Wednesday, July 6, 2011

जयललिता-करुणानिधि और रजनीकांत

तमिलनाडु के 40 लाख छात्रों को अम्मा के लैपटाप का इंतजार है और 60 लाख बच्चों को किताबों का इंतजार है । 15 जुलाई तक बारहवीं और उससे उंची शिक्षा कर रहे छात्रों को कॉलेज के जरिये अम्मा सरकारी लैपटाप बांटेंगी। और 15 जुलाई तक ही सरकार की नौ सदस्यीय कमेटी तय करेगी कि बच्चों को किस तरह की पढ़ाई करनी चाहिए जिसके बाद सरकारी स्कूलों के लिये सरकार किताबें छापेगी। लैपटॉप अगर चुनावी वादा है तो स्कूली शिक्षा राजनीति का ऐसा पाठ जो सियासत का ककहरा भी सिखाती है और मुनाफे का मंत्र भी। यानी करुणानिधि से जयललिता का मतलब सिर्फ डीएमके से एआईएडीएमके के सत्ता में आना भर नहीं है या फिर स्पेक्ट्रम के घोटाले में रंगे करुणानिधि के सत्ता के रंग को उतारना भर नही है, तमिलनाडु में इसका मतलब बच्चे के नामकरण, उसकी शिक्षा, पुत्री के विवाह, छात्रों की उच्च शिक्षा, घरेलू महिलाओं की जिन्दगी को प्रभावित करने से लेकर दलित- ब्राह्मण के मानसिक संघर्ष को सियासी ठौर देना भी है।

जयललिता के गद्दी संभालने के बाद के पहले सौ दिनों तक जो भी बच्चा जन्म लेगा उसे पहली सरकारी भेंट देने की जिम्मेदारी उस इलाके के विधायक या सबसे बड़े एआईएडीएमके नेता की है। जो लड़की भी ब्याही जायेगी उसे 4 ग्राम सोने का सरकारी मंगलसूत्र पहुंचाने की जिम्मेदारी विधायक की है। घर में बैठी महिलाओं को 15 जुलाई तक सरकारी ग्राइंडर बांटने की जिम्मेदारी क्षेत्रवार नेताओं की है। और ग्राइंडर के लिये हर महीने 20 किलो चावल देने के जिम्मेदारी राशन दुकानों की है। जिस स्कूली शिक्षा को पांच बरस पहले करुणानिधि ने यह कह कर बदला कि सरकारी शिक्षा का सिलेबस ही हर स्कूल में चलेगा उस सिलेबस में छह लकीर खींच कर जयललिता ने मुनादी करा दी कि पूरे राज्य में हर छात्र का विकास एक सरीखा कैसे हो सकता है। इसे छात्रों की हैसियत और स्कूल चलाने वालों की मानसिकता के अनुकूल बदलना होगा। यानी अपना सिलेबस, अपनी किताबें।

अपनी सुविधा, अपनी फीस वसूली। तो मुनाफे बनाने के इस रास्ते को भी जयललिता ने खोला और एमजीआर के नये चैप्टर स्कूली शिक्षा में डाल एमजीआर को समाज सुधारक के तौर पर ऱखने की पहल भी शुरू की। पांच बरस पहले करुणानिधि को लगा था कि सरकारी स्कूल ही निजी स्कूलों के आधार बना दिये जायें तो फीस बढोत्तरी रुक जायेगी। शिक्षा का धंधा थम जायेगा। लेकिन सत्ताधारियो ने ही इस दौर में सरकारी शिक्षा को भी धंधे में बदल दिया, तो पांच बरस बाद जयललिता ने निजी शिक्षा संस्‍थानों को धंधे की छूट देने की पहल शुरू कर दी असर यही हुआ कि नये सिलेबस के इंतजार में सरकारी स्कूल 1 जून को खुले, तो 15 जून तक बंद हो गये। फिर 15 जून को खुले तो स्कूली शिक्षकों को फरमान जारी हुआ सिलेबस बिना पढ़ाना शुरु कर दें। पांच बरस पहले करुणानिधि को लगा कि इंजीनियरिंग के छात्रों को मुफ्त में लैपटाप देना चाहिये, तो पांच बरस बाद जयललिता को लगा कि बारहवीं के बाद हर उच्च शिक्षा पाने वाले को सरकारी लैपटाप दे दिया जाये।

असर यही हुआ कि कालेज ने फीस स्ट्रक्चर में फ्री लैपटाप जोड़ दिया। और इन सब के बीच ब्राह्मण और पिछड़े तबके में सत्ता के अनुकूल या प्रतिकूल समझ का तड़का भी कुछ इस तरह डाला गया है कि राज्य में सियासी समझ सिर्फ डीएमके या एआईटीएमके के इर्द-गिर्द ही घुमड़ेगी। यानी अभी अगर विजयकांत चमके है और जयललिता के बगैर उनकी चमक मायने नहीं रखती तो पांच बरस बाद एमडीएमके चमकेगी और उस वक्त उसकी चमक भी डीएमके के बगैर मायने नहीं रखेगी। हो सकता है इस दौर में कोई नया भी पार्टी बनाकर चमके, लेकिन हर कोई बिना डीएमके-एआईएडीएमके के पल-बढ़ नहीं सकते, यह सियासत तमिलनाडु की पहचान है। इस सियासी समझ की व्यवस्था पांच बरस पहले अगर करुणानिधि ने दलित-पिछड़ों के रोजगार को लेकर किया तो अब जयललिता ब्रह्मणो में तंजावुर, श्रीरंगम, रामेश्वरम, मदरै से लेकर करीब 25 से ज्यादा मंदिरों के शहर में ब्राह्मण के अहम को जगाकर कर रही है। तंजावुर से छह किलोमिटर की दूरी पर श्रीरंगम जयललिता का विधानसभा क्षेत्र हैं। समूचे विधानसभा की अर्थव्यवस्था या तो किसानी है या फिर मंदिर। किसानी का मतलब जमींदारी है। जमीन के मालिक ऊंची जाति के लोग हैं। और मंदिरो में वर्चस्व भी ब्राह्मणों का है। मंदिर का मतलब सिर्फ पूजा-पाठ नहीं है। बल्कि नारियल से लेकर फूल और पीतल ढ़ले पूजा के बर्तनों से लेकर मूर्तियों की खरीद-फरोख्त का महीने का दस हजार करोड़ का बिजनेस भी है।

और सत्ता में आने के बाद पहली बार 18-19 जून को जब जयललिता यहां पहुंचीं तो पहला संवाद यही किया कि ब्राह्मणों के बगैर कोई भी सत्ता कितनी महत्वहीन है। इससे पहले जयललिता मदुरै जिले के आंडिपट्टी से चुनाव लड़ती थी। जहां की सियासी समझ अपनी सहेली शशिकला के जरिये जयललिता ने बनायी। लेकिन इस बार भ्रष्टाचार मुद्दा बना तो शशिकला की छाप वाले आंडिपट्टी को छोड़ जयललिता ने शशिकला के भष्टाचार से दामन छुडाया और श्रीरंगम में इसबार करुणानिधि के भष्ट्राचार को भी ब्राह्मण विहिन करार दिया। यानी ब्राह्मण की राय लेकर करुणानिधि सत्ता चलाते तो राज्य का विकास होता, लेकिन वह सिर्फ परिवार चलाने में लगे रहे तो राज्य व्यवस्था ही भष्ट्र हो गयी। वहीं हार के बाद पहली बार जब करुणानिधि अपने विधानसभा क्षेत्र और पैतृक गांव तिरुवरुर पहुंचे तो उन्होने श्रीरंगम के पिछड़ेपन की वजह मंदिरों के नाम पर ब्राह्मण सियासत करने वाली जयललिता की राजनीति का जिक्र किया। और अपने सत्ता में लौटने के लिये तिरुवरुर के प्रसिद्द साहित्यकार सर त्यागरायर की कविता का जिक्र किया। कर्नाटक संगीत के पुरोधा के तौर पर त्यागरायर की पहचान समूचे तमिलनाडु में है, लेकिन जयललिता त्यागरायर का नाम ना लेकर इवे रामास्वामी नायकर यानी पेरियार का नाम लेकर ही अपनी ब्राह्मण सियासत में पिछडेपन का तड़का लगाती हैं। इसलिये करणानिधि या जयललिता का मतलब सिर्फ एक-दूसरे के उलट होना भर नहीं है, बल्कि सत्ता परिवर्तन का मतलब सामाजिक-आर्थिक ढांचे में बदलाव भी है।

मसलन रामेश्रवरम से लेकर कन्याकुमारी तक में हर रोज सुबह समुद्र किनारे बड़े-बड़े डिब्‍बों में इडली भर कर बेचने वाले सैकडों परिवारों के लिये सरकारी चावल ही रोजगार है। चावल मुफ्त बंटता है तो दस रुपये में पांच इडली बेचने पर भी इन्हें छह रुपये का मुनाफा हो जाता है। और अम्मा के मुफ्त ग्राईंडर मिलने का मतलब है मुनाफा आठ रुपये तक हो जाना। यह एक ऐसी महीन अर्थव्यवस्था है जो चुनावी परिणाम के साथ ही हर पांच साल बाद सरकारी डिब्बे में बंद होकर हर घर को लुभाती है। इसलिये हर घर के स्टोर रुम में या ड्राइंग रुम में किसी अलमारी के उपर गार्वमेंट आफ तमिलनाडु के नाम का कोई ना कोई डब्बा दिखायी दे ही जाता है। जिसमें कभी मुफ्त किताबे, साईकिल, लैपटाप, साड़ी, टीवी या फिर घर की जरूरत का कोई भी सामान सरकारी डिब्बे में बंद दिखायी दे ही जाता है।

भष्ट्राचार के पहाड पर खड़े होकर गिफ्ट लुटाने या वोटरों की इस छीना झपटी में करुणानिधि और जयललिता के बीच छत्तीस का आंकड़ा कैसे काम करता है इसका नया एहसास जयललिता का चेन्नई में करुणानिधि के 1200 करोड़ में बनाये नये सचिवालय में काम करने से इंकार करना है। जयललिता समूचा सचिवालय ही पुरानी इमारत फोर्ट सेंट जार्ज में शिफ्ट कर रही हैं। लेकिन इस तीखे विरोध के बीच सिर्फ एक व्यक्ति ही है जिसपर दोनों में कोई विरोध नहीं है और वह है फिल्म कलाकार रजनीकांत। दोनों ने एक बराबर ही रजनीकांत के लिये दुआ की और रजनीकांत ने भी 18 जून को अपने चेहतों को भेजे खुले पत्र में जयललिता और करुणानिधि को भी बराबर की तरजीह दी। और समूचे तमिलनाडु में सिर्फ रजनीकांत की हैसियत करुणानिधी-जयललिता से ऊपर इसलिये है, क्योंकि तंजावुर या श्रीरंगम हो या तिरुवरुर या मदुरै या चेन्नई से लेकर कन्याकुमारी के बीच का कोई भी इलाका, हर जगह के हर भगवान से रजनीकांत के लिये दुआ मांगने वालों की भीड़ है। पोस्टर से लेकर टेम्पों और बस के पीछे लिखे स्‍लोगन में रजनीकांत को शक्ति देने की मां से दुआ इतनी प्रभावशाली है कि करुणानिधि- जयललिता की समूची सियासत ही छोटी लगने लगती है ।

4 comments:

DUSK-DRIZZLE said...

EXCELLENT POST
SANJAY VARMA
RAIPUR

रोहित बिष्ट said...

I'm unable to understand why people of south india are so crazy about their film stars?they worship them like God.will anybody explain logic behind this?

सतीश कुमार चौहान said...

बाजपेयी जी ये समस्‍याऐ तो हर राज्‍य और नेता के साथ हैं इसके लिऐ सत्‍तासुख पर अंकुश जरूरी हैं जो होता नही दिखता, दरअसल जनप्रतिनिधीयो को विकास करने के बजाय इस के लाभ व संतुलन पर ही नजर रखनी चाहिये,विकास का काम ब्‍यूरोक्रेसी का हैं, पर हो ऐसा रहा हैं एक तरफ तो सरकार सस्‍ता आनाज बांट कर वोट बैंक बना रही हैं फिर उन्‍ही के बीच शराब दुकान खोलकर शराब माफियाओ की मदद से टैक्‍स बटोर लें उन्‍हें मानसिक व आथ्रि‍क अपाहिज बना कर लोकलुभावनी सरकार होने का नाटक कर रहीं हैं ........सतीश कुमार चौहान भिलाई

vimal said...

aap ka ye post Rajniti ko aak aina dekhana hai....