Thursday, June 9, 2011

सत्ता-सत्याग्रह की बिसात पर देश

क्या देश में पहली बार संसदीय राजनीति चूक रही है। क्या पहली बार सामाजिक आंदोलन की पीठ पर सवार होकर संसदीय राजनीति अपनी महत्ता तलाश रही है। क्या प्रधानमंत्री महत्ता बनाने के रास्ते टटोल रहे हैं। क्या विपक्ष को इन्हीं आंदोलनो से सत्ता की खुशबू आने लगी है। क्या संसदीय सियासत और राजनेताओ से लोगो का भरोसा उठने लगा है।

अगर सरकार के निर्देश के बाद जंतर मंतर की जगह राजघाट का रास्ता पकड़ें और अन्ना हजारे के साथ खड़े लोगों को देखें तो यकीनन यह सवाल बड़ा होता दिखायी देता है कि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था कहीं खतरे में तो नहीं है। राजघाट पर अन्ना के साथ खड़े शहरी मध्यम वर्ग और उसमें पढे-लिखे युवा वर्ग के छौंक ने पहली बार यह सवाल खड़े किये कि क्या सरकार थानेदार की भूमिका में आ चुकी है। जहां वह सिविल सोसायटी से तो सवाल पूछती है कि रैली के लिये उसके पास कहां से पैसा आया, कहां खर्च किया। लेकिन अपने जमा-खाते पर खामोश रहती है।

क्या इस दौर में ईमानदारी इतनी महंगी हो चुकी है कि अन्ना का फक्कड होना और बाबा रामदेव में साधु तत्व ही ईमानदार आंदोलन के प्रतीक बन गये हैं। जाहिर है यह सारे ऐसे सवाल हैं, जिसने इस दौर में कांग्रेस से लेकर बीजेपी और सामाजिक संगठनो से लेकर सुप्रीम कोर्ट हीं नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज तक को ऐसी हरकत में ला खड़ा किया, जहां लोकतंत्र भी शर्मसार हो जाये। संयोग से जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर पुलिसिया कार्रवाई पर सवालिया निशान लगाया, उसी दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पुलिसिया कार्रवाई को जायज ठहराया और उसी दिन सुषमा स्वराज ने राजघाट पर ठुमके लगाने से परहेज भी नहीं किया। लेकिन देश की आम अवाम के लिये यह तीनों पहल कितना मायने रखती हैं जबकि अन्ना से लेकर बाबा रामदेव के उठाये सवालो का अगर वाकई समाधान निकल जाये तो देश के 120 करोड़ लोग जरुर राहत से सांस ले सकते हैं। हां , बाकि एक करोड़ के लिये जरुर मुश्किल वक्त की शुरुआत हो सकती है। तो क्या देश एक करोड़ लोगों के लिये ऐसे रास्ते पर आ खड़ा हुआ है, जहां आजादी के 64 बरस बाद लोकतंत्र का हर स्तम्भ दागदार हो गया है। संविधान महज एक दस्तावेजी सच बनकर रह गया है। संसदीय प्रणाली में आम आदमी अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस भी नहीं कर पा रहा है। अगर राजनेताओ की फौज से लेकर अलग अलग संस्थानों तले सत्ता संभाले वीवीआईपी समूहो को परखे तो वाकई यह तादाद एक करोड़ लोगों से द्या नहीं होगी । जबकि भ्र्रष्टाचार से लेकर कालेधन के मुद्दे पर अन्ना से लेकर बाबा रामदेव से जुडे देश भर के लोगों के समूहों को देखें तो कोई भी ना तो सत्ता का प्रतीक लगा और ना ही लोकतंत्र के संवैधानिक पहरुओं की कतार का नजर आया । तो क्या इस देश में नया संघर्ष सत्ता का नहीं व्यवस्था परिवर्तन का है। और जिसमें वह शब्द छोटे पड़ रहे हैं जिन्हें आजादी के बाद सत्ता संभालने वालो ने गढ़ा।

हो सकता है यह ना भी हो। लेकिन इस दौर में जो नजर आ रहा है उसके पीछे कौन सी हकीकत ऐस परिस्थितियों की गवाह है, इसे जानना जरुरी है। आंदोलन की पीठ पर सवाल राजनीतिक दलो को सत्ता मिलेगी या नहीं या फिर आंदोलन ही वक्त बीतने के साथ राजनीतिक आवरण ओढ़ लेंगे,, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता की ऐसी हैसियत क्यों नहीं है, उसके उठाए मुद्दो पर भरोसा कर देश में सहमति बन जाये। संसद में भ्र्रष्टाचार का भी मुद्दा उठ चुका है और कालेधन का भी। लेकिन संसद के गलियारे के बाहर सिर्फ मीडिया ने ही उसे तरजीह दी। और एक वक्त के बाद वह भी बंद कर दिया। यानी संसद के गलियारे में गूंजते मुद्दों का असर आम जनता पर जूं रेगने से भी कम हुआ। तो क्या लोगो का भरोसा संसद पर नहीं रहा या राजनेताओ ने अपनी जरुरत तले संसद की महत्ता को भी अपने मुनाफे तले दबा दिया। माना कुछ भी जा सकता है लेकिन इस वक्त संसद के भीतर 90 से ज्यादा सांसद ऐसे है जिनके खिलाफ भ्र्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। इसी संसद में देश के 180 से ज्यादा सांसदो के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। पढ़-लिखकर नवाब बनने की चाह में बने देश के 375 से ज्यादा आईएएस अधिकारियो के खिलाफ भ्र्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। 425 से ज्यादा आईपीएस अधिकारियो के खिलाफ भ्रष्टाचार और आपराधिक मामले दर्ज हैं। दर्जन भर ज्यादा जजो पर इस दौर में भ्र्रष्टाचार के आरोप लगे । यह फेरहिस्त हर संसथान को लेकर खींची जा सकती है। और इसका एक बेहतरीन प्रतीक दिल्ली का तिहाड जेल है। जहां राजनीति,नौकरशाही और कारपोरेट का वीवीआईपी काकटेल भ्र्रष्टाचार के आरोप में बंद है ।

बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि देश को जिनके भरोसे छोड़ा गया है या फिर देश के लिये जिन संस्थानों को गूथ कर एक समूची व्यवस्था बनायी गयी अगर वही अंदर से खोखला हो चुका है तो फिर रास्ता क्या है। बाबा रामदेव के रामलीला मैदान के पंडाल में ग्रामीण भारत की महक थी। और जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के सत्याग्रह में शहरी मध्य वर्ग की खुशबू थी। बाबा की भीड में बाबा पर भरोसा था तो अन्ना के साथ जुटे समूह में सरकार या सत्ता पर कानून की नकेल कसने का सवाल था। बाबा के सवाल उस ग्रामीण मानसिकता में हिलोरे पैदा कर रहे थे जिसके लिये सरकार-सत्ता का कोई मतलब नहीं है। उसके लिये राष्ट्रवाद तले सबकुछ न्योछावर करना ही पुण्य है। वहीं अन्ना हजारे के साथ खडा तबका बेईमान सत्ताधारियो से गुस्से में था। उसी अपनी शिक्षा का सही मूल्य भी चाहिये और इमानदार व्यवस्था भी। वह राजनीतिक व्यवस्था तले लोकतंत्र के नारों से परेशान है। यानी बाबा रामदेव जहां बिना रास्ता निकाले समाज के भीतर आक्रोश के सैलाब को एक मंच पर लाना चाहते हैं, वही अन्ना हजारे उसी आक्रोष के लिये एक रास्ता निकालने पर भिड़े हैं। लेकिन दोनो के हाथ खाली हैं, क्योंकि दोनो की सीमा जहां खत्म होती है, उसी जगह से संसदीय सत्ता शुरु होती है। और इस सत्ता का मतलब कांग्रेस या बीजेपी सरीखे राजनीतिक दल भी है और सत्ता के लिये हिचकोले खाते मुलायम,, मायावती, ममता बनर्जी या शरद पवार सरीखे नेता भी है। जिन्हे पता है कि मुद्दे ना सिर्फ सियासत डगमगा सकते है बल्कि सियासी समझ को भी बदल सकते है और उनकी जरुरत पर भी सवालिया निशान लगा सकते है। लेकिन मुद्दो को ही अगर राजनीतिक रंग में रंग दिया जाये तो फिर मुद्दे बिना सियासी चाल के आगे बढ़ नहीं सकते। इसलिये चंद हथेलियो का कालाधन देश में लाना जरुरी है या बाबा रामदेव के पीछे संघ परिवार है, इसे समझना जरुरी है। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये जन-लोकपाल कानून बना कर उसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर जजो को लाना जरुरी है या फिर अन्ना हजारे के रिश्ते बीजेपी या आरएसएस से है इसका पता लगाना जरुरी है। भ्र्रष्टाचार से लेकर महंगाई में डूबे देश को इनसे निजात दिलाने की जरुरत है या फिर मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में मुश्किल क्यो आयी और यही मुद्दे यूपीए-एक के वक्त क्यो नहीं उभरे, इसका आकलन जरुरी है। बाबा रामदेव से सरकार के चार मंत्री क्यों मिलने गये और फिर उसी सरकार ने रामदेव अण्णा टकराव लेकर आंदोलन को तहस-नहस कर दिया यह समझन जरुरी है या फिर मनमोहन सिंह के नये ट्रबल -शूटर वकीलो की तिकडी कपिल सिब्बल, पी चिदबंरम और पवन बंसल काग्रेस के पुराने ट्रबल शूटर गुलाम नबी आजाद, कमलनाथ,अंबिका सोनी पर भारी क्यों पड रहे हैं, इसे समझना जरुरी है।

सोनिया गांधी क्यों सरकार से इतर अपनी एक आम-लोगों के साथ खड़ी छवि बरकरार रखने में लगी है या फिर विपक्ष में सुषमा-जेटली के झगडे में बार-बार चूके आडवाणी से इतर कोई नेता कुछ दिखायी क्यों नही दिखायी देता है। क्या संघ परिवार जेपी आंदोलन के 37 बरस बाद अन्ना या रामदेव तले अपनी बिसात बिछाकर बीजेपी को ही हाशिये पर ढकेलने की तैयारी में है। यह सारे सवाल देश की आम आवाम के लिये कितने मौजूं हैं, यह सोचना उतना ही रोमानीपन है, जितना यह समझना कि आंदोलन से उठे मुद्दों पर आखिरकार वही राजनीति सक्रिय होगी और वही सरकार कानून बनायेगी, जिसकी जरुरतो ने यह मुद्दे पैदा किये।

जाहिर है यह सोच का टकराव भी है और आम लोगों के सामने सवाल भी है कि कैसे सरकार प्रधानमंत्री, सांसदों या नौकरशाहो को उसी लोकपाल के घेरे में लाने को तैयार हो जायेगी जिसपर उनका बस ना चले। और कैसे संसदीय व्यवस्था अपनी भ्रष्ट ताकत को बांधने के लिये कानून बनाने पर राजी हो जायेगी। अगर यह संभव नहीं है तो फिर आंदोलनों की महत्ता है क्या और अगर यह संभव है तो रामलीला मैदान पर सोये आम मासूमों से सरकार डरकर क्यों हिंसक हो गयी। फिर कानून के रास्ते भ्र्रष्टाचार रोकने की अन्ना की नयी पहल अगर सरकार की नीयत पर रामदेव को लेकर सवाल खडा करती है तो फिर सरकार भी अन्ना की तर्ज पर ही बिना सिविल सोसायटी के लोकपाल बिल ड्राफ्ट करने की धमकी क्यों देती है। यानी देश के सामने अब बड़ी चुनौती राजनीतिक सौदेबाजी को खत्म करना है। या फिर जनवादी मुद्दो से लेकर जन-आंदोलन तक को कानूनी और राजनीतिक मान्यता दिलाना है । इसके तरीके क्या होंगे और व्यवस्था का खांका कौन खींचेगा या फिर अन्ना या रामदेव से कोई नयी लकीर भी निकलेगी जो सियासी समझ को भी बदलेगी या साठ बरस की संसदीय राजनीति ने जो पूंजी बनायी है, उसको बचाने के लिये कही ज्यादा तीखे स्तर पर रामलीला मैदान सरीखा महाभारत देश में कई जगहों पर खेला जायेगा। यह तो इतिहास के गर्भ में है लेकिन इस दौर में इकसे संकेत मिलने लगे है कि सत्ता के लिये विपक्ष अपनी राजनीति को आंदोलन की शक्ल भी देगा और एक वक्त के बाद संसदीय चुनावी राजनीति करने वाली सभी पार्टियों को एक मंच पर भी लायेगा और पहली बार हर आंदोलन के अक्स में संसदीय प्रणाली को टक्कर देती परिस्थितियां भी उभरेगी। यह समूचे समाज को अपने हद में इसलिये लेंगी क्योंकि पहली बार संघर्ष में सरोकार की खुशबू है जबकि सत्ता सरोकार को छोड़ हिंसक हो रही है।

15 comments:

AMBRISH MISRA ( अम्बरीष मिश्रा ) said...

साहब ,
खुली लूट है खूली छूट है
रामदेव जी का देश प्रेम के कारणमिला एक साथी श्री राजीव दि़छित ने अपने एक भाषण मे कहा था कि अगर मेड्क हिरन की चाल से दौडे तो हिरन को कोइ पर्क नहि पद्ता वो तो मेद्क को हि फ्रर्क पदेगा

कुछ येसा हि हुया राम देव जी के साथ भारत स्वाभिमान के लिये दस बरस मे खोज बीन की और एक योज्ना बनायी गयी पर
अन्ना के अन्स्न ने मार्ग भ्र्मित कर दिया और राम देव अनसन के चक्कर मे पद गये
जिस्ने पुरा भारत के प्रधानमत्री तक का रास्ता दिखाया हो और इस्का बजत भी बनाया हो तो उस मार्ग को छोड्ने की जरुरत हि क्या थी आप भि अर्विन्द और किरन कि तरह अन्ना को पर्मोट कर देते
क्योकि अन्सन अन्ना कर सक्ता है
और योगा राम देव हि करा सक्ता है एक दुसरे को देख्कर दौड्ने की अवस्क्ता नहि

मै पिछ्ले दो वर्श से पर्तिदिन नेट पर और आस्था सन्स्कार पे इन्का काय्कर्म देखा और राजिब दिछित के सभि सम्बाद भि सुने

आशा करता हु कि आप भि सुन चुके होन्गे अगर नहि तो अवस्य सुने रोजाना एक घन्टा अन्य आडियो मे से सच मे पुरी दुनिया की हल्च्ल के साथ खोज की है इस महा नयाक ने
मैने पाया है कि आप की और इन्की सोच मे समान्ता है

www.rajivdixit.com

आज कि बडी खबर सिमत कर रह गयी पर ........... क्यो

अगर भाव वेश कुछ गलत हो तो माफ़ करे

खबरों की दुनियाँ said...

कांग्रेस का मानना है इस देश में या तो कांग्रेसी रहते हैं या फ़िर भाजपाई और आर एस एस के लोग । आम आदमी तो शायद इस देश में रहता ही नहीं , और रहता भी है तो उसे शायद अब आंदोलित होने का कोई अधिकार नहीं है । रामलीला मैदान में जो कुछ हाल ही में हुआ उससे तो यही साबित होता है ।
बकौल कांग्रेस आम आदमी को यदि यहां जिंदा रहना है तो किसी न किसी की छाप अपनी छाती पर चिपकाए फ़िरना होगा , नहीं तो वह चस्पा कर देंगे । यह है लोकतंत्र की नई परिभाषा जो कांग्रेसियों ने देश को सिखाने की चेष्टा की है ।

Hiranyagarbha said...

I have a different view on Anna-Ramdev movements-

Not everything is well between Manmohan Singh and Sonia Gandhi. Manmohan benefits from being "dubbed" as Sonia's puppet. This gives him ample freedom to take any unpopular decision as blame will always be put on his Remote Control.


This is not a hidden fact that IMF and World Bank, while bailing out a Nation (of economic mess) ensure that their nominees are at key positions (of influence and financial decision making) so that borrowing Nation does not fall back in to same mess.

Manmohan Singh and Montek Singh were integral part of the composite "Bail-Out Package" received from IMF in 1991 by PVN Rao government.

Sonia is helpless. She props a NAC, which in turn props an outdated Gandhian cum Professional Faster to usurp powers superior than the PM. Government is smarter than the Party and dupes them in full public view.

To counter Sonia's Anna-Card, MMS (and his supporters in Congress) propped Ramdev, who presents a grave threat to no one else but Sonia.

So far, Anna never spoke against Sonia and Ramdev easily forgave Manmohan....

Padm Singh said...

एकदम सटीक... दरअसल अन्ना और रामदेव बाबा की मुहिम और तरीके में एक मूलभूत अंतर था. जहाँ अन्ना गांधीवादी तरीके से जनलोकपाल बना कर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना चाह रहे थे.. वहीँ रामदेव जी स्वाभिमान ट्रस्ट के माध्यम से आम जनमानस से सीधे संवाद करते हुए एक आम सहमति बनाने का प्रयास किया... वह सिस्टम बदलने के लिए सत्ता में भागीदारी(परोक्ष)कर भ्रष्टाचार और काले धन की लड़ाई लड़ने वाले थे... बाबा ने अनशन शुरू तो किया लेकिन अनशन का सही इस्तेमाल नहीं कर सके... संभवतः इसका अनुभव का न होना इसके पीछे कारण रहा हो... अब सरकार अंदर से बाबा को बड़ा खतरा समझ रही है और जितनी जल्दी हो सके बाबा की छवि को मटियामेट करने में लगी हुई है... इस उथल पुथल के चलते कालेधन और भ्रष्टाचार का मुद्दा कहीं गुम हो गया है... मीडिया भी बाबा को कुरेदने और स्कैन करने में जुट गयी है... बाबा का क्या होता है वह तो भविष्य बताएगा लेकिन काला धन का मुद्दा कहीं पिछड गया है इसमें कोई शक नहीं है

ankit said...

I was waiting for your this post eagerly..excellent sir.

And plz provide a link to gandhiji video which you played in this week Badi Khabar..

Arun sathi said...

इस आंदोलन का परिणाम भले ही राजनीति के दाब पेंच में उलझ कर दम तोड़ दे पर अन्ना और बाबा ने बताया दिया कि देश के लोगों का अब नेताओं पर से भरोसा उठ गया है और वे विकल्प की तलाश में हैं। आखिर यूं हीं नहीं रामलीला में रावण लीला देख हर आदमी मर्माहत था...

बहुत सटीक विश्लेषण दिया है देखे आगे क्या होता है?

ravishankarajugran said...

इसमें कोई शक नहीं कि बाबा रामदेव का सियासत में अनुभवीन होना, केन्द्र सरकार के लिए फायदे का सौदा साबित हो रहा है, वरना इतना बड़े अन्याय करने की उसकी हिम्मत भी नहीं होती। भीतर से डरी हुई सरकार बाबा रामदेव की विश्वसनीयता खत्म करने के अभियान में जुट गई है, लेकिन उसकी कोशिश बहुत कारगर नहीं होगी। मूल मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए बाबा के पीछे कौन?, और बाबा के पास कितना पैसा? के सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन सरकार और सभी राजनीतिक पार्टियों के पास इतना धन है, उनसे सवाल क्यों नहीं होता. बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की व्यवस्था परिवर्तन की इस लड़ाई को अब अंजाम तक पहुंचना ही है और इतना तय है कि इसमें कोई राजनीतिक दल सच्चे मन से सपोर्ट नहीं करेगा। जनता को भी अब समझ में आ गया है कि ये नेता व्यवस्था नहीं बदलने देंगे और हमेशा अपने लिए चोर दरवाजा खोले रखना चाहते हैं,.इसीलिए लोगों को जाति. धर्म और संप्रदाय के विवाद से उठना होगा। देश के भीतर व्यवस्था के खिलाफ आग धधक चुकी है, बाबा रामदेव हों, अन्ना हजारें हों या कोई और जनता अपना नायक तलाश ही लेगी। इंतजार कीजिए वो समय अब आने ही वाला है।

निर्मला कपिला said...

nuन्झे तो लगता है बाबा के पास अब धन अधिक इकट्ठा हो गया है\ अब उसे प्रधान मन्त्री की कुर्सी दिखाई दे रही है अगर उसे देश की चिन्ता होती तो दान मे लिये गये धन से फैक्ट्रियाँ लगा कर मुफ्त नही तो सस्ती दवायें जरूर बेचता। 15 साल मे इतनी दौलत नेपाली को प्रधनमन्त्री बनाने का सपना देख रहे हैं क्यों कि खुद दवाब मे आ कर सियासत न करने का एलान जो कर चुके हैं।देश के सभी बाबायों पर लगाम कसी जानी चाहिये जो ये समझते हैं कि केवल और केवल उनके इशारे पर ही सरकार चले। लोक तन्त्र मे अगर किसी को सरकार माफिक नही आ रही तो अगली बार वो सरकार के विरुद्ध वोट डाल सकता है बी जे पी की सरकार आयी थी क्या किया? असल मे ये लोग एक हिन्दू राष्ट्र का सपना देख रहे हैं और भगवां चोलों के पीछे छुप कर राजनिती कर रहे हैं। भ्रष्टाचार करने वालों को इसकी फिक्र कैसे हो सकती हैं ? जिस निशंक की आढ मे छुपे हुये हैं उस पर क्या भ्रष्टाचार के आरोप नही? हिमाचल पंजाब गुजरात मे क्या सरकारों मे भ्रष्टाचार नही वहाँ क्यों नही ये लोग सत्ता छोडते? बाबा के झूठ और फरेब से मन बहुत दुखी है हठी बाबा दम्भी बाबा भ्रष्टाचारी बाबा क्या नही बाबा मे? सब देख सुन कर यही नतीजा निकाला है। धन्यवाद।

Munish Dixit Blog said...

सर, सच में आज संविधान का मतलब आम आदमी के लिए एक कागजी दस्तावेज बन कर रह गया है। वहीं, बचपन से सुना है इतिहास भी पढ़ा है कि 15 अगस्त 1947 को भारत आज हुआ। अगर सच्चाई पर गहन मंथन किया जाए, तो इस दिन देश आजाद नहीं बल्कि अंग्रेजों की हकूमत नेताओं के हाथों में हस्तांतरित की गई। इससे पहले राजाओं के हाथों में थी। आज आम आदमी कुछ नहीं कर सकता। जबकि नेता अपनी पेंशन से लेकर वेतन सब कुछ बढ़ा लेता है। एक बार विधायक बन जाओ पूरी जिंदगी भर मोटी पेंशन लेते रहो। अगर सच में यह लोग जनता की सेवा करना चाहते है, तो वेतन लेना बंद करें, पेंशन बंद करे। लेकिन नहीं और अब परिवारवाद को बढ़ावा देना भी शुरू हो गया है। जैसे पहले एक राजा के बाद उसका बेटा राजा होता था। ठीक उसी तरह अब एक मंत्री या विधायक का बेटा उसके स्थान पर टिकट का दावेदार हो रहा है। इससे बेहतर देश अगर अंग्रेजों के पास होता, तो आज बिना भ्रष्टाचार के तरक्की हुई होती। अगर देश के लिए अपनी कुर्बानी देने वाले शहीद आज की स्थिति को देख पाते, तो वो बहुत पछताते कि जिस के लिए हम ने अपना जीवन लगाया, उस देश को विकसित करने की बजाए नेताओं ने एक छकड़ा बना दिया।

appaliwal said...

Anna's movement makes some sense to me but Ramdev had a certain political agenda and is behaving like a politician who changes colors like a chameleon . But the biggest fear for us commoners is that the fight against corruption doesn't fall in the hands of the corrupt.

ankit said...

Sir all ministers have declared their wealth..But i wonder no one shows their expensive mobiles,laptops,ipads,sunglasses,watches etc...
Why not there should be an common form of declaration for all the ministers ..in which evcerything is convered??
And also Mr. chidambaram even shows he has inverter and battery !!is this a joke on us??

Plz write a article on the property declartion of ministers??

PLz leave your comment on this sir

सम्वेदना के स्वर said...

देश को चाहिये - बाबा रामदेव भी! अन्ना हज़ारे भी !

http://samvedanakeswar.blogspot.com/2011/06/blog-post.html

Anonymous said...

बेहतर...

Brajesh said...

Dear Prasoon ji,

Aaj ke rajnaitik halat ko aapne bade hi sahi dhang se ukera hai.

Desk me jo chal raha hai use dehta hue mujhe Sir Winston Churchill ke comments yaad ate hain, jo unhone aaj se 64 saal pehle diye the...jo kuch is prakar hai...

"Power will go to the hands of rascals, rogues, freebooters; all

Indian leaders will be of low caliber and men of straw. They will
have sweet tongues and silly hearts. They will fight amongst
themselves for power and India will be lost in political squabbles. A day would come when even air & water would be taxed in India."


Kya ye vichar galat hain?
Aaj ke paridrishya ko dekh kar to bilkul sahi lagta hai!!!

Jaroorat hai hame imandari se sochne ki, ki kya hamara basic education system, social survival system sahi hai? Jahan hamare yahan ek se badh kar ek gyani, sant,scientist, writers, poets, thinkers, philosphers paida hua wahin ek se badh ek bharast, beiman log bhi hai.
Aisa nahi hai ki ye sirf hamare desh ya hamare samaj me hi hai..sab jagah hai. Par jaroori baat hai ki kya hamara samaj in visham paristhiyon ko samjhta hai?

Aur agar samjhta hai to kya isme isme itni maturity hai ki isko implement kar sake??

Sayad nahi..kyomki hamne imandari se kabhi socha hi nahi is desh ki khoobiyan kya hai? Aur in khobiyon ko badhane ke liye hame kya kya kadam uthane padenge, aur usi hisab se kanoon banaye jane chahiye.

Par hamne to Angrejon ke banaye kanoon ko apna kanoon man liya.Ye kannon East India Company ne dekh ko gulam banaye rakhne ke liye banaye the. Azad bharat me bhi hum gulami wale kanoon ko implement kar rahe hain. Aur isliye hamare laws outdated lagte hai. Log unse aapne aap ko jod nahi pate. Sara system outdated lagta hai. Kahin fit baithta hi nahi.

Kanoon banane wale log (hamare sansa) itne low character ke hote hain ki unme ye sochne ki chhamta hi nahi ki desh ko kya disha di jaye. Sare jeb bharme me lage hue hain.

Hamari do badi political parties hamesha ladne me apni shakti barbad kati hai. Ek ko "India Shining" lagta hai dusra har din ye dekhate hai ki "Ho raha bharat nirman".

Ye kaunsa Bharat nirman ho raha hai?

KRATI AARAMBH said...

chahe anna hazare ho ya baba ramdev yakinan mudde bahut hi importent hain. lihaza hum samarthan vyakti vishesh ko na dekar muddon ko de. prasoon sir aap bahut senior hain, yakinan aap samajh sakte hain ki kisi bhi party ko asal khatara muddon se nahi vyakti vishesh se hai, ki kahin vo unki gaddi na hathiya le. media ka ye dayitv hai ki vo muddon ko highlight kare na ki logon ko. kyunki desh ka hit muddon mai hai logon mai nahi.