रेलगाडी पर हजारों की तादाद में चीटिंयो और चूहों की तरह अंदर बाहर समाये बेरोजगार नवयुवकों को देखकर आंखों के सामने पहले ढ़ाका में मजदूरों से लदी ट्रेन रेंगने लगी जो हर बरस ईद के मौके पर नजर आती है। वही जब बेरोजगार युवकों से पटी ट्रेन पटरी पर रेंगने लगी और कुछ देर बाद ही 19 की मौत की खबर आयी तो 1947 में विभाजन की त्रासदी के दौर में खून से पटी रेलगाडियों की कहानी और द्दश्य ही जेहन में चलने लगा। कई राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर भी यही दृश्य चलते हुये भी दिखायी दिये.....और यूपी में देशभर के लाखों बेरोजगारो की बेबाकी सी चलती भी स्क्रीन पर रेंगती तस्वीरो के साथ ही दफन हो गयी। यानी कोई सवाल पत्रकारीय माध्यमों में कहीं नहीं उठा कि सवा चार सौ धोबी-नाई-कर्मचारी की नियुक्ति के लिये बरेली पहुंचे सवाल चार लाख बेरोजगारों की जिन्दगी ऐसे मुहाने पर क्यों आ कर खडी हुई है जहां ढ़ाई से साढ़े तीन हजार की आईटीबीपी को नौकरी भी मंजूर है। ना अखबार ना ही न्यूज चैनलों ने बहस की कि जो बेरोजगार मारे गये वह सभी किसान परिवार से ही क्यों थे। किसी ने गांव को शहर बनाने की मनमोहनइक्नामिक्स की जिद पर सवाल खड़े कर यह नहीं पूछा कि सवा चार लाख बेरोजगारों में साढे तीन लाख से ज्यादा बेरोजगार किसान परिवार के ही क्यों थे। यह सवाल भी नहीं उठा कि कैसे विकास के नाम पर किसानी खत्म कर हर बरस किसान परिवार से इसतरह आठवीं पास बेरोजगारों में सत्तर लाख नवयुवक अगली रेलगाड़ी पर सवार होने के लिये तैयार हो रहे हैं।
बरेली में बेरोजगारों के इतने बडे समूह को देखकर पत्रकारीय समझ ने बिंबों के आसरे मिस्र के तहरीर चौक का अक्स तो दिखाया , मगर यह सवाल कहीं खडा नहीं हो पाया कि बाजार अर्थव्यवस्था से बडा तानाशाह हुस्नी मुबारक भी नहीं है। और बीते एक दशक में देश की 9 फीसदी खेती की जमीन विकास ने हड़पी है जिसकी एवज में देश के साढ़े तीन करोड़ किसान परिवार के किसी बच्चे का पेट अब पीढियों से पेट भरती जमीन नहीं भरेगी बल्कि इसी तरह रेलगाडियो की छतों पर सवार होकर नौकरी की तालाश में उसे शहर की ओर निकलना होगा। जहां उसकी मौत हो जाये तो जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी। अगर यह सारे सवाल पत्रकारीय माध्यमों में नहीं उठे तो यह कहने में क्या हर्ज है कि अब पत्रकारीय समझ बदल चुकी है। उसकी जरूरत और उसका समाज भी बदल चुका है । लेकिन पत्रकारिय पाठ तो यही कहता है कि पत्रकारिता तात्कालिकता और समसामयिकता को साधने की कला है। तो क्या अब तात्कालिकता का मतलब महज वह दृश्य है जो परिणाम के तौर पर इतना असरकारक हो कि वह उसके अंदर जिन्दगी के तमाम पहलुओं को भी अनदेखा कर दे।
अगर खबरों के मिजाज को इस दौर में देखे तो किसी भी खबर में आत्मा नहीं होती। यानी पढ़ने वाला अपने को खबर से जोड़ ले इसका कोई सरोकार नहीं होता। और हर खबर एक निर्णायक परिणाम खोजती है। चाहे वह बेरोजगारों की जिन्दगी के अनझुये पहलुओं का सच तस्वीर के साये में खोना हो । या फिर ए राजा से लेकर सुरेश कलमाड़ी, अशोक चव्हाण , पी जे थॉमस सरीखे दर्जनो नेताओं के भ्रष्टाचार पर सजा के निर्णय के ओर सत्ता को ठकेलना ब्रेकिंग न्यूज और सजा का इंतजार राजनीति संघर्ष यानी निर्णय जैसे ही हुआ कहानी खत्म हुई । कॉमनवेल्थ को सफल बनाने से जुडे डेढ़ हजार से ज्यादा कर्मचारियों को कलमाड़ी की वजह से वेतन रुक गया यह खबर नहीं है। आदर्श सोसायटी बनाने में लगे तीन सौ 85 मजदूरों को पगार उनके ठेकेदार ने रोक दी। यह खबर नहीं है। असल में इस तरह हर चेहरे के पीछे समाज के ताने-बाने की जरुरत वाली जानकारी अगर खबर नहीं है तो फिर समझना यह भी होगा कि पत्रकारीय समझ चाहे अपने अपने माध्यमों में चेहरे गढ़ कर टीआरपी तो बटोर लेगी लेकिन पढ़ने वालों को साथ लेकर ना चल सकेगी। ना ही किसी भी मुद्दे पर सरकार का विरोध जनता कर पायेगी। और आज जैसे तमाम राजनेता एक सरीखे लगते हैं जिससे बदलाव या विकल्प की बयार संसद के हंगामे में गुम हो जाती है। ठीक इसी तरह अखबार या न्यूज चैनल या फिर संपादक या रिपोर्टर को लेकर भी सिर्फ यही सवाल खडा होगा। यानी अब वह वक्त इतिहास हो चुका है जब सवाल खड़ा हो कि साहित्य को पत्रकारिता में कितनी जगह दी जाये या दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं। या फिर पत्रकारिता या साहित्य की भाषा आवाम की हो या सत्ता की । जिससे मुद्दों की समझ सत्ता में विकसित हो या जनता सत्ता को समझ सके।
दरअसल यह मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। लेकिन अब पत्रकारिता धन और रोजी पर टिकी है क्योकि वैकल्पिक समाज को बहुत तेजी से उस सत्ता ने खत्म किया जिसे अपने विस्तार में ऐसे माध्यम रुकावट लगते हैं जो एकजुटता का बोध लिये जिन्दगी जीने पर भरोसा करते हैं। यह सत्ता सियासत भी है और कारपोरेट भी। यह शहरी मानसिकता भी है और एकाकी परिवार में एक अदद नौकरी की धुरी पर जीने का नजरिया भी। यह संसद में बैठे जनता की नुमाइन्दगी के नाम पर सत्ता में दोबारा पहुंचने के लिये नीतियों को जामा पहनाने वाले सांसद भी है और किसी अखबार या न्यूज चैनलो के कैबिन में दरवाजा बंद कर अपनी कोठरी से अपने संपादक होने के आतंक पर ठप्पा लगाने में माहिर पत्रकार भी। यह सवाल कोई दूर की गोटी नहीं है कि आखिर क्यों देश में कोई लीडर नहीं है जिसके पीछे आवाम खड़ी हो या कोई ऐसा संपादक नहीं जिसके पीछे पत्रकारों की एक पूरी टीम खड़ी हो। दरअसल इस दौर में जिस तरह सवा चार लाख बेरोजगार एक बडी तादाद होकर भी अपने आप में अकेले हैं। ठीक इसी तरह देश में किसी ट्रेन दुर्घटना में मरते सौ लोग भी अकेले हैं और देश में रोजगार दफ्तर में रजिस्ट्रड पौने तीन करोड़ बेरोजगार भी अकेले ही हैं। कहा यह भी जा सकता है कि पत्रकारीय समाज के बडे विस्तार के बावजूद संपादक भी निरा अकेला ही है। और साहित्यकर्म में लगा सहित्यकार भी अकेला है ।
इसलिये पत्रकारिता से अगर सरोकार खत्म हुआ हो तो साहित्य से सामुहिकता का बोध लिये रचनाकर्म। इसलिये पहली बार मुद्दों की टीले पर बैठे देश का हर मुद्दा भी अपने आप में अकेला है। और उसके खिलाफ हर आक्रोश भी अकेला है। जो मिस्र, जार्डन,यूनान, ट्यूनेशिया को देखकर कुछ महसूस तो कर रहा है लेकिन खौफजदा है कि वह अकेला है। और पत्रकारीय समझ बिंबों के आसरे खुद को आईना दिखाने से आगे बढ नही पा रही है।
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Saturday, February 5, 2011
जो सवाल पत्रकारीय कौशल में दफन हो गये
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:36 PM
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पत्रकारीय सोच,
बरेली आईटीबीपी,
शाहजहांपुर रेल हादसा
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8 comments:
बाजपेयी जी, पत्रकारिता कभी मिशन हुआ करती थी, अब वो दौर नहीं रहा। अब तो पैड न्यूज का जमाना है, जिसने ज्यादा जेब ढीली की, उसकी खबरें उतने बडे कालम में या फिर उतना एयर टाईम उसे दिया जाएगा, और जिसकी औकात खर्चने की नहीं, वह कितना भी महत्व का हो, अपनी बला से।
असली मुददे, मौलिक सोच का जमाना अब नजर नहीं आता।
उत्तप्रदेश में बेरोजगारों के रेल हादसे में मारे जाने के परिप्रेक्ष्य में आपने जिन मुददो को उठाया, वह चिंतन का विषय है।
प्रसून जी आपकी चिन्ता से हर कोई सहमत हैं और होगा भी, क्योकी उपदेश देना और उससे सहमत होना सबके लिऐ गौरव की बात होता हैं , पर सच्चाई ये भी हैं कि हम आप केवल व्यवस्था को कोस कर ही इतिश्री कर रहे हैं,फिर परस्पर अविश्वास भी अब इस कदर बढ गया हैं कि हर कोई प्रयोजित सा ही दिखता हैं चाहे आप की कलम हो या मेरी , दरअसल अब तो रोजी रोटी की बात किनारे की भी जा सकती हैं क्योकी सवाल पेट से हटकर पेटी पर आ गया हैं और हम राजनैतिक विचारधारा के नाम पर इतने बट चुके हैं कि हमारी कोई विचारधारा और सार्थकता स्पष्ट ही नही हैं और न ही इसके लिऐ हम प्रतिबद्व ही हैं, लच्छेदार बात बनाने वाले साहित्यकार जिन्हे आप कहते हैं वे कुछेक शेष हो सकते हैं बाकी रागदरबारी ...... सतीश कुमार चौहान , भिलाई
पर उससे बड़ा सवाल ये है के जिनके पास जवाब है इस सवाल का.......वे जैसे जानते बूझते बाज़ार का साइन बोर्ड थामे बैठे है
आपकी पोस्ट की चर्चा हमारीवाणी ई-पत्रिका में कलम ब्लॉग-राग के अंतर्गत की गई है.
http://news.hamarivani.com/archives/496
टीम हमारीवाणी
SAWAL TO JAYAJ HAI PAR KYO SIRF PATRKARITA KO GHERE ME LIYA JAY? DARD TO AIK HI HAI PHIR BHI HAR SHAKSH TANHA HAI..PURI DUNIA JISKE DAYARE ME AAKE AIK HO JATI HAI WAHA BHI HAR DES ALAG KHADA HAI..KYO? YE TO WAHI BAAT HO GAI KI..UNHE YE UMMID THI KI WO KADAM BADHAYE,HAME YE JID THI KI WO HAME PUKARE..LOG AIK DUSRE KA INTAZAR HI KAREGE TO HASR AUR ANJAAM HAR BAR YAHI HOGA ..FIR TAMASHA KOI BHI DEKHE..FARK KYA ..KI PATRKAR DEKHE YA PHIR SADAK PAR KHADA AIK AAM VYAKTI..
आप के विचार इस तथा मोदी वाले दोनों लेखों में उत्कृष्ट हैं.हमारे देश में आज भी गुलाम-प्रवृति चल रही है,इसलिए लोग सही नहीं सोच रहे हैं
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ना अखबार ना ही न्यूज चैनलों ने बहस की कि जो बेरोजगार मारे गये वह सभी किसान परिवार से ही क्यों थे। किसी ने गांव को शहर बनाने की मनमोहनइक्नामिक्स की जिद पर सवाल खड़े कर यह नहीं पूछा कि सवा चार लाख बेरोजगारों में साढे तीन लाख से ज्यादा बेरोजगार किसान परिवार के ही क्यों थे। यह सवाल भी नहीं उठा कि कैसे विकास के नाम पर किसानी खत्म कर हर बरस किसान परिवार से इसतरह आठवीं पास बेरोजगारों में सत्तर लाख नवयुवक अगली रेलगाड़ी पर सवार होने के लिये तैयार हो रहे हैं।..
पता नहीं अब न्यूज़ क्या है...
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