Monday, June 27, 2011

सूचना और तकनीक से आगे थी एसपी की पत्रकारिता

एसपी की पुण्यतिथि - 27 जून

जब सड़क के आंदोलन सरकार को चेता रहे हों और सरकार संसद की दुहाई दे कर सामानांतर सत्ता खड़ी ना हो, इसका रोना रो रही है तब लोकतंत्र के चौथे पाये की भूमिका क्या हो। यह सवाल अगर चौदह बरस पहले कोई एसपी सिंह से पूछता, तो जवाब यही आता कि इसमें खबर कहां है। 1995 में आज तक शुरू करने वाले एसपी सिंह ने माना जो कैमरा पकडे वह तकनीक है, जो नेता कहे वह सूचना है और इन दोनों के पीछे की जो कहानी पत्रकार कहे- वह खबर है। तो क्या इस दौर में खबर गायब है और सिर्फ सूचना या तकनीक ही रेंग रही है। अगर ईमानदारी की जमीन बनाने में भिड़े अहं के आंदोलन के दौर को परखें तो एसपी के मिजाज में अब के न्यूज चैनल क्या-क्या कर सकते हैं, यह तस्वीर घुघंली ही सही उभर तो सकती है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अन्ना के आंदोलन की जमीन आम आदमी के आक्रोश से बनी और फैल रही है। जिसमें संसद, सरकार की नाकामी है। जिसमें मंत्रियों के कामकाज के सरोकार आम आदमी से ना जुड़ कर कारपोरेट और निजी कंपनियो से जुड़ रहे हैं।

तो फिर मीडिया क्या करे। संसद में जनता के उठते मुद्दों को लेकर राजनीतिक दलों का टकराव चरम पर पहुंचता है, तो न्यूज चैनलों को टीआरपी दिखायी देती है। टकराव खत्म होता है तो किसी दूसरे टकराव की खोज में मीडिया निकल पड़ता है या फिर राजनेता भी मीडिया की टीआरपी की सोच के अनुसार टकराव भरे वक्तव्य देकर खुद की अहमियत बनाये रखने का स्‍कीनिंग बोल बोलते है। तो मीडिया उसे जश्न के साथ दिखाता है। नेता खुश होता है, क्योंकि उसकी खिंची लकीर पर मीडिया चल पडता है और उन्माद के दो पल राजनीति को जगाये रखते है। हर पार्टी का नेता हर सुबह उठकर अखबार यही सोच कर टटोलता है कि शाम होते-होते कितने न्यूज चैनलों के माइक उसके मुंह में ठूंसे होंगे और रात के प्राईम टाइम में किस पार्टी के कौन से नेता या प्रवक्ता की बात गूंजेगी। कह सकते हैं मीडिया यहीं आकर ठहर गया है और राजनेता इसी ठहरी हुयी स्‍क्रीन में एक-एक कंकड़ फेंक कर अपनी हलचल का मजा लेने से नहीं कतराते है। अगर अन्ना के आंदोलन से ठीक पहले महंगाई और भ्रष्‍टाचार के सवालो को लेकर संसद, नेता और मीडिया की पहल देखें, तो अब उस दौर की हर आवाज जश्न में डूबी हुई सी लगती है।

पहले महंगाई के दर्द ने ही टीस दी। संसद में पांच दिन तक महंगाई का रोना रोया गया। कृषि मंत्री शरद पवार निशाने पर आये। कांग्रेस ने राजनीति साधी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो पवार के हंसने को आम आदमी के दर्द पर नमक डालना तक कहा। और मीडिया ने बखूबी हर शब्द पर हेंडिग बनायी। इसे नीतियों का फेल होना बताया। चिल्ला-चिल्ला कर महंगाई पर लोगों के दर्द को शब्दों में घोलकर न्यूज चैनलो ने पिलाया। लेकिन हुआ क्या। वित्त मंत्री तो छोडि़ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक ने महंगाई थमने का टारगेट पांच बार तय किया। सितंबर 2010. फिर नवंबर 2010. फिर दिसंबर 2010, फिर फरवरी 2011 फिर मार्च 2011। प्रधानमंत्री ने जो कहा, वो हेडलाइन बना। तीन बार तो टारगेट संसद में तय किया। तो क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि संसद की जिम्मेदारी क्या होनी चाहिये। यानी मनमोहन सिंह ने देश को बतौर प्रधानमंत्री धोखा दे दिया यह कहने की हिम्मत तो दूर मीडिया मार्च के बाद यह भी नहीं कह पायी कि प्रधानमंत्री कीमतें बढ़ाकर किन-किन कारपोरेट सेक्टर की हथेली पर मुनाफा मुनाफा समेटा। गैस के मामले पर कैग की रिपोर्ट ने रिलायंस को घेरा और पीएमओ ने मुकेश अंबानी पर अंगुली उठाने की बजाये तुरंत मिलने का वक्त दे दिया। क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि जिस पर आरोप लगे हैं उससे पीएम की मुलाकात का मतलब क्या है। जबकि एक वक्त राजीव गांधी ने पीएमओ का दरवाजा धीरुभाई अंबानी के लिये इसलिये बंद कर दिया था, कि सरकार पाक-साफ दिखायी दे। तब मीडिया ने कारपोरेट की लड़ाई और सरकार के भीतर बैठे मंत्रियों के कच्चे-चिट्ठे भी जमकर छापे थे। लेकिन अब मीडिया यह हिम्मत क्यो नहीं दिखा पाता है।

याद कीजिये संसद में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ पहली आवाज आईपीएल को लेकर ही उठी। क्या-क्या संसद में नहीं कहा गया। लेकिन हुआ क्या। आईपीएल को कामनवेल्‍थ घोटाला यानी सीडब्‍ल्‍यूजी निगल गया। सीडब्‍ल्‍यूजी को आदर्श घोटाला निगल गया। आदर्श को येदुयरप्‍पा के घोटाले निगल गये। और इन घोटालों ने महंगाई की टीस को ही दबा दिया। लेकिन हर घोटाले के साथ मीडिया सोये हुये शेर की तरह जागा। उसने अखबारों के पन्नों से लेकर न्यूज स्‍क्रीन तक रंग दिये। लेकिन लोकतंत्र का प्रहरी है कौन, यह सवाल हर उठती-बैठती खबर के साथ उसी जनता के दिमाग में कौंधा, जिसने नेताओं को संसद पहुंचाया और जिसने मीडिया को टीआरपी दे रखी है। क्योंकि हर आवाज से बड़ी आवाज लगाने वाले सामने आते गये। देश के इतिहास में पहली बार कोई चीफ जस्टिस घोटाले के घेरे में भी आया और सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार किसी घोटाले में केबिनेट मंत्री, सांसद, नौकरशाह, कारपोरेट कंपनी के कर्त्ता-धर्त्ताओं को जेल भी भेजा। मीडिया ने हर पहल को खबर माना और हंगामे के साथ उसके रंग में भी रेंग गयी। लेकिन, इस पूरे दौर में यह सवाल कभी नहीं खड़ा हुआ कि संसद चूक रही है। प्रधानमंत्री का पद गरिमा खो रहा है। लोकतंत्र के तीनों पाये चैक-एंड-बैलेंस खोकर एक दूसरे को संभालने में लगे हैं। और ऐसे में चौथा पाया क्या करे।

असल में अन्ना हजारे के आंदोलन को कवर करते मीडिया के सामने यही चुनौती है कि वह कैसे लोकतंत्र के पायों पर निगरानी भी करे और आंदोलन की जमीन को भी उभारे, जहां ऐसे सवाल दबे हुये हैं जिनका जवाब सरकार या राजनेता यह सोच कर देना नहीं चाहेंगे कि संसद मूल्यहीन ना ठहरा दी जाये। और सिविल सोसायटी यह सोच कर टकराव नहीं लेगी कि कहीं उसे राजनीतिक तौर पर ना ठहरा दिया जाये। और आखिर में संसद के भीतर के संघर्ष की तर्ज पर सड़क का संघर्ष भी धूमिल ना हो जाये। न्यूज चैनलों की पत्रकारिता के इस मोड़ पर 14 बरस पहले के एसपी सिंह के प्रयोग सीख दे सकते है। जो चल रहा है वह सूचना है, लेकिन वह खबर नहीं है। अब के न्यूज चैनल को देखकर कोई भी कह सकता है कि जो चल रहा है वही खबर है। दिग्विजय सिंह का तोतारंटत हो या या फिर सरकार का संसद की दुहाई देने का मंत्र। विपक्ष के तौर पर बीजेपी की सियासी चाल। जो अयोध्या मुद्दे पर फैसला सड़क पर चाहती है, लेकिन लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री आये या नहीं इस पर संसद के सत्र का इंतजार करना चाहती है।

महंगाई और भ्रष्‍टाचार पर ममता के तेवर भी मनमोहन सिंह के दरवाजे पर अब नतमस्तक हो जाते हैं। करुणानिधि भी बेटी के गम में यूपीए-2 की बैठक में नहीं जाते हैं। शरद पवार मदमस्त रहते है। और अन्ना की टीम इस दौर में सिर्फ एक गुहार लगाती है कि संसद अपना काम करने लगे। सभी मंत्री इमानदार हो जायें। न्यायापालिका भ्रष्‍ट रास्ते पर ना जाये, नौकरशाही और मंत्री की सांठगांठ खत्म हो और प्रधानमंत्री भी जो संसद में कहें कम से कम उस पर तो टिकें। संसद ठप हो तो प्रधानमंत्री विदेश यात्रा करने की जगह देश के मुद्दों को सुलझाने में तो लगें। क्या इन परिस्थितियों को टटोलना खबर नहीं है। यानी सत्ता जो बात कहती है, उसका पोस्टमार्टम करने से मीडिया अब परहेज क्यों करने लगा है। सरकार का कोई मंत्री कैग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी अंगुली उठाता है और सिविल सोसायटी से टकराने के लिये संविधान की दुहाई भी देता है। फिर भी वह सरकार के लिये सबसे महत्वपूर्ण बना रह जाता है।

दरअसल 1995 में एसपी सिंह ने जब सरकार की नाक तले ही आज तक शुरु किया, उस वक्त भी साथी पत्रकारों को पहला पाठ यही दिया, सरकार जो कह रही है वह खबर नहीं हो सकती। और हमें खबर पकड़नी है। खबर पकड़ने के इस हुनर ने ही एसपी को घर-घर का चहेता बनाया। एसपी उस वक्त भी यह कहने से नहीं चूकते थे कि टीवी से ज्यादा सशक्त माध्यम हो नहीं सकता। लेकिन तकनीक पर चलने वाले रोबोट की जगह उसमें खबर डालकर ही तकनीक से ज्यादा पत्रकारिता को सशक्त बनाया जा सकता है। और अगर सूचना या तकनीक के सहारे ही रिपोर्टर ने खुद को पत्रकार मान लिया, तो यह फैशन करने सरीखा है। तो क्या अब न्यूज चैनल इससे चूक रहे हैं और इसलिये अन्ना की सादगी और केजरीवाल की तल्खी भी सिब्बल और दिग्विजय की सियासी चालों में खो जाती है। और संपादक असल खबर को पकड़ना नहीं चाहता और रिपोर्टर झटके में कैमरे को लेकर भागता या माईक थामे फैशन कर हाफंता ही नजर आता है।

5 comments:

Markand Dave said...

आदरणीय श्रीपुण्य प्रसुन बाजपेयीजी,

आपने बड़ी गहराई से अहम मुद्दे का विश्लेषण किया है, आपका धन्यवाद करते हुए,कुछ जोड़ना चाहूँगा ।

१. क्या आपकी ज़ुबान में जिसे आपने `खबर` बताया, ऐसी सच्ची खबर मुहैया कराने वाले, पत्रकारों की सलामती के लिए सरकार और मीडिया कुछ कर रहे है?

२. ऐसे कौन से आर्थिक हित है,जिसके कारण दो घंटे पहले की सच्ची खबर, उसी चैनल में शिर्षासन करके प्रायोजित हो ऐसा अनुभव होने लगती है?

३ आपने सही आकलन किया है, केवल संसद ही क्यों, मीडिया कि विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे हैं?

४ चौथा अहम सवाल यह है कि, आम आदमी से सरोकार रखने वाले और उन्हीं की कमाई के हिस्से से अपना पेट भरने वाले, सरकार और मीडिया क्या आम आदमी की प्रत्येक दिन कि पीड़ा से सही मायने में अवगत है, या फिर असंवेदनशील है?

मुझे लगता है, सच तो ये है कि, लोकतंत्र में, `लोकशाही` का गढ़ आला है पर `नियत` का सिंह गेला है और उस बात का दर्द भुखमरी से आत्मघात करने की नौबत तक पहुंचे, अंतिम छोर के किसी आम इन्सान ही महसूस कर सकता है,बशर्ते कि, जिन बुद्धिजीवीयों के पेट भरे हैं वे लोग ,ऐसे लोगों को इन्सान समझते हो..!!

वर्ना,ईश्वर ही बचाए इस देश को अब ऐसे बे शर्म सो कॉल्ड बुद्धिजीवी-यों से?

हे...रा...म..!!

dherender said...

bahut achha laga apka lekh,,sp singh ko sachhi shrdhanjali di hai apne media ke aaj ke dour hi hakikat ke sath._________Dhrender kumar, Rohtak.

संतोष त्रिवेदी said...

आपने बिलकुल सामयिक मुद्दे को छुआ है.दर-असल आज 'खबर' भी एक खबर हो गयी है,जिसे कोई तलाश नहीं रहा.आज सत्ता,सरकार,तंत्र,धन जिस चीज़ को खबर बनाना चाहता है,वही बन रही है.खबर वह तत्व है जो खुली आँखों से न दिखाई दे,परदे के पीछे के सच को उजागर करे.आजकल जिस तरह की ख़बरें आ रही हैं,वह सरकार और उसके अंगों के प्रेसनोट ज्यादा होते हैं.एक टार्च दिखा दी जाती है,समर्थ लोगों की तरफ से और हमारा 'पत्रकार' उसी तरफ हो लेता है !

आशुतोष की कलम said...

प्रसून जी..
आप का प्रश्न बहुत सही है ..कुछ हद तक आप का प्रश्न अपने आप से भी है??
मगर जब से लखटकिया पत्रकारों का चलन शुरू हुआ है ये सब तो आएगा ही...आप भी अपने विचार व्लोग पर व्यक्त करते हैं मगर चैनल पर शायद आप के विचारों का सरकारी और औद्योगिक संपादन कर दिया जाता है...पत्रकार असहाय..थक हार के वो भी इस व्योस्था का हिस्सा बन गया..
जब तक मीडिया का बाजारीकरण नहीं रुकेगा ख़बरों का संपादन सरकार और दलाल ही करेंगे....समाचार के नाम पर हर चैनेल पर नंगी औरते परोसी जाती है..कोई प्रश्न उठाये तो जबाब मिलता है की आप देखते क्यों हो???????
यक्ष प्रश्न है की बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? मैं ब्याक्तिगत रूप से आप का अनुसरण करता हूँ आप ही उदहारण प्रस्तुत करें..

sudhanshu chouhan said...

"अगर सूचना या तकनीक के सहारे ही रिपोर्टर ने खुद को पत्रकार मान लिया, तो यह फैशन करने सरीखा है।"
आपके लेख की उपरोक्त पंक्ति वास्तव में प्रभावी है...आज के टीवी रिपोर्रटर इसी मानसिकता से ग्रसित हैं...और यही कारण है कि ऐसे लोग जहां-तहां से पिटकर चले आते हैं और लोकतंत्र के चौथे खंभे की दुहाई देते हैं...