बंगाल जाती रेलगाड़ी के नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ते ही सामने बैठा कोई यात्री अगर इस मिजाज से आपकी तरफ सवाल उछाल कर यारी करना चाहे कि "ममता बनर्जी बंगाल में वामपंथी को हरायेगी जरुर लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बनेगी ", तो आप क्या कहेंगे। जाहिर है जिस तपाक से सवाल उछला उसी तपाक से जवाब भी देना होगा क्योकि अगले अठ्ठरह घंटे तो साथ ही गुजारने हैं। तो जवाब रहा- ऐसा हो नहीं सकता, ममता जिस राजनीतिक दांव को खेल रही हैं उसमें वहीं मुख्यमंत्री नही बनी तो बंगाल को लगेगा कि ममता ने ठग लिया। बात ठगने की नहीं है भाईसाब। जंगलमहल का बंगाली भी जानता है कि ममता वामपंथियों को टक्कर तो दे सकती है लेकिन मुख्यमंत्री बनकर जंगलमहल में मंगल तो नहीं कर सकती। नही ऐसा नही है। दीदी तो जंगलमहल के लिये भी रेलगाड़ी शुरु कर रही हैं।और अब दिल्ली से चलेंगे तो सीधे लालगढ़ में अपने घर पर उतरेंगे। सियालदह जाने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। बिना रिजर्वेशन स्लीपर क्लास में बैठे एक सह-यात्री ने बहस में बीच में टोकते हुये ममता का जिस तरह समर्थन किया और लालगढ़ का जिक्र किया वैसे ही डिब्बे में बैठे यात्रियो के लिये यह खुला आंमत्रण सरीखा था, जिसमें जो चाहे ममता बनर्जी को लेकर अपनी बात कह ले।
पूर्वा एक्सप्रेस अपनी रफ्तार में थी और बंगाल के चुनाव को लेकर कई सवाल उछलने लगे तो रेलगाड़ी की रफतार से भी तेज थी। क्या वामपंथियो के तीन दशक की सत्ता की समझ का विकल्प ममता बनर्जी देगी। क्या मनमोहन सिंह की अर्थनीति का विकल्प बंगाल देगा। क्या बंगाल के चुनाव परिणाम पहली बार गरीब बंगाल का अक्स होंगे,जिसके साये में मजदूर,किसान,आदिवासी और अल्पसंख्यक पिछडा तबका ही नजर आयेगा। यह सारे सवाल दिल्ली से कोलकाता लौटते बंगालियो से सुने जा सकते हैं। सिर्फ दिल्ली ही नहीं अलग अलग शहरो में निर्माण से जुडे मजदूरो के अलावे रिक्शा चलाने वाले बंगालियों से लेकर परचून का धंधा करने वाले हो या घरों में काम करने वाली महिलायें हो सभी से जुडे सवाल ममता बन्रजी की राजनीति से कैसे जुड़े हैं और किस तरह ममता बंगाल के वामपंथी गढ़ को तोड देगी , बहस उसी दिशा में चल पड़ी। कन्ट्रेक्टर का धंधा करने वाले पार्थो गांगुली लगे बताने कि कैसे बंगाल चुनाव के ऐलान के साथ ही निर्माण मजदूर और घरो में काम करने वाले बंगालियों के लौटने का सिलसिला जिस तेजी से बढ़ा है , उसमें पहली बार बंगाल में ढहते वामपंथियो की सत्ता से ज्यादा ममता के उस राजनीतिक प्रयोग को देखा जा रहा है, जहां सरोकार की राजनीति परिवर्तन की लहर के तौर पर उठ रही है। हम नहीं गये तो दीदी अकेली पड़ जायेगी। कैडर का आतंक फिर हमें जीने नहीं देगा। घर छोड़कर कबतक बाहर काम करें। वोट नहीं डालेंगे तो दीदी हार जायेगी। अबकि बार लाल झंडा नहीं चलेगा।
अचानक सुशाधर महतो ने जिस तेजी से अपनी बात कही उससे सभी झटके में आ गये। महतो दा आप ऐसा क्यों कहते हैं। क्या वामपंथियो ने मजदूरों के लिये कुछ नहीं किया। किया होगा लेकिन दिल्ली में आज भी ममता दीदी का घर हम बंगालियो के लिये खुला है। सीपीएम का नेता तो दसियों साल से दिल्ली में है लेकिन कोई सीपीएम का नेता दिल्ली में मिलता तक नहीं है। हमारा रिजर्वेशन भी ममता के घर से हुआ। और अबकि बार तो दीदी ने दिल्ली से भी हमारे इलाके में रेलगाड़ी रोकने का स्टेशन बनाने का ऐलान कर दिया है। हम पहली बार बिना किसी दलाल को पैसे दिये रिजर्वेशन पर घर लौट रहे हैं। महतो दा की खामोश बीबी भी झटके में बोल पड़ी। अब बताओ दीदी के लिये लौटना को पहले से ही होगा। हम लौटेंगे तो दीदी के लिये काम करेंगे। गांव में हिम्मत आयोगी। कैडर की हिंसा का जवाब देंगे। यह सारे बोल रेलगाड़ियो से लौटते उन बंगालियों के हैं, जिनका जीवन दिहाड़ी मजदूरी या हर दिन जीने के लिये रोजगार तलाश करना ही जिन्दगी का पहला और आखिरी सच बना हुआ है। दिल्ली से सीधे कोई रेलगाड़ी जंगलमहल के इलाके में घर तक भी ले जा सकती है , यह सपना भी कभी उन बंगालियो ने नहीं देखा जिनका सबकुछ लालगढ़ के आंदोलन में खाक हो गया।
लेकिन ममता ने इस सपने को भी अपने बजट में जगह दे दी। जंगलमहल के जिस इलाके में माओवादियो ने रेलगाड़ी रोककर कंबल और पेन्ट्रीकार को ही तो लूटा था। ममता ने उनका साथ दिया तो क्या गलत किया। वामपंथियों ने तो हमारा हक लूटा है और सत्ता में बनी हुई है। दीदी अगर लुटेरो को सत्ता से भगाने के लिये जुटी हैं तो हमें वोट डालने के लिये लौटना ही पड़ेगा। चाहे रेलभाडा उधार ही क्यों ना लेना पड़े। बूढी मां,पत्नी , भाभी को बिना रिजर्वेशन भी रिजर्वेशन के डिब्बे में रिजर्वेशन के जुगाड में घूमते बीरभूम के जागो दा भी बहस में अपनी गुंजाइश देख कूद पड़े। नाम जगीश्वर था लेकिन उनके साथ खड़े एक युवा लड़के ने जागो दा के सुर में सुर मिलाते हुये कहा जब दूरंतो गाड़ी चल सकती है तो सिर्फ हम मजदूरों के लिये रिजर्वेशन वाली गाड़ी क्यों नहीं चल सकती जो सीधे जंगलमहल ले जाये। भाईसाहब आप क्या माओवादी है जो जंगलमहल के लिये ही एक रेलगाड़ी खोज रहे हैं। बगल में बैठे शशीधर शर्मा खामोशी तोड़ ऐसी टिप्पणी देंगे किसी ने सोचा नहीं होगा। इसलिये माओवादी कहते ही हर कोई खामोश हो गया। लेकिन जवाब सुशाधर महतो की पत्नी से आया जो बोल पड़ी माओवादी से भी हिम्मत आता है। अब हम गांव लौटेगी तो गांव वालो में हिम्मत आयेगा। वहां तो सीपीएम के कैडर से वोट डालने के लिये भी लड़ना पडता है। पहले से जायेंगे तो सभी को एक-दूसरे का सहारा मिलेगा। हिम्मत लौटेगा। उनके साथ सफर करने वाले दिल्ली के लाजपत इलाके में काम करने वाले सुनिल महतो और जायदीप भी इसके बाद लगे बताने। तीन बरस पहले ही दिल्ली आये। जब आये थे तब लालगढ में रहना मुश्किल था। घर जल चुका था। सारा सामान लुटा जा चुका था। पिछले एक साल से दोबारा लालगढ में आवाजाही शुरु की तो घास-फूस की झोपडी बनायी और अब खेती दोबारा शुरु करवाने का भरोसा ममता ने दिया है। हम तो चाहते है कि इसबार आरपार की लड़ाई हो जाये। ममता दीदी सीपीएम को उखाड़ फेंके। और हमें दोबारा दिल्ली आने की जरुरत न पड़े । दिल्ली आना कौन चाहता है । अब बंगाल में सीपीएम का डर हमारा पेट भी काट डालेगा तो पेट की खातिर कहीं तो भागना ही पडेगा। लेकिन दीदी इस पेट को समझती है। और सीपीएम सिर्फ सिर गिनता है। जाहिर था शाम ढलने के बाद सभी अपने अपने खाने के जुगाड़ और सोने की व्यवस्था में लग गये। और तब अपने सामने बैठे उसी शख्स को मैंने कुरेदा, जिसने ममता के सीएम ना बनने को लेकर पहली बहस छेड़ी थी, क्यों आपको जवाब मिल गया कि ममता बनर्जी ही मुख्यमंत्री बनेंगी। नहीं, मिला और मेरा भरोसा पक्का है कि ममता चुनाव तो जीत जायेंगी लेकिन सीएम वह नहीं बनेगी। क्यों । आपने नहीं देखा ममता बनर्जी को लेकर कैसे पहली बार उन बंगालियों में भी जोश है, जो हाशिये पर हैं। यानी ममता की छवि उसकी ईमानदारी की है। और यही छवि वामपंथियो को डरा रही है। इसलिये ममता इस छवि को तोड़ना नहीं चाहेगी। बल्कि रेलमंत्री बनी रहेगी और बंगाल के उस तबके का भला करती रहेगी जो हाशिये पर है। तो मुख्यमंत्री कौन होगा । कोई भी हो सकता है। लेकिन मेरे ख्याल से प्रणव मुखर्जी हो सकते हैं। और ममता अपने किसी करीबी खास को डिप्टी सीएम बना देगी। क्योकि ममता जिस बंगाल का सपना सत्ता में आने के बाद दिखा रही हैं, उसकी रुकावट यही लेफ्ट फ्रंट होगा जो अभी वामपंथी लीक छोड़ चुका है। लेकिन बंगाली समाज अभी भी वामपंथी है। इसलिये समझना यही चाहिये कि ममता आज की तारिख में सीपीएम से बड़ी वामपंथी है। और सत्ता बदलाव के बाद ममता अपनी छवि को दिल्ली में भुनायेगी ना कि बंगाल में खपायेगी। और आप तो न्यूज चैनल के हैं, टीवी पर देखता रहता हूं। लेकिन मैं कैडर का हूं । जनता से जुड़ कर ही काम करता हूं।
क्या सीपीएम के हैं?
जी नहीं, अल्ट्रा लेफ्ट का हूं । अल्ट्रा लेफ्ट यानी.... यानी क्या वहीं माओवादी ।
Thursday, March 17, 2011
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रेलगाड़ी से तेज है बंगाल में बदलाव की बयार |
Monday, March 14, 2011
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अंधेर नगरी के राजा |
पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने माफी मांगी। पहली बार लोकसभा में विपक्ष के किसी नेता ने माफ भी कर दिया। पहली बार भ्रष्टाचार,महंगाई और कालेधन पर सरकार कटघरे में खड़ी दिखी। पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री से लेकर जांच एंजेसियों को समाजवादी सोच का पाठ यह कर पढ़ाया कि अपराध अपराध होता है। उसमें कोई रईस नहीं होता। पहली बार प्रधानमंत्री के चहेते कारपोरेट घरानों को भी अपराधी की तरह सीबीआई हेडक्वाटर में दस्तक देनी पड़ी। पहली बार चंद महीने पहले तक सरकार के लिये देश के विकास से जुडी डीबी रियल्टी कार्पो सरीखी कंपनी के निदेशक जेल में रहकर पद छोड़ना पड़ा। पहली बार पौने सात साल के दौर में यूपीए में संकट भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रही कार्रवाई को लेकर मंडराया। और पहली बार सरकार को बचाने भी वही दल खुल कर आ गया जिसकी राजनीति गैर कांग्रेसी समझ से शुरु हुई। यानी पहली बार देश में यह खुल कर उभरा कि मनमोहन सिंह सिर्फ सोनिया गांधी के रहमो करम पर प्रधानमंत्री बनकर नहीं टिके है बल्कि देश का राजनीतिक और सामाजिक मिजाज भी मनमोहन सिंह के अनुकूल है।
पहली बार संसद ने भी माना कि विकास को लेकर आर्थिक सुधार की जो जमीन मनमोहन-इकनॉमिक्स ने बनायी है, उसकी बिसात ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है । और इन सब के बीच देश के सामने वैकल्पिक राजनीति ही नही बल्कि आर्थिक नीतियों का भी कोई खाका नहीं है जो सामाजिक तौर पर कारपोरेट जगत के टर्न ओवर को तीन सौ से तीन हजार फीसदी बढाने के साथ साथ के साथ साथ देश के किसान-मजदूरो की क्रय शक्ति में दस फिसदी का ही इजाफा कर दें। संसदीय राजनीति के पास भी ऐसे तौर-तरीके नहीं है, जो पूंजी पर टिकती जा रही चुनावी व्यवस्था के सामानांतर बिना पूंजी भी संसदीय लोकतंत्र का जाप जनता से करवा सके। यानी हाशिये पर खड़े देश के 80 करोड़ लोगों के सवाल उनके अपने नुमाइनंदों के जरीये पूरे हो और देस में बनती विकास की नीतियों को न्यूनतम से बी जोड़ सके। इसका कोई चेहरा देश के सामने नहीं है। वहीं इसके उलट सत्ता का विकेन्द्रीकरण पूंजी और मुनाफे के बंटवारे के आसरे कुछ इस तरह फैला है, जिससे सत्ता की नयी परिभाषा में हर वह संस्था सत्ता में तब्दील हो चुकी है, जिसके आसरे विकल्प के सवालो को जन्म लेना था। यानी राजनीति अगर सत्ता लोभ में पटरी से उतरने लगे तो संस्थाओं के आसरे उसपर नकेल कसने की जो प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये, वह भी पटरी ही बन जाये तो क्या होगा। सीधे कहें तो भ्रष्टा चार, महंगाई या कालेधन के सवाल पर लोकतंत्र के पहरुओं के तौर पर जिन संवौधानिक संस्थाओं को अपनी भूमिका निभानी चाहिये अगर उन्ही संस्थाओं की विश्वनीयता खत्म होने लगे तो क्या होगा।
असल में पहली बार देश के आमजन के सामने संवैधानिक संस्थाओं के जरीये भी रास्ता ना निकल पाने का संकट है। यानी संस्थाएं अगर ढहती नजर आ रही है तो विकल्प के सवाल किस आसरे देश के मानस पटल पर छा सकते हैं, यह सवाल संसदीय राजनीति में सत्ता के लिये मशगूल राजनीतिक दलों के सामने भी है और आंदोलनों के जरीये सरकार पर दबाव बनाने वाले संगठनो को सामने भी। लेकिन वह किस चेहरे को लिये सामने आये, यह जवाब किसी के पास नहीं है। इसलिये सवाल यही है कि जो आर्थिक परिस्थितियां देश की राजनीति को भी अपने हिसाब से चला रही है और जिन माध्यमों के जरीये विकास का खांचा खींच कर देश के भीतर कई देश बना रही है, क्या उसे बदला जा सकता है। क्या संसदीय व्यवस्था के भीतर राजनीति करनी की इतनी जगह बची हुई है, जहां चुनाव के नये मापदंड तय किये जा सके। क्या सत्ता से टकराने में इतना लोकतंत्र देश के भीतर बचा हुआ है जहां पुलिस-प्रशासन विकल्प की सोच को राजद्रोह या गैरकानूनी करार देकर जेल में ना ठूंस दें। क्या लोकतंत्र के तीन स्तम्भों पर निगरानी रखने वाला मीडिया में इतनी मानवीयता अब भी बची है कि वह जनमानस की हवा को मुद्दों के आसरे आंधी बनाने में बिना मुनाफा काम करें। क्या यह संभव है कि देश के खनिज संस्धानों से लेकर देश की न्यूनतम जरुरत पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मद्देनजर पहले समूचे देश को सरकारी व्यवस्था नापे और संस्थायें काम में जुट जाएं। क्या यह संभव है कि विकास की जो नीति शहरीकरण और बाजारीकरण के जरिए कॉरपोरेट के आसरे मुनाफा पंसद नीति बनायी जा रही है, उसे कानून के जरीये बदला जाये। यानी बैकों को लेकर कानून बन जाये कि जनता का पैसा बहुसंख्यक जन के हित की योजनाओ को अमली जामा पहनाने के लिये एक नियत वक्त में सरकारी संस्थाओ के जरीये जन नुमाइंदों की निगरानी में पूरा किया जायेगा। गड़बड़ी होने पर आपराधिक कानून काम करेगा।
क्या यह संभव है कि कानून बनाकर बैंकिंग सेक्टर को किसान-खेती से जोड़ा जाये । मसलन बैंकों को हर हाल में किसानों को खेती के लिये तीन फिसदी पर कर्ज देना है, नहीं दिया तो पैनल्टी में बैंक से उस क्षेत्र के किसानो की संख्या के मुताबिक वसूली होगी। क्या खेती की जमीन पर कानूनन पूरी तरह रोक लगाकर खरीदने-बेचने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है। और खेती के लिये सिंचाई से लेकर कटाई और गोदाम से लेकर बाजार तक फसल पहुंचाने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर को उघोग का दर्जा देकर नयी नीति नहीं बनायी जा सकती है। क्या औघोगिकीरण के लिये देश की करोड़ों एकड बंजर जमीन को विकास से जोड़ने की योजना बनाने की दिशा में योजना आयोग को नहीं लगाया जा सकता है। क्या बुंदेलखंड सरीखे देश के पिछडे इलाको में देश के सबसे बेहतरीन शिक्षा और स्वास्थय केन्द्र खोलकर एक नया आर्थिक मॉडल नहीं बनाया जा सकता है। जो अपने इर्द-गिर्द रोजगार का एक पूरा खाका खडा कर सकता हो । क्या गांव को शहरो में तब्दील करने की जगह गांवो के माहौल-जरुरत के मुताबिक विकास का वैकल्पिक ढांचा खड़ा नहीं किया जा सकता है। क्या पब्लिक सेक्टर के जरीये विकास की उन योजनाओ को अमल में नहीं लाया जा सकता है जो कारपोरेट या निजी हाथो में लाइसेंस थमाकर देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी सस्ते में लुटाया जाता है और बैंकों के जरीये सस्ते में पूंजी जुगाड़ने का रास्ता भी साफ कर दिया जाता है। क्या देश का एक आर्थिक इंडेक्स नहीं बनाया जा सकता । जिसके मातहत रोटी से लेकर जमीन और शिक्षा से लेकर मकान तक की कीमत देश में एक निर्धारित खांचे से बाहर ना निकले। यानी जमीन की कीमतें अगर बढ़ती है तो गेहूं-चावल और भाजी की कीमते भी उसी रुप में बढगी। फ्लैट अगर दस लाख की जगह एक करोड़ हो सकते हैं तो दाल-चावल की कीमतें एक हजार रुपये प्रति किलोग्राम क्यो नहीं हो सकती। अगर यह नहीं हो सकता तो फिर जमीन-फ्लैट या वैसे हर प्रोडक्ट की कीमते भी एक सीमित दायरे में ही रहेगी जिससे कालाधन बनाने या कालाधन को इन्वेस्ट करने के रास्ते रुके। यानी कीमत बाजार नहीं देश की जरुरत के मुताबिक सरकार तय करें जो पंतायत स्तर से लेकर संसद तक में काम कर रही हो। शायद यह सकुछ हो सकता है लेकिन इसके लिये संसदीय ढांचे की चुनावी प्रक्रिया को भी सस्ता करने की जरुरत पड़ेगी। जरुरी है कि देश में चुनाव लडने के लिये 10 रुपये का फार्म मिले। यानी 25 हजार रुपये ना देने पड़े।
जरुरी है कि पंचायती राज व्यवस्था से लेकर लोकसभा तक की प्रक्रिया आपस में इस तरह जुड़े, जिससे हर पचास हजार लोगो को अपना नुमाइंदा सीधे नजर आये । यानी चार स्तर या चौखम्भा राज की व्यवस्था जमीनी तौर पर हो। चूंकि यह सब नहीं है इसलिये चुनावी व्यवस्था में नीतिया-विचारधारा हाशिये पर है और उसी का प्रतिफल है कि ममता बनर्जी बंगाल में भूमि-सुधार से लेकर भूमि अधिग्रहण और किसान-मजदूर आदिवासियो के सवाल पर कांग्रेस की सोच से ठीक उलट है लेकिन बंगाल में दोनो एकसाथ है। दिल्ली में पूर्व कैबिनेट मंत्री ए राजा को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भिजवाने पर प्रधानमंत्री खुशी जाहिर करते है, उसी ए राजा को चेन्नई में वही डीएमके क्लीन चीट दे देती है। और दोनो एकसाथ मिलकर चुनाव भी लड़ते है और केन्द्र की सरकार भी सभी साथ मिलकर चलाते है । यानी विकास के हर मुद्दे पर देश के खिलाफ लिये जा रहे निर्णयों पर एक वक्त के बाद अगर प्रधानमंत्री माफी मांग लें और विपक्ष माफ कर दें और इस संसदीय व्यवस्था को बरकरार रखने के लिये कोई ना कोई राजनीतिक दल आंकड़ों के लिहाज से संसद के भीतर खानापूर्ती करते रहें तो सवाल यही है कि व्यवस्था का राजद्रोह और राजनीति की जनविरोधी सोच और क्या होती है।