हमनें ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ इसलिये बंद किया क्योंकि अखबार की साख पर बट्टा लगा था। और साख न हो तो फिर खबरों की दुनिया में कोई पहचान नहीं रहती है। बल्कि वह सिर्फ और सिर्फ धंधे में बदल जाता है और मीडिया सिर्फ धंधा नहीं है। क्योंकि धंधे का मतलब हर गलत काम को भी मुनाफे के लिये सही मानना है। और न्यूज ऑफ द वर्ल्ड में यह सब हुआ, लेकिन मुझे निजी तौर पर इसकी जानकारी नहीं रही। इसलिये मैं दोषी नहीं हूं। ब्रिटिश संसद के कटघरे में बैठे रुपर्ट मर्डोक ने कुछ इसी अंदाज में खुद को पाक साफ बताते हुये कमोवेश हर सवाल पर माफी मांगने के अंदाज में जानकारी न होने की बात कहते हुये सबकुछ संपादक के मत्थे ही मढ़ा लेकिन जब जब सवाल मीडिया की साख का उठा तो मर्डोक ने सत्ता, सियसत,ताकत और पैसे के खेल के जरीय हर संबंध को गलत ही ठहराया।
जाहिर है मीडिया मुगल की हैसियत रखने वाले रुपर्ट मर्डोक 26 फीसदी पूंजी के साथ भारत के एक न्यूज चैनल से भी जुड़े हैं और जिस दौर में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के जरिए ब्रिटेन के सबसे पुराने टैबलायड के जरीये पत्रकारिता पर सवाल उठे हैं, उसी दौर में भारतीय मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का काम कठघरे में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कह यह भी सकते हैं कि बात साख यानी विश्वसनीयता की है तो उसकी गूंज कहीं ना कहीं भारतीय मीडिया के भीतर भी जरुर गूंजी होगी। क्योकि इस वक्त भारतीय मीडिया न सिर्फ खबरों को लेकर कटघरे में खड़ा है बल्कि साख को दांव पर लगाकर ही धंधा चमकाने में लगा है। सरकार ही इसी को हवा दे रही है। कह सकते हैं आर्थिक सुधार के इस दौर में भारतीय समाज के भीतर के ट्रांसफॉरमेशन ने सत्ता की परिभाषा राजनेताओ के साथ साथ मीडिया और कॉरपोरेट के कॉकटेल से गढ़ी है। जिसमें हर घेरे की अपनी एक सत्ता है और हर सत्ताधारी दूसरे सत्ताधारी का अहित नहीं चाहता है। इसलिये लोकतंत्र के भीतर का चैक-एंड-बैलेंस महज बैलेंस बनाये रखने वाल हो गया है, जिसमें मीडिया की भूमिका सबसे पारदर्शी भ्रष्ट के तौर पर भी बनती जा रही है। सतही तौर पर कह सकते है कि भारतीय न्यूज चैनलों को लेकर सवाल दोहरा है। एक तरफ न्यूज चैनल को लोकप्रिय बनाने के लिये खबरों की जगह पेज थ्री का ग्लैमर परोसने का सच तो दूसरी तरफ न्यूज चैनल चलाने के लिये साख को ताक पर रखकर सत्ता के साथ सटने को ही विश्वसनीयता मानने का गुरुर पैदा करने का सरकारी खेल। यानी नैतिकता के वह मापदंड जो किसी भी समाज को जीवित रखते है या कहे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये रखने का सवाल खड़ा करते हैं , उसे ही खत्म करनी की साजिश इस दौर में चली है।
लेकिन मीडिया के भीतर का सच कही ज्यादा त्रासदीदायक है। मीडिया में भी उन्हीं कंपनियों के शेयर है, जो सरकार से तालमेल बनाकर मुनाफा बनाने के लिये देश की नीतियों तक को बदलने की हैसियत रखते हैं। देश के टॉप पांच कॉरपोरेट घरानों के 10 फीसदी से ज्यादा शेयर आधे दर्जन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो में है। यहां सवाल खड़ा हो सकता है कि कॉरपोरेट और सरकार के गठजोड से बिगड़ने वाली नीतियों में वही मीडिया समूहों को भी शरीक क्यों ना माना जाये जब वह उनसे जुडी खबरो का ब्लैक आउट कर देते हैं। ब्रिटिश संसद ने तो न्यूज आफ द वर्ल्ड की सीईओ ब्रूक्स से यह सवाल पूछा कि किसी खबर को दबाने के लिये पीएम कैमरुन ने दवाब तो नहीं बनाया। लेकिन भारत में किसी मीडिया हाउस के सीईओ की ताकत ही इससे बढ़ जाती है कि पीएमओ ने लंच या डिनर पर बुलाया। और पीएमओ या गृहमंत्रालय किसी एडवाइरी का हवाला देकर किसी न्यूज चैनल के संपादक को कह दे कि फलां खबर पर ‘टोन डाउन’ रखे तो संपादकों को लगने लगता है कि उसकी अहमियत, उसकी तकत कितनी बड़ी है। और यही सोच सरकार पर निगरानी रखने की जगह सरकार से सौदेबाजी के लिये संपादकों को उकसा देती है। यानी यहां सरकार ने मीडिया के नियम ही कुछ इस तरह बना दिये हैं, जिसमें घुसने का मतलब है सत्ता के कॉकटेल में बनकर पीने वालो को ठंडक पहुंचाना। क्योंकि सरकार का नजरिया मीडिया में शामिल होने के लिये मीडिया को धंधा माने बगैर संभव नहीं होता। अगर न्यूज चैनल का लाइसेंस चाहिये तो फिर रास्ता सरकार से संबंध या फिर काले रास्ते से कमाई गई पूंजी को लूटाने की क्षमता पर तय होता है।
बीते दो बरस में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर 27 न्यूज चैनलों का लाइसेंस ऐसे धंधेबाजों को दे दिया गया जो सरकारी एंजेसियों में ही ब्लैक लिस्टेड है। रियल इस्टेट से लेकर चिट-फंड कंपनी चलाने वाले न्यूज चैनलों को जरिए किस साख को बरकरार रखते हैं या फिर मीडिया की साख के आड में किस रास्ते कौन सा धंधाकर खुद की बिगड़ी साख का आंतक फैलाने के लिये खेल खेलते हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। संकट सिर्फ धंधा बढ़ाने या बचाने के लिये न्यूज चैनल का रास्ता अख्तियार करने भर का नहीं है। अगर सत्ता ही ऐसे व्यक्तियों को लाइसेंस देकर मीडिया का विस्तार करने की सोचती है तो सवाल यह भी खड़ा हो सकता है कि सरकार उनके जरीये अपना हित ही साधेगी। मगर यह रास्ता यही नहीं रुकता क्योंकि बीते पांच बरस में देश में 16 ऐसे न्यूज चैनल है जो बंद भी हुये। एक के हाथ से निकल कर दूसरे के हाथ में बिके भी और संकट में पत्रकारो को वेतन देने की जगह खुले तौर पर चैनल के रास्ते धन उगाही का रास्ता अख्तियार करने के लिये विवश भी करते दिखे। सिर्फ दिल्ली में 500 से ज्यादा पत्रकारों की रोजी रोटी का सवाल खड़ा हुआ क्योंकि डिग्री लेने के बाद जब वह चैनलों से जुड़े तो वह खबरों की साख पर न्यूज चैनलों को तलाने की जगह मीडिया की साख को ही बेचकर अपने धंधे को आगे बढ़ाने पर लालायित दिखा। पत्रकारिता कैसे नौकरी में बदल दी गयी और नौकरी का मतलब किसी पत्रकार के लिये कुछ भी करना कैसे जायज हो गया यह भी ताकतवर दिल्ली में कॉरपोरेट के लिये काम करते पुराने घुरंधर पत्रकारों को देखकर समझा जा सकता है। वहीं कुछ न्यूज चैनलों के तो पत्रकारो की जगह सत्ता के गलियारे के ताकतवर लोगों के बच्चों को पत्रकार बनाने का नया रिवाज भी शुरु किया जिससे मीडिया हाउस को कोई मुश्किल का सामना ना करना पड़े।
ऐसे में यह सवाल कभी नहीं उठा कि मीडिया को धंधा मान कर न्यूज चैनल शुरु करने वालो को ही इस दौर में लाइसेंस सरकार ने क्यों दिया। रुपर्ट मर्डोक ने तो ब्रिटिश हाऊस ऑफ कामन्स के सामने माना कि न्यूज आफ द वर्ल्ड जिस तरीके से सत्ता से जुड़ा, जिस तरीके से फोन टैपिंग से लेकर हत्यारे तक के साथ खड़ा होकर हुआ, जिस तरह नेताओ-सत्ताधारियों से संपादक-सीईओ ने संबध बनाये उसने मीडिया की उस नैतिक विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया, जिससे मीडिया को लड़ना पड़ता है। लेकिन इन्हीं आरोपों को अगर भारत के न्यूज चैनलो से जोड़ें तो पहला सवाल नेताओ-बिचौलियों के साथ ऐसे पत्रकारो के संबंध से उठ सकता है, जिसने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के दौर में मीडिया को भी कटघरे में खड़ा किया। और संसद में लहराते नोटो के जरीये जब यह सवाल खड़ा हुआ कि सरकार बचाने के लिये सांसदो की खरीद-फरोख्त सासंद ही कर रहे है और कुछ मीडिया हाउसो की भागेदारी भी कहीं न कही सरकार को बचाने के लिये नतमस्तक होने की है या फिर सरकार को गिराने के लिये विपक्षी सांसदों के स्टिंग आपरेशन को अंजाम देने की पत्रकारिता करने में। मीडिया के आभामंडल की तसदीक ही जब सरकार में पहुंच से हो तो साख का मतलब होता क्या है यह समझना भी जरुरी है। किस मंत्री को कौन सा मंत्रालय मिले। किस कॉरपोरेट के प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल जाये। किस भ्रष्टाचार की खबर को कितने दिन तक दबा कर रखा जाये, मीडिया की इसी तरह की भूमिका को अगर पत्रकारो की ताकत मानने लगे तो क्या होगा। अछूता प्रिंट मीडिया भी नहीं है। निजी कंपनियों के साथ मीडिया हाउसो के तालमेल ने छपी खबरों के पीछे की खबर को सौदेबाजी में लपेट लिया तो कई क्षेत्रीय मीडिया मुगलो ने मुनाफा बनाने के लिये मीडिया से इतर पावर प्रोजेक्ट से लेकर खनन के लाइसेंस सरकार से लेकर ज्यादा कीमत में जरुरतमंद कंपनियों को बेचने का धंधा भी मीडिया हाउसों की ताकत की पहचान बनी तो फिर साख का मतलब होता क्या है यह समझना वाकई मुश्किल है। रुपर्ट मर्डोक की तो पहचान दुनिया में है। और ब्रिटिश संसद के कटघरे को भी दुनिया ने सार्वजनिक तौर पर मीडिया मुगल की शर्मिन्दगी को लाइव देखा। लेकिन क्या यह भारत में संभव है क्योकि भारत में जिस भी मीडिया हाउस पर जिस भी राजनीतिक दल या नेता से जुड़ने के आरोप जिन मुद्दो के आसरे लगे उसकी साख में चार चांद भी लगते गये। कहा यह भी जा सकता है कि जब सवाल संसद की साख पर भी उठे तो मीडिया की विश्वसनियता में नैतिकता का सवाल ताक पर रखकर साख बनाने को भी अब के दौर में नयी परिभाषा दी गयी। और सत्ता ने इस नयी परिभाषा को गढ़ने में मीडिया को बाजार हित में खड़ा करना सिखाया भी और गुरुर से जनता की जरुरतो को ताक पर रखकर सरकार से सटकर खड़े होने को ही असल मिडियाकर्मी या मिडिया हाउस बना भी दिया।
सवाल है ब्रिटिश संसद तो मर्डोक को बुला सकती है लेकिन क्या भारतीय संसद भी किसी भारतीय मीडिया मुगल को बुलाकर इस तरह सवाल खड़ा कर सकती है। क्योंकि साख तो सांसदो की भी दांव पर है।
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Saturday, July 30, 2011
मर्डोक के आइने में भारतीय मीडिया
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:44 AM
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मर्डोक और भारतीय मीडिया
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10 comments:
सवाल है ब्रिटिश संसद तो मर्डोक को बुला सकती है लेकिन क्या भारतीय संसद भी किसी भारतीय मीडिया मुगल को बुलाकर इस तरह सवाल खड़ा कर सकती है। क्योंकि साख तो सांसदो की भी दांव पर है।
itna achcha aur zaroori sawal uthaye hain aap....kash iska jabab mil pata.....
आपकी बात भी सही है की मीडिया में बड़े बड़े कॉर्पोरेट घरानों का पैसा लगा हुआ है, हाल ही में खुले 2G स्पेक्ट्रम, कोम्मोंवेल्थ, आदि घोटाले मीडिया की वजह से नहीं बल्की जनहित याचिकाओं की वजह से खुले अब वो
जमाने लद gaye जब खोजी पत्रकारिता होती थी. येदुरप्पा का मामला जोर शोर से उठाने वाला मीडिया हाल ही में सामने आये कोयला घोटाले के बारे में कोई भी खबर पब्लिक को नहीं बताता. रामदेव से उनकी संपत्ति का खुलासा मांगने वाला नेताओं से उनके संपत्ति का खुलासा क्यों नहीं मांगता है?
मीडिया सच्चाई दिखाना कम और जन मानस के प्रबंधन
का कम अधिक कर रहा है।अच्छे लोग हर क्षेत्र में है,उनके दम
पर ही उम्मीद कायम है।
स्टार (Star)ग्रुप में मर्डोक का काफी पैसा लगा है,स्टार ग्रुप कि भी जाँच होनी चाहिए खास तौर पे स्टार न्यूज़ की !
भारत का मीडिया न्यूट्रल नहीं है ! Times Now एंटी कांग्रेस है, NDTV एंटी बीजेपी, Zee News भी कुछ हद तक लेफ्ट कि सोच से मिलता है, Star News ने तोह हद करदी! जब से उन्होंने अपनी सर्वे कम्पनी खोली है तब से वो Speak Asia के पीछे हाथ धो कर पड़े हैं ! यह अपने फाईदे के लिए मीडिया का गलत इस्तेमाल है ! बरखा दत्त और हिंदुस्तान टाईमज के गेस्ट एडिटर के बारे में तोह सब पहले से ही जानते हैं!
स्टार (Star)ग्रुप में मर्डोक का काफी पैसा लगा है,स्टार ग्रुप कि भी जाँच होनी चाहिए खास तौर पे स्टार न्यूज़ की !
भारत का मीडिया न्यूट्रल नहीं है ! Times Now एंटी कांग्रेस है, NDTV एंटी बीजेपी, Zee News भी कुछ हद तक लेफ्ट कि सोच से मिलता है, Star News ने तोह हद करदी! जब से उन्होंने अपनी सर्वे कम्पनी खोली है तब से वो Speak Asia के पीछे हाथ धो कर पड़े हैं ! यह अपने फाईदे के लिए मीडिया का गलत इस्तेमाल है ! बरखा दत्त और हिंदुस्तान टाईमज के गेस्ट एडिटर के बारे में तोह सब पहले से ही जानते हैं!
सब कुछ पढ़ सुन और समझ कर मन में एक ही सवाल उठता है कि आखिर उस आम आदमी का क्या जो यह भरोसे के साथ कहता है कि फलां न्यूज उसने टीवी पर या अखबार में देखी है।
रोज देखता हूं कैसे चतुर स्यान लोग मीडिया के आड़ में अपने एम्पायर को खड़ा कर रहे है और इस सब में पत्रकारिता की मूल सोंच और आधार खो गया है।
आज जिस तरह से पैसे के भूखे युवा नैतिकता को पिछवाड़े में रख मीडिया बॉस बन कर अपनी धौंस दे रहे है वह आने वाले देश के स्याह भविष्य की छाया ही है।
कोई दूध का घुला नहीं? पर आज स्थिति बदल गई है आज तो कोेई पानी से नहाया भी नहीं है? बदबूदार इस मीडिया के भरोसे जाने इस देश के उस आदमी का क्या होगा जो आज भी चौराहे पर उसकी खबर की सत्यता को आधार बना कर लड़ता है!
प्रसून जी अपने देश के बाबा और मीडिया दोनो एक ही तरह से देश का सत्यानाश कर रहे हैं,बाते देव की काम असुर का, इस सच्चाई से अब कोई नही बच सकता की समाचारो को मेनूपुलेशन किया जा रहा हैं पर जिस बेशर्मी से ये कह कर किया जा रहा हैं कि मालिक या व्यवसायिक सम्बंधो का भी ख्याल रखाना ही पडता हैं यही इस राजगार का अक्षम्य अपराध हैं इलेकट्रानिक मीडिया ने प्रिंट मीडिया की भी आदत बिगाड दी, अखबार भी अब त्रुटीवश क्षमा व खेद के कालम खत्म कर चुका हैं, कुछ सरकारी दामाद किस्म के अखबारो में तो पाठको की भागीदारी संपादक के नाम खत जैसे महत्वपूर्ण कालम को ही गोल कर दिया हैं, कुछेक लोग हैं , किसी भी मीडिया दफतर में खबरची की औकात व्यवसायिक क्लर्क से ज्यादा तो नही दिखती हैं,खबर के नाम पर ऐ घंमड जिन्दा हैं, जो इस मिशन में रेंग रहा हैं हम सिर्फ उनके लिऐ ही समाचार पढते सुनते हैं ...........
एक नजर हमारी ओर भी श्रीमान जी,
http://www.saveindianrupeesymbol.org/
2008 के पधम श्री पुरुस्कार पाने वाले "सेलिब्रिटी एंकर" थे राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त और वीर सांघवी। और अब जब नीरा राडिया टेपों और "वोट फार कैश" कांड के किरदारों का खुलासा होने के बाद, वीर सांघवी गायब है परंतु बाकी दो बेशरमी से अभी भी गाल बजा रहे हैं। राजदीप सरदेसाई तो सरे आम कहता है कि हमाम में सब नगें हैं!
बाज़ारवाद के दौर में चलने वाली बाज़ारु पत्रकारिता के रोल माडल जब ऐसे हैं तो बाकी आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं।
behad accha laga aapka lekh.
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