Wednesday, April 13, 2011

कौन डरता है अण्णा के सपने से

पहले भ्रष्टाचार पर नकेल, फिर चुनाव सुधार, उसके बाद चुने हुये नुमाइन्दो को वापस बुलाने का अधिकार और इन सबके साथ सत्ता का विकेन्द्रीकरण। यह सीधी लकीर अण्णा हजारे की है। जन-लोकपाल विधेयक के सवाल पर 97 घंटे के अनशन के दौरान समूचे देश की सड़क प्रतिक्रिया पर सरकार के नतमस्तक रुख ने अण्णा को यही हौसला दिया कि वह सरकार और जनता के बीच एक मोटी लकीर खींच दें।और आजादी के बाद पहली बार संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के तौर-तरीको पर सीधी अंगुली उठाते हुये आम नागरिक को झटके में कैसे सरकार से अलग-थलग कर हर उस सपने को अण्णा ने हवा दे दी, जो सरकार से इतर ना देख पाने की मजबूरी में या फिर हर पांच साल में चुनाव प्रक्रिया में शरीक होकर ही न्याय करने या होने के लोकतंत्र का पाठ पढ़ता रहा। यानी पहली बार अण्णा ने संसद को ही यह कहकर कटघरे में खड़ा कर दिया कि जिसका काम सवा सौ करोड़ लोगों की जरुरत और उसकी व्यवस्था में जुटना है, वह अपनी जरुरत और व्यवस्था बनाने में जुटी है। जिस संसद के भीतर सत्ता को बांधने के लिये विपक्ष है, वह भी विपक्ष की भूमिका छोड सत्ता में तब्दिल हो चुकी है।

लोकतंत्र के जो पाये चैक एंड बैलेंस के लिये हैं, सत्ता ने उसे भी अपने भीतर समा लिया है। यानी हर वह संस्था जो देश के आम नागरिकों के वोट की एवज में ऊपर से नीचे तक काम कर रही है, उसमें हर ऊपरी संस्था अपने मातहत संस्था को अपने ही रंग में कुछ इस तरह रंग चुकी है कि अपने अपने घेरे में हर कोई सत्ताधारी में बदल चुका है। इसलिये परिवर्तन चुनाव के जरीये होता है या होगा यह सोचना अब बचकानापन है। असल में अण्णा ने इतनी दूर तक सोचा या फिर जन-लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट को तैयार करने वाली कमेटी आगे इतनी दूर तर सोचेगी यह अभी कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन सिविल सोसायटी के नुमाइन्दो की पचास फीसदी भागेदारी के बगैर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाला लोकपाल तबतक जन लोकपाल नहीं कहलायेगा, इस सोच के आधार पर समूचे देश में खडे हुये जनमानस ने पहली बार लोहिया और जेपी से आगे एक नयी समझ देश के सामने जरुर रखी कि असल संघर्ष संसद के कटघरे की जगह संसद को ही कटघरे में खड़ा कर पैदा किया जा सकता है। यानी लोहिया ने जिस ईमानदारी की मांग कांग्रेस और नेहरु से की। और किसान-मजदूर के श्रम मूल्य के आइने में सरकार की भ्रष्ट नीतियों को बकायदा आंकड़ों से घेरा। उस मांग में भी संसदीय राजनीति सर्वोपरि रही। या कहे विपक्ष से सत्ता में आकर सुधार का राजनीतिक नारा ही देश को सुनायी दिया । जेपी ने भी भ्रष्टाचार के सवाल को संसदीय राजनीति से जोड़ा और संपूर्ण क्रांति के मंत्र में भी कभी आम नागरिको को संसदीय व्यव्सथा से इतर नहीं जाने दिया। लेकिन अण्णा के साथ न तो लोग यह सोच कर जुड़े कि उन्हें संसदीय राजनीति में घुसना है या चुनाव लड़कर उसमें सुधार लाना है और न ही किसी ने यह माना की संसदीय व्यवस्था अपने आप में चैंक एंड बैलेंस कर लेगी।

इसका मतलब यह कि जिस संसदीय लोकतंत्र के नारे को ढाल बनाकर तमाम राजनीतिक दल एक बेहतर व्यवस्था की बात करते रहे हैं और अभी भी करते हैं, अण्णा के आमरण उपवास की छांव में पहली बार समूचे देश में स्वत-स्फूर्त बने जंतर-मंतर में जमा हुये जन-सैलाब ने लोकतंत्र के इस नारे को ही खारिज कर दिया। न तो अण्णा को सियसत में जाना है और ना ही भ्रष्टाचार की मुहिम में शामिल लोगों को। लेकिन बिना जन-भगेदारी के सरकार की किसी पहल पर भरोसा करना मुश्किल है तो पहली बार सवाल यह भी उठा कि फिर सांसद या मंत्री को लेकर नया नजरिया क्या हो। क्योंकि अभी तक जनता या आम नागरिकों की नुमाइन्दी करने वालो को नेता कहा जाता है, जो चुनाव लड़कर देश की नीतियों को अमलीजामा पहनाते। लेकिन सरकार के मंत्रियो या सर्वदलीय बैठक के निर्णय पर भी जब सवाल जनता ने ही अण्णा हजारे को समर्थन देकर उठाये तो अब सवाल यह उठेगा कि कैसे संसदीय राजनीति जनता से टकराती है। चूंकि सरकार में शामिल राजनीतिक दलों के अलावे किसी राजनीतिक दल की अहमियत झटके में गौण हो गई है। और अण्णा के आंदोलन के पांच दिनो के दौर में किसी राजनीतिक दल ने अपना मुंह तक नहीं खोला।

इतना ही कोई राजनेता इतनी हिम्मत भी नहीं दिखा सका कि वह अण्णा के साथ जंतर-मंतर पर मंच पर आ सके । कैसे आंदोलन ही कभी कभी मुद्दों को भी बनाता है और अण्णा को भी आंदोलन के पीछे चलना पडा, यह अण्णा के उमा भारती को बुलावे के बाद भी आम लोगो के विरोध से उभरा। और अण्णा वहां माफी मांगने के आलावा कुछ नहीं कर पाये। उमा भारती को खाली हाथ लौटना पड़ा। नया सवाल यही है कि संसदीय प्रणाली में जो व्यवस्था बनी हुई है उसे अण्णा के आंदोलन ने तो खारिज कर दिया लेकिन जनलोकपाल विधेयक जब संसद में जायेगा तब कांग्रेस से इतर दूसरे राजनीतिक दलो की प्रतिक्रिया कैसी होगी। क्योंकि संसदीय राजनीति के सामने दोहरा संकट है । एक तो भ्रष्टाचार का मुद्दा पहली बार राजनीतिक सत्ता को भी उलट-पुलट रहा है। और बिहार में चुनाव के जरीये यह खुल कर सामने आया। वहीं भ्रष्टाचार के इस दौर में कटघरे में वही कांग्रेस सबसे ज्यादा खड़ी रही, जिनके मंत्री लोकपाल विधेयक का ड्राप्ट तैयार करेंगे। और विपक्ष की भूमिका नगण्य होगी।

जाहिर में ऐसे में संसद के भीतर एक तरफ जहा विपक्ष सरकार को भ्रष्टाचार पर घेरकर लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट पर अंगुली उठायेगा, वह कांग्रेस सिविल-सोसायटी के आंदोलन की आड़ लेकर खुद को भ्रष्टाचार से मुक्त बतायेगी। और इस झगड़े के बीच सवाल उन राजनीतिक दलों का भी होगा, जिनके मुखिया लोकपाल के लागू होते ही शिकंजे में फंसेगे। शरद पवार, प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायवती,करुणानिधि चंद ऐसे नाम हैं, जिनकी पार्टियो के सांसद जन-लोकपाल को संसद के हंगामे में गुम करने की कोशिश भी करेंगे। क्योंकि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले कानून के दायरे में सांसद भी आयेंगे। और सिर्फ लोकसभा के आंकड़े बताते हैं कि 543 में से 145 सांसद ऐसे हैं, जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं। तो अपने ही खिलाफ देश के लिये कानून पर सहमति देने की ताकत सांसदों में है या अण्णा के आंदोलन से निकली चिंगारी में फैसला इसका भी होना है। जाहिर है कानून ना बनने पर या मानसून सत्र में ही लोकपाल विधेयक को पास ना कराने की स्थिति में 15 अगस्त का अल्टीमेटम अण्णा ने दिया ही है। यानी संसद को भी इसका एहसास है कि लोकपाल बिल को पास न कराने के दोषियो के खिलाफ 15 अगस्त के बाद सड़क पर समूचे देश में आम नागरिको का आक्रोश फूट सकता है। और उसके बाद संसदीय व्यवस्था को लेकर नये सवाल अण्णा के जरीये ही आंदोलन की शक्ल में सामने आ सकते हैं। यानी पहली बार तिरसठ बरस से चली आ रही संसदीय व्यवस्था के उस खांचे पर सवालिया निशान है, जिसके जरीये भारत दुनिया को सबसे बड़े लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते आया है। लेकिन अबकि बार इसी लोकतंत्र की परिभाषा फिर से गढ़ने की बात यह कहते हुये उठी है कि सत्ता मदहोश है। वह शासक की तरह जनता पर हुकूमत करने पर उतारु है। यानी जो मनमोहन सरकार विकिलिक्स के खुलासे में सरकार बचाने के लिये सांसदो की खरीद-फरोख्ती के आरोपों को यह कहकर खारिज करती हो कि उसके बाद चुनाव में तो उन्हें जनता ने ही चुना और विपक्ष खामोश हो जाये। जैसे संघ परिवार अयोध्या राग के बाद सत्ता में आने की दुहाई दें और भाजपा जनता की सहमति से जोड़े। नरेन्द्र मोदी भी चुनावी जीत के जरीये राजघर्म को भूलने की हिमाकत करे। यानी संसदीय राजनीति में सत्ता का समूचा मंत्र ही नहीं बल्कि हर पाप को घोने के लिये भी जब चुनाव में जीत को ही सबकुछ यह कह कर माना जाता हो कि जनता उनके साथ है। और पहली बार जनता ही अण्णा के साथ खडे होकर कहे कि हम आपके साथ है। और अण्णा चुनाव की जीत को भी भ्रष्टाचार के दायरे में लाकर सवाल उठाये कि अब चुनाव सुधार जरुरी है। देशहित में काम ना करने पर नुमाइन्दो को बुलाने का अधिकार {राईट टू रिकाल} जरुरी है और ग्राम सभा तक सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। तो जाहिर है इसके बाद के कदम चुनाव आयोग के साथ सिविल-सोसायटी के नुमाइन्दो की टीम भी नजर आयेगी जो तय करेगी कि चुनाव लडने वाले दस उम्मीदवारो के अलावे एक ग्यारहवा कालम भी होगा जो खाली होगा और वही कालम वर्तमान संसदीय चुनाव प्रणाली में बिना सियासत किये अण्णा का होगा या कहें सिविल सोसायटी का होगा। जिसमें ज्यादा ठप्पे लगे तो चुनाव रद्द समझा जाये। यानी पहली बार सिसायत की ऐसी लकीर खींचने का सपना अण्णा ने समूचे देश में जगाया है, जिसमें हर छोटे-बड़े ईमानदार सपनों की जगह है। और यह सपने पहली बार 63 बरस की संसदीय राजनीति पर भारी पड़ रहे हैं।

4 comments:

सतीश पंचम said...

बढ़िया लिखा है।

लेकिन एक बात जो खटक रही है वो ये कि अन्ना को एन्कैश करने वाले लोगों की जमात बढ़ती जा रही है। यहां मुंबई में देख रहा हूं कि अन्ना तुझे सलाम वाले बैनर दिख रहे हैं और साथ में उन लोगों की तस्वीर है जिन पर गड़बड़ियां करने का अंदेशा रहता है...यही लोग गली मुहल्लों में दादागिरी, धौसपट्टी आदि करते नजर आते हैं और अब देखो कैसे सलाम ठोंक कर अपने को भी झक्क सफेद मनवाने पर तुले हैं।

सतीश कुमार चौहान said...

प्रसून जी , हजारे जी पर आप जो लिख रहे हैं वो कितना सच हैं या होगा कूछ कहा नही जा सकता पर अन्ना तुझे सलाम वाले बैनर दिख रहे हैं और साथ में उन लोगों की तस्वीर है जिन पर गड़बड़ियां करने का अंदेशा रहता है...यही लोग गली मुहल्लों में दादागिरी, धौसपट्टी आदि करते नजर आते हैं और अब देखो कैसे सलाम ठोंक कर अपने को भी झक्क सफेद मनवाने पर तुले हैं। पंचम जी की ये बात तो पुरे देश में दिख ही रही हैं और यही हैं भीड तंत्र का सच.....सतीश कुमार चौहान भिलाई

mridula pradhan said...

पहली बार सिसायत की ऐसी लकीर खींचने का सपना अण्णा ने समूचे देश में जगाया है, जिसमें हर छोटे-बड़े ईमानदार सपनों की जगह है। और यह सपने पहली बार 63 बरस की संसदीय राजनीति पर भारी पड़ रहे हैं।
ekdam sach bata rahe hain aap....kash ye sapna poora ho jaye.

अविनाश वाचस्पति said...

भ्रष्‍टाचार के मुंह पर मारा गया अन्‍ना का जूता
न जाने किन किनके गालों पर असर कर गया है