भारत रत्न के दायरे में खेल-खिलाड़ी आ जायेंगे यह कभी सोचा नहीं गया। लेकिन कला-संसकृति, साहित्य और समाजसेवा से लेकर स्टैट्समैन की कतार में अब अगर खिलाडि़यों की बात होगी तो इसके संकेत साफ हैं कि आने वाले दौर में बाजारवाद की लोकप्रियता भी भारत रत्न की कतार में नजर आयेगी। तो क्या भारत रत्न की जो परिभाषा आजादी के बाद गढ़ी गई अब उसे बदलने का वक्त आ गया। क्योंकि खेल को कभी राष्ट्रवाद या राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा नहीं गया। संघर्ष और कला के मिश्रण में ही हमेशा भारत रत्न की पहचान खोजी गई। जबकि खेल के जरिए भारत को दुनिया में असल पहचान हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने ही पहली बार दी थी।
1936 में बर्लिन ओलंपिक में हिटलर के सामने ना सिर्फ जर्मनी की हॉकी टीम को 8-1 से पराजित किया, बल्कि उस दौर में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर के सामने खड़े होकर तब उन्हें भरतीय होने का एहसास कराया, जब हिटलर से आंख मिलाना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती थी। ध्यानचंद ने हिटलर की उस फरमाइश को खारिज कर दिया जिसमें हिटलर ने ध्यानचंद को भारत छोड़ कर्नल का पद लेकर जर्मनी में रहने को कहा था। लेकिन, ध्यानचंद उस वक्त भी भारत को लेकर अडिग रहे और अपने फटे जूते और लांस-नायक के अपने पद को बतौर भारतीय ज्यादा महत्व दिया। इतना ही नहीं आजादी से पहले देश के बाहर देश का झंडा लेकर कोई शख्स गया था तो वह ध्यानचंद ही थे। ओलंपिक फाइनल में जर्मनी से भिड़ने से पहले बकायदा टीम के कोच पंकज गुप्ता, कप्तान ध्यानचंद के कहने पर कांग्रेस का झंडा हाथ में ले कर जर्मनी की टीम को पराजित करने की कसम खायी। लेकिन भारत रत्न की कतार में कभी ध्यानचंद को लेकर सोचा भी नहीं गया।
हालांकि इस कड़ी में नायाब हीरा शहनाई वादक बिसमिल्ला खान भी हैं। जिनकी शहनाई सुनकर एक बार अमेरिका ने उन्हें हर तरह की सुविधा देते हुये अमेरिका में रहने की फरमाइश कर डाली थी। और कहा कि बिसमिल्ला खान जो चाहेंगे वह अमेरिका में मिलेगा। लेकिन तब बिसमिल्ला खान ने बेहद मासूमियत से यह सवाल किया था, 'गंगा और बनारस कैसे लाओगे। इसके बगैर तो शहनाई ही नहीं।' हालांकि बिसमिल्ला खान को भारत रत्न से जरूर नवाजा गया। लेकिन अब जब भारत रत्न के घेरे में खेल-खिलाड़ी को लेकर सरकार ने कवायद शुरू की है तो देश में खेल की दुनिया के सबसे बडे ब्रांड सचिन तेदुलकर को लेकर भारत रत्न चर्चा शुरु हो चुकी है। और इस कतार में लता मंगेश्कर से लेकर अन्ना हजारे और दर्जनों सांसद हैं जो बार-बार सचिन का नाम लेकर भारत रत्न देने की बात खुले तौर पर कह रहे है। समान्य तौर पर यह बहस हो सकती है कि सचिन तेंदुलकर से बड़ा नाम इस देश में और कौन है जिसने इतिहास रचा और अब भी मैदान पर है।
हालांकि चर्चा इस बात को लेकर भी सकती है कि सचिन ने देश के लिये किया क्या है। खिलाड़ी की मान्यता के साथ ही खुद को बाजार का सबसे उम्दा ब्रांड बनाकर सचिन की सारी पहल देश के किस मर्म से जुड़ती है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन जब भारत रत्न का कैनवास बड़ा किया ही गया है तो कुछ सवाल भारत रत्न को लेकर इससे पहले की सियासत को लेकर भी समझना जरूरी है। 1954 में शुरू हुई उस परंपरा में यानी बीते 57 बरस में चालीस लोगों को इस सम्मान से नवाजा गया। लेकिन भारत रत्न से सम्मानित होने की सियासत पहले तीन भारत रत्न के बाद से डगमगाने लगी। 1954 में सबसे विशिष्ट नागरिक अलकरण भारत रत्न से उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व गवर्नर राजगोपालाचारी और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकटरमन को सम्मानित किया गया। लेकिन अगले ही बरस यानी 1955 में भारत रत्न के लिये प्रधानमंत्री कार्यालय से जो चौथा नाम निकला वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु का था। यानी खुद के बारे में खुद ही सबसे बड़े नागरिक अलंकरण से सम्मानित होने की यह पहली पहल थी। इसके बाद इसका दोहराव 16 बरस बाद 1971 में इंदिरा गांधी ने किया। जब एक बार फिर पीएमओ से जो नाम भारत रत्न के लिये निकला उसमें खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ही नाम था।
दरअसल सत्ता की महक कैसे भारत रत्न के जरिए अपनी अहमियत बताती है यह 1991 में कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाते चद्रशेखर ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करके दिया। प्रधानमंत्रियों की फेरहिस्त में नेहरु, इंदिरा और राजीव के अलावे दो ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई हैं जिन्हें भारत रत्न से नवाजा गया। जाहिर है इस दौर में बीजेपी बार-बार भारत रत्न के लिये अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेती है, लेकिन समझना होगा की सत्ता कांग्रेस की है। जब वाजपेयी सत्ता में थे तो अपने छह बरस के दौर में छह लोगो को भारत रत्न दिया। जिसमें 1999 में जयप्रकाश नारायण, गोपीनाथ बरदोलई, रविशंकर, अमर्त्य सेन और 2001 में लता मंगेश्कर और बिसमिल्ला खां को भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन जब से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से कोई नाम भारत रत्न के लिये के लिये नहीं उभरा। अब यहां सवाल सचिन तेंदुलकर का उठ सकता है। क्योंकि मनमोहन सिंह का मतलब अगर आर्थिक सुधार के जरिए भारत को बाजार में तब्दील करना है तो सचिन का मतलब उस बाजार का सबसे अनुकूल उत्पाद होना है।
सचिन को क्रिक्रेट ने बनाया और देश के उन 27 उत्पाद को सचिन तेदुलकर ने पहचान दी जिनके ब्रांड एंबेसडर सचिन तेदुलकर बने। इस वक्त देश में तीस लाख करोड़ के धंधे के सचिन तेदुलकर अकेले ब्रांड एम्बेसडर हैं। यानी जो पहचान देश के क्रिक्रेट खिलाड़ी होकर सचिन ने पायी उसकी रकम वह सालाना करोड़ों में बतौर खुद के नाम और चेहरे को बेचकर कमाते हैं। जिन उत्पादों का वह गुणगाण करते हुये नजर आते हैं उनमें से नौ उत्पाद तो देश के हैं भी नहीं, बाकि 18 उत्पादों का काम खुद को बेचकर मुनाफा बनाने से इतर कुछ है नहीं। लेकिन इसमें सचिन तेदुलकर का कोई दोष नहीं है। अगर इस दौर में देश का मतलब ही बाजार हो चला है। अगर विकास का मतलब ही शेयर बाजार और कारपोरेट तले औद्योगिक विकास दर के स्तर को उपर पहुंचाना है, तो फिर बतौर नागरिक किसी भी सचिन तेंदुलकर का महत्व होगा कहां। असल और सफल सचिन तो वही होगा जो उपभोक्ताओ को लुभाये। जो अपने आप में सबसे बड़ा उपभोक्ता हो। इसलिये क्रिकेट का नया मतलब मुकेश अंबानी और विजय माल्या का क्रिक्रेट है। वो क्रिकेट जिसमें शामिल होने के लिये वेस्टइंडीज के क्रिक्रेटर क्रिस गेल अपने ही देश की क्रिक्रेट टीम में शरीक नहीं होते। पाकिस्तान के क्रिक्रेटर भारत के कॉरपोरेट क्रिक्रेट में शामिल ना हो पाने का दर्द खुले तौर पर तल्खी के साथ रखने से नहीं कतराते। और सचिन तेंदुलकर भी भारतीय क्रिक्रेट टीम में शामिल होकर 20-20 खेलने के जगह कॉरपोरेट क्रिक्रेट की 20-20 में शरीक होने से नहीं कतराते।
अगर ध्यान दीजिये तो भारत रत्न की कतार में कॉपोरेट घरानों में सिर्फ जे. आर. डी. टाटा को ही यह सम्मान मिला है। लेकिन अब के दौर में जे. आर. डी. टाटा से कहीं आगे अंबानी बंधुओं समेत देश के टॉप पांच उद्योगपति आगे पहुंच चुके हैं। दुनिया में भारतीय कारपोरेट की तूती बोलने लगी हैं। चार कॉरपोरेट ने तो इसी दौर में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले इतना मुनाफा बनाया कि जे. आर. डी. के दौर में जो विकास टाटा ने आजादी के बाद चालीस बरस में किया उससे ज्यादा टर्न ओवर सिर्फ सात बरस में बना लिया। लेकिन देश से निकल कर खुद को बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर मान्यता पाने वालो में से किसी का नाम भारत रत्न की दौड़ में नहीं हैं।
यह कमाल अब की अर्थव्यवस्था का ही है कि देश के बीस करोड़ लोग एक ऐसे बाजार के तौर बन चुके हैं जिनके जरिए अमेरिका और चीन जैसे शक्तिशाली देशों से भी भारत कूटनीतिक सौदेबाजी करने की स्थिति में है। और जी-20 से लेकर ब्रिक्र्स और एशियन समिट से लेकर जी-8 में भी भारत के बगैर आर्थिक विकास की कोई चर्चा पूरी नहीं होती। जबकि इसी दौर में देश में जो की जो पीढ़ी युवा हुई उसके लिये आजादी के संघर्ष का महत्व बेमानी हो गया। ना गालिब का कोई महत्व इस दौर में बचा ना भगत सिंह का। और खेल-खिलाड़ी को भारत रत्न के दायरे में लाने पर अगर ध्यानचंद के साथ सचिन तेंदुलकर का नाम ही सत्ता की जुबान पर सबसे पहले आया तो फिर इस बार भारत रत्न का सम्मान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही क्यों नहीं मिलना चाहिये जिनके विकास की चकाचौंध जमीन पर सचिन सिर्फ एक ब्रांड भर हैं, जबकि मनमोहन सिंह की तो समूची बिसात है। फिर प्रधानमंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह का नाम अगर भारत रत्न के लिये आयेगा तो यह नेहरु और इंदिरा की कड़ी को ही आगे बढायेगा।
Thursday, December 29, 2011
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सवाल भारत रत्न का या सम्मान का |
Friday, December 23, 2011
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कैसे बिछी लोकपाल पर मठ्ठा डालने की सियासी बिसात |
यह पहला मौका है जब सरकार ने किसी बिल को पेश करने से ज्यादा मशक्कत बिल पास न हो इस पर की। और अन्ना टीम को बात बात में पहले ही यह संकेत दे दिया गया कि अगर वाकई लोकपाल के मुद्दे में दम होगा तो आने वाले वक्त में अन्ना टीम का भी राजनीतिकरण होगा और उस वक्त कांग्रेस राजनीतिक तौर पर इस लड़ाई को लड़ लेगी। दरअसल, लोकसभा में लोकपाल के मसौदे को पेश करने से पहले सरकार और कांग्रेस के बीच असल मशक्कत इसके राजनीतिक लाभ को लेकर हुई। तीन स्तर पर समूची बिसात को बिछाया गया। पहले स्तर पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अन्ना टीम को टोटला की वह कहां किस मुद्दे पर कितना झुक सकती है। दूसरे स्तर पर बीजेपी का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की नब्ज को सरकार ने पकड़ा और तीसरे स्तर पर अन्ना के आंदोलन से आने वाले पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस की राजनीति पर पड़ने वाले असर को परखा गया। इसको बेहद महीन तरीके से इस अंजाम तक ले जाया गया जिससे सरकार के हाथ में लोकपाल की डोर भी हो और यह नजर भी ना आये कि अगर लोकपाल अटका हुआ है तो उसकी डोर भी सरकार ने ही थाम रखी है।
यह सिलसिला जिस तरह से बीते पांच दिनो में अंजाम तक पहुंचा वह अपने आप में सियासत का अनूठा पाठ है। क्योंकि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद लगातार अन्ना टीम के संपर्क में यह कहते हुये रहे कि सरकार की मंशा मजबूत लोकपाल बनाने की है,लेकिन अन्ना टीम को ही यह सुझाव देने होंगे कि संसद के भीतर कैसे सहमति बने और सीबीआई सरीखे मुद्दे पर अगर सरकार की राय अलग है तो उसका कोई फार्मूला अन्ना टीम को बताना होगा। 34 मुद्दों को लेकर सलमान खुर्शीद के साथ चली चर्चा में अन्ना टीम के हर तरीके से रास्ता सुझाया और सलमान खुर्शीद यह संकेत भी देते रहे कि रास्ता निकल रहा है। लेकिन चर्चा में ब्रेक एक ऐसे मोड़ पर आया जब सलमान खुर्शीद ने लोकपाल के सवाल को राजनीतिक लाभ-हानि के आइने में देखना और बताना शुरु किया। और महाराष्ट्र कारपोरेशन चुनाव में शरद पवार की सफलता का उदाहऱण देते हुये सलमान खुर्शीद ने कहा कि जब चुनाव में हार जीत पर भ्रष्ट्रचार का मुद्दा या अन्ना आंदोलन महाराष्ट्र में ही असर नहीं डाल पाया तो फिर सरकार अन्ना आंदोलन के सामने क्यों झुके। और अगर लोकपाल को लेकर आंदोलन में इतनी ताकत हो जायेगी तो अन्ना टीम का भी राजनीतिककरण हो जायेगा। तो लड़ाई उसी वक्त लड़ लेंगे। और यह स्थिति तीन दिन पहले ही आयी और उसके 24 घंटे बाद ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अन्ना हजारे को चुनौती दे दी और पांच राज्यों में काग्रेस की चुनावी जीत का मंत्र भी कांग्रेसियो में फूंक दिया। वहीं इसी दौर में कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव की नब्ज को पकड़ा और कांग्रेस के दो कद्दावर नेताओं ने मुलायम को यही समझाया कि अगर मायावती भी सरकार के लोकपाल के खिलाफ है और समाजवादी पार्टी अन्ना के लोकपाल के हक में है तो फिर यूपी चुनाव में मुलायम के हाथ में आयेगा क्या।
यानी एक तरफ कांग्रेस ने अन्ना आंदोलन से बढ़ते बीजेपी के कद के संकट को बताया तो दूसरी तरफ लोकपाल के सवाल पर मायावती का सामने मुलायम को कोई लाभ ना मिलने की स्थिति पैदा की । इसी जोड़-तोड़ में अल्पसंख्यक का दांव मुलायम सिह यादव के सामने रखा गया । यानी यूपी के राजनीतिक समीकरण में मुस्लिम कार्ड को ही अगर लोकपाल से जोड दिया जाये तो लोकपाल का रास्ता भी रुक सकता है और मायावती पर मुलायम का दांव भी भारी पड़ सकता है। जबकि इसी के समानांतर राजनीतिक तौर पर कांग्रेस ने लगातार सरकार को भी इस सच से रुबरु कराया कि जब तक लोकपाल के सवाल को वोट बैंक की सियासत से नहीं जोड़ा गया और जब तक लोकपाल पर कोई भी कदम उठाने के बाद राजनीतिक लाभ कांग्रेस को नहीं मिले तब तक लोकपाल पर मठ्ठा डालना ही होगा। चूंकि राजनीतिक तौर पर लाभ उठाने या वोट बैंक को रिझाने के लिये ही सारे दल लोकपाल का खेल खेल रहे हैं तो ऐसे में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन के साथ ही सरकार को भी चलना होगा । और इसी के बाद उन मुद्दो पर ही मठ्टा डालने की दिशा में अभिषेक मनु सिंघवी स्टैंडिंग कमेटी के जरीये लगे जिसपर अन्ना का अनशन तुड़वाते वक्त संसद में सरकार की ही पहल पर सहमति बनी थी। यानी जिस अन्ना हजारे को लेकर अभी तक सरकार से लेकर सोनिया गांधी का रवैया फुसलाने-बहलाने वाला था, उसी अन्ना से उन्हीं के मुद्दो पर टकराव का रास्ता राजनीतिक बिसात के तौर पर अख्तियार किया गया। जिससे लोकपाल को लेकर आगे यह ना लगे कि टकराव बीजेपी से है।
यानी जब समझौते की स्थिति भी आये तो गैर राजनीतक तौर पर काम कर रहे अन्ना हजारे ही नजर आयें और बीजेपी राजनीतिक संघर्ष का लाभ उठाने के घेरे से बाहर हो जाये । इस बिसात का पहला राउंड लोकपाल पेश करने के साथ ही सरकार के पक्ष में रहा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन सरकार की असल परीक्षा 27 दिसंबर से शुरु होगी। क्योंकि तब संसद के सामानांतर सड़क पर जनसंसद का भी सवाल होगा । और अब सरकार-कांग्रेस के धुरंधर अपनी राजनीतक बिसात पर इसी मशक्कत में लगे है कि कैसे संसद के सामने सड़क के आंदोलन को हवा का झोंका भर बना दिया जाये।
Tuesday, December 20, 2011
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सत्ता की सांप-सीढ़ी का खेल सीबीआई |
दिल्ली में जंतर-मंतर पर अन्ना के साथ मंच पर बैठे राजनीतिक दल के नेताओं में से एक ने जब लोकपाल के ढांचे पर अरविंद केजरीवाल से सवाल किया किया गया कि वह 40 से 50 ईमानदार कर्मचारी कहा से लायेंगे। तो केजरीवाल ने बेहद मासूमियत से जवाब दिया कि सवाल ईमानदार कर्मचारियो का नहीं है, बल्कि ईमानदार व्यवस्था का है। जैसे रेलवे में भ्रष्ट अधिकारी दिल्ली मेट्रो से जुड़ते ही ईमानदार कैसे हो जाता है। इसका मतलब है बदलाव कर्मचारियों में व्यवस्था बदलने के साथ ही होगा। जाहिर व्यवस्था बदलाव की इस सोच को अगर सीबीआई के अक्स में देखें तो एक नया सवाल खड़ा हो सकता है कि सीबीआई के स्वायत्त संस्था होने के बावजूद सत्ता ने जब चाहा अपने अनुकुल हथियार बना कर सीबीआई को पैनी धार भी दी और भोथरा भी बनाया। यानी सत्ता के तौर-तरीके अगर देश के बदले सत्ता में बने रहने या निजी लाभ के लिये काम करने लगे तो फिर कोई भी स्वायत्त सस्था भी कैसे सरकार के विरोध की राजनीति करने वाले को सत्ताधारियों के लिये दबा सकती है, यह सीबीआई के जरिए हर मौके पर सामने आया है।
सीबीआई को लेकर किसी के भी जेहन में बोफोर्स घूसकांड से लेकर बाबरी मस्जिद में नेताओं को फांसने और क्लीन चिट देना रेंग सकता है। बोफोर्स कांड में गांधी परिवार के करीबी क्वात्रोकी को लेकर सीबीआई ने तीन बार यू टर्न लिया। और बाबरी कांड में लालकृष्ण आडवाणी को क्लीन चिट देने की पहल कैसे रायबरेली कोर्ट में हुई यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन सत्ता के लिये कैसे सीबीआई सत्ता के निर्देश पर काम करता है यह कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ने ऐसे ऐसे प्रयोग किये हैं कि सीबीआई देश में जांच एजेंसी से ज्यादा पिंजरे में बंद शेर लगने लगा है। जिसे पिंजरे से खोलने का डर दिख कर सत्ता अपनी सत्ता बचाती है।
सीबीआई को सांप-सीढ़ी के खेल में कैसे बदला गया इसका पहला खुला नजारा अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए की सत्ता में 1998 में ही नजर आया था। तब सरकार बनाने में वाजपेयी के पीछे जयललिता भी खड़ी थी । तो एनडीए ने सत्ता में आते ही जो पहली चाल चली वह जयललिता के खिलाफ सीबीआई की उस जांच को रोक दिया जो जन्मदिन में मिली भेंट के तौर पर करोड़ों के डिमांड-ड्राफ्ट को लेकर 1996 में करुणानिधि सरकार ने शुरू की थी। तब जयललिता को जन्मदिन पर 89 डिमाड ड्राफ्ट मिले थे। जिसमें ब्रिटेन और अमेरिका से भी एक-एक ड्राफ्ट आया था। जांच इनकम टैक्स के डायरेक्टर जनरल ने शुरु की और मामला सीबीआई तक जा पहुंचा।
लेकिन वाजपेयी सरकार से जयललिता की खटपट भी जल्द शुरु हो गयी और अप्रैल 1999 में जब जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया और उसके बाद वाजपेयी सरकार गिर गई। लेकिन संयोग से चुनाव बाद जैसे ही वाजपेयी सरकार को बहुमत मिला तो इस बार एनडीए के खिलाड़ी बदल गये और जयललिता की जगह करुणनिधि ने ले ली. इसके फौरन बाद सीहीआई को निर्देश दिया गया कि जयललिता की बंद फाइल खोल दी जाये। और इस बार सीबीआई ने अपने असली दांत दिखाये। 15 महीने में सीबीआई ने चार्जसीट तैयार कर ली। यह अलग मसला है कि फिर सरकार ने जयललिता के खिलाफ कार्रवाई पर ही रोक लगा दी।
सीबीआई को सांप सीढी बनाने का ऐसा ही खेल कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव को लेकर खेला। आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में जिस सीबीआई ने मुलायम को घेरा उसी सीबीआई ने मुलायम को बेदाग कहने में भी हिचक नहीं दिखायी। यह हुआ कैसे यह दुनिया के किसी भी खेल से ज्यादा रोचक है। नवंबर 2005 में मुलायम के खिलाफ जब वीएन चतुर्वेदी ने करोड़ों की संपत्ति बटोरने के तथ्य रखे तो कोर्ट ने मार्च 2007 में सीबीआई को प्राइमरी जांच का निर्देश दिया। सीबीआई ने अपनी कार्रवाई शुरू की और जांच के बाद माना कि मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार वालों के खिलाफ मामला बनता है। इसलिये केस दर्ज करने के लिये सीबीआई ने अदालत का दरवाजा खटकटाया। लेकिन इसी बीच मनमोहन सरकार परमाणु डील पर फंस गयी। वामपंथियों ने समर्थन वापस लिया तो मनमोहन सरकार को मुलायम की जरूरत आन पड़ी। जुलाई 2008 में लेफ्ट ने समर्थन वापस लिया। और जुलाई में ही मुलायम की बहू डिंपल का पत्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दफ्तर यह कहते हुये पहुंचा कि उन्हे फंसाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने मुलायम की बहू के पत्र का जवाब देने में देर नहीं की और सीबीआई से इस पर कानूनी सलाह लेने की बात कही। संसद में वोटिंग हुई तो सरकार बच गयी।
मुलायम की पार्टी ने मनमोहन सरकार का साथ दिया। तीन महीने बाद ही सोलिसिटर जनरल वाहनवति ने अदालत में दलील दी की मुलायम के परिवार की संपत्ति को जांच के दायरे में लाना ठीक नहीं। और बीस दिन के बाद दिसबंर 2008 में ही सीबीआई ने मुलायम के खिलाफ मामले में यू दर्न लेते हुये कोई मामला ना बनने की बात कही। और मुकदमा दर्ज करने की भी जरूरत से इंकार कर दिया। झटके में खेल बदल गया तो 10 फरवरी 2009 को मुलायम के मामले की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस सायरस जोसेफ को कहना पड़ा कि सीबीआई के कामकाज का तरीका ऐसा लगता है जैसे वह केन्द्र सरकार और कानून मंत्रालय के लिये काम कर रही है। लेकिन जब खिलाड़ी ही खेल बदलने लगें तो रेफरी क्या करे। फैसला सुरक्षित हो गया।
लेकिन मायावती को लेकर तो सीबीआई के जरिए सांप-सीढ़ी से आगे का खेल भाजपा और काग्रेस दोनों ने खेला। पहले वाजपेयी की अगुवाई वाले एनडीए ने , तो उसके बाद मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए ने। यह खेल कही ज्यादा ही रोचक रहा। ताजमहल के पीछे खुले आसमान में कॉरिडोर बनाने के मायावती के सपने को लेकर वाजपेयी सरकार तबतक आं,ा मूंदे रही जब तक मायावती का समर्थन मिलता रहा। लेकिन अगस्त 2003 में जैसे ही मायावती ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लिया वैसे ही सीबीआई ने मायावती के खिलाफ 175 करोड़ के ताज प्रोजेक्ट के मद्देनजर ना सिर्फ केस रजिस्टर किया बल्कि घर और दफ्तर पर सीबीआई के ताबड़तोड़ छापे भी पड़ने लगे।
2004 में यूपीए की सत्ता बनने का मौका आया तो सोनिया गांधी ने मायावती का दरवाजा खटखटाया और सत्ता में मनमोहन सिंह के आते ही ताज कोरिडोर मामले पर सीबीआई खामोश हो गयी। राज्यपाल टीवी राजेश्वर ने मायावती के खिलाफ ताज फाइल बंद करवा दी। लेकिन 2007 में जैसे ही मायावती की यूपी की सत्ता में घमाकेदार वापसी हुई वैसे ही कांग्रेस को लगा कि माया की कोई ना कोई पूंछ तो पकड कर रखनी ही होगी। नहीं तो जयललिता की तर्ज पर यह भी कभी भी फिसल सकती है। तो सत्ता मे आने के बाद के जश्न में मने जन्मदिन के मौके पर सरकार ने घेराबंदी की। केस रजिस्टर हुआ। मामला आगे बढ़ा। मनमोहन सरकार 2010 में कट मोशन के दौरान सदन में फंसी तो 23 अप्रैल 2010 को इनकम टैक्स और सीबीआई माया के खिलाफ सक्रिय हो गई। 27 अप्रैल को सरकार कट मोशन मे मायावती के समर्थन से बची तो तुरंत ही इनकम टैक्स ने मायावती को आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में अपनी तरफ से क्लीन चिट दे दी। लेकिन अब यूपी के विधानसभा चुनाव करीब हैं और राहुल गांधी कांग्रेस की नैया पार लगाने में यूपी के हर नुक्कड़-चौराहे पर मायावती को घेर रहे हैं तो सितबंर 2011 में सीबीआई ने इन्कम टैक्स विभाग से अपनी जांच को अलग रखते हुये कोर्ट में बयान दिया कि इनकम टैक्स के कहने भर से मायावती की फाइल बंद नहीं की जा सकती। जो धन मायावती के पास आया है उसकी जांच जरूरी है, कहीं यह पूंजी अपराधिक गठजोड से तो नहीं आई। तो, जो मामला इनकम टैक्स विभाग के जरिए सीबीआई तक पहुंचा उसी मामले में इनकम टैक्स को ओवरटेक कर सीबीआई ने अपनी जांच के पैंतरे को बदल दिया।
हुआ यह कि 18 नवंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला आया तो सुनवाई की अगली तारीख 1 फरवरी 2012 तय की गई। यानी ऐसी तारीख जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचार चरम पर होगा। वैसे मोके पर मायावती के खिलाफ मामला जाये या समर्थन में दोनों परिस्थितियो में यह तो तय है कि चुनाव के केन्द्र में मायावती ही होगी। यानी सांप-सीढी का ऐसा खेल जिसमें सीबीआई के घेरे में जो आया वह ऊपर जा कर भी नीचे आयेगा और नीचे से ऊपर की चढ़ान भी डर से चढ़ ही लेगा। अब ऐसे खेल में लोकपाल की कितनी ज्यादा जरूरत देश को है और देश के सामने वह कौन सा फार्मूला है जिसमें सत्ताधारी भविष्य में अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये नहीं बल्कि देश में ईमानदारी बचाने के लिये खेल खेलेंगे। और जो सवाल जंतर-मंतर पर ईमानदार कर्मचारी का उठा वह नये तरीके से संसद में कल नहीं उटेगा इसकी गांरटी कौन ले सकता है।
Wednesday, December 7, 2011
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कठघरे में पत्रकार क्यों? |
अंडरवर्ल्ड के कठघरे में एक पत्रकार मारा गया। और मारे गये पत्रकार को अंडरवर्ल्ड की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। और सरकारी गवाह भी एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी खबरों को नापते-जोखते पत्रकार कब अंडरवर्ल्ड के लिये काम करने लगे यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है, जिसमें पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्नसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है जब मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर सवाल और कोई नहीं प्रेस काउंसिल उठा रहा है। और पत्रकार को पत्रकार होने या कहने से बचने के लिये मीडिया शब्द से ही हर कोई काम चला रहा है, जिसे संयोग से इस दौर में इंडस्ट्री मान लिया गया है और खुले तौर पर शब्द भी मीडिया इंडस्ट्री का ही प्रयोग कया जा रहा है।
तो मीडिया इंडस्ट्री पर कुछ कहने से पहले जरा पत्रकारीय काम को समझ लें। जो मुंबई में मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या के बाद एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा की मकोका में गिरफ्तारी के बाद उठा है। पुलिस फाइलों में दर्ज नोटिंग्स बताती हैं कि मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन ने इसलिये करवायी क्योंकि जे डे छोटा राजन के बारे में जानकारी अंडरवर्ल्ड के एक दूसरे डॉन दाउद इब्राहिम को दे रहा था। एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा ने छोटा राजन को जेडे के बारे में फोन पर जानकारी इसलिये बिना हिचक दी क्योंकि उसे अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने-दिखाने में अपना कद जेडे से भी बड़ा करना था। दरअसल, पत्रकारीय हुनर में विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे, उसका कद बड़ा माना ही जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाउद इब्राहिम ने किया तो यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नो पर जेडे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ पड़ा। क्योंकि अंडरवर्ल्ड की खबरों को लेकर जेडे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। और उस खबर को देखकर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनेता भी सक्रिय हुये। क्योंकि सियासत के तार से लेकर हर धंधे के तार अंडरवर्ल्ड से कहीं ना कहीं मुबंई में जुड़े हैं। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिये क्या मायने रखती है और अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने वाले पत्रकार की हैसियत ऐसे में क्या हो सकती है, यह समझा जा सकता है।
ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को कवर करता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उसी संस्थान या व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है। या फिर यह अब के दौर में पत्रकारीय मिशन की जरुरत है। अगर महीन तरीके से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है। प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते है, अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कारपोरेट घरानो के नये वेंचर की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पहले से जानकारी देने और कौन मंत्री बन सकता है, इसकी जानकारी देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है, जब वह सही होता है। लेकिन क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरे देते हैं, वह उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता के नये मापदंड हों। और क्या यह भी संभव है जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता जिस पत्रकार को खबर देती हो उसके जरीये वह अपना हित पत्रकार की इसी विश्सवनीयता का लाभ न उठा रही हो। और पत्रकार सत्ता के जरीये अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक ना बना रहा हो।
यह सारे सवाल इसलिये मौजूं हैं क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है, यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा पर तो मकोका लग जाता है क्योंकि अंडरवर्ल्ड उसी दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में कभी किसी पत्रकार के खिलाफ कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिये भी यह विशेषाधिकार है।
दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। और धीरे धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागेदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है, उसे आगे बढ़ाने में राजनेताओं से लेकर कॉरपोरेट या अपने अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। और यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया इंडस्ट्री का सबसे चमकता हीरा माना जाता है । और यहां हीरे की परख खबरों से नहीं मीडिया इंडस्ट्री में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होता है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को मीडिया हाउस के धंधे में ला कर काली समझ को विश्वसनीय होने का न्यौता भी देता है।
हाल के दौर में न्यूज चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिट-फंड करने वाली कंपनियो से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के न्यूज चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही फ्रॉड तरीके से चलती है। मसलन लाइसेंस पाने वालो की फेरहिस्त में वैसे भी हैं, जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं। लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार के जो नियम पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिये चाहिये उसमें वह फिट बैठते है, तो लोकतांत्रिक देश में किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह कोई भी धंधा कर सकता है। लेकिन यह परिस्थितियां कई सवाल खड़ा करती हैं, मसलन पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की अर्थव्यवस्था पर ही टिका है। या फिर सरकार का कोई फर्ज भी है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये-टिकाये रखने के लिये पत्रकारीय मिशन के अनुकुल कोई व्यवस्था भी करे।
दरअसल इस दौर में सिर्फ तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारो का कद महत्वपूर्ण भी बनाया गया जो सत्तानुकुल या राजनेता के लाभ को खबर बना दें। अखबार की दुनिया में तो पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन न्यूज चैनलों में कैसे पत्रकारीय हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की होड को देखे तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है, जिसके स्क्रीन पर सबसे महत्वपूर्ण नेताओ की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने बताने के सामानांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का एहसास कराने का ही है। यानी इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिये पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा था। पत्रकारिता को सरकार पर निगरानी करने का काम माना गया। लोकतांत्रिक राज्य में चौथा स्तंभ मीडिया को माना गया । अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो। पैसा है तो काम करने का अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाओ । और अपने प्रतिद्दन्दी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो। ध्यान दीजिये तो मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कारपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है। और अगर नहीं हो सकती है तो फिर चौथे खंभे का मतलब है क्या। सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कारपोरेट में क्या फर्क होगा। कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यो नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। मसलन सरकार कौन सी नीति ला रही है। कैबिनेट में किस क्षेत्र को लेकर चर्चा होनी है। पावर सेक्टर हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर या फिर कम्यूनिकेशन हो या खनन से सरकारी दस्तावेज अगर वह पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह ना बता पायें कि सरकार किस कारपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा।
जाहिर है सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिये बैचेन किसी कॉरपोरेट हाउस के लिये काम करने लगेगा। और राजनेताओं के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुबंई में तो पत्रकारों की एक बडी फौज मीडिया छोड़ कारपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिये दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी है। यह परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया हाउस की रप्तार निजि कंपनी से होते हुये कारपोरेट बनने की ही दिशा पकड़ रही है और पत्रकार होने की जरुरत किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। और ऐसे में प्रेस काउंसिल मीडिया को लेकर सवाल खड़ा करता है तो झटके में चौथा खम्भा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आती है। लेकिन नयी परिस्थितियों में तो संकट दोहरा है। सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होते ही जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल के चैयरमैन बन जाते है और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने अपने मीडिया हाउसों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की ही मशक्कत में जुटे संपादकों की फौज खुद ही का संगठन बनाकर मीडिया की नुमाइन्दी का ऐलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिये प्रेस काउसिंल के तौर तरीको पर बहस शुरु कर देती है। और सरकार मजे में दोनो का साख पर सवालिया निशान लगाकर अपनी सत्ता को अपनी साख बताने से कतराती। ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के दायरे में मीडिया पर बहस हो। अगर नही तो फिर आज एशियन एज की जिगना वोरा अंडरवर्ल्ड के कटघरे में है, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले के खेल की बिसात पर है तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे।
Friday, December 2, 2011
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देश नहीं, सत्ताधारियों की आजादी |
पहली बार विदेशी निवेश पर घिरे 'मनमोहनोमिक्स' ने मौका दिया है कि अब बहस इस बात पर भी हो जाये कि देश चलाने का ठेका किसी विदेशी कंपनी को दिया जा सकता है या नही। संसदीय चुनाव व्यवस्था के जरीये लोकतंत्र के जो गीत गाये जाते हैं अगर वह आर्थिक सुधार तले देश की सीमाओं को खत्म कर चुके हैं,और सरकार का मतलब मुनाफा बनाते हुये विकास दर के आंकड़े को ही जिन्दगी का सच मान लिया गया है तो फिर आउट सोर्सिंग या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरीये सरकार चलाने की इजाजत अब क्यों नहीं दी जा सकती। अगर 69 करोड़ वोटरों के देश में लोकतंत्र का राग अलापने वाली व्यवस्था में सिर्फ 29 करोड़ [ 2009 के आम चुनाव में पड़े कुल वोट लोग ]वोट ही पड़ते हैं और उन्हीं के आसरे चुनी गई सरकार [ कांग्रेस को 11.5 करोड़ वोट मिले ] यह मान लेती है कि उसे बहुमत है और उसके नीतिगत फैसले नागरिको से ज्यादा उपभोक्ताओं को तरजीह देने में लग जाते हैं तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि देश के 40 करोड़
उपभोक्ताओ को जो बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने साथ जोड़ने का मंत्र ले आये देश में उसी की सत्ता हो जाये।
असल में छोटे और मझोले व्यापारियों से लेकर किसान और परचून की दुकान चलाने वालो को अगर विदेशी कंपनियों के हवाले करने की सोच को सरकार ताल ठोक कर कह रही है तो समझना यह भी होगा कि आखिर आने वाले वक्त में देश चलेगा कैसे और उसे चलाने कौन जा रहा है। और आर्थिक सुधार की हवा में कैसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश दुनिया के सबसे बडे बाजार में बदलता जा रहा है । जिस पर वालमार्ट,आकिया या कारफूर सरीखी वैश्विक खुदरा कंपनियो की चील नजर लगी हुई है। इसमें दो मत नही कि एफडीआई को देश में बडी मात्रा में घुसाने का प्रयास पहली बार 2004 में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने ही किया। और संसद के भीतर उस वक्त लोकसभा में विपक्ष के नेता प्रियरंजनदास मुंशी और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने विरोध करते हुये सरकार को पत्र लिखा। लेकिन 2007 में वही मनमोहन सिंह पहली बार पलटे और उन्होंने एफडीआई की वकालत की और यह मामला जब संसदीय समिति के पास गया तो बीजेपी पलटी और स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर मुरली मनमोहर जोशी ने इसका विरोध किया। लेकिन यहां भी सवाल राजनातिक दलों या राजनेताओ की सियासी चालो का नहीं है।
असल में देश के भीतर ही देश को बेचने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अब वह लूट सामने आ रही है तो पहली बार प्रशनचिन्ह सरकार चलाने और राजनीति साधने में तालमेल बैठाने पर पड़ा है। मनमोहन सिंह के दौर में अर्थशास्त्र के नियमों ने पहली बार देशी कारपोरेट को बहुराष्ट्रीय कंपनियो में तब्दील कर दिया। देश के टॉप कारपोरेट घरानों ने भारत छोड़ यूरोप और अमेरिका में अपनी जमीन बनानी शुरु की । सिर्फ 2004 से 2009 के दौर के सरकारी आंकडे बताते हैं कि समूचे देश में जो भी योजनायें आई चाहे वह इन्फ्रस्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो या पावर के या फिर या फिर शिक्षा,स्वास्थ्य,पीने का पानी या खनन और संचार तकनीक। सारे ठेके निजी कपंनियों के हवाले किये गये और सरकार से सटी निजी कंपनियों को औसतन लाभ इस दौर में तीन सौ फीसदी तक का हुआ। जबकि किसी भी क्षेत्र में काम पूरा हुआ नहीं। पूंजी की जो उगाही इन निजी कंपनियों ने विदेशी बाजार या विदेशी कंपनियो से की संयोग से वह भी इन्हीं निजी कंपनियों की बनायी विदेशी कंपनिया रही। यानी कौडियों के मोल भारत की खनिज संपदा से लेकर जमीन और मजदूरी तक का दोहन कर उसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने से लेकर भारत में योजनाओ को पूरा करने के लिये हवाला और मनी-लैडरिंग का जो रास्ता काले को सफेद करता रहा अब उसकी फाइले जब सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय में खोली जा रही है तो सरकार के सामने संकट यह है कि आगे देश में किसी भी योजना को कैसे पूरा किया जाये। और अगर योजनाये रुक गयीं तो सरकार के खजाने में पैसा आना रुकेगा। और यह हालात सरकार के लिये जितने मुश्किल भरे हो लेकिन यह राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के लिये शह और मात वाली स्थिति है। क्योंकि जब देश में सत्ता का मतलब ही जब राजनीति सौदेबाजी का दायरा बड़ा करना हो तो फिर देसी की जगह विदेशी ही सही, सौदेबाज को अंतर कहां पड़ेगा। इसलिये एफडीआई के आसरे यह तर्क बेकार है कि जहां जहां रिटेल सेक्टर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पांव पड़े वहा वहा बंटाधार हुआ। क्या यह आंकड़ा सरकार के पास नहीं है कि अमेरिका में इसी खेल के चलते बीते 30 बरस में 75 लाख से ज्यादा रोजगार उत्पादन क्षेत्र में कम हो गये। क्या वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा वाकई नहीं जानते कि दुनिया भर में कैसे किराना कारोबार पर बडी कंपनियों ने कब्जा किया। देश के तमाम मुख्यमंत्रियो को पत्र लिखते वक्त क्या वाकई मंत्री महोदय को उनके किसी बाबू ने नही बताया कि आस्ट्रेलिया, ब्राजील, मैक्सिको, कनाडा, फ्रांस तक में रिटेल बाजार पर कैसे बडी कंपनियों ने कब्जा किया और इस वक्त हर जगह 49 से 78 फीसदी तक के कारोबार पर बडी कंपनियों का कब्जा है। क्या सरकार वाकई मुनाफा बनाती कंपनियों के उस चक्र को नहीं समझती है जिसमें पहले खुद पर निर्भर करना और बाद में निर्भरता के आसरे गुलाम बनाना। यह खेल तो देसी अंदाज में वाइन बनाने वाली कंपनियां नासिक में खूब खेल रही हैं। नासिक में करीब 60 हजार अंगूर उगाने वाले किसानों को वाइन के लिये अंगूर उगाने के बदले तिगुना मुनाफा देने का खेल संयोग से 2004 में ही शुरु हुआ। और 2007-08 में वाइन कंपनियों को खुद को घाटे में बताकर किसानों से अंगूर लेना ही बंद कर दिया। किसानों के सामने संकट आया क्योंकि जमीन दुबारा बाजार में बेचे जाने वाले अंगूर को उगा नहीं सकती थीं और वाइन वाले अंगूर का कोई खरीददार नहीं था। तो जमीन ही वाइन मालिकों को बेचनी पड़ी। अब वहां अपनी ही जमीन पर किसान मजदूर बन कर वाइन के लिये अंगूर की खेती करता है और वाइन इंडस्ट्री मुनाफे में चल रही है। तो क्या देसी बाजार पर कब्जा करने के बाद बहुराष्ट्रीय़ कंपनिया उन्हीं माल का उत्पादन किसान से नहीं चाहेगी
जिससे उसे मुनाफा हो। या फिर सरकार यह भी समझ पाती कि जब मुनाफा ही पूरी दुनिया में बाजार व्यवस्था का मंत्र है तो दुनिया के जिस देश या बाजार से माल सस्ता मिलेगा वहीं से माल खरीद कर भारत में भी बेचा जायेगा। यानी कम कीमत पर उत्पादों की सोर्सिंग ही जब रिटेल सेक्टर से मुनाफा बनाने का तरीका होगा तो भारत में समूचे रोजगार का वह 51 फीसदी रोजगर कहां टिकेगा जो अभी स्वरोजगार पर टिका है। क्योंकि नेशनल सैंपल सर्वे के आंकडे बताते हैं कि आजादी के 64 बरस बाद भी देश में महज 16 फीसदी रोजगार ही सरकार चलाने की देन है। बाकि का 84 फीसदी रोजगार देश में आपसी सरोकार और जरुरतो के मुताबिक एक-दूसरे का पेट पालते हैं। जिसमें 33.5 फीसदी तो बहते हुये पानी की तरह है। यानी जहां जरुरत वहां काम या रोजगार। अगर सरकार यह सब समझ रही है तो इसका मतलब है सरकार किसी भी तरह सत्ता में टिके रहने का खेल खेलना चाहती है। क्योंकि उसके सामने बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा है। करीब 56 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च हो चुके हैं। घाटे का आंकड़ा बढ़कर 6 लाख करोड़ तक हो रहा है। इन सबके बीच महंगाई चरम पर है। उघोग विकास दर ठहरी हुई है। विनिवेश रुका हुआ है ।
राजस्व का जुगाड़ जितना होना चाहिये वह हो नहीं पा रहा है। और इन सबके बीच राजनीतिक तौर पर सरकार से कांग्रेस को सौदेबाजी के लिये जो चाहिये वह भी उलट खेल होता जा रहा है। अब सरकार कह रही है कि डी एमके, टीएमसी, यूडीएफ, मुलायम,मायावती,लालू सभी को अपने राजनीतिक दायरे में लाये। तभी कुछ होगा । और इन सबके बीच मनरेगा और फूड सिक्योरटी बिल को लाकर सोनिया गांधी के राजनीतिक सपने को भी सरकार को ही पूरा करना है। यानी कमाई बंद है और बोझ सहन भी करना है।
दरअसल, बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय लोकतंत्र की चाहत में अपनी आजादी को गिरवी रखने की स्थिति में तो देश नहीं आ गया। क्योंकि आजादी के बाद दो सवाल महात्मा गांधी ने कांग्रेस से बहुत सीधे किये थे। पहला जब सरकार का गठन हो रहा था तब गांधी ने नेहरु से कहा आजादी देश को मिली है कांग्रेस को नहीं। और दूसरा मौका तब आया जब संविधान के पहले ड्राफ्ट को देखते वक्त महात्मा गांधी ने राजेन्द्र प्रसाद से कहा था कि देखना, आजादी का मतलब अपनी जमीन पर अन्न उपजा कर देश का पेट भरना भी होता है। जाहिर है 1947-48 के दौर से देश बहुत आगे निकल गया है लेकिन समझना यह भी होगा आजादी के वक्त 31 करोड़ लोग थे और आज उस दौर का ढाई भारत यानी 75 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। और इसी बीपीएल के नाम पर जारी होने वाले 30 हजार करोड़ के अन्न को भी बीच में लूट लिया जाता है। और यह लूट अपने ही देश के नेता,नौकरशाह और राशन दुकानदार करते हैं। फिर विदेशी कंपनिया आयेगी तो क्या करेंगी। यह अगर सरकार नहीं जानती तो वाकई आजादी देश को नहीं सत्ताधारियो को मिली है।
Sunday, November 27, 2011
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संडे स्पेशल : कुछ और आपके लिए |
पाकिस्तान के महान् कॉमेडियन उमर शरीफ़ द्वारा एक पत्रकार का लिया गया इंटरव्यू
उमर- आप जो कहेंगे सच कहेंगे सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे।
पत्रकार- माफ़ कीजिए हमें ख़बरें बनानी होती है।
उमर- क्या क़बरें बनानी होती हैं?
पत्रकार- नहीं-नहीं ख़बरें।
उमर- ओके ओके। सहाफ़त (पत्रकारिता) और सच्चाई का गहरा बड़ा ताल्लुक़ है, क्या आप ये जानते हैं?
पत्रकार- बिल्कुल, जिस तरह सब्ज़ी का रोटी से गहरा ताल्लुक़ है, जिस तरह दिन के साथ रात बड़ा गहरा ताल्लुक़ है, सुबह का शाम के साथ बड़ा गहरा ताल्लुक़ है, चटपटी ख़बरों का अवाम के साथ बड़ा गहरा ताल्लुक़ है, इसी तरह अख़बार के साथ हमारा भी बड़ा गहरा ताल्लुक़ है।
उमर- क्या आपको मालूम है मआशरे (समाज) की आप पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है?
पत्रकार- देखिए आप मेरी उतार रहे हैं।
उमर- ये आपकी ख़्वाहिश है, मेरा इरादा नहीं है, जी बताइए।
पत्रकार- हां, हमें मालूम है हम पर मां-बाप की ज़िम्मेदारी है, हम पर भाई-बहन की ज़िम्मेदारी है, बीवी-बच्चों की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, रसोई गैस, पानी और बिजली के बिल की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, कोई समाज की एक मामूली ज़िम्मेदारी ही नहीं है।
उमर- पत्रकारों पर एक और इल्ज़ाम है कि आप लोग फ़िल्मों को बड़ी कवरेज देते हैं, क्या ये हीरो लोग आपको महीने का ख़र्चा देते हैं?
पत्रकार- देखिए आप मेरी उतार रहे हैं।
उमर- कुछ पहन के आए हैं तो डर क्यों रहे हैं, बताइए फ़िल्म वाले आपको महीने का ख़र्चा देते हैं क्या?
पत्रकार- आप नहीं समझेंगे।
उमर- क्यूं, मैं छिछोरा नहीं हूं क्या, आप रिपोर्टरों ने पाकिस्तान के लिए 50 साल में क्या किया?
पत्रकार- देखिए आप मेरी उतार रहे हैं।
उमर- आप मुझे मजबूर कर रहे हैं, चलिए बताइए।
पत्रकार- जो देखा वो लिखा, जो नहीं देखा वो बावसूल ज़राय (सूत्रों से प्राप्त जानकारी के आधार पर) से लिखा, करप्शन को हालात लिखा, रिश्वत को रिश्वत लिखा, रेशम नहीं लिखा, सादिर (नेतृत्व करने वाले) को नादिर (नादिर शाह तानाशाह का संदर्भ) लिखा।
उमर- ये आपको ख़ुफ़िया बातों का पता कहां से चलता है?
पत्रकार- अजी छोड़िए साहब, हमें तो ये भी मालूम है कि रात को आपकी गाड़ी कहां खड़ी होती है? लंदन में होटल के रूम नम्बर 505 में आप क्या कह रहे थे? सिंगापुर में आप....।
उमर (रिश्वत देते हुए)- चलिए ख़ुदा हाफ़िज़।
पत्रकार- शुक्रिया, शुक्रिया फिर मिलेंगे, ख़ुदा हाफ़िज़।
(ड्रामा ‘उमर शरीफ़ हाज़िर हो’ के दृष्टांत से लिखा गया)
Saturday, November 26, 2011
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क्यों नहीं चल रही है संसद |
अगर आप याद कीजिये कि संसद इस बरस कब एकजुट हुई। कब सामुहिकता का बोध लेकर चली। कब समूचा सदन किसी मुद्दे पर चर्चा कर समाधान के रास्ते निकला। तो यकीनन आम जनता से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर ऐसी कोई याद आपकी आंखों के सामने नहीं रेंगेगी। यहां तक कि जिस महंगाई का रोना आज सभी रो रहे हैं, उस महंगाई पर भी पिछले सदन में चर्चा हुई लेकिन अधिकतर सांसद नदारद ही रहे। और खानापूर्ति के लिये चर्चा हुई। लेकिन याद कीजिये अगस्त के महीने में रामदेव की रामलीला को पुलिस ने जब जून में तहस-नहस किया और यह मामला संसद में उठा तो हर सांसद मौजूद था। अन्ना हजारे के अनशन को तुड़वाने के लिये तो समूची संसद ही एकजुट हो गई और लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से लेकर प्रधानंमत्री तक की अगुवाई में सभी एकजुट दिखे।
राज्यसभा में जस्टिस सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई को याद कीजिये। अगस्त की ही घटना है। हर कोई सदन में बैठा नजर आया। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है जब जब संसद की साख पर सवाल उठे और जब जब सासंदों व राजनेताओं की साख सड़क पर डगमगायी और जब न्यायपालिका को पाठ पढ़ाने का मौका आया तो संसद ने अपना काम किया। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि पहली बार 22 दिनों के संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर सरकार की जेब में 31 पेंडिंग बिल हैं। नये 19 बिल हैं। और इस फेरहिस्त में हर वह बिल है जो आम जनता से लेकर कारपोरेट तक को सुविधा देगा। फुड सेक्युरिटी बिल आ गया तो सस्ते अनाज को बांटने का व्यापक रास्ता भी खुलेगा। और सस्ते अनाज के जरीये जिले और गांव स्तर पर घोटालो का रास्ता भी खुलेगा। खनन और खनिज संपदा को लेकर माइन्स एंड मिनरल डेवलपमेंट और रेगुलेशन बिल 2011 पास हुआ तो सरकार के हाथ में जमीन हथियाने के रास्ते भी खुलेंगे। और निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाकर अपने तरीके से योजनाओ को लाने का रास्ता भी खुलेगा। सीड्स बिल 2004 पास हुआ तो बाजार किसानों को अपनी बीन पर नचायेगा और बाजार के जरीये किसान की फसल तय होगी। यानी छोटे किसानों की मुश्किल बढ़ेगी।
इसी फेरहिस्त में कंपनी बिल से लेकर मनी लैंडरिंग बिल तक है। जीएसटी को लेकर सरकार कुछ पैसा चाहती है तो हवाला और मनीलैंडरिंग को रोकने के लिये संसद का मंच चाहती है। जाहिर यह सब किसी भी सरकार के लिये जरुरी है। खासकर तब जब सरकार के पास नीतियों के नाम पर विकास का ऐसा आर्थिक मॉडल हो जिसमें निजी हथेलियो को लाभ देते हुये आम जनता की बात की जाये। पहली मुश्किल यही है कि सरकार जो तमगा संसद के चलने से चाहती है वह ना भी मिले तो भी साउथ-नार्थ ब्लॉक से सरकार मजे में चल सकती है। फिर संसद की जरुरत है क्यों और हंगामा मचा हुआ क्यों है। तो हंगामे का पहला मतलब तो यह है कि सरकार चलाना और राजनीति साधना दोनों एक साथ नहीं चल सकते यह पहली बार सरकार भी समझ रही है और विपक्ष भी। लेकिन विपक्ष के हाथ में डोर इसलिये है क्योंकि मनमोहन सिंह के सबसे मजबूत सिपहसलार चिदंबरम फंसे हैं। जो उड़ान चिदंबरम ने यूपीए-1 के दौर में बतौर वित्त मंत्री रहते हुये भरी उसपर इतनी जल्दी ब्रेक लगाना पड़ेगा, यह ना तो प्रधानमंत्री ने सोचा और ना ही सरकार की नीतियों से आसमान में कुलांचे मारते कारपोरेट ने। चिदंबरम के आसरे मनमोहन सरकार की जो नीतियों 2004 से 2008 तक चली, चाहे वह पावर सेक्टर हो या खनन या फिर इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह या एसईजेड।
अगर ध्यान दिजिये तो सरकार के साथ उस दौर में जो निजी कंपनिया सरकारी लाइसेंस का लाभ उठा रही थीं, संयोग से वही सब यूपीए-2 के दौर में घेरे में है। और बीजेपी का खेल अब यही से शुरु हो रहा। बीजेपी के लिये चिदंबरम का मतलब सिर्फ संघ परिवार को भगवा आतंकवाद के नाम पर घेरना भर नहीं है। उसके लिये चिदंबरम का मतलब 2 जी घोटाले में सरकार से बाहर कर उन कारपोरेट घरानो को डरा कर अपने साथ खड़ा भी करना है जिनके आसरे मनमोहन इक्नामिक्स अभी तक चलती रही । इसीलिये अनिल अंबानी के रिलायंस के तीन अधिकारी हो या यूनिटेक के संजय चन्द्र या पिर स्वान के डायरेक्टर जो तिहाड से जमानत पर छह महीने बाद निकले। उन सभी के हालात के पीछे चिदबरंम की खुली बाजार में खुली राजनीति रही और अब सरकार के साथ सटने से लाभ कम घाटा ज्यादा होगा, यही पाठ बीजेपी निजी सेक्टर को पढ़ाना चाहती है। और चूंकि शेयर बाजार से लेकर निवेश का रास्ते इस दौर में उलझे हैं। साथ ही आम आदमी की न्यूनतम जरुरतों से लेकर कारपोरेट का मुनाफा तंत्र भी डगमगाया है तो संसद ना चलने देने के सामानांतर बड़ी सियासत इस बात को लेकर भी चल रही है कि आने वाले वक्त में निजी कंपनियां या कारपोरेट घराने कांग्रेस का साथ छोड बीजेपी के साथ आते है या नहीं।
दरअसल बीजेपी के इस सियासी समझ के पीछे सरकार के भीतर के टकराव भी है। जहां पहली बार आरएसएस को खारिज करने वाली मनमोहन सरकार के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तमाम नेताओं से मिलते हुये संघ के लाडले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी का भी दरवाजा खटखटाते हैं। यानी एक तरफ चिदंबरम की संघ को घेरने की मशक्कत और दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की संघ के दरवाजे पर दस्तक। और इस खेल में बीजेपी चिदंबरम की मात चाहती है। जाहिर है इसी मात के दस्तावेजों को सुब्रमण्यम स्वामी समेटे हुये हैं। लेकिन सरकार के भीतर का सच यह है कि चिदंबरम की मात का मतलब मनमोहन सिंह को प्रणव मुखर्जी की शह मिलना भी होगा, जो मनमोहन बिलकुल नहीं चाहेंगे। और इस सियासी गणित में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आरएसएस की ताकत उभारकर काग्रेस के वैचारिक बिसात को बिछाना चाहेंगे। यानी इस पूरे चकव्यूह को तोड़ेगा कौन और कैसे संसद शुरु होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। लेकिन संसद की जरुरत इस दौर में है किसे और संसद सजेगी किस दिन संयोग से यह सवाल भी संसद को चुनौती देने वाले उसी जनलोकपाल आंदोलन से जुडी है जिसे संसद के पटल पर भी इसी सत्र में रखा जाना है। तो य़कीन जानिये दिसबंर के पहले हफ्ते में जिस दिन सरकार ऐलान करेगी कि आज लोकपाल बिल रखेंगे। उस दिन सभी पार्टिया सदन में जरुर नजर आयेंगी। क्योंकि वहां सवाल संसद के जरीये राजनीति का नहीं बल्कि सड़क के आंदोलन से डर का होगा।
Friday, November 25, 2011
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कभी ममता के संघर्ष के साथ खड़े थे किशनजी |
क्या नक्सलवादियो को लेकर ममता बनर्जी भी सीपीएम की राह पर चल निकली हैं। चार दशक पहले नक्सलवाद की पीठ पर सवार होकर सीपीएम ने सत्ता से कांग्रेस को बेदखल किया और चार दशक बाद माओवादियों की पीठ पर सवार होकर ममता बनर्जी ने सीपीएम को सत्ता से बेदखल किया। लेकिन माओवादी कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के मारे जाने के बाद एक बार नया सवाल यही उभरा है कि आने वाले वक्त में क्या माओवादियों के निशाने पर ममता की सत्ता होगी। यह सारे सवाल कितने मौजू हैं, दरअसल जंगलमहल के जिस इलाके में किशनजी मारा गया उसी जंगल में दो बरस पहले किशनजी ने इन सारे सवालों को खंगाला था। वह इंटरव्यू आज कहीं ज्यादा मौजूं इसलिये है क्योंकि तब बंगाल में वामपंथियों की सत्ता थी और ममता संघर्ष कर रही थीं। आज ममता सत्ता में है और वामपंथी संघर्ष कर रहे हैं। यानी सत्ता तो 180 डिग्री में खड़ी है लेकिन नक्सलवाद का सवाल सत्ता के लिये 360 डिग्री में घूमकर वही पहुंच गया,जहा से शुरु हुआ....
सवाल-कभी नक्सलबाड़ी में किसानों ने जमींदारों को लेकर हथियार उठाये। क्या लालगढ़ में भी किसान-आदिवासियों ने हथियार उठाये या फिर आंध्रप्रदेश से आये माओवादियो की लड़ाई लालगढ़ में लड़ी जा रही है।
जबाव-लालगढ़ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढ़े सोलह हजार गांवों में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार हैं। इन ग्रामीणो की हालत ऐसी है जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है। इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी। इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है। जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरो में तो एयरकंडीशर भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले। जबकि गांव के कुओं में इन्होंने केरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके। और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है। सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। जंगल गांव की तरह यहां के आदिवासी रहते है। यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इसलिये सवाल माओवादियो का नहीं है। हमने तो इन्हें सिर्फ गोलबंद किया है। इनके भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार हैं। और गांव वालों का यह आक्रोश सिर्फ लालगढ तक सीमित नही है।
सवाल-तो माओवादियो ने गांववालों की यह गोलबंदी लालगढ से बाहर भी की है।
जबाब-हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब ना आयें। क्योंकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है। हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था। सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गांववालों को थोडी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमनें चुनाव का बायकाट कराकर गांववालों को जोड़ा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड़ खत्म हो चुकी है। जिसका केन्द्र लालगढ है।
सवाल-तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही है। इसीलिये वह आप लोगों को मदद कर रही हैं।
जबाब-ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है,यह तो हम नहीं कह सकते। लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उस पर हमारी सहमति जरुर है। लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा। ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलों को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेगी। लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियों ने पकड़ा है उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि लालगढ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है। वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है।
सवाल-नक्सलबाडी से लालगढ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।
जबाब-जोडने का मतलब हुबहु स्थिति का होना नहीं है। जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे हैं बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहुलूहान हो रहा है तो उसका आक्रेश कहां निकलेगा। क्योंकि इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी। लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फीसदी कौन डकार गया इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा। छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहों पर जाने के लिये मजबूर हुये। इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारों की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है क्योंकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती । और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाल छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है। यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे।
सवाल-लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है।
जबाव-आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है। बंगाल में माओवादियो के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दुसरे राज्यों से भी कड़ा है। हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है। तीस से ज्याद माओवादी बंगाल के जेलो में बंद हैं। अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूंखार अपराधी के साथ होता है। दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण हैं। प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योंकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालों को जेल में बंद किया जा सकता है। लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं हैं। अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते हैं। जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही। अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है। नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है। महिलाओ के साथ बलात्कार की कई घटनाये सामने आयी हैं। लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियो से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।
जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है। लालगढ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे है उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालों का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है। जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थको पर पुलिस अत्याचार हो रहा है। इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है। उन्हें गांव छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संधर्ष लंबे वक्त तक चल सके । अब यह
सवाल-आप ग्राउंड जीरो पर है। हालात क्या हैं लालगढ के।
जबाब-लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैंप जरुर लगा लिये हैं लेकिन गांवों में किसी के आने की हिमम्त नहीं है। आदिवासी महिलाएं-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं। लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी -ग्रामीण मारा जाये। इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमनें गांववालों को मानव ढाल बना रखा है। पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही है । माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे। बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उढा रहे हैं। फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है । जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमें पुलिस से ज्यादा है। इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है जहां तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती हैं। उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।
आखिरी सवाल-कभी सीपीएम के साथ खड़े होने के बाद आमने सामने आ जाने की वजह।
जबाव-अछ्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया। क्योकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे। उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर यह आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियों को लागू कराने का वक्त नहीं दिया। अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातो को ज्योति बसु ने 32 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये।
Wednesday, November 16, 2011
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अन्ना आंदोलन की मुश्किल |
अपनी ही बिसात पर क्या बदल गया अन्ना आंदोलन
नागपुर के वसंतराव देशपांडे हॉल में जैसे ही अरविंद केजरीवाल भाषण खत्म हुआ वैसे ही बाहर खड़े दस-पन्द्रह लोगों ने काले झंडे लहराने शुरु कर दिये। जो बाहर खड़े होकर भाषण सुन रहे थे उन्होंने काले झंडे दिखाने वालो को मारना-पीटना शुरु कर दिया। कुछ देर अफरा-तफरी मची। राष्ट्रीय मीडिया में खबर यही बनी कि केजरीवाल को काले-झंडे दिखाये गये। काले झंडे दिखाने वालो की भीड़ ने ही पिटाई कर दी। हाल के अंदर जो बात केजरीवल ने कही, उसका जिक्र कहीं खबर में नहीं था। अब जरा इस पूरे प्रकरण के भीतर झांक कर देखें। जिन्होंने काला झंडा दिखाया,वे नागपुर के घंटानाद के कांग्रेसी कार्यकर्त्ता थे। जिन्होंने पिटाई की उनमें सरकार को लेकर आक्रोश था। तो इस गुस्से को बीजेपी ने हड़पना भी चाहा। बताया गया घंटानाद के कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओ की पिटाई में बीजेपी कार्यकर्त्ता ज्यादा थे। केजरीवाल के भाषण की मेजबानी इंडिया अगेस्ट करप्शन के नागपुर चैप्टर ने की। लेकिन उसकी अगुवाई नागपुर के बिजनेसमैन अजय सांघी कर रहे थे। जिनका कोई ताल्लकुत राजनीति से नहीं के बराबर है।
लेकिन इस बिसात के दो सच है । पहला, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना टीम का संघर्ष इतना लोकप्रिय है कि जिस नागपुर में किसी राजनेता के भाषण में वसंतराव देशपांडे हाल आम आदमी से भरता नहीं है, वहीं अन्ना टीम को सुनने इतनी बडी तादाद में लोग पहुंचे की डेढ़ हजार का हाल छोटा पड़ गया। हाल के बाहर स्क्रीन लगानी पड़ी। करीब तीन हजार लोग बाहर बैठे और जो बात केजरीवाल ने 25 मिनट के भाषण में कही उसमें कोई खबर नहीं थी। क्योंकि जनलोकपाल को लेकर सरकार के रवैये को ही केजरीवाल ने रखा। यह परिस्थितियां देश के सामने कुछ नये सवाल खड़ा करती हैं। क्या जनलोकपाल को लेकर संघर्ष करती अन्ना की टीम में आम आदमी अपना अक्स देख रहा है। क्या अन्ना टीम को लेकर सत्ता और विपक्ष अपनी अपनी चाल ही चल रहा है। क्या चुनावी तरीका ही एकमात्र राजनीतिक हथियार है। क्या अन्ना टीम का रास्ता सिर्फ जनलोकपाल के सवाल पर लोगों को जगरुक बनाने भर का है। क्या जनलोकपाल का सवाल ही व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में देश को ले जायेगा इसलिये अन्ना हजारे ने देश के तमाम आंदोलनो को हाशिये पर ला खड़ा किया है। या फिर इन सारे सवालो ने पहली बार उस संसदीय राजनीति को ही महत्वपूर्ण बना दिया है जो राजनीति रामलीला मैदान में खारिज की गई।
याद कीजिये तो रामलीला मैदान में संसद को लेकर जन-संसद तक के सवाल अन्ना हजारे ने ही खड़े किये। सिर्फ सत्ताधारियो को ही नहीं घेरा बल्कि समूची संसदीय राजनीति की उपयोगिता पर सवाल उठाये। देश भर ने अन्ना की गैर राजनीतिक पहल से राजनीतिक व्यवस्था को चाबुक मारने को हाथों हाथ लिया। और आलम यहां तक आया कि जो प्रधानमंत्री 18 अगस्त को संसद में अन्ना हजारे के आंदोलन को देश के लिये खतरनाक बता रहे थे, वही प्रधानमंत्री 28 अगस्त को पलट गये और समूची संसद ने अन्ना से अनशन तोड़ने की प्रार्थना की। तो क्या जनलोकपाल के सवाल ने पहली बार संसदीय व्यवस्था को चुनौती दी। और भ्रष्टाचार के जो सवाल जनलोकपाल के दायरे में है, क्या वे सारे सवाल ही संसदीय चुनावी व्यवस्था की राजनीतिक जमीन है। अगर यह सारे सवाल जायज है तो फिर कही अन्ना हजारे का आंदोलन उन्हीं राजनीतिक दलों, उसी संसदीय राजनीतिक चुनावी व्यवस्था के लिये ऑक्सीजन का काम तो नहीं कर रहा, जिसे जनलोकपाल के आंदोलन ने एक वक्त खारिज किया। क्योंकि इस दौर में सरकार से लेकर काग्रेस के सवालिया निशान के बीच बीजेपी का लगातार मुस्कुराना और अन्ना टीम की पहल से देश में असर क्या हो रहा है, यह भी देखना होगा। चुनावी राजनीति की धुरी जनलोकपाल के सवाल पर अन्ना टीम है। कांग्रेस को इसमें राजनीतिक घाटा तो बीजेपी को राजनीतिक लाभ नजर आ रहा है। अन्ना आंदोलन से पहले सरकार इतनी दागदार नहीं लग रही थी। और बीजेपी की सड़क पर हर राजनीतिक पहल बे-फालतू नजर आती थी। आम लोगों में कांग्रेस को लेकर यह मत था कि यह भ्रष्ट है लेकिन बीजेपी के जरिये रास्त्ता निकलेगा ऐसा भी किसी ने सोचा नही था। लेकिन अन्ना आंदोलन ने झटके में एक नयी बिसात बिछा दी। लेकिन संयोग से देश में कभी व्यवस्था परिवर्तन की बिसात बिछी नहीं है तो चुनावी राजनीति से दूर अन्ना की बिसात पर कांग्रेस और बीजेपी ने अपने अपने मंत्रियों को रखकर अन्ना टीम को ही बिसात पर प्यादा बना दिया। जिसका असर यह हुआ कि एक तरफ कांग्रेस की झपटमार दिग्विजयी राजनीति ने बीजेपी और आरएसएस में जान ला दी तो दूसरी तरफ बीजेपी की चुनावी राजनीति ने सरकार की जनवरोधी नीतियों से इतर कांग्रेस की सियासी राजनीति को केन्द्र में ला दिया, वही इस भागमभाग में अन्ना टीम अपने दामन को साफ बताने से लेकर अपनी कोर-कमेटी और संसद की स्टेंडिंग कमेटी के सामने अपनी बात रखने में ही अपनी उर्जा खपाने लगी। और झटके में रामलीला मैदान के बाद देश के मुद्दों को लेकर किसी बड़े संघर्ष की तरफ बढने के बजाये अन्ना टीम का संघर्ष उस नौकरशाही के दायरे में उलझ गया जो सिर्फ थकाती है।
लेकिन बात देश की है और धुरी अन्ना का आंदोलन हो गया तो यह समझने की कोशिश खत्म हो गयी कि अन्ना का यह ऐलान सियासी राजनीति को क्यों गुदगुदाता है कि युवा शक्ति अन्ना के साथ है। जबकि देश में जो युवा शक्ति कॉलेज और विश्वविद्यालय से यूनियन के चुनाव के जरीये राजनीति का पाठ पढ़ती थी, उस पर भी तमाम राजनीतिक सत्ताधारियो ने मठ्ठा डाल दिया है। और यूपी के विश्वविद्यालय घुमती अन्ना टीम भी युवाओ को जनलोकपाल और सरकार के नजरिये में ही सबकुछ गुम कर दे रही है। यानी जो युवा कॉलेज के रास्ते राजनीति करते हुये संसद या विधानसभा के गलियारे में नजर आता था, उसे राजनीतिक दलो के बुजुर्ग आकाओं के परिवार की चाकरी कर राजनीति का पाठ पढ़ने की नयी सोच तमाम राजनीतिक दलों ने पैदा की। क्योंकि बंगाल में ममता हो या उससे पहले वामपंथी या फिर यूपी में मायावती हो या बीजेपी या काग्रेस शासित राज्य हर जगह यूनियन के चुनाव ठप हुये। ऐसे में देश की युवा शक्ति के सामने रास्ता अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक मंच से राजनीति साधने का सही है या फिर सीधे राजनीति साधते हुये अन्ना सरीखे आंदोलन की हवा में खुद को मिलाकर चुनावी राजनीति की बिसात बदलने की सोच। अगर इस दायरे में युवाओं की राजनीतिक समझ को परखे तो अन्ना आंदोलन ने सत्ता को आक्सीजन ही दी है। दिल्ली के जेएनयू से लेकर बंगाल के खडकपुर में आईआईटी के परिसर में इससे पहले माओवाद को लेकर सत्ता पर लगातार सवाल दागने का सीधा सिलसिला था।
अन्ना आंदोलन से पहले आलम यह भी था कि गृहमंत्री पी चिदबरंम के जेएनयू जाने पर विकास के सरकारी नजरीये को लेकर बड़ी-बड़ी बहसे जेएनयू में होती रहीं। यानी विश्वविद्यालय यूनियन के चुनाव ना होने के बावजूद एक राजनीतिक पहल लगतार थी जो वर्तमान सत्ताधारियो को लेकर यह सवाल जरुर खड़ा करती कि मुनाफे की आड़ में कैसे देश के खनिज-संपदा से लेकर बिजली-पानी-स्वास्थ्य-शिक्षा तक को कॉरपोरेट और निजी हाथो में बेच रही है। वहीं आईआईटी खडकपुर में छात्र इस सवाल से लगातर जुझते कि वामपंथी हो या दक्षिणपंथी सभी ने देश के उत्पादन क्षेत्र को हाशिये पर ढकेल कर सर्विस सेक्टर को बढ़ावा देना क्यों शुरु कर दिया है। यहां तक की बंगाल में आने वाले आईटी सेक्टर के जरीये सरकारी विकास के नारे को यह कहकर खारिज किया कि जो किसान अन्न उपजाता है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण विप्रो, टीसीएस या इन्फोसिस कैसे हो सकते हैं। युवाओं के बीच इन्ही सवालो को राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अपने तरीके से रखा। चूंकि इन सारे तर्को को सत्ता कानूनी घेरे में लेकर आयी और जेएनयू से लेकर खडकपुर तक में नक्सली हिंसा से ही इन विचारो को जोड़ा गया और चूंकि नक्सली धारा संसदीय राजनीति का विकल्प खोजने की दिशा में चाहे ना लगी हो लेकिन उसने चुनावी राजनीति को हमेशा अपने तरीके से खारिज किया। ऐसे में सत्ताधारियो के सामने जब अन्ना का आंदोलन आया तो उन्हें यह अनुकूल भी लगा क्योंकि झटके में राजनीतिक सत्ता को लेकर बढ़ते आक्रोश की अन्ना दिशा आखिर में सत्ता से ही गुहार लगा रही है कि वह सुधर जाये। पटरी पर लौट आये। संविधान के तहत पहले जनता को स्वीकारे। ग्राम पंचायत को संसदीय राजनीति के विकेन्द्रीकरण के तहत मान्यता दे। नीतियों को इस रुप में सामने रखे, जिससे राज्य की भूमिका कल्याणकारी लगे। यानी वह मुद्दे जो कही ना कही देश को स्वावलंबी बनाते। वह मुद्दे जो उत्पादन को सर्विस सेक्टर से ज्यादा मान्यता देते। वह मुद्दे जो ग्रामीण भारत में न्यूनतम के लिये संघर्ष करने वालो की जरुरत को पूरा करते। और यह सब आर्थिक सुधार की हवा में जिस तरह गुम किया गया और लोगों में सियासत करने वालो को लेकर आक्रोश उभरा धीरे धीरे बीतते वक्त के साथ सभी अन्ना हजारे के आंदोलन में गुम होने लगा। क्योंकि आंदोलन वे देश को लेकर कोई बड़ी भूमिका निभाने और संघर्ष शुरु करने से पहले ही अपने चेहरे को साफ दिखाने की जरुरत महसूस की। अन्ना टीम इस सच से फिसल गयी कि देश की रुचि अकेले खड़े किसी भी सदस्य को लेकर नहीं है। जरुरत और रुचि दोनो संघर्ष को लेकर है। इसलिये भावुक फैसले ही अन्ना टीम को प्रबावित करने लगे। खडकपुर में प्रधानमंत्री के हाथों एक छात्र का डिग्री ना लेना अन्ना आंदोलन की सफलता की चेहरा बना। जेएनयू में शनिवार की रात में होने वाली बहसो में अन्ना और सरकार की कश्मकश में भ्रष्टाचार और आंदोलन अन्ना के लिये सफलता का सबब बना। लेकिन अन्ना आंदोलन की इस पूरी प्रक्रिया को वही राजनीति अपने तरीके से हांकने लगी जिसे एक दौर में अन्ना आंदोलन हांक रहा था। और वही मीडिया अन्ना टीम की बखिया उघेड़ने लगा जो संघर्ष के दौर में साथ खड़ा था। स्थितियां यहा तक बदली कि अन्ना के संघर्ष को आंदोलन की शक्ल जिस मीडिया ने दी, और जिसे बांधने के लिये अब सत्ता बेताब है। जबकि मीडिया का अन्ना आंदोलन से पहले का सच यह भी है कि वह मनोरंजन और तमाशे को दिखाकर पैसा कमाती रही। और सरकार मस्ती में रही। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद सरकार ने उसी मीडिया पर नियंत्रण करने की बात कहकर मीडिया को विश्वसनीय भी बना दिया। यानी अन्ना की बिसात की रामलीला ने झटके में उसी संसदीय राजनीति को राम और रावण बना दिया जिसे खारिज कर वह खुद महाभारत के मूड में कृष्ण बनकर रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे।
Tuesday, November 15, 2011
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एक अरबपति को सरकारी बेल-आउट |
सरकार ने ऐसे वक्त किंगफिशर एयरलाइन्स को बेल-आउट देने के संकेत दिये हैं, जब दुनियाभर में कॉरपोरेट और निजी कंपनियों को बेल आउट देने के सरकारों के रवैये पर ‘वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ एक आंदोलन के तौर पर उभरा है। पहली दुनिया के देशों में यह सवाल इसलिये आंदोलन की शक्ल ले चुका है क्योंकि जिन पूंजीवादी नीतियों के आसरे सरकारी वित्तीय संस्थानों को निजी हाथों में मुनाफा पहुंचाने का काम सौंपा गया, अब वही तमाम संस्थान फेल हो चुके हैं। जबकि भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशो में यह सवाल दोहरा वार कर रहा है। एक तरफ सरकारें पूंजीवादी नीतियों को अपनाकर खुद को बाजार में बदलने को लालायित हैं, जिसका असर मुनाफा तंत्र ही सरकारी नीति बनना भी है और कॉरपोरेट या निजी कंपनियो के अनुसार सरकार का चलना भी है। और दूसरी तरफ बहुसंख्यक तबका जीने की न्यूनतम जरुरतों को भी नहीं जुगाड़ पा रहा है। और आम आदमी की जरुरत को पूरा करने के लिये राजनीतिक पैकेज में ही नीतियों को तब्दील कर दिया जा रहा है। इसीलिये देश की बहुसंख्य जनता के पास खाने को नहीं है तो खेती या मजदूरी दूरस्त करने की जगह फूड सिक्यूरटी बिल लाया जा रहा है। उत्पादन ठप है। हुनरमंद के पास काम नहीं है। कुटीर और मझोले उद्योग के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बचा और रोजगार की कोई व्यवस्था देश में नहीं है तो मनरेगा सरीखी योजना के जरीये रोजगार का एहसास कराकर राजनीतिक लोकप्रियता के लिये सरकारी खजाने को बिना किसी दृष्टि के लुटाने के खेल भी नीति बन चुकी है।
जाहिर है इन परिस्थियो के बीच अगर मनमोहन सिंह इसके संकेत दें कि किगंफिशर एयरलाइन्स को सरकारी मदद से दोबारा मुनाफा बनाने के खेल में शामिल किया जा सकता है, तो देश का रास्ता किस अर्थशास्त्र पर चल रहा है। यह समझना जरुरी है। बीते साढे सात बरस में जब से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से देश में जितने किसानो ने खुदकुशी की, उसके सिर्फ एक फीसदी के बराबर लोगो को किंगफिशर रोजगार दिये हुये हैं। जबकि किंगफिशर में जितनी पूंजी लगी हुई है और अब सरकार जो उसे मदद देने की बात कर रही है, अगर उसका आधा ही महाराष्ट्र के विदर्भ के किसानों में बराबर बराबर बांट दिया जाये तो अगले पांच बरस तक तो किसानो की खुदकुशी पर ब्रेक लग जायेगा, जो अभी हर आठ घंटे में हो रही है। लेकिन देश चलाने के लिये जरुरी नहीं कि रइसो के चोंचले बंद कर गरीबो पर उनकी रइसी की पूंजी कुर्बान की जाये । मगर कोई भी लोकतंत्र इस तरह जी ही नहीं सकता, जहां आम आदमी के पैसे को रइसो में बांट कर देश चलाने को धंधे में बदल दिया जाये । यानी देश कहलाने या होने की न्यूनतम जरुरतें चुनी हुई सरकार के हाथ में ना हो या सरकार हाथ खड़ा कर दें। मसलन शिक्षा महंगी हो जाये तो सरकार का कुछ लेना-देना नहीं। स्वास्थ्य सेवा महंगी हो जाये तो सरकार कुछ नहीं कर सकती। घर खरीदना। घर बनाने के लिये जमीन खरीदना आम आदमी के बस में ना रहे और सरकार आंखे मूंदी रहे। पेट्रोल-डीजल की कीमत भी निजी कंपनियो के हाथो में सौप दी जाये और वह मनमाफिक मुनाफा बनाने में लग जाये। तो आम आदमी सरकार से क्या कहे। और सरकार चुनने के वक्त जब वही चार यार आपसी दो-चार कर संसदीय लोकतंत्र का नाम लेकर आम आदमी के वोट को लोकतंत्र का तमगा देने लगे, तो रास्ता जायेगा किधर।
दरअसल, लोकतंत्र का बाजारु चेहरा कितना भयानक हो सकता है यह सरकार के क्रोनी कैपटलिज्म से समझा जा सकता है, जहां आम आदमी कॉरपोरेट की हथेलियों पर सांस लेने वाले उपभोक्ता से ज्यादा कुछ नहीं होता। और आम आदमी के नागरिक अधिकार सरकार ही निजी कंपनियों को बेचकर हर नागरिक को उपभोक्ता बना चुकी है। इसलिये किंगफिशर के हालात से देश का नागरिक परेशान या उपभोक्ता। और सरकार जनता के पैसे से किंगफिशर को बेल आउट देने के लिये नागरिको की मुश्किल आसन करना चाहती है या उपभोक्ताओ की। या फिर किंगफिशर के मुनाफा तंत्र में सरकार के लिये किंगफिशर के सर्वेसर्वा विजय माल्या मायने रखते हैं और अब के दौर में सरकार का मतलब भी कही शरद पवार तो कही प्रफुल्ल पटेल, कही मुरली देवड़ा तो कही मनमोहन सिंह तो महत्वपूर्ण नहीं हो गये है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योकि किंगफिशर 2003 में आयी। 2006 में यह लिस्टेड हुई। 2008 में पहली बार तेल कंपनियो ने पैसा ना चुकाने का सवाल उठाया। सरकारी वित्तीय संस्थानों ने किंगफिशर पर बकाये की बीत कही। लेकिन इसी दौर में किंगफिशर एयरलाइन्स के मालिक विजय मालया नागरिक उ्डडयन मंत्रालय की स्थायी समिति के सदस्य बने। यानी एयरलाइन्स के धंधो पर नजर रखने वाली स्थायी समिति में वही सदस्य हो गये जिनकी निजी एयरलाइन्स थी। वहीं तत्कालीन हवाई मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने ना सिर्फ विजय माल्या को नागरिक उड्डयन मंत्रालय से बतौर सदस्य के रुप में जोड़ दिया बल्कि सरकारी इंडियन एयरलाईन्स का बंटाधार भी इसी दौर में निजी एयरलाइन्सो को लाभ दौर पहुंचाते हुये बाखूबी किया। इसमें अव्वल किंगफिशर रही क्योंकि तेल कंपनियो ने ना तो बकाया मांगा और न ही एयरपोर्ट अथॉरिटी ने फीस वसूलने की हिम्मत दिखायी। ना सरकारी बैकों ने लोन देने में कोई हिचक दिखायी। वह तो भला हो मंत्रिमंडल विस्तार के दौर का, जब प्रफुल्ल पटेल और मुरली देवडा का मंत्रालय बदला गया।
लेकिन सवाल अब आगे का है। किंगफिशर एयरलाइन्स के बेल आउट का मतलब जनता के पैसे को किसे देना होगा, जरा यह भी जान लें। विजय माल्या सरकार से मदद चाहते हैं और सरकार के चेहरे न कहने में क्यो हिचक रहे हैं, यह विजय माल्या के कद से समझा जा सकता है । आज की तारीख में देश के बाजार में बिकने वाली बीयर का 50 फीसदी हिस्सा विजय मालया की कंपनी यूबी ग्रूप का है। बेगलूर के बीचो-बीच 2 हजार करोड़ की यूबी सिटी विजय माल्या की है। तीन सौ करोड की किंगफिशर टॉवर बन रही है। कर्नाटक में यूबी माल, माल्या हास्पीटल, माल्या का ही अदिति इंटरनेशनल स्कूल, कर्नाटक ब्रीवरीज एंड डिस्ट्रेलिरि और मंगलौर कैमिकल फर्टीलाइजर से लेकर घोड़ों के रेसगाह हैं, जिनकी कुल कीमत एक लाख करोड से ज्यादा की है। इसके अलावा विजय माल्या ही देश के अकेले शख्स हैं, जिनके पैसे दुनिया की फुटबॉल टीम से लेकर फार्मूला-वन रेस,आईपीएल में क्रिकेट टीम में लगे हैं। साथ ही अंतराष्ट्रीय समाचार पत्र एशियन ऐज से लेकर फिल्म और फैशन की पत्रिका का मालिकाना हक भी है और हर बरस गोवा में अपने घर में नये बरस के आगमन के लिये करोड़ों रुपये उड़ाने का जुनून भी है। यानी जमीन से लेकर आसमान तक सपने बेचने और खरीदने का जज़्बा समेटे विजय माल्या ने 2002 में अपने पैसो की ताकत का एहसास राज्यसभा चुनाव में भी कराया था। इससे पहले राजनेताओ को संसद पहुंचाने के लिये खर्च करने वाले विजय मालया ने खुद की बोली राज्यसभा का सांसद बनने के लिये लगायी और जब रिजल्ट आया तो पता चला की हर पार्टी के सांसदो ने विजय माल्या को वोट दिया।
यही वह संकेत हैं, जिसमें विजय मालया को सरकार से यह कहने में कोई परहेज नही होता कि किंगफिशर को डूबने से बचाने की जरुरत तो सरकार की है। और सरकार भी इसके संकेत देने से नहीं चुकती की अरबपति विजय मालया के किंगफिशर को डूबने नहीं दिया जायेगा। यानी एक तरफ देश को भी लगने लगता है कि किंगफिशर का 1134 करोड़ का घाटा तो सरकार पूरा कर ही देगी। तेल कंपनियो का करीब नौ सौ करोड का कर्जा भी आज नहीं तो कल चुकता हो ही जायेगा। एयरपोर्ट की करोड़ों रुपये की फीस भी मिल ही जायेगी। जबकि इसके उलट देश अभी भी मानने को तैयार नहीं है कि पचास रुपये ना चुका पाने के डर से विदर्भ का किसान खुदकुशी करना बंद कर देगा ।
Tuesday, November 8, 2011
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अपनी बनाई अर्थव्यस्था के चक्रव्यूह में सरकार |
यह पहला मौका है जब सरकार भ्रष्टाचार की सफाई में जुटी है तो उसके सामने अपनी ही बनायी व्यवस्था के भ्रष्टाचार उभर रहे हैं। आर्थिक सुधार की जिस बिसात को कॉरपोरेट के आसरे मनमोहन सिंह ने बिछाया, अब वही कॉरपोरेट मनमोहन सिंह को यह कहने से नही कतरा रहा है कि विकास के किसी मुद्दे पर वह निर्णय नहीं ले पा रहे हैं। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हजारे, रामदेव, श्री श्री रविशंकर से लेकर आडवाणी की मुहिम ने सरकार को गवर्नेस से लेकर राजनीतिक तौर पर जिस तरह घेरा है, उससे बचने के लिये सरकार यह समझ नहीं पा रही है कि गवर्नेंस का रस्ता अगर उसकी अपनी बनायी अर्थव्यवस्था पर सवाल उठता है तो राजनीतिक रास्ता गवर्नेंस पर सवाल उठाता है। दरअसल महंगाई,घोटालागिरी और आंदोलन से दिखते जनाक्रोश ने सरकार के भीतर भी कई दरारे डाल दी हैं। इन परिस्थितियो को समझने के लिये जरा भ्रष्टाचार पर नकेल कसती सरकार की मुश्किलों को समझना जरुरी है। कालेधन को लेकर जैसे ही जांच के अधिकार डायरेक्टर आफ क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन यानी डीसीआई को दिये गये वैसे ही विदेशो के बैंक में जमा यूपी, हरिय़ाणा और केरल के सांसद का नाम सामने आया। मुंबई के उन उघोगपतियो का नाम सामने आया, जिनकी पहचान रियल इस्टेट से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर है। और जिनके साथ सरकार ने इन्फ्रास्ट्रचर,बंदरगाह, खनन और पावर सेक्टर में मिलकर काम किया है। यानी यूपीए-1 के दौर में जो कंपनिया मनमोहन सिंह की चकाचौंध अर्थव्यवस्था को हवा दे रही थी वह यूपीए-2 में कालेधन के चक्कर में फंसती दिख रही है।
लेकिन जांच के दौरान की दौरान की फेहरिस्त चौकाने वाली इसलिये है क्योंकि जेनेवा के एचएसबीसी बैंक में जमा 800 करोड से ज्यादा की रकम हो या फ्रांस सरकार के सौंपे गये 700 बैंक अकाउंट, संयोग से फंस वही निजी कंपनियां रही हैं, जो यूपीए-1 के दौर में मनमोहन सरकार के अलग अलग मंत्रालयो की मोसट-फेवरेट रहे। और वित्त मंत्रालय में उस वक्त बैठे पी चिंदबरंम ने अभी के फंसने वाली सभी कंपनियो को क्लीन चीट दी हुई थी। सरकार की मुश्किल यह भी है कि जर्मन के अधिकारियो ने जिन 18 व्यक्तियों की सूची थमायी है और डायरेक्ट्रेट आप इंटरनेशनल टैक्ससेसन ने बीते दो बरस में जो 33784 करोड़ रुपया बटोरा है। साथ ही करीब 35 हजार करोड़ के कालेधन की आवाजाही का पता विदेशी बैको के जरीये लगाया है उनके तार कही ना कहीं देश के भीतर उन योजनाओं से जुड़े हैं, जिनके आसरे सरकार को इससे पहले लगता रहा कि उनकी नीतियों को अमल में लाने वाली कंपनियां मुनाफा जरुर बनाती है लेकिन इससे देश के भीतर विकास योजनाओ में तेजी भी आ रही है। लेकिन पिछले पांच महीने के दौरान जब से वित्त मंत्रालय के तहत जांच एंजेसियों ने विदेशी बैंको के खाते और ट्रांजेक्शन टटोलने शुरु किये तो संदिग्ध 9900 ट्राजेक्शन में से 7000 से ज्यादा ट्रांजेक्शन सरकार के आधा दर्जन मंत्रलयों की नीतियो को अमल में लाने से लेकर सरकार के साथ मिलकर काम करने वाली कंपनियो के है। यानी विकास का जो खांचा सरकार कारपोरेट और निजी सेक्टर के आसरे लगातार खींचती रही उससे इतनी ज्यादा कमाई निजी कंपनियो ने की कि उस पूंजी को छुपाने की जरुरत तक आ गई। सरकार के साथ मिलकर योजनाओ को अमली जामा पहनाते कॉरपोरेट-निजी कंपनियो की फेरहिस्त में एक दर्जन कंपनियो ने खुद को इसी दौर में बहुराष्ट्रीय भी बनाया और बहुराष्ट्रीय कंपनी होकर सरकारी योजनाओं को हड़पा भी। खास कर खनन, लोहा-स्टील,इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह और पावर सेक्टर में देश के भीतर काम हथियाने के लिये जो पैसा दिखाया गया वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम पर हुआ। और जो काम अंजाम देने में लगे उसमें वही बहुरष्ट्रीय कंपनी देसी कंपनी के तौर पर काम करते हुये बैको से पैसा उठाने लगी। इसका असर यह हुआ कि कंपनियो ने कमोवेश हर क्षेत्र में सरकारी लाईसेंस लेकर अपनी ही बहुराष्ट्रीय कंपनी से अपनी ही देसी कंपनियों को बेचा। जिससे कालाधन सफेद भी हुआ और कालाधन नये रुप में बन भी गया। हवाला और मनी-लैंडरिंग मॉरीशस के रास्ते इतना ज्यादा आया कि अगर आज की तारीख में इस रास्ते को बंद कर दिया जाये तो शेयर बाजार का सेंसेक्स एक हजार से नीचे आ सकता है। करीब दो सौ बड़ी कंपनियों के शेयर मूल्य में 60 से 75 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। यानी अर्थव्यवस्ता की जो चकाचौंध मनमोहनइक्नामिक्स तले यूपीए-1 के दौर में देश के मध्यम तबके पर छायी रही और कांग्रेस उसी शहरी मिजाज में आम आदमी के साथ खड़े होने की बात कहती रही, वह यूपीए-2 में कैसे डगमगा रही है यह भी सरकार की अपनी जांच से ही सामने आ रहा है।
लेकिन मुश्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है असल में सरकार अब चौकन्नी हुई है तो देश के भीतर के उन सारी योजनाओं का काम रुक गया है, जिन्हे हवाला और मनी-लैंडरिग के जरीये पूरा होना था। और अभी तक सरकार की प्रथमिकता भी योजनाओं को लेकर थी ना कि उसे पूरा करने वाली पूंजी को लेकर। लेकिन कालेधन और भ्रष्टाचार के सवाल ने सरकार को डिगाया तो अब पुराने सारे प्रोजेकट इस दौर में रुक गये। खासकर पावर सेक्टर और इन्फ्रास्ट्रक्चर। साठ से ज्यादा पावर प्लांट अधर में लटके है। पावर प्लांट के लिये कोयला चाहिये। कोयले पर सरकार का कब्जा है। और बिना पूंजी लिये सरकार कोयला बेचने को तैयार नहीं है। क्योंकि मुफ्त में कोयला देने का मतलब है, आने वाले दौर में एक और घोटाले की लकीर खींचना। पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस लेकर बैंठे निजी कंपनियों का संकट है कि वह किस ट्राजेक्शन के जरीये सरकार को पैसा अदा करें। इससे पहले बैक या मनी ट्राजेंक्शन पर सरकार की नदर नहीं थी तो कालाधन इसी रास्ते सफेद होता रहा। लेकिन अब वित्त मंत्रालय की एजेंसियो की पैनी नजर है तो इन्फ्रास्ट्रचर को लेकर भी देशभर में 162 प्रोजेक्ट के काम रुके हुये हैं। बंदरगाहों के आधुनिकीकरण से लेकर मालवाहक जहाजो की आवाजाही के मद्देजनर निजी कंपनियो को सारी योजनाये देने पर यूपीए-1 के दौर में सहमति भी बन चुकी थी। लेकिन अब इस दिशा में भी कोई हाथ डालना नहीं चाहता है क्योंकि निजी कंपनियो के ट्रांजेक्शन मंत्री-नौकरशाह होते हुये ही किसी प्रोजेक्ट तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन घोटालो ने जब मंत्री से लेकर नौकरशहो और कारपोरेट के धुरंधरों तक को तिहाड़ पहुंचा दिया है तो सरकार के भीतर सारे काम रुक गये है। जिससे कारोपरेट घरानो के टर्न-ओवर पर भी असर दिखयी देने लग है। सरकार को गवर्नेंस का पाठ पढाने वाले विप्रो के अजीम प्रेमजी हो या गोदरेज के जमशायद गोदरेज, एक सच यह भी है कि अब के दौर में नौकरशाही और मंत्रियों ने कोई फाइल आगे बढाने से हाथ पीछे खींचे हैं तो विप्रो का टर्न ओवर 17.6 बिलियन डॉलर से घटकर 13 बिलियन डालर पर आया है और गोदरेज का 7.9 बिलियन डालर से कम होकर 6.8 बिलियन डॉलर पर। लेकिन इस पेरहिस्त में अंबानी भाइयों से लेकर रुइया और लक्ष्मी मित्तल से लेकर कुमार बिरला तक शामिल है।
लेकिन सरकार की मुशिकल यही नहीं थमती कि उसके सामने अब बडी चुनौती सबकुछ निजी हाथो में सौपनें के बाद निजी हाथों की कमाई को रोकने की है। सवाल है महंगाई के सवाल में आम आदमी को सरकार समझाये कैसे। बिजली, पानी, घर से लेकर सडक, शिक्षा, स्वास्थय तक को निजी सेक्टर के हवाले कर दिया गया है। जमीन की किमत से लेकर महंगे होते इलाज और शिक्षा तक पर उसकी चल नहीं रही। और तमाम क्षेत्रो में जब ईमानदारी की बात सरकार कर रही है निजी सेक्टर सफेद मुनाफे के लिये कीमते बढ़ाने का खेल अपने मुताबिक खेलना चाह रहे हैं। पेट्रोल डीजल, रसोई गैस इसके सबसे खतरनाक उदाहरण हैं। जहां निजी कंपनियां अपने मुनाफे के मुताबिक कीमत तय करने पर आमादा है और सरकार कुछ कर नहीं सकती क्योंकि उसने कानूनी रुप से पेट्रोल-डीजल और गैस को यह सोच कर निजी हाथों में बेच दिया कि कीमतो पर लगने वाला टैक्स तो उसी के खजाने में आयेगा। लेकिन सरकार कभी यह नहीं सोच पायी कि निजी कंपनियां मुनाफे के लिये कीमतें इतनी भी बढ़ा सकती है कि आम आदमी में सत्ता को लेकर आक्रोष बढता जाये और यह राजनीतिक आंदोलन की शक्ल लें लें। असल में यही पर सरकार की चल नहीं रही। क्योंकि अभी तक का रास्ता कॉरपोरेट,राजनेता,नौकरशाह और पावर ब्रोकर के नैक्सस का रहा है। लेकिन नया रास्ता भूमि,न्यापालिका,चुनाव और पुलिस सुधार की मांग करता है। जिसके लिये सत्ता में अर्थशस्त्री नहीं स्टेट्समैन चाहिये, जो कहीं नजर आता नहीं। इसीलिये यह परिस्थितियां सत्ता को चेता भी रही और विकल्प का सवाल भी खड़ा कर रही है।
Friday, October 28, 2011
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राहुल गांधी...कलावती....और फॉर्मूला वन |
2008 में जब राहुल गांधी ने संसद के भीतर विदर्भ की विधवा किसान कलावती का नाम लिया और कलावती के अंधेरे जीवन में उजाला भरने के लिये परमाणु करार का समर्थन किया तो कइयों ने तालियां बजायीं। कइयों ने राहुल की उस संवेदनशीलता को मान्यता दी, जिसमें आत्महत्या करते किसान लगातार हाशिये पर ढकेले जा रहे हों। ऐसे में परमाणु करार की चकाचौंध तले किसानों की त्रासदी को भी कलावती के जरिए परखने का एक रास्ता निकल सकता है, इसे व्यापक कैनवास में माना गया। लेकिन 26 सितंबर को कलावती की बेटी सविता ने कुदकुशी की तो राजनीति में चूं तक नहीं हुई न। मीडिया नही जागा। महाराष्ट्र के वह नौकरशाह और राजनेता भी कलावती के घर नहीं पहुंचे जो राहुल गांधी के नाम लेते ही तीन बरस पहले समूचे विदर्भ में कलावती को वीवीआईपी बनाये बैठे थे। तो झटके में यह सवाल भी खड़ा हुआ कि किसानों के संकट को अपनी सियासी सुविधा के लिये अगर राजनेता कलावती जैसे किसी एक को चुनकर घुरी बना देते है तो न सिर्फ किसानों का संकट और उलझ जाता है बल्कि कलावती सरीखे किसी एक धुरी का जीवन भी नर्क जैसे हो जाता है।
असल में राहुल गांधी के नाम लेते ही कलावती को पहचान तो समूचे देश में मिल गयी। लेकिन उसका हर दर्द पहचान की भेंट ही चढ़ गया। 2005 में जब कलावती के पति परशुराम सखाराम बंधुरकर ने किसानी खत्म होने पर खुदकुशी की तो कलावती के विधवा विलाप के साथ समूचा गांव था। और उस वक्त विदर्भ के दस हजार किसानों की विधवाओ में से कलावती एक थी लेकिन 2008 में राहुल गांधी ने जब कलावती से मुलाकात की और मुलाकात को संसद में सार्वजनिक कर दिया तो राहुल के जरिए सियासत की मलाई खाने की होड़ विदर्भ के कांग्रेसियो में मची। और झटके में कलावती का घर यवतमाल के जालका गांव में एकदम अकेला पड़ गया।
असर यह हुआ कि पिछले बरस जब कलावती के दामाद संजय कलस्कर ने खुदकुशी की तो कलावती की विधवा बेटी के लिये गांव नहीं जुटा। वह अकेले पड़ गयी। गांववालों ने माना कि राहुल गांधी की कलावती के घर क्या जुटना, वहां तो नेता आयेंगे। लेकिन इन दो बरस में राहुल गांधी की सियासत भी कलावती से कहीं आगे निकल चुकी थीं और कांग्रसियों का कलावती प्रेम का बुखार भी उतर चुका था। तो कलावती के घर में विधवा विलाप मां-बेटी ने ही किया। कलावती के दामाद का संकट भी गरीबी और किसानी से दो जून की रोटी का भी जुगाड़ नही होना था। और बीते 26 सितबंर को जब कलावती की बेटी सविता ने खुदकुशी तो पुलिस इसी मशक्कत में लगी रही कि मामला किसान की गरीबी से ना जुड़े। कलावती की बेटी का दर्द यह था कि अपने पति के साथ वह भी किसान मजदूरी ही करती थी। लेकिन तबियत बिगड़ी तो खेत मजदूरी करना मुशकिल हो गया। आलम यह हो गया कि कि घर में नून-रोटी का जुगाड़ भी होना मुश्किल हो गया। वहीं तबियत बिगड़ी तो इलाज के लिये पैसे नहीं थे। आखिरी में गरीबी में बीमारी से तंग आकर सविता ने 16 सितंबर को आग लगी ली। सत्तर फीसदी जल गयी। डाक्टरों ने कहा नागपुर जा कर इलाज कराने पर बच जायेगी। लेकिन सविता और उसके पति के पास नागपुर जाने के लिये भी पैसे नहीं थे। तो 26 सितंबर को कलावती की बेटी ने दम तोड़ दिया। मामला नेताओं तक पहुंचा तो पुलिस ने आखिरी रिपोर्ट बनायी कि बीमारी से तंग आकर कलावती ने खुदकुशी की। यानी गरीबी की कोई महक कलावती से ना जुडे या उसके परिवार में खुदकुशी के सिलसिले में किसान होना न माना जाये इसका पूरा ध्यान दिया गया। और संयोग से कलावती की बेटी सविता की खुदकुशी के वक्त भी राहुल की कलावती अकेले ही रही। कोई नेता तो नहीं आया लेकिन पुलिस के आने पर कलावती फिर अकेले हो गयी। लेकिन सियासी तौर पर किसान का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिये कितना मायने रखता है यह सिर्फ कांग्रेस या राहुल गांधी के मिजाज भर से नहीं बल्कि बीजेपी या लालकृष्ण आडवाणी के जरीये भी समझा जा सकता है। रथयात्रा पर सवाल आडवाणी कलावती के गांव जालका से महज दो किलोमीटर दूर पांडवखेडा के बाइपास से निकले, लेकिन किसी बीजेपी कार्यकर्ता ने आडवाणी को यह बताने की जरुरत महसूस नहीं की कलावती की बेटी ने भी खुदकुशी कर ली। वहां जाना चाहिये।
इतना ही नहीं 2008 में राहुल गांधी के कलावती के घर जाने पर बीजेपी के नेता वैंकेया नायडू ने उस वक्त बड़ी बात कही थी कि किसी एक कलावती के जरिए किसानों के दर्द को नंही समझा जा सकता। लेकिन तीन बरस बाद आडवाणी जब रथयात्रा पर सवार होकर विदर्भ पहुंचे तो 24 घंटे के भीतर चार किसानो ने खुदकुशी की। लेकिन आडवाणी ने जिक्र करना भी ठीक नही समझा। या जानकारी देना विदर्भ के बीजेपी सिपहसालारो ने ठीक नहीं समझा। जबकि इस बरस विदर्भ में 642 किसान खुदकुशी कर चूके हैं और आडवाणी के विदर्भ में रहने के दौरान वाशिम के किसान की पत्नी साधना बटकल ने अपने दो बच्चो के साथ खुदकुशी की। जिनकी उम्र चार और छह बरस थी । यवतमाल के दिगरस के किसान राजरेड्डी निलावर ने खुदकुशी की। इसी तरह उदयभान बेले और निलीपाल जिवने ने खुदकुशी कर ली। हर किसान का संकट दो जून की रोटी है। यह सवाल महाराष्ट्र सरकार से लेकर केन्द्र सरकार तक नहीं समझ पा रही है कि अगर किसान के घर में ही अन्न नहीं है तो इसका मतलब है क्या। क्योंकि किसानों के लिये महाराष्ट्र में अन्त्योदय कार्यक्रम चलता नहीं है। नौकरशाहों का मानना है कि अन्न को किसान ही उपजाता है तो उसे अन्न देने का मतलब है क्या। लेकिन नौकरशाह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि खुदकुशी करने वाले ज्यादातक किसान कपास उगाते है और कपास न हो तो फिर किसानो में भुखमरी की नौबत आनी ही है।
वहीं महाराष्ट्र में किसानों के लिये स्वास्थ्य सेवा की भी कोई व्यवस्था नहीं है। और किसानी से चूके किसान सबसे पहले बीमारी से ही पीडि़त होते हैं। जहां इलाज के लिये पैसा किसी किसान के पास होता नहीं। तीसरा संकट किसान के बच्चो के लिये शिक्षा का है। इसकी कोई व्यवस्था महाराष्ट्र सरकार की तरफ से है नहीं। केन्द्र सरकार की भी शिक्षा योजना खुदकुशी करते किसानों के परिवार के बच्चो के लिये है नहीं। इसका असर दोहरा है। एक तरफ पिता की खुदकुशी के बाद अशिक्षित बच्चों के लिये बड़े होकर खुदकुशी करना सही रास्ता बनता जा रहा है। तो दूसरी तरफ जिस तरह क्रंक्रिट की योजनाएं खेती की जमीन हथियाने में जुटी हैं, तो औने-पौने मुआवजे में ही किसान के परिवार के बच्चे अपनी जमीन धंघा करने वालो को बेच देते हैं।
इसका असर इस हद तक पड़ा है कि नागपुर शहर में बन रहे अंतरर्राष्ट्रीय कारगो के लिये मिहान परियोजना के अंतर्ग्रत 600 किसान परिवार ऐसे हैं, जिनके बच्चों ने जमीन के बदले मोटरसाइकिल या फिर एक जीप की एवज में पीढि़यो को अन्न खिलाती आई जमीन को परियोजना के हवाले कर दिया। जिसपर रियल इस्टेट से लेकर हवाई अड्डे तक का विस्तार हो रहा है। यानी मुआवजा उचित है या नहीं इस पचडे से बचने के लिये धंधेबाजों ने अशिक्षित बच्चो को टके भर का सब्जबाग दिखाया। किसानों की यह त्रासदी कैसे सियासी गलियारे से होते हुये रिसी के खेल में बदल जाती है इसका नया नजारा दिल्ली से सटे उसी ग्रेटर नोएडा में फार्मूला रेस वन के जरीये समझा जा सकता है, जहां मायावती ने किसानों की जमीन हथियाकर रातों रात लैंड यूज बदल दी और राहुल गांधी ने भट्टा परसौल के किसानों के दर्द को उठाकर यूपी की राजनीति को गरम कर दिया। नोयडा और ग्रेटर नोयडा के सारे किसानो का दर्द मुआवजे के आधार पर एक हजार करोड़ के अतिरिक्त मदद से निपटाया ज सकता है। लेकिन इतनी रकम ना तो रियलइस्टेट वाले निकालना चाहते हैं ना ही अलग अलग योजना के जरीये पचास लाख करोड़ का खेल करने वाले विकास के धंधेबाज चेहरे। वहीं दूसरी तरफ किसानों की जमीन पर 28 से 30 अक्टूबर तक जो फार्मूंला वन रेस होनी है, उसमें सिर्फ 500 बिलियन डालर दांव पर लगेंगे।
वैसे, रेस के लिये तैयार 5.14 किलोमीटर ट्रैक तैयार करने में ही एक अरब रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका है। ग्रेटर नोयडा में तैयार इस फार्मूला रेस ग्राउड से 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाले 36 गांव में प्रति व्यक्ति आय सालाना औसतन दो हजार रुपये है। लेकिन देश का सच यह है कि फार्मूला रेस देखने के लिये सबसे कम कीमत की टिकट ढाई हजार रुपये की है जबकि तीस हजार लोगो के लिये खास तौर से बनाये गये पैवेलियन में बैठ कर रफ्तार देखने के टिकट की कीमत 35 हजार रुपये है और कारपोरेट बाक्स में बैठकर फार्मुला रेस देखने के लिये ढाई लाख रुपये का टिकट हैं। ऐसे में अगर भट्ट-परसौल में आंदोलन के दौर में किसानों के बीच राहुल गांधी को याद कीजिए तो राहुल उस वक्त किसानो के बीच विकास का सवाल फार्मूला रेस के जरीये ही यह कहकर खड़ा कर रहे थे कि मायावती सरकार तो किसानों की जमीन छीन रही है जबकि केन्द्र सरकार फार्मूला रेस करवा रही है। जिसका असर हुआ कि करोड़ों के वारे न्यारे करने वाली रेस को सफल बनाने के लिये सरकार ने फार्मूला वन को भी खेल की कैटगरी दे दी। लेकिन किसानों की खेती की जमीन कुछ इसी तरह के विकास मंत्र के जरीये हडप कर किसान की कैटगरी बदल कर मजदूर कर दी। इसलिये देश का नया सच कलावती या भट्टा परसौल नहीं है बल्कि नागपुर का मिहान प्रोजेक्ट या ग्रेटर नोयडा का फार्मूला रेस वन है जो किसानों की जमीन पर किसान को ही मजदूर बनाकर चकाचौंध फैला रहा है।
Friday, October 21, 2011
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सियासी रास्ते की खोज में संघ |
जिस वक्त अन्ना हजारे रालेगण सिद्दी में राजनीतिक लकीर खींच रहे थे, उसी वक्त नागपुर में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत अन्ना की सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की कदमताल बता रहे थे। जिस वक्त विदर्भ के एक किसान की विधवा कौन बनेगा करोड़पति में शामिल होने के बाद अपनी नयी पहचान को समेटे सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अपने जीने के हक का सवाल खड़ा कर रही थी, उस वक्त बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी दिल्ली में विदर्भ की चकौचौंध के गीत दिखाते हुये अपने विकास के पथ पर चलने के गीत गा रहे थे। तो क्या आरएसएस अपने महत्व को बताने के लिये कही भी खुद को खड़ा करने की स्थिति में है और सत्ता पाने के लिये बीजेपी किसी भी स्तर पर अपनी चकाचौंध दिखाने के लिये तैयार है।
यानी एक तरफ आरएसएस को यह स्वीकार करने में कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि उसकी धार कुंद हो चली है और वह अन्ना के पीछे खड़े होकर संघ परिवार को अन्ना से जोड़ सकती है। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी इस सुरूर में है कि सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोश में अपनी गाथा अपने तरीके से गाते रहना होगा। एक तरफ अन्ना अगर राजनीति रास्ता भी पकड़ें तो भी संघ को यह बर्दाश्त है और विदर्भ की बदहाली के बीच विदर्भ से ही आने वाले नीतिन गडकरी अगर विदर्भ का सच दिल्ली में छुपाकर बताये तो भी चलेगा। दोनो घटनाओं के मर्म को पकड़ें तो पहली बार यह हकीकत भी उभरेगी कि लगातार सामाजिक मुद्दों पर हारता संघ परिवार किसी तरह भी अपनी सफलता दिखाने-बताने को बैचेन है तो दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर नेताओ की आपसी कश्मकश अपने अपने कद को बढ़ाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। तो पहले आरएसएस की बात। मोहन भागवत में स्वयंसेवक बार बारस गेडगेवार की छवि देखना चाहता है। लेकिन हेडगेवार ने कभी किसी दूसरे के संघर्ष को मान्यता नहीं दी। क्योंकि जब आरएसएस संघर्ष के दौर में था। हेडगेवार से होते हुये गुरु गोलवरकर के हाथों की थपकी तले संघ का संगठन सामाजिक तौर पर जिस तरह अपनी पहचान बना रहा था, उस दौर में आरएसएस हिन्दु महासभा से टकराया। या फिर हेडगेवार के सामने जब जब सावरकर आकर खड़े हुये, तब तब संघ ने सावरकर को खारिज किया। उस दौर में भी आरएसएस को सामाजिक शुद्दीकरण के संघर्ष से जोडकर हेडगेवार ने यह सवाल उठाया कि राजनीतिक रास्ता सफलता का रास्ता नहीं है। और वहीं सावरकर लगातार सामाजिक मुद्दों के आसरे राजनीतिक तौर तरीको पर जोर देते रहे। और सफलता का पैमाना हिन्दुत्व के आसरे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में बढ़ाते रहे। लेकिन ना तो हेडगेवार इसके लिये कभी तैयार हुये और ना ही गुरु गोलवरकर। इतना ही नहीं जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरु सरकार से इस्तीफा देकर गुरु गोलवरकर से मिलने पहुंचे तो पहला संवाद भी दोनों के बीच सामाजिक शुद्दीकरण और राष्ट्रवादी राजनीतिक को लेकर हुआ। जिसके बाद 1951 में राष्ट्रवादी राजनीति के नाम पर जनसंघ तो बनी लेकिन राजनीतिक करने वाले स्वयंसेवकों को यह पाठ पढ़ाया गया कि सत्ता हिन्दुत्व समाज के शुद्दीकरण से ही बनेगी। और हर लकीर खुद स्वयंसेवकों को खींचनी होगी। यानी आरएसएस या जनसंघ ने उस वक्त भी कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व या सेकुलर राष्ट्रवादी समझ को मान्यता नही दी।
अब यहां सवाल संघ के मुखिया मोहन भागवत का खड़ा होता है कि जिस दशहरे की सभा का इंतजार स्वयंसेवक साल भर करते है उस सभा में जब अपने भाषण से आरएसएस की सफलता दिखाने के लिये अन्ना हजारे के आंदोलन को हड़पने की कोशिश होती है तो फिर यह रास्ता जायेगा किधर। क्योंकि संघ के भीतर बीते 85 बरस से मान्यता बनी हुई है दशहरे के दिन संघ के मुखिया अक्सर आने वाले दौर का रास्ता ही स्वयंसेवकों को दिखाते हैं। हिन्दुत्व की बिसात पर सामाजिक शुद्दीकरण की वह चाल चलते है, जिससे राष्ट्रवाद जागे। मोहन भागवत पर सवाल करना इसलिये भी जरुरी है कि जिस दौर में जेपी के जरीये आरएसएस देश में राजनीतिक सत्ता पलटने की कवायद कर रहा था उस दौर में भी दशहरे के दिन तब के संघ के मुखिया गोलवरकर ने कभी जेपी संघर्ष के पीछे खड़े स्वयंसेवकों पर एक लाइन भी नहीं कहा था। ऐसे में अब अन्ना के आंदोलन की सफलता के पीछे अगर स्वयंसेवक का ही संघर्ष हो तो भी उसे इस तरह बताने का मतलब है, संघ के मुखिया भागवत की राजनीतिक चेतना सबसे कमजोर है। या फिर कमजोर होते संघ परिवार में आरएसएस अपनी जरुरत को बनाये रखने में जुटा है। या फिर आरएसएस के भीतर के तौर तरीके इतने लुंज-पुंज हो गये हैं कि उसे एक आधार चाहिये जो उसे मान्यता दिलाये। या सरकार जिस तरह आरएसएस को आतंक के कटघरे में खड़ा कर रही है, उससे बचने के लिये आरएसएस राजनीतिक सत्ता को डिगाने में लगे अन्ना आंदोलन में ही घुसकर अपनी पूंछ बचाना चाहता है।
दरअसल, इस सवाल का जवाब बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के तौर तरीको में भी छुपा है। देश में सबसे त्रासदीदायक क्षेत्र की पहचान विदर्भ की है। जहां बीते दस बरस में सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। लेकिन अन्ना के दोलन की महक से जब बीजेपी को यह समझ में आया कि देश के बहुसंख्यक आम लोगों में सरकार के कामकाज के तरीको को लेकर आक्रोश है तो नरेन्द्र मोदी ने उपवास कर अपने कद को बढ़ाना चाहा। आडवाणी रथयात्रा शुरु कर अपने जुझारु व्यक्तित्व को बताने लगे। और इसी मौके पर नीतिन गडकरी ने अपने भाषणों का संकलन "विकास के पथ पर.. " के जरीये खुद का कद बढ़ाने की मशक्कत शुरु की। दिल्ली के सिरी फोर्ट में किताब के विमोचन के मौके पर नीतिन गडकरी ने संयोग से विदर्भ के उन्हीं जिलो में अपने कामकाज के जरीये विकास की लकीर खींचने का दावा फिल्मी तरीके से किया, जिन जिलो में सबसे ज्यादा बदहाली है।
20 मिनट तक कैमरे के जरीये ग्रामीण आदिवासियों को लेकर फिल्माये गयी फिल्म में हर जगह गडकरी की विकास की सोच थी या फिर खुश खुश चेहरे। लेकिन संयोग से 8 अक्टूबर को जब विदर्भ की यह फिल्म दिखायी जा रही थी उसी दिन विदर्भ के ही किसान की विधवा अपर्णा मल्लीकर की चिठ्टी 10 जनपथ पर पहुंची। जिसमें अपर्णा मल्लीकर ने अपने पति संजय की खुदकुशी के बाद अपने जीने के हक और अपने दोनों बेटियों के भविष्य के लिये बिना खौफ का जीवन मांगा था। क्योंकि जिस बेबसी में अपर्णा मल्लिकर रह रही हैं, उसमें पति की खुदकुशी की एवज में मिले सरकारी पैकेज कौन बनेगा करोडपति से जीती छह लाख चालीस हजार की रकम बचाने में ही उसकी जान पर बन आयी है। और पैसे हडपने में अपर्णा की जान के पीछे और कोई नहीं उसका अपने रिश्तेदार और पति के बडे भाई रधुनाथ मल्लीकार पड़े हैं। जो काग्रेस के नेता है और नागपुर के डिप्टी मेयर भी रह चुके हैं। इसलिये अपर्णा के लिये जीने के रास्ते भी बंद होते जा रहे हैं। क्योंकि किसानों की हालत विदर्भ में जितनी दयनीय है, उसमें बीजेपी अपनी विकास गाथा की लकीर खिंच रहे हैं तो कांग्रेस के स्थानीय नेता किसानों के पैकेज में अपना लाभ खोज रहे हैं।
ऐसे में कांग्रेस हो या बीजेपी दोनो का नजरिया किसानो को लेकर तभी जागता है, जब उन्हें कोई सियासी फायदा हो। यह खेल राहुल गांधी के कलावती के जरीये विदर्भ के यवतमाल ने पहले ही देखा चखा है। लेकिन सत्ता के विरोध की राजनीति करती बीजेपी का रुख भी जब किसानो के दर्द से इतर अपने चकाचौंघ में लिपट जाये और विदर्भ के केन्द्र नागपुर से खडी आरएसएस भी जब सावरकर के क्षेत्र रालेगण सिद्दी से निकले अन्ना हजारे के पीछे चलने को मजबूर हो, तब यह कहना कहा तक सही होगा कि देश का सबसे बड़ा परिवार देश को रास्ता दिखा सकता है। क्योंकि अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से बीजेपी के भीतर सत्ता पाने की जो खलबलाहट शुरु हुई है, उसमें पहली बार आरएसएस भी अपनी बिसात बिछा रहा है। संघ को लगने लगा है कि इस बार सत्ता उन्हीं स्वयंसेवकों के हाथ में आये जो संघ परिवार का विस्तार करे। यानी बीजेपी के भीतर के मॉडरेट चेहरे और नरेन्द्र मोदी सरीखे तानाशाह उसे मंजूर नहीं हैं। क्योकि 1998 से 2004 के दौर में संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता जरुर भोगी लेकिन आरएसएस उस दौर में हाशिये पर ही रही। और गुजरात में नरेन्द्र मोदी चाहे मौलाना टोपी ना पहन कर संघ को खुश करना चाहते हों लेकिन अंदरुनी सच यही है कि मोदी ने गुजरात से आरएसएस का ही सूपडा साफ कर दिया है। खास कर मराठी स्वयंसेवको को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। प्रांत प्रचारकों में सिर्फ गुजराती बचे हैं जो मोदी के इशारो पर चलने के लिये मजबूर हैं। मधुभाई कुलकर्णी हो या मनमोहन वैघ सरीखे पुराने पीढियो से जुड़े स्वयंसेवक सभी को गुजरात से बाहर का रास्ता रणनीति के तहत ही नरेन्द्र मोदी ने किया। इससे पहले संजय जोशी को भी बाहर का रास्ता मोदी ने ही दिखाया। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर जिस तरह बड़ा नेता बनने के लिये संघ से दूरी बनाकर सियासत करने की समझ दिल्ली की चौकडी में समायी है, उससे भी आरएसएस सचेत है । और इसीलिये आरएसएस अब अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि को तोड़ते हुये राजनीतिक तौर पर करवट लेते देश में अपनी भूमिका को राजनीतिक तोर पर रखने से कतरा भी नहीं है।
इसलिये अब सवाल यह नहीं है कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद बीजेपी के भीतर आडवाणी की स्थिति क्या बनेगी । बल्कि सवाल यह है कि क्या इस दौर में आरएसएस अन्ना से लेकर बीजेपी की राजनीतिक पहल को भी अपने तरीके से इसलिये चलाना शुरु कर देगा जिससे कांग्रेस के विकल्प के तौर पर संघ की सोच उभरे। और भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई तक के मुद्दो पर हाफंता संघ परिवार आने वाले दौर में एकजुट होकर संघर्ष करता नजर आये।
Tuesday, October 18, 2011
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रिजेक्ट करने का "हिसार हिसाब" |
हिसार "राईट टू रिजेक्ट" का नया चेहरा है। ऐसा चेहरा जिसमें मुद्दा महत्वपूर्ण था लेकिन उसे ढोने वाला कोई उम्मीदवार नहीं था। पहली बार उम्मीदवार को नहीं मुद्दों को जीतना या हारना था। यानी मुद्दे को वोट का पावर चाहिये था और कांग्रेस की जमानत जब्त होने के साथ ही वोट पावर के तौर पर भी उभरा। तो क्या हिसार के चुनावी संकेत अब जातीय या सांप्रदायिक चेहरे के आगे के अक्स देश को दिखा रहा है। या फिर हिसार के चुनाव परिणाम महज अण्णा का तुक्का है। क्योंकि जाट और जाट के बीच चौटाला जयप्रकाश पर भारी थे, यह हर कोई जानता था और जाट-गैर जाट के बीच चौटाला पर भजनलाल के बेटे विश्नोई भारी थे, यह भी हर कोई जानता था।
लेकिन जयप्रकाश समर्थक जाट झटके में चौटाला के साथ खड़ा हो जायेगा और विश्नोई को चौटाला बराबरी की टक्कर दे देंगे, यह कोई नहीं जानता था। लेकिन हिसार का मतलब जीत हार नहीं बल्कि जमानत जब्त मामला है। क्योंकि कांग्रेस के जयप्रकाश ने 2004 में तब यह सीट जीती थी, जब कांग्रेस भी माने बैठी थी कि उसकी सत्ता तो दूर कांग्रेसी वोट बैंक भी एनडीए की चकाचौंध में लगातार गुम हो रहा है। लेकिन हरियाणा की चाल बिलकुल केन्द्र के चुनाव के तर्ज पर चली। कांग्रेस केन्द्र में आयी तो हरियाणा में भी कांग्रेस आई। मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स तले देश ने 2009 में कांग्रेस के हाथ को सत्ता दिला दी तो हरियाणा के हुड्डा भी दुबारा जीत कर कांग्रेस की सत्ता बरकरार रख गये। लेकिन जिस दौर में मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स को लेकर ही सवाल उठ रहे हैं और भ्रष्टाचार तले विकास की कॉरपोरेट लूट का सवाल खड़ा हो रहा है, संयोग से उसी दौर में हरियाणा में हुड्डा की विकास थ्योरी को लेकर भी सवाल उठे हैं। हुड्डा ने भूमि अधिग्रहण को लेकर ज्यादा से ज्यादा मुआवजे की जो थ्योरी हरियाणा में परोसी है, उस थ्योरी को केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि कांग्रेस ने भी हाथों हाथ लिया है। और राहुल गांधी ने मुसीबत में फंसे हर किसान को हरियाणा मॉडल पर राज करने की जो नसीहत दी उससे नया सवाल अब यह निकल रहा है कि मनमोहन सिंह की खींची रेखा पर ही हुड्डा भी चले और कांग्रेस ने भी उसे ही अपने हाथ का जगन्नाथ माना।
लेकिन उदारवादी अर्थव्यवस्था की लकीर खींचते खींचते केन्द्र सरकार या उसी मॉडल को अपनाये राज्य सरकारे जब आम आदमी को पीछे छोड आगे निकलने लगी तो लोगो का आक्रोश ही अण्णा आंदोलन की सफलता भी बना और हिसार का बिना उम्मीदवार राजनीतिक प्रयोग कांग्रेस की जमानत जब्त भी करा गया। यह परिणाम बीजेपी को खुश कर सकता है। लेकिन बिना उम्मीदवार मुद्दे की जीत काग्रेस के लिये परेशानी का सबब है। क्योंकि कांग्रेस की सरकार केन्द्र में है और कांग्रेस का मतलब मनमोहन सिंह या काग्रेस संगठन नहीं बल्कि गांधी परिवार है। गांधी परिवार का मतलब एक ऐसा सियासी 'औरा' है जिसमें किसी भी राजनीतिक दल के किसी भी राजनेता की चमक गायब हो जाती है। ऐसे मौके पर गांधी परिवार अगर 2012 में यूपी होते हुये 2014 के केन्द्र की तैयारी कर रहा है और इसी मोड पर अण्णा का सवाल अगर उस राजनीतिक चकाचौंध को ही घूमिल कर देता है, जिसकी चकाचौंध में सत्ता की मलाई दिखाकर हर राजनीतिक दल बिना मुद्दे अपने अपने वोट बैंक को सहेजते हैं, तो फिर आने वाले दौर में गांधी परिवार को लेकर काग्रेस में क्या हडकंप हो सकती है, यह समझना जरुरी है। क्योंकि कोई मुद्दा अगर चुनाव मैदान में खड़े उम्मीदवार ही नहीं राजनीतिक दलो पर भी भारी पडने लगे तो फिर सियासत का रुख क्या हो सकता है, यह अब के हालात से भी समझा जा सकता है जब हर किसी के निशाने पर अण्णा की वही टीम है जिसके पास ना तो कोई संगठन है ना कोई राजनीतिक मंच है। ना ही राजनीतिक दलों जितना पैसा है। ना ही संसदीय राजनीति का कोई अनुभव है। एनजीओ से लेकर वकील और आईपीएस एधिकारी या नौकरशाही का अनुभव समेटे चंद ऐसे लोग हैं, जो झटके में मुद्दे के आसेर एक ऐसे राष्ट्रीय मंच की धुरी बन गये हैं जिसके चारो तरफ वह तमाम संगठन और राजनीतिक दल है, जिन्हें सत्ता चाहिये। और संयोग से सत्ता भोग रहे नेता हो या सत्ता की दौड में लगे नेताओ का जमघट, अधिकतर जब जनलोकपाल के कटघरे में खड़े हैं तो फिर आने वाले चुनाव में अण्णा मुद्दा गायब हो जायेगा ऐसा भी नहीं है। होगा क्या । कांग्रेस का सबकुछ दांव पर है। विपक्ष का कुछ भी दांव पर नहीं है। यूपी में भी हिसार के चौटाला और विश्नोई की ही तर्ज पर मुलायम सिंह और मायावती कटघरे में है। यानी जो जयप्रकाश हारने के बाद यह सवाल खड़ा करते हैं कि अण्णा के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ की मुहिम में तो जीतने की दौड में भ्रष्ट ही आ गये। उसी तर्ज पर यूपी में तो समूची कांग्रेस ही कह सकती है कि जब आय से ज्यादा संपत्ति जैसे भ्रष्टाचार के मामले में मुलायम और मायावती दोनो फंसे हैं तो फिर काग्रेस के खिलाफ वोट डालने की मुहिम का मतलब कितना खतरनाक होगा यह अण्णा टीम को समझना चाहिये।
लेकिन बड़ा सवाल यही से निकलता है कि जिस रास्ते उदारवादी अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री ले जा चुके है, उसमें जब देश के आम लोगों का आस्तित्व नही बच रहा और सभी उपभोक्ता में तब्दिल हो चुके तो फिर संसदीय राजनीति पर लोगो का आक्रोश तो भारी पड़ेगा ही। और यही आक्रोश मुद्दा बन किसी को भी तब तक हरायेगा जब तक सत्ता के सरोकार लोगो से नहीं जुड़ेगे। और महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये राजनीतिक दल तकनीकी राजनीतिक भाषा की बिसात बिछाना छोडेंगे नहीं। यानी जबतक आमलोगो का भरोसा राजनीतिक सत्ता को लेकर डिगा रहेगा आक्रोश हिसार सरीखा ही परिणाम देगा, जिसका कोई राजनीतिक मकसद नही होगा। और चुनाव आयोग की पहल के बगैर ही राईट टू रिजेक्ट अपनी परिभाषा गढ़ लेगा।
Monday, October 17, 2011
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न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग और गाइडलाइन्स का सवाल |
'सेंसरशिप' की तैयारी मे जुट रहे हैं नौकरशाह
न्यूज चैनलों पर नकेल कसने के लिये सरकार ने अपनी पहल तेज कर दी है। इंडियन इनफॉरमेशन सर्विस यानी आईआईएस के उन बाबुओं को दुबारा याद किया जा रहा है, जिन्हें न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग का अनुभव है।1995 से 2002 तक सरकारी गाइडलाइंस के आधार पर सूचना प्रसारण के नौकरशाह पहले दूरदर्शन और मेट्रो चैनल पर आने वाले समसामायिक कार्यक्रमों की मॉनिटरिंग करते रहे। इस दौर में न्यूज और करेंट अफेयर के तमाम कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट पहले सरकारी बाबुओं के पास आती थीं। उसके बाद पूरा कार्यक्रम बाबुओं की टीम देखती। जो तस्वीरें हटवानी होती, जो कमेंट हटाने होते, उसे हटवाया जाता।
उसके बाद निजी चैनलों का दौर आया तो शुरुआत में मॉनिटरिंग स्क्रिप्ट को लेकर ही रही। लेकिन इसके लिये पहले से स्क्रिप्ट मंगवाने की जगह महीने भर देखने के बाद चैनलों को नोटिस भेजने का सिलसिला जारी रहा। लेकिन एनडीए सरकार के दौर में सूचना प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग यह कह कर बंद करायी कि जो कन्टेंट टीवीटुडे के अरुण पुरी या एनडीटीवी के प्रणव राय तय करते हैं, उनसे ज्यादा खबरों की समझ नौकरशाहों में कैसे हो सकती है। उस वक्त न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग करने वाले नौकरशाहो ने सरकारी गाइडलाइन्स का सवाल उठाया। तब प्रमोद महाजन ने सरकारी गाइडलाइन्स किसने बनायी और उसका औचित्य क्या है, इन्हीं मामलो में नौकरशाहो को उलझाया और धीरे धीरे मॉनिटरिंग खानापूर्ति् में तब्दील हो गई।
लेकिन अब सरकार ने दो स्तर पर काम शुरु किया है, जिसमें पहले स्तर पर उन नौकरशाहों को याद किया जा रहा है जो न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग के माहिर माने जाते हैं और फिरलहाल रिटायर जीवन बीता रहे हैं। और दूसरे स्तर पर वर्तमान नौकरशाहों के जरीये ही मॉनिटरिंग की नयी गाइडलाइन्स बनाने की प्रक्रिया शुरु की गई है। चूंकि 7 अक्टूबर को कैबिनेट ने अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग गाइडलाईन्स, 2005 को मंजूरी देते हुये न्यूज चैनलों की संहिता के भी सवाल उठाये और यह भी कहा गया कि कोई टेलीविजन चैनल कार्यक्रम और विज्ञापन संहिता के पांच उल्लंघनों का दोषी पाया गया तो सूचना प्रसारण मंत्रालय के पास उसका लाइसेंस रद्द करने का अधिकार होगा । लेकिन वे उल्लंघन होंगे क्या ? या फिर उल्लंघन के दायरे में क्या लाना चाहिये, इस पर चिंतन-मनन की प्रक्रिया शुरु हो गई है। और जो निकल कर आ रहा है, अगर वह लागू हो गया तो टीआरपी की दौड़ मे लगे उन न्यूज चैनलों का लाइसेंस तो निश्चित ही रद्द हो दायेगा, जो खबरो के नाम पर कुछ भी दिखाने से परहेज नहीं करते। नयी गाइडलाइन्स के तहत नौकरशाह का मानना है कि नंबर एक की दौड में न्यूज चैनल अव्वल नंबर पर बने रहने या पहुंचने के लिये खबरों से खिलवाड़ की जगह बिना खबर या दकियानूस उत्साह को दिखाने लगते हैं। मसलन, कैसे कोई नागमणि देश का भविष्य बदल सकती है। कैसे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम भारत को बर्बाद कर सकता है। कैसे कंकाल रोबोट का काम कर सकता है। वहीं दूरदर्शन में रहे कुछ पुराने नौकरशाहो का मानना है कि जिस तरह कॉलेज से निकली नयी पीढ़ी रिपोर्टिंग और एंकरिंग कर रही है, और वह किसी भी विषय पर जिस तरह कुछ भी बोलती है उस पर लगाम कैसे लगेगी। क्योंकि मीडिया अगर यह सवाल करेगा कि जो न्यूज चैनल बचकाना होगा, उसे खुद ही लोग नहीं देखेंगे। यानी न्यूज चैनलो की साख तो खबरों को दिखाने-बताने से खुद ही तय होगी। लेकिन मुंबई हमले के दौरान जिस तरह की भूमिका बिना साख वाले चैनलों ने निभायी और उसे देखकर पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों ने अपनी रणनीति बनायी, उसे आगे कैसे खुला छोड़ा जा सकता है।
खास बात यह भी है कि नौकरशाह नयी गाइडलाइन्स बनाते वक्त न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिेएशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स को लेकर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं। सूचना मंत्रालय के पुराने खांटी नौकरशाहों का मानना है कि बिना साख वाले न्यूज चैनल या खबरों से इतर कुछ भी दिखाने वाले न्यूज चैनलों के संपादक भी जब न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिेएशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स से जुड़े हैं और बाकायदा पद पाये हुये हैं तो फिर इनका कितना भी आत्ममंथन कैसे न्यूज चैनलो को खबरों में बांध सकता है। और फिर जो न्यूज चैनल बिना खबर के खबर दिखाने का लाइसेंस लेकर धंधे कर मुनाफा बनाते है तो उन्हें मीडिया का हिस्सा भी कैसे माना जाये और उन पर नकेल कसने का मतलब सेंसर कैसे हो सकता है। लेकिन खास बात यह भी है कि सरकार के भीतर नौकरशाहों के सवालो से इतर अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान मीडिया कवरेज ने परेशानी पैदा की है और नयी आचार संहिता की दिशा कैसे खबर दिखाने वाले न्यूज चैनलों को पकड़ में लाये, इस पर भी चितंन हो रहा है। और पहली बार सरकार की नयी गाइडलाइन्स में इमरजेन्सी की महक इसलिये आ रही है क्योंकि न्यूज चैनलो के जरीये सरकार को अस्थिर किया जा रहा है, यह शब्द जोड़े गये हैं। गाइडलाइन्स में सरकार को अस्थिर करने को सही ठहराने के लिये खबरों के विश्लेषण और सरकार के कामकाज को गलत ठहराने पर जोर दिया जा रहा है। मसलन चुनी हुई सरकार की नीतियों को जनविरोधी कैसे कहा जा सकता है। सड़क के आंदोलन को संसदीय राजनीति का विकल्प बताने को अराजक क्यों नहीं माना जा सकता। तैयारी इस बात को लेकर है कि गाइडलाइन्स की कॉपी यूपी चुनाव से पहले तैयार कर ली जाये, जिससे पहला परीक्षण भी यूपी चुनाव में ही हो जाये। और गाइडलान्स की कॉपी हर चैनल को भेज कर लाइसेंस रद्द करने की तलवार लटका दी जाये क्योंकि गाइडलाइन्स को परिभाषित तो नौकरशाहो की टीम करेगी जो यह समझ चुकी है कि न्यूज चैनलों के भीतर के अंतर्विरोध में सेंध लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है क्योंकि न्यूज चैनलो में चंद चेहरों की ही साख है, जिसे आम आदमी सुनता-देखता है। बाकी तो हंसी-ठहाका के प्रतीक हैं।
Saturday, October 8, 2011
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मीडिया से टकराव का रास्ता |
इस वक्त सरकार के निशाने पर देश के दो बडे मीडिया संस्थान है । दोनों संस्थानों को लेकर सरकार के भीतर राय यही है कि यह विपक्ष की राजनीति को हवा दे रहे हैं । सरकार के लिये संकट पैदा कर रहे हैं । वैसे मीडिया की सक्रियता में यह सवाल वाकई अबूझ है कि जिस तरह के हालात देश के भीतर तमाम मुद्दों को लेकर बन रहे हैं उसमें मीडिया का हर संस्थान आम आदमी की परेशानी और उसके सवालों को अगर ना उठाये, तो फिर उस मीडिया संस्थान की विश्वनीयता पर भी सवाल खड़ा होने लगेगा। लेकिन सरकार के भीतर जब यह समझ बन गयी हो कि मीडिया की भूमिका उसे टिकाने या गिराने के लिये ही हो सकती है, तो कोई क्या करे?इसलिये मीडिया के लिये सरकारी एडवाईजरी में जहां तेजी आई है,वहीं जिन मीडिया संस्थानो पर सरकार निशाना साध रही है उसमें निशाने पर वही संस्थान हैं,जिनका वास्ता विजुअल और प्रिंट दोनों से है। साथ ही उन मीडिया संस्थानो के दूसरे धंधे भी है। दरअसल, सिर्फ मीडिया हाउस चलाने वाले मालिकों को तो सरकार सीधे निशाना बना नहीं सकती क्योंकि इससे मीडिया मालिकों की विश्वनीयता ही बढ़ेगी और उनकी सौदेबाजी के दायरे में राजनीति आयेगी। जहां विपक्ष साथ खड़ा हो सकता है। फिर आर्थिक नुकसान की एवज में सरकार को टक्कर देते हुये मीडिया चलाने का मुनाफा भविष्य में कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है। लेकिन जिन मीडिया हाउसों के दूसरे धंधे भी हैं और अगर सरकार वहां चोट करने लगे तो फिर उन मीडिया हाउसों के भीतर यह सवाल खड़ा होगा ही कि कितना नुकसान उठाया जाये या फिर सरकार के साथ खड़े होना जरुरी है। और चूकिं यह खेल राष्ट्रीय स्तर के मीडिया घरानों के साथ हो रहा है तो खबरें दिखाने और परोसने के अंदाज से भी पता लग जाता है कि आखिर मीडिया हाउस के तेवर गायब क्यों हो गये?दरअसल पर्दे के पीछे सरकार का जो खेल मीडिया घरानों को चेताने और हड़काने का चल रहा है,उसके दायरे में अतीत के पन्नों को भी टटोलना होगा और अब के दौर में मीडिया के भीतर भी मुनाफा बनाने की जो होड है, उसे भी समझना होगा।
याद कीजिये आपातकाल लगाने के तुरंत बाद जो पहला काम इंदिरा गांधी ने किया वह मीडिया पर नकेल कसने के लिये योजना मंत्रालय से विद्याचरण शुक्ल को निकालकर सूचना प्रसारण मंत्री बनाया और मंत्री बनने के 48 घंटे बाद ही 28 जून 1975 को विद्याचरण शुक्ल ने संपादकों की बैठक बुलायी। जिसमें देश के पांच संपादक इंडियन एक्सप्रेस के एस मुलगांवकर,हिन्दुस्तान टाईम्स के जार्ज वर्गीज, टाइम्स आफ इंडिया के गिरिलाल जैन,स्टैट्समैन के सुरिन्दर निहाल सिंह और पैट्रियॉट के विश्वनाथ को सूचना प्रसारण मंत्री ने सीधे यही कहा कि सरकार संपादकों के काम से खुश नहीं है,उन्हें अपने काम के तरीके बदलने होंगे। चेतावनी देते मंत्री से बेहद तीखी चर्चा वहां आकर रुकी जब गिरिलाल जैन ने कहा ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाये गये थे। इस पर मंत्री का जवाब आया कि यह अग्रेंजी शासन नहीं है, यह राष्ट्रीय आपात स्थिति है। और उसके बाद मीडिया ने कैसे लडाई लड़ी या कौन कहां, कैसे झुका यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन 36 बरस बाद भ्रष्ट्राचार के कटघरे में खड़े पीएमओ, कालेधन को टालती सरकार और मंहगाई पर फेल मनमोहन इक्नॉमिक्स को लेकर देश भर में सवाल खडे हुये और 29 जून 2011 को जब प्रधानमंत्री ने सफाई देने के लिये संपादकों की बैठक बुलायी। और प्रिट मिडिया के पांच संपादक जब प्रधानमंत्री से मिलकर निकले, तो मनमोहन सिंह एक ऐसी तस्वीर पांचों संपादको ने खींची जिससे लगा यही कि देश के बिगडते हालात में कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा परेशान है और कुछ करने का माद्दा रखता है, तो वह प्रधानमंत्री ही है। यानी जो कटघरे में अगर स्थितियां उसे ही सहेजनी हैं, तो फिर संपादक कर क्या सकते हैं या फिर संपादक भी अपनी बिसात पर निहत्थे हैं । यानी लगा यही कि जिस मीडिया का काम निगरानी का है वह इस दौर में कैसे सरकार की निगरानी में आकर ना सिर्फ खुद को धन्य समझने लगा, बल्कि सरकार से करीबी ही उसने विश्वनीयता भी बना ली। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह मीडिया ने हाथों हाथ लिया उसने झटके में सरकार के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि जिस मीडिया को उसने अपनी छवि बनाने के लिये धंधे में बदला और बाजार अर्थव्यवस्था में बांधा अगर उसी मीडिया का धंधा सरकार की बनायी छवि को तोड़ने से आगे बढने लगे, तो वह क्या करेगी । क्या सत्ता इसे लोकतंत्र की जरूरत मान कर खामोश हो जायेगी या फिर 36 बरस पुराने पन्नों को खोलकर देखेगी कि मीडिया पर लगाम लगाने के लिये मुनाफा तंत्र बाजार के बदले सीधे सरकार से जोड़ कर नकेल कसी जाये। अगर सरकार के संकेत इस दौर में देखें तो वह दोराहे पर है।
एक तरफ फैलती सूचना टेक्नॉल्जी के सामने उसकी विवशता है, तो दूसरी तरफ मीडिया पर नकेल कस अपनी छवि बचाने की कोशिश है । 36 बरस पहले सिर्फ अखबारों का मामला था तो पीआईबी में बैठे सरकारी बाबू राज्यवार अखबारों की कतरनों के आसरे मंत्री को आपात स्थिति का अक्स दिखाते रहते, लेकिन अन्ना हजारे के दौर में ना तो बाबुओं का विस्तार टेक्नॉल्जी विस्तार के आधार पर हो पाया और ना ही सत्ता की समझ सियासी बची । इसलिये आंदोलन को समझ कर उस पर राजनीतिक लगाम लगाने की समझ भी मनमोहन सिंह के दौर में कुंद है। और राजनीति भी जनता से सरोकार की जगह पैसा बनाकर सत्ता बरकरार रखने की दिशा को ज्यादा रफ्तार से पकड़े हुये है। यानी सियासत की परिभाषा ही जब मनमोहन सिंह के दौर में आर्थिक मुनाफे और घाटे में बदल गयी है तो फिर मीडिया को लेकर सरकारी समझ भी इसी मुनाफा तंत्र के दायरे में सौदेबाजी से आगे कैसे बढ़ेगी। इसलिये जिन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन को प्रधानमंत्री की परिभाषा संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा तले देखा, उन्हें सरकार पुचकार रही है और जिस मीडिया ने अन्ना के अन्ना के आंदोलन में करवट लेते लोकतंत्र को देखा, उन्हें सरकार चेता रही है । लेकिन पहली बार अन्ना आंदोलन एक नये पाठ की तरह ना सिर्फ सरकार के सामने आया बल्कि मिडिया के लिये भी सड़क ने नयी परिभाषा गढ़ी । और दोनों स्थितियों ने मुनाफा बनाने की उस परिभाषा को कमजोर कर दिया जिसके आसरे राजनीति को एक नये कैनवास में मनमोहन सिंह ढाल रहे है और मीडिया अपनी विश्वसनीयता मनमोहन सिंह के कैनवास तले ही मान रही है । मीडिया ने इस दौर को बेहद बारीकी से देखा कि आर्थिक विकास के दायरे में राजनीति का पाठ पढाने वाले मनमोहन सिंह के रत्नों की चमक कैसे घूमिल पड़ी । कैसे सत्ता के गुरूर में डूबी कांग्रेस को दोबारा सरोकार कि सियासत याद आयी । कैसे कांग्रेस की बी टीम के तौर पर उदारवादी चेहरे को पेश करने में जुटी बीजेपी को राजनीति का 36 बरस पुराना ककहरा याद आया । और कैसे तमाशे में फंसा वह मिडिया ढहढहाया जो माने बैठा रहा कि अन्ना सडक से सासंदो को तो डिगा सकते है लेकिन न्यूज चैनल के इस मिथ को नहीं तोड सकते कि मनोरंजन का मतलब टीआरपी है । असल में मिडिया के अक्स में ही सियासत से तमाशा देखने की जो ललक बाजार व्यवस्था ने पैदा की उसने अन्ना के आंदोलन से पहले मिडिया के भीतर भ्रष्ट्राचार की एक ऐसी लकीर बनायी जो अपने आप में सत्ता भी बनी और सत्ता चलाने वालो के साथ खडे होकर खुद को सबसे विश्वनिय मानने भी लगी । लेकिन अन्ना के आंदोलन ने झटके में मिडिया की उस विश्वनियता की परिभाषा को पलट दिया जिसे आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन सिंह लगातार गढ रहे थे । विश्वनियता की परिभाषा बदली तो सरकार एक नही कई मुश्किलो से घिरी । उसे मीडिया को सहेजना है। उसे अन्ना टीम को कटघरे में खड़ा करना है । उसे संसदीय लोकतंत्र का राग अलापना है। उसे लाभ उठाकर विपक्ष को मात देने की सियासत भी करनी है। उसने किया क्या?
मीडिया से सिर्फ अन्ना नहीं सरकार की बात रखने के कड़े संकेत दिये। लेकिन इस दौर में सरकार इस हकीकत को समझ नही पा रही है कि उसे ठीक खुद को भी करना होगा । प्रणव मुखर्जी न्यूयार्क में अगर प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद यह कहते है कि दुर्गा पूजा में शामिल होने के लिये उन्हें 27 को बंगाल पहुंचना जरुरी है और दिल्ली में पीएम से मुलाकात संभव नहीं हो पाती इसलिये मुलाकात के पीछे कोई सरकार का संकट ना देखे । तो समझना यह भी होगा कि मीडिया की भूमिका इस मौके पर होनी कैसी चाहिये और हो कैसी रही है। और सरकार का संकट कितना गहरा है जो वह मीडिया का आसरे संकट से बचना चाह रही है । यानी पूरी कवायद में सरकार यह भूल गयी कि मुद्दे ही सरकार विरोध के है । आम लोग महंगाई से लेकर भ्रष्ट्राचार मुद्दे में अपनी जरूरतों की आस देख रहे हैं । ऐसे में जनलोकपाल का आंदोलन हो या बीजेपी की राजनीतिक घेराबंदी वह सरकार का गढ्डा खोदेगी ही । तो क्या मनमोहन सिंह के दौर में राजनीति से लेकर मीडिया तक की परिभाषा गढ़ती सरकार अपनी ही परिभाषा भूल चुकी है । और अब वह मीडिया को बांधना चाहती है। लेकिन इन 36 बरस में कैसे सरकार और मीडिया बदले है इसपर गौर कर लें तो तस्वीर और साफ होगी । उस दौर में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा चापलूसो ने कहा । अब अन्ना टीम की एक स्तम्भ ने अन्ना इज इंडिया और इंडिया इज अन्ना कहा । उस वक्त इंडिया दुडे के दिलिप बाब ने जब इंदिरा गांधी से इंटरव्यू में कुछ कडे सवाल पूछे तो इंदिरा ने यहकहकर जवाब नहीं दिया कि इंडिया दुडे तो एंटी इंडियन पत्रिका है । तब इंडिया दुडे के संपादक अरुण पुरी ने कवर पेज पर छापा । इंदिरा से इंडिया एंड एंटी इंदिरा इज एंटी इंडिया । और वहीं से इंडिया दुडे ने जोर पकडा जिसने मिडिया को नये तेवर दिये । लेकिन अब 17 अगस्त को जब संसद में पीएम मनमोहन सिंह ने अन्ना के आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा बताया तो कोई यह सवाल नहीं पूछ पाया कि अगर अन्ना इज इंडिया कहा जा रहा है तो फिर सरकार का एंटी अन्ना क्या एंटी इंडियन होना नहीं है । असल में 36 बरस पुराने ढोल खतरनाक जरुर है लेकिन यह कोई नहीं समझ पा रहा कि उस ढोल को बजाने वाली इंडिरा गांधी की अपनी भी कोई अवाज थी। और इंदिरा नहीं मनमोहन सिंह है। जो बरसों बरस राज्यसभा सदस्य के तौर पर संसद की लाइब्रेरी अक्सर बिजनेस पत्रिकाओ को पढकर ही वक्त काटा करते थे । और पडौस में बैठे पत्रकार के सवालो का जवाब भी नहीं देते थे । यह ठीक वैसे ही है जैसे 15 बरस पहले जब आजतक शुरु करने वाले एसपी सिंह की मौत हुई तो दूरदर्शन के एक अधिकारी ने टीवीटुडे के तत्कालिक अधिकारी कृष्णन से कहा कि एसपी की गूंजती आवाज के साथ तो हेडलाईन का साउंड इफैक्ट अच्छा लगता था। लेकिन अब जो नये व्यक्ति आये हैं उनकी आवाज ही जब हेडलाइन के घुम-घडाके में सुनायी नहीं देती तो फिर साउंड इफैक्ट बदल क्यो नहीं देते । और संयोग देखिये आम लोग आज भी आजतक की उसी आवाज को ढूंढते है क्योंकि साउंड इफैक्ट अब भी वही है। और संकट के दौर में कांग्रेस भी 36 बरस पुराने राग को गाना चाहती है।