्थितियां बना देना। और इसके लिये एक ही लाइन मूल मंत्र- किसी भी कीमत पर।
नीरा राडिया टेलीकॉम,पावर,एविएशन और इन्फ्रास्ट्रचर से जुड़े कॉरपोरेट सेक्टरों को सरकार से लाभ बनाने और कमाने के उपाय कराती हैं। इसके लिये नीरा राडिया ने चार कंपनियों को बनाया है। जिसमें वैश्नवी कॉरपोरेट कंसलटेंट प्राइवेट लिमिटेड सबसे पुरानी है। जबकि नीरा राडिया की तीन अन्य कंपनियां नोएसिस कंसलटिंग, विटकॉम और न्यूकाम कंसलटिंग भी अपने कॉरपोरेट क्लाइंट को सरकारी मंत्रालयों से लाभ पहुंचाने में लगी रहती हैं। सीबीआई ने नीरा राडिया के खिलाफ पिछले साल 21 अक्टूबर को प्रिवेंशन ऑफ करपशन एक्ट 1988 के तहत मामला दर्ज किया है।
आईपीसी की धारा 120 बी के सेक्शन 13--2 , 13--1 डी के तहत आरसी डीएआई 2009 ए 0045 के तहत इम मामले को दर्ज करते हुये सीबीआई ने नीरा राडिया को बतौर बिचौलिये की भूमिका में पाया है। और उसकी कंपनी नोएसिस कंसलटेन्सी पर आपराधिक साजिश रचने का मामला दर्ज करते हुये जांच शुरु की है । खास बात यह है कि इस जांच की जानकारी की चिट्टी 16 नवंबर 2009 को सीबीआई के एंटी करप्शन ब्यूरो के डिप्टी इंसपेक्टर जनरल आफ पुलिस विनित अग्रवाल ने आयकर महानिदेशालय--- इन्वेस्टीगेशन में आईआरएस मिलाप जैन को भेजते हुये नीरा राडिया के बारे में अन्य कोई भी जानकारी होने की बात कहकर जानकारी मांगी। सिर्फ चार दिनों बाद यानी 20 नवंबर 2009 को इसका जवाब भी आ गया। यह जवाब आयकर महानिदेशालय में इन्कम टैक्स के ज्वाइंट डायरेक्टर आशिष एबराल ने विनित अग्रवाल दिया और यह जानकारी दी कि नीरा राडिया संदेह के घेरे में हैं। इस सरकारी पत्र में साफ लिखा गया कि सीबीडीटी की कुछ विशेष सूचनाओं के आधार पर नीरा राडिया और उनके कुछ सहयोगियो के टेलीफोन जांच के घेरे में लाये गये और टेलीफोन टेप करने के लिये बकायदा गृह सचिव से अनुमति ली गयी।
नीरा राडिया जिन चार कंपनियों की मालिक हैं, उन सभी कंपनियों के टेलीफोन टेप किये गये। आयकर निदेशालय के मुताबिक टेलीफोन टैप से जो बाते सामने आयी,उसमें अपने कॉरपोरेट क्लाइंट की व्यवसायिक जरुरतों को पूरा करने के लिये सरकार के कई विभागो के निर्णयो को बदला गया और कई मामलो में तो नीतिगत फैसलों को भी बदलवाकर अपने क्लाइंट को लाभ पहुंचाया गया। और खासकर संचार मंत्री ए राजा ने कई फैसलों को इसलिये बदल दिया क्योंकि उससे उन कॉरपोरेट घरानों को लाभ नहीं हो रहा था, जिसे नीरा राडिया लाभ पहुंचवाना चाहती थीं। फोन टैप के रिकार्ड बताते हैं कि
- -नीरा राडिया की सीधी पहुंच संचार मंत्री ए राजा तक है। और टेलीफोन भी सीधे राजा को ही किया जाता रहा । बीच में कभी कोई राजा का निजी सचिव भी नहीं आया।
- -राजा के ताल्लुकात नीरा राडिया के साथ जितने करीबी हैं, उसकी वजह नीरा राडिया के पीछे कुछ खास कॉरपोरेट घरानो का होना है। जिनकी कीमत पर मंत्रालय में कोई पत्ता भी नहीं खड़कता ।
- -इसलिये संचार मंत्रालय के जरीये नीरा राडिया ने चंद महिनों में करोड़ों के वारे न्यारे किए गए।
- -टेलिकॉम लाइसेंस से लेकर सरकार को आर्थिक चूना लगाने का काम किया गया।
- -नये टेलिकॉम आपरेटरों का मार्गदर्शन कर यह समझाया गया कि लाइसेंस लेकर किस तरह विदेशी इन्वेस्टरों से होने वाले आपार मुनाफे को सरकार से छुपाया जाये।
नीरा राडिया ने अपने काम को अंजाम देने के लिये मीडिया के उन प्रभावी पत्रकारों को भी मैनेज किया किया, जिनकी हैसियत राजनीतिक हलियारे में खासी है। यानी जिस नीरा राडिया को सीबीआई से लेकर आयकर महानिदेशालय बिचौलिया, दलाल, फ्रॉड सबकुछ कह रहा है और जांच की सुई आपराधिक साजिश रचने से लेकर सरकार के नीतिगत फैसलों को बदलवाने तक की भूमिका को लेकर कर रहा है, उसका सीधा टेलीफोन देश के संचार मंत्री के पास जाता है और संचार मंत्री एक-दो नही कई बार बातचीत भी करते हैं।
असल में ए राजा को संचार मंत्री बनवाने वाली ताकतों का मुखौटा ही जब नीरा राडिया रहीं तो मंत्री महोदय की खासमखास नीरा राडिया क्यों नहीं होंगी। लेकिन नीरा राडिया के पीछे हैं कौन? वो इतनी ताकतवर हैं कैसे? यह नीरा राडिया के कॉरपोरेट क्लाइंट की फेरहिस्त से भी समझा जा सकता है और टेलीफोन टेप के दौरान बातचीत के जो अंश सीबीआई के इंटरनल विभागीय टॉप सीक्रेट दस्तावेज में दर्ज हैं, उससे भी जाना जा सकता है कि आखिर प्रधानमंत्री भी अपने मंत्रिमडल के विभागों को जिसे चाहते होंगे, उसे क्यो नहीं दे पाये या फिर राजा कैसे संचार मंत्री बन गये। जिस समय यूपीए-2 यानी 2009 में मनमोहन सिंह अपने मंत्रिंडल को लेकर जद्दोजहद कर रहे थे और राजा के मंत्रिमंडल में शामिल करने के खिलाफ थे, अगर उस दौर के नीरा राडिया के टेलीफोन से हुई बातचीत पर गौर किया जाये, जिसका जिक्र आयकर महानिदेशालय के टॉप सीक्रेट दस्तावेजों में है तो कॉरपोरेट सेक्टर को सलाह देने वाली नीरा राडिया और उसकी कंपनी राजा को संचार मंत्री बनवाने में लगी थी। कैबिनेट के शपथ ग्रहण से 11 दिन पहले यानी 11 मई 2009 से जो बातचीत नीरा राडिया टेलीफोन पर कर रही थी अगर उसे दस्तावेजों के जरीये सिलसिलेवार तरीके से देखे तो साफ झलकता है कि कॉरपोरेट लाबी राजा को संचार मंत्री बनवाने में लगी थी। और नीरा राडिया हर उस हथियार का इस्तेमाल इसके लिये कर रही थीं, जिसमें मीडिया के कई नामचीन चेहरे भी शामिल हुये, जो लगातार राजनीतिक गलियारों में इस बात की पैरवी कर रहे थे कि राजा को ही संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय मिले। मंत्रियों के शपथ से पहले नीरा राडिया और रतन टाटा के बीच बातचीत का लंबा सिलसिला चला। दस्तावेजों के मुताबिक टाटा किसी भी कीमत पर दयानीधि मारन को संचार मंत्री बनने देने के पक्ष में नही थे। टाटा की रुचि टेलिकॉम में एयरसेल की वजह से भी थी, जिसकी एक्वेटी पर मैक्सीस कम्युनिकेशन और अपोलो के जरीये टाटा का ही कन्ट्रोल था। और टाटा ने यहां तक संकेत दिये थे कि अगर मारन संचार मंत्री बनेंगे तो वह टेलिकॉम के क्षेत्र से तौबा कर लेंगे। टाटा इसके लिये वोल्टास के जरीये नीरा राडिया और रतनाम [करुणानिधी की पत्नी के सीए] से भी संपर्क में थे।
राडिया के फोन टेप से यह भी पता चलता है प्रिंट और टीवी न्यूज चैनल के कुछ वरिष्ट पत्रकार कांग्रेस के भीतर इस बात की लॉबिंग कर रहे थे कि राजा को संचार मंत्रालय मिल जाये। वहीं भारती एयरटेल यानी सुनील मित्तल लगातार इस बात का प्रयास कर रहे थे कि ए राजा किसी भी हालत में संचार मंत्री न बनें। मित्तल चाहते थे कि दयानिधी मारन संचार मंत्री बनें क्योकि मित्तल को लग रहा था कि अगर ए राजा संचार मंत्री बने तो स्पेक्ट्रम पर सीडीएमए लॉबी का पक्ष लेने को लेकर जीएसएम लॉबी सक्रिय हो जायेगी। राजा को बनाने या न बनने देने के इस कॉरपोरेट युद्द में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही नीरा राडिया की हैसियत कितनी बड़ी हो गयी इसका अंदाज इस बात से लग जाता है कि एक वक्त सुनील मित्तल ने भी राडिया की सेवायें लेने की गुजारिश की लेकिन राडिया ने यह कहकर सुनिल मित्तल को टरका दिया कि वह टाटा ग्रुप की सलाहकार हैं तो उनके हितो को पूरा करना उनकी पहली जरुरत है। ऐसे में टाटा और मित्तल के हित एक ही क्षेत्र में टकरा सकते हैं तो वह टाटा का ही साथ देंगी।
चूंकि नीरा राडिया अपनी सबसे पुरानी कंपनी वैश्नवी के जरीये टाटा ग्रुप से जुड़ी। टाटा के लिये मीडिया मैनेजमेंट से लेकर इन्वॉयरमेंट मैनेजमेंट तक का काम नीरा राडिया की वैश्नवी कंपनी ही देखती हैं। तो टाटा के हित की प्राथमिकता उसकी पहली जरुरत बनी। लेकिन राजा को संचार मंत्री बनवाने के बाद कॉरपोरेट जगत के एक लॉबी की किस तरह संचार मंत्रालय में चली इसका अंदेशा आयकर निदेशालय के टाप सीक्रेट दस्तावेजों से सामने आता है, जिसमें जांच विभाग की रिपोर्ट साफ कहती है कि स्वान टेलिकॉम
,एयरसेल,यूनिटेक वायरलैस और डाटाकॉम को लाइसेंस से लेकर स्पेक्ट्रम तक के जो भी लाभ मिले उसके पीछे वही लॉबी रही, जिसने राजा को संचार मंत्री बनाया। चूंकि नीरा राडिया की तमाम कंपनियों में रिटायर्ड नौकरशाह भरे पड़े हैं तो मंत्री को मैनेज करने के बाद नौकरशाहों को मैनेज करना राडिया के लिये खासा आसान हो जाता है। और कॉरपोरेट कंपनी भी सीधे नीरा राडिया की कंपनी के जरीये अपने धंधे को विस्तार देती है तो भ्रष्टाचार के आरोप के घेरे में कोई कॉरपोरेट आता भी नहीं।
दस्तावेजों के मुताबिक झारखंड में माइनिंग की लीज बढ़ाने के लिये एक वक्त राज्य के तत्कालीन सीएम मधुकोड़ा टाटा ग्रुप से 180 करोड़ रुपये की मांग रहे थे। लेकिन नीरा राडिया ने बिना पैसे के यह काम राज्यपाल से करवा लिया। इसकी एवज में नीरा राडिया को कितनी रकम दी गयी, इसका जिक्र तो दस्तावेजों में नहीं है लेकिन राडिया की जिस टीम ने इस काम को अंजाम तक पहुंचाया, उसे एक करोड़ रुपये बतौर इनाम दिया गया।
सीबीआई और आयकर निदेशालय के जांच दस्तावेजों को देखकर पहली नजर में यह तो साफ लगता है कि जिस नीरा राडिया को शिकंजे में लेने की तैयारी हो रही है उसकी पहुंच पकड़ का कैनवास खासा बड़ा है क्योंकि इसकी कंपनियां टाटा ग्रुप के अलावे यूनिटेक, मुकेश अंबानी के रिलांयस से लेकर कई मीडिया ग्रुप के लिये भी काम कर रही है। लेकिन दस्तावेजों के पीछे का सच यह भी उबारता है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था जिस कॉरपोरेट तबके के लिये हर मुश्किल आसान कर देश को विकास पर लाने के लिये आमादा है, असल में समूची व्यवस्था पर वही कॉरपोरेट जगत हावी हो गया है। और देश की जो लोकतांत्रिक संसदीय पद्धति है, अब वह मायने नही रख रही है क्योंकि सरकार किस दिशा में किसके जरीये कहां तक चले, यह भी कॉरपोरेट समूह तय करने लगे हैं। क्योंकि मुनाफा बनाने के खेल में किस तरह सरकार को चूना लगाकर करोड़ों के वारे न्यारे किये जाते हैं, यह फंड ट्रांसफर के खेल से समझा जा सकता है। स्वान को लाइसेंस 1537 करोड में मिला । लेकिन चंद दिनो बाद ही स्वान ने करीब 4200 करोड में 45 फीसदी शेयर यूएई के ETISALAT को बेच दिया। इसी तरह यूनिटेक वायरलैस को स्पेक्ट्रम का लाइसेंस डीओटी से 1661 करोड में मिला और यूनिटेक ने नार्वे के टेलेनोर को 60 फीसदी शेयर 6120 करोड में बेच दिये। इसी तर्ज पर टाटा टेलीसर्विसेस ने भी 26 फीसदी शेयर जापान के डोकोमो को 13230 करोड में बेच दिये।
खुली अर्थव्यवस्था के खेल में कॉरपोरेट की कैसे चांदी है, इसे
17 दिसबंर 2008 को स्वान टेलिकॉम प्राइवेट लिमिटेड के फंड ट्रासफर के तौर तरीको से समझा जा सकता है। स्वान ने महज चार महीने पहले बनी चेन्नई के जेनेक्स इक्जिम वेन्चर को 380 करोड के शेयर एलॉट कर दिये, वह भी महज एक लाख रुपये के मर्जर कैपिटल पर। वहीं यूनिटेक वायरलैस को टेलिकॉम लाइसेंस दिलाने के लिये नीरा राडिया ने अपने प्रभाव से मंत्रालय के नीतिगत फैसलो को भी बदलवा दिया। असल में कॉरपोरेट के खेल में सरकारें कितनी छोटी हो गयी है, इसका अंदाज अगर सिंगूर प्रोजेक्ट के फेल होने पर गुजरात जाने की कहानी में छुपी है तो हल्दिया प्रोजेक्ट को लेकर कॉरपोरेट के आगे झुकती सरकारों के साथ साथ विदेशी पूंजी के लिये बनाये गये रास्तों से भी लगता है। जहां मंदी की चपेट में आकर डूबने से ठीक पहले लिहमैन ब्रदर्स का अरबों रुपया भारत पहुंचता भी है और मंदी आने के बाद जो पूंजी नहीं पहुंच पायी, उसे दूसरे माध्यमो से मैनेज भी किया जाता है। यानी विदेशी पूंजी निवेश के नियमों की धज्जियां भी खुल कर उड़ायी जाती हैं। यह खेल सिर्फ संचार व सूचना तकनीक के क्षेत्र में हो रहा हो ऐसा भी नहीं है। बल्कि पावर, एविएशन और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में भी बिचौलियों के माध्यम से कॉरपोरेट हितों को साधना और पावर प्लाट लगाने के लाइसेंस से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये जमीन कब्जे में लेने की प्रक्रिया में किस तरह अलग अलग राज्यों के नौकरशाह लगे हुये हैं, यह भी सीबीआई जांच के दायरे में है। लेकिन सबसे खतरनाक परिस्थितियां देश की व्यवस्था के भीतर बन रही है जहा सत्ता--कॉरपोरेट जगत--नौकरशाह का कॉकटेल नीरा राडिया सरीखे बिचौलियो के जरीये बन रहा है और इसे तोड़ने वाला कोई नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ इनके आगे बंधे हुये हैं। और जांच की शुरुआत करने वाला सीबीआई के एंटी करप्शन ब्रांच के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल आफ पुलिस विनित अग्रवाल का तबादला किया जा चुका है।
इसी लेख को तमाम तस्वीरों और दस्तावेजों के साथ देखने के लिए नीचे क्लिक करें-
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Tuesday, November 16, 2010
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2002 और 2010 यानी सुदर्शन बनाम सोनिया |
28 फरवरी 2002 को दोपहर में संघ के दिल्ली मुख्यालय झंडेवालान में यूं ही टहलते हुये यह सोच कर पहुंचा कि आज तो सिर्फ बजट ही छाया रहेगा और जरा आरएसएस के मूड को देखा जाये। क्योंकि एक दिन पहले ही गोधरा कांड से समूचा देश हिला हुआ था। हालांकि सुबह 8 बजे ही गुजरात से हिंसा की खबरे आने लगी थी और दोपहर साढ़े बारह बजे तक तीन लोगों की मौत की खबर आ चुकी थी। तब संघ हेडक्वार्टर का लोहे का दरवाजा खुला रहता था। कोई सुरक्षाकर्मी भी नहीं बैठता था। सीधे एम जी वैघ के कमरे में पहुंचा। गोधरा की क्या खबर है। मुझे देखते ही वैघ जी ने सवाल किया। बिना जवाब दिये मैंने सवाल किया- आपकी तरफ से गोधरा कांड पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। मेरे इस सवाल पर उन्होंने फिर पूछा लेकिन गुजरात की खबर क्या है। छिट-पुट हिंसा की खबर है। दो-तीन लोगो के मरने की भी खबरें आ रही हैं। अच्छा...कहते हुये अचानक वैघ जी खडे हुये और बोले आओ सरसंघचालक जी से मिलवाता हूं...यही हैं।
पहली मंजिल पर एकदम बायीं तरफ के कमरे के बाहर ही सरसंघचालक सुदर्शन जी मिल गये। वैघ जी ने मेरा परिचय कराते हुये कहा गोधरा से भी खबरें आ रही हैं। क्या खबर है....जी गुजरात के अलग-अलग हिस्सों से छिट-पुट हिंसा की खबरें आ रही हैं। और....। और कुछ नहीं बजट का दिन है तो गुजरात की खबरें भी काफी कम हैं। लेकिन और क्या खबर आयी है। गुजरात के अलग अलग हिस्सों से आगजनी की तस्वीरे ही आयी हैं। दो या तीन लोगों के मरने की भी खबरे हैं। तीन ही मरे हैं...अभी इंतजार कीजिये । कुछ देर बाद हमारी प्रेस रिलीज जारी होगी । बजट की खबर ज्यादा चलेंगी नहीं। क्यों? आज का दिन तो बजट समीक्षा में ही जाता है। फिर हर घर की रसोई भी तो बजट से जुडी होती हैं। लेकिन गोधरा से तो राम मंदिर और जिन्दगी दोनों जुड़ी थी। प्रतिक्रिया तो होगी ही । साइंस तो पढा है न आपने। बजट नहीं गुजरात दिखाने की जरुरत है। उसके बाद सुदर्शन जी अपने कमरे में चले गये।
मैं वैघ जी के साथ उनके कमरे में चला आया। जहां प्रेस रिलीज की हाथ से लिखी कॉपी पड़ी थी। वैघ जी ने यह कहते हे प्रेस रिलीज की कापी मुझे पढ़वा दी कि मै एक घंटे बाद खबर चलवाऊं। मैंने भी आफिस जाने की जगह सड़क पर ही एक घंटा गुजारा और उसके बाद आफिस फोन कर संघ की प्रतिक्रिया देने के लिये फोन-इन लेने को कहा। आफिस वालों ने भी तुरंत लाइन एंकर को जोड़ते हुये कहा कि गुजरात की हिंसा में दस लोगो की मौत हो चुकी है और रिपोर्टर बता रहा है कि बड़े बुरे हालात हैं। फोन-इन में मैंने जैसे ही कहा आरएसएस का रुख गोधरा पर खासा कड़ा है और उसने विभाजन के बाद गोधरा हत्याकांड को सबसे जघन्य बताते हुये लोगो से संयम बनाने को कहा है। जाहिर था उसके बाद न्यूज चैनल की हेडलाइन बदलनी थी...सो बदली । और कहा गया, " संघ ने गोधरा कांड को विभाजन के बाद का सबसे जघन्य हत्याकांड करार दिया। स्वयंसेवको से की संयम बरतने की अपील।" यूं भी संघ की उस प्रेस रिलीज में जितना गुस्सा गोधरा कांड को लेकर जताया गया था। उसकी हर अगली लाईन में ठीक उसी प्रकार विरोध करते हुये संयम बरतने की सलाह स्वयंसेवको को दी गयी थी जैसे 11 नवंबर 2010 को कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्दिेवेदी ने सुदर्शन के बयान पर काग्रेसी कार्यकर्त्ताओ को संयम में रहते हुये विरोध करने का ऐलान किया था।
2002 के संघ के संयम का असर यही हुआ कि गुजरात से एक ऐसा नरेन्द्र मोदी निकला, जिसके आगे प्रधानमंत्री का राजधर्म भी काफूर हो गया। और देश ने हिन्दुत्व की एक ऐसी प्रयोगशाला देखी, जिससे बाहर निकलने के लिये भाजपा आज भी कसमसा रही है। वहीं सुदर्शन के सोनिया गांधी पर चोट करने पर कांग्रेस के संयम भरे विरोध का असर भी यही हुआ कि कानून का राज काग्रेसियो के सोनिया प्रेम के आगे नतमस्तक हुआ। पंजाब से पोरबंदर तक और मुंबई से मणिपुर-अरुणाचल प्रदेश तक वही कानून राज अपाहिज लगा, जिसकी एक धारा उसी तरह सुदर्शन जेल पहुंचा सकती है जैसे 2002 में गोधरा कांड के दोषियों और उसके बाद "संयम" में रहे स्वयंसेवको को जेल में ठूंस कर गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनने से रोका जा सकता था।
असल में एमजी वैघ 28 फरवरी 2002 में भी संघ की प्रेस रिलिज जारी करते हुये समझ रहे थे कि संयम भरे विरोध का मतलब क्या होता है और 13 नबंबर 2010 को जब उन्होने नागपुर में कहा कि सुदर्शन के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिये सोनिया गांधी को मानहानि का मामला दर्ज करना चाहिये। तो भी वह समझ रहे हैं कि सोनियामय कांग्रेसियों के संयम भरे विरोध-प्रदर्शन का असर संघ के सामाजिक शुद्दीकरण पर कितना विपरीत पड़ रहा है। लेकिन यहा सवाल एमजी वैघ या जनार्दन दिवेदी का नहीं है । बल्कि 2002 में अगर सुदर्शन को गोधरा के जरिये ध्वस्त होते संघ को समेटने या हिन्दुत्व की उस धारा का जगाने का फार्मूला मिलता हुआ नजर आ रहा था, जिसका जिक्र उन्होने संघ का सरसंघचालक बनने के बाद 2000 में अपने पहले भाषण में ही कहा था , "...जबतक हिन्दू संगठित नहीं होते , तबतक वे अपनी आत्मरक्षा करने में भी सक्षम नहीं होंगे। इसलिये पहले हिन्दुओ को संगठित, बल संपन्न और सामर्थ्य संपन्न होना चाहिये। तभी भारत हिन्दु राष्ट्र बन सकता है ।.....और इस्लाम के मूल में तो राष्ट्रीयता की अवधारणा भी नहीं है।" तो 2010 में सोनिया गांधी को भी चकाचौंध अर्थव्यवस्था से समाज में बढते फासले और गरीबी,महंगाई से आम आदमी के लिये कांग्रेस के टूटते हाथ के साथ साथ अयोध्या फैसले से मुस्लिमों में पैदा हुये काग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व के सवाल का जवाब भी सुदर्शन चक्र के विरोध के फार्मूले में ही नजर आ रहा है।
इसलिये बड़ा सवाल यह नहीं है कि काग्रेस का संघ पर हमला कबतक चलेगा या फिर संघ पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में सरकार आगे बढेगी या नहीं। बड़ा सवाल यह है कि क्या देश में मनमोहनइक्नामिक्स तले चकाचौंघ की अर्थव्यवस्था और उसकी छांव में विकास का खेल अब अपनी उम्र पूरी कर चुका है। जहां राजनीति को एक बार फिर ऐसी प्रयोगशालाएं चाहिये, जहां संघ मौतों की संख्या गिने और हिन्दु राष्ट्र का नारा लगाये और कांग्रेस देश भर में सांप्रदायिकता का सवाल खडा कर विरोध आगजनी में देश को झोंक कर सेक्यूलरइज्म का ऐसा झंडा बुंलद करे, जिसकी छांव में डरा हुआ मुस्लिम हिन्दुओं से गाढ़ी छांव पा ले।
Thursday, November 4, 2010
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सवा सौ साल की कांग्रेस की ईमानदारी |
ठीक दो साल पहले मणिकराव ठाकरे विदर्भ में कलावती के घर पर साइकिल, सिलाई मशीन और छप्पर पर डालने वाली टीन की चादर लेकर पहुंचे थे। और दो साल बाद एआईसीसी के सालाना जलसे में मंच पर वह सोनिया गांधी के ठीक पीछे बैठे थे। इन दो बरस में यवतमाल के जिलाध्यक्ष से लेकर महाराष्ट्र प्रदेश काग्रेस अध्यक्ष के पद पर मणिकराव कैसे पहुंच गये, यह या तो राहुल गांधी जानते है या फिर विदर्भ के कांग्रेसी, जिन्होंने कलावती के जालका गांव में राहुल के पोस्टर तक से झोपडियों की छतों को ढकते हुये मणिकराव को देखा। यह अलग किस्सा है कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद मणिकराव ठाकरे ने अपने पद का इस्तेमाल कर बेटे अतुल ठाकरे को सिर्फ डेढ़ लाख के सोलवेन्सी सर्टिफिकेट यवतमाल में 262 एकड जमीन पर माइनिग का लाइसेंस दिला दिया। जबकि इसी जमीन पर 1250 करोड़ का सीमेंट प्लांट लगाने के लिये अंबुजा सीमेंट वालो ने भी माइनिंग लाइसेंस मांगा था।
लेकिन विदर्भ का मतलब ही जब मणिकराव ठाकरे हो गया तब बेटे के व्यापार से बड़ा किसी उद्योग का प्लांट और निजी मुनाफे से बड़ा विकास का सवाल कैसे हो सकता है। इसलिये यह मुहावरा अब छोटा है कि कभी इंदिरा को इंडिया कहा गया। अब तो कांग्रेस भी पिरामिड की तरह ऊपरी चेहरे पर टिकी है। देश के लिये यह चेहरा सोनिया गांधी का हो सकता है लेकिन हर प्रदेश में सोनिया या राहुल का अक्स लिये कोई ना कोई चेहरा कांग्रेसी पहचान का है, जिसमें अपनी तस्वीर ना देखने का मतलब है बगावत। ऐसे में काग्रेसी नजरिये से भ्रष्टाचार को परिभाषित करना सबसे मुश्किल है। क्योंकि चकाचौंध भारत में तो लाइसेंस का आधार पूंजी है। और पूंजी पार्टी लाइन से उपर मानी जाती है। लेकिन अंधियारे भारत में से चकाचौंध निकालने का लाईसेंस सिर्फ सत्ताधारी ही पाते हैं। यानी जहां भाजपा की सत्ता है, वहा भाजपाई या संघी और जहां कांग्रेस की सत्ता है, वहां कांग्रेसियों के रिश्तेदार या खुद कांग्रेसी ।
चूंकि एआईसीसी सम्मेलन में सोनिया गांधी से महज दस हाथ से भी कम दूरी पर महाराष्ट्र के वही सीएम बैठे थे जो भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अपना इस्तीफा दो दिन पहले ही सोनिया गांधी को थमा आये थे। और पूरे सम्मेलन में सभी की नजर उन्हीं पर ज्यादा भी थी और कांग्रेसी उन्हीं को सबसे ज्यादा टटोल भी रहे थे कि मैडम ने कहा क्या। यानी मुंबई की जिस आदर्श इमारत ने काग्रेस की आदर्श सोच की बखिया उधेड़ दी, उसके खलनायक ही मंच पर नायक सरीखे लग रहे थे। और ऐसे में काग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने जब देश में बनते दो देशों का सवाल खड़ा किया, तब भी उनकी नजर अशोक चव्हाण की तरफ गयी या नहीं, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन कांग्रेसी चकाचौंध के लिये कैसे अंधेरिया भारत को और अधेंरे में लेजाते है यह महाराष्ट्र में बीते पन्द्रह बरस की काग्रेसी सत्ता के सरकारी आंकड़ों से भी समझा जा सकता है।
इन 15 बरस में 70 फीसदी उद्योग बीमार होकर बंद हुये। रिकॉर्ड 90 लाख युवाओं के नाम रोजगार दफ्तर में दर्ज हुये। गरीबो की तादाद में 12 फीसदी का इजाफा हुआ। बीपीएल परिवार में 7 फीसदी का इजाफा हुआ। 15 बरस में सवा लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली। खेती की विकास दर औसतन उससे पहले के 15 बरस की तुलना में 7 फीसदी तक घटी। सुनहरा कपास ऐसा काला हुआ कि सिर्फ विदर्भ के 30 लाख किसानों का जीवन सरकारी पैकेज पर आ टिका। यह सवाल अलग है कि विकास से पहले की न्यूनतम जरुरत पीने का साफ पानी, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और मध्यम दर्जे की शिक्षा अब भी 35 फीसद आबादी से दूर है। जबकि समूचे विदर्भ और मराठवाडा के वह हिस्से, जहां से अशोक चव्हाण, विलासराव देसमुख और सुशील कुमार शिंदे आते हैं, के करीब सत्तर फीसद कांग्रेसी नेताओ की औसतन संपत्ति डेढ़ करोड पार की है। जबकि इन क्षेत्रो में औसतन आय अभी सालाना 22 हजार तक नही पहुंची है। और ग्रामीण क्षेत्र में यह आय 12 हजार से ज्यादा की नहीं है।
समझना होगा कि कैसे कांग्रेसी सफेद झक खादी पहन कर एआईसीसी की बैठक में नजर आते हैं। मराठवाडा और विदर्भ में करीब सत्रह सौ लाइसेंस माइनिंग के बांटे गये। जिसमें से 36 छोटे-बड़े उघोगों को निकाल दिया जाये तो सभी लाइसेंस वैसे ही कांग्रेसियों को दिये गये, जैसे यवतमाल में अतुल टाकरे या फिर कांग्रेसी विधायक के बेटे प्रवीण कासावर या कांग्रेसी लतीफ उदीम खानाला को। इसी तरह हर जिले में एमएईडीसी यानी महाराष्ट्र ओघोगिक विकास निगम की जमीन भी करीब 50 हजार से ज्यादा कांग्रेसियो को ही बांटी गयी, उसमें सासंद भी है और पार्टी के लिये पूंजी जुगाड़ने वाले स्थानीय व्यापारी नेता भी। कुल 54 कॉलेज इस दौर में खुले, जिसमें से 45 के मालिक कांग्रेसी हैं। असल में सत्ता का कैडर या कार्यकर्ताओ का जुगाड़ ही लाइसेंस के बंदरबांट से होता है और उसके आईने में विकास का पैमाना नापना होता है, उसे राहुल कितना समझते है, यह कहना वाकई मुश्किल है।
लेकिन विकास का चेहरा केन्द्र से चल कर गांव की जमीन पर क्या असर दिखाता है, इसे किसानों को लेकर प्रधानमंत्री के करोड़ों के पैकेज से भी समझा जा सकता है। 2006 से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बात पर गर्व कर रहे है कि उन्होंने साढ़े पांच हजार करोड़ का पैकेज विदर्भ के किसानो को दिया। लेकिन इस दौर में ग्रामीण बैंक के अधिकारी और बैक के कर्मचारी भी क्यों कांग्रेसी हो गये यह किसी ने नहीं जाना। क्यों कांग्रेसी विधायक से लेकर कांग्रेसी कार्यकर्ता की धाक उसी दौर में किसानों पर बढ़ी, जिस दौर में करोड़ों रुपये का पैकेज किसानों के लिये आना शुरु हुआ। बुलढाणा के कांग्रेसी विधायक दिलिप सानंदा तो एक कदम आगे बढ़ गये और किसानों के पैकेज के पैसे को ही किसानो में ब्याज पर बांटने लगे। असल में बुलढाणा के खामगांव में विधायक सानंदा का बंगला देखकर ही राहुल गांधी समझ सकते हैं कि देश के भीतर बनते दो देशों में अंधियारे के बीच भी कैसी चकाचौंध हो सकती है।
खामगांव जैसे गांव में बने इस बंगले को देखकर तो लुटियन्स की दिल्ली भी शर्मा जाये। जबकि बुलढाणा में 78 फीसद ग्रामीण बीपीएल है । कुल 85 फीसदी गरीब है। असल में एआईसीसी की बैठक में दिल्ली के 10 जनपथ और 7 रेसकोर्स को छोड दें तो हर नेता बुलढाणा या यवतमाल सरीखे जिले से ही निकल कर मुबंई या दिल्ली की सत्ता तक पहुंचा है। ऐेसे में मंच पर अशोक चव्हाण हो या मंच के नीचे बैठे सुरेश कलमाडी या फिर सोनिया गांधी के ठीक पीछे बैठे मणिकराव ठाकरे और बायीं तरफ स्थायी आमंत्रित सदस्य विलासराव देसमुख। समझ सभी रहे थे कि असल में भ्रष्टाचार की गंगोत्री कांग्रेस में गांधी परिवार का नाम जपने के साथ मिलने वाले तोहफे से ही शुरु हो जाती है। इसीलिये महाराष्ट्र के सीएम भ्रष्ट है या नही इसकी जांच देश में पुलिस या कानून नहीं बल्कि कांग्रेस की ही प्रणव-एंटोनी कमेटी करती है। जिसके सर्टीफिकेट से तय होगा भ्रष्टाचार हुआ या नहीं। यानी कांग्रेस सर्वोपरि । इसीलिये राहुल गांधी ने भी मंच से सही ही कहा कि देश की एकमात्र पार्टी कांग्रेस है बकी सभी तो प्रांत-धर्म और जाति में सिमटे है।
Tuesday, November 2, 2010
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बिहार की लिखी जा रही है नई इबारत |
बिहार में 1974 के जेपी आंदोलन की सोच अगर 1989 में मंडल तले दफन हुई तो मंडल की सोच 2010 में आर्थिक सुधार की जरुरतों तले दफन होती दिख रही है। 2010 के बिहार चुनाव में बिहार की वैसी बहुतेरी हकीकत मिथ में बदल रही है जिनके आसरे चुनावी राजनीति का वर्चस्व पांच दशकों से बिहार ने ढोया। परिवर्तन की इस हवा को बहाने में नीतीश कुमार या लालू यादव की सत्ता के दौर का कितना हाथ है यह निर्णय लेने से पहले जरा समझना होगा कि बिहार के समाज की जरूरत ही कैसे बदलती चली गयी।
जेपी की संपूर्ण क्रांति के नारे ने अगर पांच साल के भीतर ही बिहार के युवाओं का भ्रम तोडा और निराशा के अवसाद में ही युवाओं को अपना कैरियर बर्बाद होना दिखा। तो मंडल की आंच की गर्माहट खत्म होने में दस साल का वक्त लगा। और बीते एक दशक के दौरान (1999-2010) बिहार के हर तबके के सामने सबसे बडा सवाल यही रेंगता रहा कि उसकी जरुरत है क्या। उसका रास्ता जाता किधर है। और आंदोलनों से देश को करवट लेने के लिये मजबूर करने वाले बिहारियों का लक्ष्य है क्या। क्योंकि इस दौर में आर्थिक परिस्थितियों के बदलने से देश परंपराओं को तोड़ एक नयी राह जरुर बना रहा था। इस दौर में पूंजी का वर्चस्व संसदीय लोकतंत्र तक पर छाया। चुनी गयी सरकारों की सत्ता कारपोरेट सत्ता के आगे कमजोर दिखी। वोट की ताकत से चाहे सत्ता बदल जाये लेकिन इस ताकत से बडी ताकत पूंजी की बनी और उसमें इतनी पारदर्शिता आ गयी कि वोट डालने या आंदोलन खड़ा करने के बाद भी सौदेबाजी का दायरा पूंजी के मुनाफे से होता हुआ ही सत्ता को छूता दिखा।
केन्द्र में अगर मनमोहन सिंह की आर्थिक चकाचौंध ने लोकतंत्र का हर पाये को अपने उपर निर्भर बना दिया। और संविधान का चैक-एंड-बैलेंस काफूर होता दिखा। तो गुजरात में नरेन्द्र मोदी का उग्र हिन्दुत्व विकास के इन्फ्रास्ट्रक्चर तले छुप गया। कश्मीर से लेकर केरल तक और महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक आर्थिक चकाचौंध तले विचारधारा या आंदोलनों को देश के खिलाफ सरकारी सत्ता ने कुछ इस तरह खडा किया जिसमें या तो चकाचौंध नहीं तो अपराधी वाली समझ ही रेंगने लगी। लेकिन इस दौर में बिहार की भूमिका कहीं बढी तो वह रोजगार के लिये पलायन। बाहुबलियों से निजात पाने के लिये पलायन। मुनाफा बनाने के लिये पूंजी का पलायन। शिक्षा के लिये पलायन और तो और विवाह के लिये बेटियों का पलायन। लड़कियां भी उस लड़के को दी जाने लगीं जो बिहार का होकर भी बिहार के बाहर ही काम कर रहा था। 1995 से 2006 तक के दौर में बिहार में हर घर की हकीकत यही रही कि जब भी समूचा परिवार जुटा तो बिहार के बाहर का रास्ता ही अलग अलग जरुरतों के लिये खोजना शुरु किया। 1990-2000 के दौर में घपले-घोटाले या अदालत का कहना जंगल राज। इसका मतलब सिर्फ भ्रष्ट्राचार या आपराधियों का बोलबाला नहीं था। बल्कि राज्य में इन्फ्रस्ट्रचर पर ध्यान ना देना और जातीय नेतृत्व का मतलब जात के अंदर बाहुबली की पहचान बनाना भी था।
बाहुबल सिर्फ कानून व्यवस्था को ताक पर रखना भर नहीं हुआ बल्कि इस खेल ने पिछड़े-अगड़े की लकीर भी मिटाई। राजन तिवारी हो या आंनद मोहन और पप्पू यादव हो या शहाबुद्दीन जातीय घेरे में चाहे सभी अलग-अलग हों लेकिन पहचान एक सरीखी ही सभी की रही। इसलिये जब अपराधियों पर नकेल कसने की शुरूआत नीतीश कुमार ने की उसके आईने में जातीय समीकरण या जाती य संघर्ष नहीं उभरा बल्कि अपराध खत्म करने और कानून व्यवस्था का राज लागू होने का संवाद उभरा। फिर इसी दौर में जातीय तनाव की वह परिस्थितियां भी कम होने लगीं जो सिर्फ खेती और भूमि को लेकर संघर्ष की लकीर बिहार में खिंचती थी। जिसके आसरे राजनीति भी जातियों खेमो में अपना दम दिखाकर वोट बटोरने से नहीं कतराती थी।
चूंकि भूमि और खेती ही बिहार में जातियों को बांटती और उसी आधार पर जातियों के संघर्ष को पेट से जोडती। लेकिन जिस तरह पलायन ने बिहार के बाहर के समाज को भी नयी पीढ़ी के जरिये बिहार को नये तरीके से जोड़ना शुरू किया। उसमें छात्र से लेकर विवाहिता और मजदूर से लेकर व्यापारी तक जब जब बिहार लौटे तब तब परिवारों में बिहार के बाहर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को लेकर तुलना जरुर हुई। अपराधियों या कहें बाहुबलियों पर नीतीश सरकार की कार्रवाई ने सिर्फ कानून व्यवस्था का दायरा नहीं बढाया बल्कि इसने जातीय तनाव को भी कम किया और उन आर्थिक परिस्थितियों को भी बदल दिया जिनके आधार पर जातीय विभाजन आसानी से नजर आता था। खासकर आय के साधनों में सामूहिकता के बोध ने हर जाति के भीतर इस सोच को विकसित किया कि उसके जीने की जरूरत रोजगार है ना कि जातीय समीकरण।
चूंकि 2001 से 2006 के दौरान आर्थिक सुधार की हवा ने जातीय घेरे में ही जीने की सोच को कई स्तर पर बदला। मसलन माल संस्कृति ने जातीय आधार पर धंधे की सोच खत्म की, तो बाजार संस्कृति ने धंधे पर कोई आंच आने पर उसके विरोध की जमीन को जातीय आधार के बदले कानून व्यवस्था के दायरे में देखा। यानी सत्ता की जो सोच पहले जातीय समीकरण के आधार पर सत्ता की मलाई खाने के लिये होती थी वह अब सत्ता के जरिये अपने धंधे को चलाये रखने के लिये वातावरण खोजने लगी। यानी सत्ता का मतलब जातीय दबंगई ना होकर सुशासन हो गया। और इस सोच के घेरे में वह सभी जातियां आयीं जो कल तक खुद को जातीय समीकरण के आसरे अपनी सत्ता को बनते या बिगडते देखने की सोच पाले हुईं थी।
यानी बिहार चुनाव में अगर पहली बार विकास मुद्दा बना है तो उसके पीछे वह तमाम परिस्थितियां हैं जिसके आसरे वह समाज अपनी जरुरतों को पूरा होता देख रहा है जो जरुरतें एक दशक पहले तक सत्ता के साथ जातीय समीकऱण बैठाने पर ही पूरी होती थी। यानी दलित हो या ब्राह्मण या फिर राजपूत हो या कुर्मी । उसकी जरुरतें सामूहिक घेरे में बिना किसी सामाजिक आंदोलन के इस दौर में एक सरीखी होती चली गयीं। हालांकि महादलित और मुस्लिम समुदाय चुनावी दौर में अभी भी उन रास्तो को टटोल रहे हैं जहां उनकी जरुरतें सत्ता की नीतियों और सरकार की योजनाओं के आसरे पूरी हों। लेकिन 2010 में भी सत्ता या कहे सरकारें अभी भी नीतियों के आसरे महादलित या मुस्लिमों को खुद पर आश्रित किये हुये हैं, इसलिये महादलित अगर अपने अनुकूल सरकार बनाने की दिशा में है तो मुस्लिम अपनी एकजुटता से जीतने वाले के साथ खडा होकर खुद को किंग-मेकर की भूमिका में रहना चाहता है।
दरअसल सत्ता के तौर तरीकों ने बिहार में जातियों के उग्रपन को भी सत्ता से डिगाया है। मसलन एक दौर में अगर श्री बाबू के मुख्यमंत्री रहते हुये बिहार में भूमिहार जाति खासी दबंग और उग्र हुई तो लालू प्रसाद यादव के दौर में यादव भी दबंग और उग्र हुआ। इसी का असर है कि जाति के उग्र चेहरे को सरकार बनाने की दिशा में मान्यता दुबारा कभी मिली नहीं। श्री बाबू के बाद कोई भूमिहार मुख्यमंत्री नहीं बना तो लालू यादव के बाद यह खतरा यादवो को लेकर भी पैदा हुआ। इसका एक नजारा 2005 और इस बार यानी 2010 के चुनाव के दौरान छपरा में नजर आया। 2005 में छपरा के धर्मनाथ जी के मंदिर के ठीक सामने धर्मनाथ दुबे के परिवार के लोगों ने कैमरे पर कोई प्रतिक्रिया इस डर से नहीं दी कि कोई यादव अगर सुन लेगा तो उनका जीना मुहाल हो जायेगा। वहीं इस बार धर्मनाथ दुबे परिवार खुले तौर पर चुनाव पर अपनी प्रतिक्रिया बिना हिचक देने के लिये सामने आया। ऐसा भी नहीं है कि इस बाद उसी गली में यादवो में कोई हिचक थी।
खुले तौर पर हर कोई अपने उम्मीदवारों को लेकर अपनी बात कहने की हिम्मत दिखा रहा था। असल में यह चेहरा विकास का नहीं विकास की दिशा में कदम उठने से पहले उस सोच के घेरे का है जो किसी भी समाज के आगे बढ़ने की पहली जरुरत होती है। यानी पहली बार चुनाव में सरकार पर निर्भरता बिना जातीय समीकरण को लेकर बढी है। इसलिये सवाल नीतीश कुमार या लालू यादव का नहीं है बल्कि सवाल उन परंपराओं के टूटने के बाद बने उस माहौल का है जिसमें पहली बार अपने आस्तिव को बाजार या रोजगार के जरिये लोग टोटल रहे हैं। इसका असर ही है कि चुनाव प्रचार के केन्द्र में नीतिश कुमार के पांच बरस के शासन से ज्यादा लालू-राबडी के वह पन्द्रह साल बार बार गूंज रहे है। यानी लालू पहली बार नीतीश के नकारात्मक विकल्प के तौर पर चुनाव मैदान में ज्यादा नजर आ रहे हैं। जबकि कांग्रेस उन दोनो मोर्चो पर विफल है जिसके आसरे बिहार कांग्रेस को लेकर लकीर खींच सकता था।
दरअसल जातीय समीकऱण पर विकास का सवाल छाने के बाद नये तबके के तौर पर युवा और महिला का उबार तो हुआ है लेकिन इनकी अगुवाई करने की ताकत करने नाला कोई नेता बिहार में किसी दल के पास नहीं है। राहुल गांधी और सोनिया गांधी इस दिशा में एक आस भर हैं। जो विश्वास में तब्दील इसलिये नहीं हो सकते क्योंकि अभी कांग्रेस के अनुकूल ना तो बिहार बना है और ना ही मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था को बिहार में मान्यता मिली है। लेकिन नीतीश की सत्ता पर अंकुश कांग्रेस दिल्ली से भी लगा सकती है, यह सोच जरुर उभरी है। यानी बिहार चुनाव के परिणाम कांग्रेस के विपक्षी दल के तौर पर मान्यता दिला सकते हैं। इन परिस्थितियों में सबसे मौजू वह सवाल है जो इस चुनाव में गायब है। नीतीश कुमार का सकारात्मक विकल्प। यानी 15 बरस का विकल्प तो सकारात्मक तौर पर 5 बरस मौजूद रहा। मगर 5 बरस का सकारात्मक विकल्प इस चुनाव में गायब है। ऐसे में पहली बार बूढ़ी हो चुकी जेपी की पीढी हो या चालीस पार मंडल की पीढी इन दोनों के आंदोलन बिहार की जवां पीढी की रगों में नहीं दौडती। क्योंकि जेपी और मंडल से निकले बिहारियों ने राजनीतिक जीवन छोड़ चुनावी हिसाब से चलना शुरू कर दिया था। और चुनावी गणित ही राजनीति का मंत्र बन गया।
इसलिये नयी पीढी ना तो राजनीति या चुनाव के हिसाब से जीने को तैयार है ना ही लालू या नीतीश में अपना अक्स देख नहीं पा रहे है। बल्कि यह जवां पीढी मनमोहन सिंह के चकाचौंध को भी अपना सच नहीं मानती। और तो और जेपी या मंडल भी इस नये बिहार की जरुरत नहीं है। इसलिये चुनाव परिणाम ना तो चौकाने वाले होगें और ना ही आखरी सच ।