सरकार ने ऐसे वक्त किंगफिशर एयरलाइन्स को बेल-आउट देने के संकेत दिये हैं, जब दुनियाभर में कॉरपोरेट और निजी कंपनियों को बेल आउट देने के सरकारों के रवैये पर ‘वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ एक आंदोलन के तौर पर उभरा है। पहली दुनिया के देशों में यह सवाल इसलिये आंदोलन की शक्ल ले चुका है क्योंकि जिन पूंजीवादी नीतियों के आसरे सरकारी वित्तीय संस्थानों को निजी हाथों में मुनाफा पहुंचाने का काम सौंपा गया, अब वही तमाम संस्थान फेल हो चुके हैं। जबकि भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशो में यह सवाल दोहरा वार कर रहा है। एक तरफ सरकारें पूंजीवादी नीतियों को अपनाकर खुद को बाजार में बदलने को लालायित हैं, जिसका असर मुनाफा तंत्र ही सरकारी नीति बनना भी है और कॉरपोरेट या निजी कंपनियो के अनुसार सरकार का चलना भी है। और दूसरी तरफ बहुसंख्यक तबका जीने की न्यूनतम जरुरतों को भी नहीं जुगाड़ पा रहा है। और आम आदमी की जरुरत को पूरा करने के लिये राजनीतिक पैकेज में ही नीतियों को तब्दील कर दिया जा रहा है। इसीलिये देश की बहुसंख्य जनता के पास खाने को नहीं है तो खेती या मजदूरी दूरस्त करने की जगह फूड सिक्यूरटी बिल लाया जा रहा है। उत्पादन ठप है। हुनरमंद के पास काम नहीं है। कुटीर और मझोले उद्योग के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बचा और रोजगार की कोई व्यवस्था देश में नहीं है तो मनरेगा सरीखी योजना के जरीये रोजगार का एहसास कराकर राजनीतिक लोकप्रियता के लिये सरकारी खजाने को बिना किसी दृष्टि के लुटाने के खेल भी नीति बन चुकी है।
जाहिर है इन परिस्थियो के बीच अगर मनमोहन सिंह इसके संकेत दें कि किगंफिशर एयरलाइन्स को सरकारी मदद से दोबारा मुनाफा बनाने के खेल में शामिल किया जा सकता है, तो देश का रास्ता किस अर्थशास्त्र पर चल रहा है। यह समझना जरुरी है। बीते साढे सात बरस में जब से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से देश में जितने किसानो ने खुदकुशी की, उसके सिर्फ एक फीसदी के बराबर लोगो को किंगफिशर रोजगार दिये हुये हैं। जबकि किंगफिशर में जितनी पूंजी लगी हुई है और अब सरकार जो उसे मदद देने की बात कर रही है, अगर उसका आधा ही महाराष्ट्र के विदर्भ के किसानों में बराबर बराबर बांट दिया जाये तो अगले पांच बरस तक तो किसानो की खुदकुशी पर ब्रेक लग जायेगा, जो अभी हर आठ घंटे में हो रही है। लेकिन देश चलाने के लिये जरुरी नहीं कि रइसो के चोंचले बंद कर गरीबो पर उनकी रइसी की पूंजी कुर्बान की जाये । मगर कोई भी लोकतंत्र इस तरह जी ही नहीं सकता, जहां आम आदमी के पैसे को रइसो में बांट कर देश चलाने को धंधे में बदल दिया जाये । यानी देश कहलाने या होने की न्यूनतम जरुरतें चुनी हुई सरकार के हाथ में ना हो या सरकार हाथ खड़ा कर दें। मसलन शिक्षा महंगी हो जाये तो सरकार का कुछ लेना-देना नहीं। स्वास्थ्य सेवा महंगी हो जाये तो सरकार कुछ नहीं कर सकती। घर खरीदना। घर बनाने के लिये जमीन खरीदना आम आदमी के बस में ना रहे और सरकार आंखे मूंदी रहे। पेट्रोल-डीजल की कीमत भी निजी कंपनियो के हाथो में सौप दी जाये और वह मनमाफिक मुनाफा बनाने में लग जाये। तो आम आदमी सरकार से क्या कहे। और सरकार चुनने के वक्त जब वही चार यार आपसी दो-चार कर संसदीय लोकतंत्र का नाम लेकर आम आदमी के वोट को लोकतंत्र का तमगा देने लगे, तो रास्ता जायेगा किधर।
दरअसल, लोकतंत्र का बाजारु चेहरा कितना भयानक हो सकता है यह सरकार के क्रोनी कैपटलिज्म से समझा जा सकता है, जहां आम आदमी कॉरपोरेट की हथेलियों पर सांस लेने वाले उपभोक्ता से ज्यादा कुछ नहीं होता। और आम आदमी के नागरिक अधिकार सरकार ही निजी कंपनियों को बेचकर हर नागरिक को उपभोक्ता बना चुकी है। इसलिये किंगफिशर के हालात से देश का नागरिक परेशान या उपभोक्ता। और सरकार जनता के पैसे से किंगफिशर को बेल आउट देने के लिये नागरिको की मुश्किल आसन करना चाहती है या उपभोक्ताओ की। या फिर किंगफिशर के मुनाफा तंत्र में सरकार के लिये किंगफिशर के सर्वेसर्वा विजय माल्या मायने रखते हैं और अब के दौर में सरकार का मतलब भी कही शरद पवार तो कही प्रफुल्ल पटेल, कही मुरली देवड़ा तो कही मनमोहन सिंह तो महत्वपूर्ण नहीं हो गये है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योकि किंगफिशर 2003 में आयी। 2006 में यह लिस्टेड हुई। 2008 में पहली बार तेल कंपनियो ने पैसा ना चुकाने का सवाल उठाया। सरकारी वित्तीय संस्थानों ने किंगफिशर पर बकाये की बीत कही। लेकिन इसी दौर में किंगफिशर एयरलाइन्स के मालिक विजय मालया नागरिक उ्डडयन मंत्रालय की स्थायी समिति के सदस्य बने। यानी एयरलाइन्स के धंधो पर नजर रखने वाली स्थायी समिति में वही सदस्य हो गये जिनकी निजी एयरलाइन्स थी। वहीं तत्कालीन हवाई मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने ना सिर्फ विजय माल्या को नागरिक उड्डयन मंत्रालय से बतौर सदस्य के रुप में जोड़ दिया बल्कि सरकारी इंडियन एयरलाईन्स का बंटाधार भी इसी दौर में निजी एयरलाइन्सो को लाभ दौर पहुंचाते हुये बाखूबी किया। इसमें अव्वल किंगफिशर रही क्योंकि तेल कंपनियो ने ना तो बकाया मांगा और न ही एयरपोर्ट अथॉरिटी ने फीस वसूलने की हिम्मत दिखायी। ना सरकारी बैकों ने लोन देने में कोई हिचक दिखायी। वह तो भला हो मंत्रिमंडल विस्तार के दौर का, जब प्रफुल्ल पटेल और मुरली देवडा का मंत्रालय बदला गया।
लेकिन सवाल अब आगे का है। किंगफिशर एयरलाइन्स के बेल आउट का मतलब जनता के पैसे को किसे देना होगा, जरा यह भी जान लें। विजय माल्या सरकार से मदद चाहते हैं और सरकार के चेहरे न कहने में क्यो हिचक रहे हैं, यह विजय माल्या के कद से समझा जा सकता है । आज की तारीख में देश के बाजार में बिकने वाली बीयर का 50 फीसदी हिस्सा विजय मालया की कंपनी यूबी ग्रूप का है। बेगलूर के बीचो-बीच 2 हजार करोड़ की यूबी सिटी विजय माल्या की है। तीन सौ करोड की किंगफिशर टॉवर बन रही है। कर्नाटक में यूबी माल, माल्या हास्पीटल, माल्या का ही अदिति इंटरनेशनल स्कूल, कर्नाटक ब्रीवरीज एंड डिस्ट्रेलिरि और मंगलौर कैमिकल फर्टीलाइजर से लेकर घोड़ों के रेसगाह हैं, जिनकी कुल कीमत एक लाख करोड से ज्यादा की है। इसके अलावा विजय माल्या ही देश के अकेले शख्स हैं, जिनके पैसे दुनिया की फुटबॉल टीम से लेकर फार्मूला-वन रेस,आईपीएल में क्रिकेट टीम में लगे हैं। साथ ही अंतराष्ट्रीय समाचार पत्र एशियन ऐज से लेकर फिल्म और फैशन की पत्रिका का मालिकाना हक भी है और हर बरस गोवा में अपने घर में नये बरस के आगमन के लिये करोड़ों रुपये उड़ाने का जुनून भी है। यानी जमीन से लेकर आसमान तक सपने बेचने और खरीदने का जज़्बा समेटे विजय माल्या ने 2002 में अपने पैसो की ताकत का एहसास राज्यसभा चुनाव में भी कराया था। इससे पहले राजनेताओ को संसद पहुंचाने के लिये खर्च करने वाले विजय मालया ने खुद की बोली राज्यसभा का सांसद बनने के लिये लगायी और जब रिजल्ट आया तो पता चला की हर पार्टी के सांसदो ने विजय माल्या को वोट दिया।
यही वह संकेत हैं, जिसमें विजय मालया को सरकार से यह कहने में कोई परहेज नही होता कि किंगफिशर को डूबने से बचाने की जरुरत तो सरकार की है। और सरकार भी इसके संकेत देने से नहीं चुकती की अरबपति विजय मालया के किंगफिशर को डूबने नहीं दिया जायेगा। यानी एक तरफ देश को भी लगने लगता है कि किंगफिशर का 1134 करोड़ का घाटा तो सरकार पूरा कर ही देगी। तेल कंपनियो का करीब नौ सौ करोड का कर्जा भी आज नहीं तो कल चुकता हो ही जायेगा। एयरपोर्ट की करोड़ों रुपये की फीस भी मिल ही जायेगी। जबकि इसके उलट देश अभी भी मानने को तैयार नहीं है कि पचास रुपये ना चुका पाने के डर से विदर्भ का किसान खुदकुशी करना बंद कर देगा ।
You are here: Home > विजय माल्या > एक अरबपति को सरकारी बेल-आउट
Tuesday, November 15, 2011
एक अरबपति को सरकारी बेल-आउट
Posted by Punya Prasun Bajpai at 1:24 PM
Labels:
विजय माल्या
Social bookmark this post • View blog reactions
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
उदारीकरण या उधारीकरण?वैसे अर्थ-नीति के मुद्दों पर सभी दल व्यापक,विकल्प-हीन(?)राष्ट्रीय सहमति रखतें हैं।इसलिए'कोई नृप होय कॉर्पोरेट को का हानि'...
sir you are right today we are being exploited by our own government ...............we as a youth feel that in India perhaps their is need of total revolution and real socialist economy must held in country
Now a days we the people have to think twice of GOI policy & its impact on the people(common men).
Here is question that we have to ask to ourselves-Are we people(citizen) of a welfare state(i.e.DEMOCRATIC NATION)?
OR
Let's play Bailout-Bailout game.
राहुल बजाज के विचारों से सहमत हूँ.
कुछ भी हो दिवालीया होने से बेहतर हैं , साख पर बटट्रा न लगे ......
badiya sir,agar aap ke pryas aese hi jari rahe to phir vidarbh ke lo go ka din bhi aa ja yega,good sir
ye sab sharad pawar ki meharbani hai... aapne to batahi diya leken aur bohat sari jagah vijaya malya ki jarurat sarkari babuo ko aur har kisi ko hai ase main unhe naraj karna koi pasand kese karega bhai....
Post a Comment