Thursday, April 21, 2011

आंदोलन मीडिया को भी बदल देगा

अगर प्रिंट मीडिया से आगे की कड़ी न्यूज चैनल है तो फिर न्यूज चैनलों के आगे की कड़ी सोशल मीडिया है। और आईटी ने आंदोलन के दौर में जिस तेजी से जितनी सकारात्मक भूमिका निभायी है, उसमें न्यूज चैनल कही पिछड़ते तो नहीं चले गये। यह सवाल अगर अरब वर्ल्ड के आंदोलनों से शुरु हुआ तो दिल्ली के जंतर-मंतर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ने मीडिया को लेकर भी एक नया सवाल खड़ा किया कि जिस टेलीविजन मीडिया ने अण्णा हजारे के आंदोलन को घर-घर पहुंचाया, भविष्य में उसका विकल्प भी इसी तर्ज पर खड़ा होगा जैसे संसदीय चुनाव के जरीये जनता की नुमाइन्दगी का सवाल सिविल सोसायटी के नुमाईन्दो के सामने फीका पड़ने लगा है।

असल में भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में जो माहौल खड़ा हुआ और जिस तरह टीवी देखकर या सुनकर शहर-दर-शहर में आम लोगों का कारंवा बढ़ता गया, उसमें ग्राउंड जीरो पर पहुंचे लोगों की शिरकत के तौर तरीके हैं। जंतर-मंतर यानी ग्रउंड जीरो में न्यूज चैनल दिखायी नहीं दे रहे थे बल्कि वहा जो हो रहा था उसे दुनिया को दिखा रहे थे । और वहां खुद को दिखाने के लिये ही सही देश के हजारों हजार लोग बच्चों से लेकर बूढ़े, युवाओं से लेकर महिलाओं के रेले की आवाज सवाल एक ही खड़ा कर रही थी कि नेता-मंत्री-सरकार सभी भ्रष्ट हैं। अब यह बर्दाश्त नहीं है। इसलिये इन नारो की छांव में जब चौटाला और उमा भारती पहुंचे तो उन्हे जिस तरह हूट किया गया उसे मीडिया ने उसी तरलता से पकड़ा। यानी जो सवाल मीडिया को लेकर बीते दौर में भ्रष्ट्राचार को लेकर उठे और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया के चंद नामचीन पत्रकारो का नाम भी खुलकर सामने आया, उस दाग को मिटाने के लिये अण्णा के आंदोलन ने गंगाजल दे दिया, इससे इंकार भी नही किया जा सकता है। यानी जिस राजनितक सत्ता से गलबहिया डालने के आरोप मीडिया पर लगे उसी राजनीतिक सत्ता को आईना दिखाने के लिये वही मीडिया आम आदमी के आक्रोश के साथ खड़ी दिखी।

लेकिन यही आक्रोश जब इंडिया-गेट पर मीडिया के एक नामचीन चेहरे को लेकर यह कहते हुये उठा कि खुद भ्रष्टाचार को हवा देने वाले भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए अण्णा के आंदोलन की जीत में कैसे समा सकते है तो उसी मीडिया ने खामोशी बरत ली। इंडिया गेट पर माहौल ठीक वैसा ही था जैसा जंतर-मंतर पर चौटाला-उमा भारती को हूट करने वाला था। जंतर-मंतर पर मीडिया ने कोई अतिरिक्त मेहनत नहीं की। सिर्फ कैमरे का लैंस उस दिशा में घुमा दिया जिस दिशा में चौटाला और उभाभारती थीं। लेकिन इंडियागेट पर किसी न्यूज चैनल के कैमरे का लैंस उस दिशा में नहीं घूमा, जिस दिशा में मीडिया आम लोगो के हूट में निशाने पर थी। जबकि बिलकुल सटी हुई अवस्था में हर न्यूज चैनल अण्णा की जीत में निकले कैडिंल मार्च को कवर कर रहा था।

मुश्किल सवाल यही से खड़ा होता है। अण्णा हजारे के आंदोलन के खत्म होते ही समूची राजनीति अण्णा पर पिल पड़ी। पार्टी लाइन, विचारधारा,अपनी पहचान तक को ताक पर रखकर जिसतरह नेता,मंत्रियों ने अण्णा के आंदोलन को ही लोकतंत्र के लिये खतरनाक बताने में गुरेज नही किया। मनमोहन सिंह के कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल हो या सलमान खुर्शीद या विपक्ष की सियासत थामें लालकृष्ण आडवाणी हो या सुषमा स्वराज, या फिर एनसीपी के तारिक अनवर,सपा के मोहन सिंह या राजद के रघुवंश बाबू। सभी ने लोकपाल विधेयक से लेकर भ्रष्टाचार पर अण्णा की समझ को खारिज किया और लोकतंत्र पर ही खतरा बताने से नहीं चूके। यानी भ्रष्टाचार के सवाल ने अगर समूची संसदीय व्यवस्था को ही एक थैले में बदल दिया तो सभी नेता साथ खड़े हो गये। वहीं मीडिया के भ्रष्टाचार को लेकर जब उन्ही आम लोगो ने सवाल खड़े किये तो समूचा मीडिया खामोश होने में एकजुट हो गया। यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में बने वातवरण ने पहली सीख तो सभी को दी कि संस्थाओ की एकजुटता ही संविधान के चैक एंड बैलेंस का लोकतंत्र बिगाड़ चुकी है। यानी भ्रष्टाचार के दायरे में अगर संसदीय व्यवस्था है तो उसने बेहद महीन तरीके से हर उस संस्थान की सत्ता को अपने दायरे में समेटकर उसे भी सत्ता सुख दे दिया है, जिससे लोकतंत्र का हर पाया जन-लोकतंत्र को नहीं भ्रष्ट्चार के लोकतंत्र को संभाले और उसका बैंलेस बिगडे नहीं। इसीलिये आईपीएल का सट्टा घपला, कामनवेल्थ का चकाचौंध खेल घपला, आदर्श सोसायटी में सैनिक परिवारो का हक मारने वाला घपला, एस बैंड घपले में पीएमओ की आंख-मिचौली या फिंर सरकार बचाने के लिये खरीद-फरोख्त। और इन सबके बीच मंहगाई से पिसती जनता को अपने इशारे पर चलाते जमाखोर-मुनाफाखोर। और इन्हे शह देते देश के कैबिनेट मंत्री । अगर इस पूरे दौर में लोकतंत्र के हर पाये की स्थिति देखें, चाहे वह कारपोरेट घराने हों या नौकरशाह या फिर मीडिया समेत कानून तो हर किसी की भागेदारी भी भ्रष्टाचार से जुडेगी और उसी के जरीये भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के सवाल भी इस आसरे खड़े होगे, जहां खुद भ्रष्टाचार की गंगोत्री है।

इसलिये यह सवाल अभी तक गूंजता जरुर था कि भ्रष्टाचार देश को खत्म कर दे, उससे पहले भ्रष्टाचार को खत्म करना जरुरी है। लेकिन भ्रष्टाचार की हर लकीर से बड़ी लकीर जिस तरह खिचती गयी उसमें विकल्प की सोच भी कुंद पड़ी। और विक्लप का सवाल खड़ा करने पर समाज में ठहाका सुनायी देना ही देश के पंगु होने का सच हो लगा। इसलिये अण्णा की मुहिम को आंदोलन की शक्ल जब देश के आम नागरिको ने दी तो एक साथ कई सवाल मीडिया को लेकर उपजे। क्या भविष्य में सोशल मीडिया ही आंदोलन को हवा देगा। क्या न्यूज चैनलो का विकल्प भी इन्ही आंदोलन से निकलेगा। क्या न्यूज चैनलो को सिर्फ मुनाफा आधारित मशक्कत करने पर मनोरंजन के खांचे में डाल दिया जायेगा। क्या संसदीय व्यवस्था की नुमाइन्दगी को चुनौती देते सिविल सोसायटी के नुमाइन्दों की तर्ज पर सोशल मीडिया भी न्यूज चैनलो को चुनौती देगा।

जाहिर है अगर आंदोलन विकल्प की दिशा में बढेगा तो फिर घेरे में मीडिया भी आयेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योकि सूचना तकनीक में पहले अखबार और अब न्यूज चैनलो का रुतबा इसीलिये है क्योकि भारत की राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था भी उसी तरह की रही। न्यूज चैनलो के अब के दौर में राजनीति भी बाजार के पीछे चलती है और देश की नीतिया भी मुनाफा नीति को ही महत्व देती है। इसलिये मीडिया भी बाजार के आसरे मुनाफा तंत्र को सबसे महतवपूर्ण मानने लगा है। वजह भी यही है कि संसद में 25 फिसदी सांसद अपराध और भ्रष्टाचार के घेरे में होने का बावजूद संसदीय व्यवस्था में एकजुट हैं। टाप कॉरपोरट घराने लॉबिंग के जरीये देश को विकास तंत्र दिखाकर अपना मुनाफा बनाते हैं लेकिन सरकार के सामने इन्हे देश की अर्थववस्था का पाय मानने के अलावे कोई विकल्प नहीं बचता। नौकरशाहो की फेरहिस्त भ्रष्टाचार की मिसाले गढ़ती हैं, लेकिन संसदीय व्यवस्था के तंत्र का असल पावर हाउस भी नौकरशाहो ही बनी रहती हैं।

असल में यह पूरी प्रक्रिया ही मुनाफे तंत्र पर भरोसा करती है और अपने अपने घेरे में एकजुट होकर शक्तिशाली भी बनती है और वैकल्पिक परिस्थितियो को खत्म भी करती हैं। ऐसे में परिवर्तन मडिया में भी आया है। पहले संपादक पावरफुल होने पर संसद का रुख करना पंसद करते थे। लेकिन न्यूज चैनलो के दौर में संपादक न्यूज चैनल का मालिक बनकर कॉरपोरट के साथ उठना-बैठना पसंद करते हैं। और खुद पर कॉरपोरेट होने का ठप्पा लगने पर अपनी पत्रकारिय समझ को सफल मानते हैं। जाहिर है ऐसे में अगर अण्णा हजारे के जरीये खडे आंदोलन में संकट संसदीय व्यवस्था को नजर आ रहा है और बहस की दिशा विकल्प की तालाश खोज रही है। तो समझना यह भी होगा कि सिर्फ राजनीतिक सत्ता के तौर तरीके पर ही अंगुली नहीं उठेगी बलकि मीडिया भी फंदे में आयेगा और मुनाफा तंत्र के आसरे लोकतंत्र का गान मीडिया को भी बदलेगा।

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

आपकी हेडिंग से इत्तेफाक रखने का मन बहुत है पर मीडिया का रवैया देख ऐसा नहीं लग रहा है ....एन दी टी वि पिछले दो दिनों से जिस तरह से अमर सिंह को कवर कर रहा है ...समझ नहीं आ रहा अमर सिंह कब से इतने प्रसांगिक हो गए ....टाटा -अम्बानी रिश्वत देते है छूट जाते है ....जंतर मंतर पर बरखा दत्त हूट होती है कोई चैनल उसपे स्टोरी नहीं चलाता ...मान लिया जाए भूषण फैमिली करप्ट है ....चलिए प्रूव भी हो जाये अब अगला स्टेप ? मीडिया लोकपाल बिल ...या इसमें सुधार या इसे कैसे ओर प्रभाव शाली बनाया जाये या कैसे सत्ता को ओर ट्रांसपेरेंट ओर"इस प्रक...ार बनाया जाये के इसमें जनता का प्रतिनिधित्व हो..पर क्यों नहीं करता ? वे बुद्धिजीवी जो इस आंदोलन की खामिया रोज लिख लिख के बताते है उन्होंने इस . बहस या मुद्दे को उस दिशा में क्यों नहीं मोड़ा जिससे सकारात्मक परिणाम निकले ....ऐसे मोड़ पर जब सरकार ओर राजनेता बेकफूट पर थे .ओर बहस की शुरुआत हुई थी ...बुद्धिजीवी वर्ग ने क्यों उसे सही दिशा में देने के लिए कदम नहीं उठाये ...

डॉ .अनुराग said...

क्या मीडिया का इस देश में कोई कर्तव्य नहीं है ? या खबर देते वक़्त वो लोकतंत्र का चौथा खम्भा थामना भूल गया है ?अचानक एक बड़ा सेक्शन सरकारी भाषा क्यों बोलने लगा है ?अन्ना फ़ौज से एक रिटायर ड्राइवर है .जिनकी उम्र सत्तर पार है ...शिक्षा का एक स्तर है ..पर .जिनकी नीयत साफ़ है .जाहिर है अपनी सीमित समझ के चलते राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन को संभालना ...पोलिटिकली करेक्ट वक्तव्य को चुनना उनके बस की बात नहीं है ....तो कहाँ गए बुद्धिजीवी उस वक़्त ......हम दरअसल अपनी सहूलियत से असूलो को चुनने वाले समाज की ओर बढ़ रहे है ....जहाँ विरोध सैद्धांतिक नहीं होता है ... हम अपनी सारी जिम्मेवारी किसी दूसरे के कंधे पे लादना चाहते है ...मसलन ईमानदारी की अन्ना को ...तुर्रा ये के उनसे किसी देवदूत सरीखे चरित्र की उम्मीद रखते है ....हमारी नैतिक बैचेनिया सिर्फ बरामदो ओर ड्राविंग रूम तक सिमटी रहती है ...क्रियान्वित नहीं होती ...
अन्ना ओर भूषण महत्वपूर्ण नहीं है ...महत्वपूर्ण ईमानदारी ओर बेमानी की लड़ाई है .....मुद्दा महत्वपूर्ण है ....दुर्भाग्य से मीडिया ही इसे हाईजेक कर रहा है ....ओर बड़ी चतुराई से !.

anoop joshi said...

Sir,
Ab prabhu chawla ''sidhi baat'' jo unhone radia se ki thi se ''sachi baat'' me aa gae. ab pata nahi kaun si sachi baat karte hai?

baaki ka pata nahi par, amar singh ko jab sab pata tha ki santi bhusan ghushkhor hai, to ta,b chup rahne ya apradh chupane ke jurm me un par koi case nahi banta?

Sarita Chaturvedi said...

PURI BAAT NA PADHNE SE AISA HI HOTA HAI..

Gyan Darpan said...

इंडिया गेट पर माहौल ठीक वैसा ही था जैसा जंतर-मंतर पर चौटाला-उमा भारती को हूट करने वाला था। जंतर-मंतर पर मीडिया ने कोई अतिरिक्त मेहनत नहीं की। सिर्फ कैमरे का लैंस उस दिशा में घुमा दिया जिस दिशा में चौटाला और उभाभारती थीं। लेकिन इंडियागेट पर किसी न्यूज चैनल के कैमरे का लैंस उस दिशा में नहीं घूमा, जिस दिशा में मीडिया आम लोगो के हूट में निशाने पर थी।
@ दोगला है मिडिया |