क्या नक्सलवादियो को लेकर ममता बनर्जी भी सीपीएम की राह पर चल निकली हैं। चार दशक पहले नक्सलवाद की पीठ पर सवार होकर सीपीएम ने सत्ता से कांग्रेस को बेदखल किया और चार दशक बाद माओवादियों की पीठ पर सवार होकर ममता बनर्जी ने सीपीएम को सत्ता से बेदखल किया। लेकिन माओवादी कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के मारे जाने के बाद एक बार नया सवाल यही उभरा है कि आने वाले वक्त में क्या माओवादियों के निशाने पर ममता की सत्ता होगी। यह सारे सवाल कितने मौजू हैं, दरअसल जंगलमहल के जिस इलाके में किशनजी मारा गया उसी जंगल में दो बरस पहले किशनजी ने इन सारे सवालों को खंगाला था। वह इंटरव्यू आज कहीं ज्यादा मौजूं इसलिये है क्योंकि तब बंगाल में वामपंथियों की सत्ता थी और ममता संघर्ष कर रही थीं। आज ममता सत्ता में है और वामपंथी संघर्ष कर रहे हैं। यानी सत्ता तो 180 डिग्री में खड़ी है लेकिन नक्सलवाद का सवाल सत्ता के लिये 360 डिग्री में घूमकर वही पहुंच गया,जहा से शुरु हुआ....
सवाल-कभी नक्सलबाड़ी में किसानों ने जमींदारों को लेकर हथियार उठाये। क्या लालगढ़ में भी किसान-आदिवासियों ने हथियार उठाये या फिर आंध्रप्रदेश से आये माओवादियो की लड़ाई लालगढ़ में लड़ी जा रही है।
जबाव-लालगढ़ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढ़े सोलह हजार गांवों में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार हैं। इन ग्रामीणो की हालत ऐसी है जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है। इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी। इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है। जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरो में तो एयरकंडीशर भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले। जबकि गांव के कुओं में इन्होंने केरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके। और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है। सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। जंगल गांव की तरह यहां के आदिवासी रहते है। यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इसलिये सवाल माओवादियो का नहीं है। हमने तो इन्हें सिर्फ गोलबंद किया है। इनके भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार हैं। और गांव वालों का यह आक्रोश सिर्फ लालगढ तक सीमित नही है।
सवाल-तो माओवादियो ने गांववालों की यह गोलबंदी लालगढ से बाहर भी की है।
जबाब-हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब ना आयें। क्योंकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है। हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था। सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गांववालों को थोडी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमनें चुनाव का बायकाट कराकर गांववालों को जोड़ा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड़ खत्म हो चुकी है। जिसका केन्द्र लालगढ है।
सवाल-तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही है। इसीलिये वह आप लोगों को मदद कर रही हैं।
जबाब-ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है,यह तो हम नहीं कह सकते। लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उस पर हमारी सहमति जरुर है। लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा। ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलों को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेगी। लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियों ने पकड़ा है उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि लालगढ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है। वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है।
सवाल-नक्सलबाडी से लालगढ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।
जबाब-जोडने का मतलब हुबहु स्थिति का होना नहीं है। जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे हैं बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहुलूहान हो रहा है तो उसका आक्रेश कहां निकलेगा। क्योंकि इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी। लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फीसदी कौन डकार गया इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा। छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहों पर जाने के लिये मजबूर हुये। इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारों की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है क्योंकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती । और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाल छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है। यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे।
सवाल-लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है।
जबाव-आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है। बंगाल में माओवादियो के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दुसरे राज्यों से भी कड़ा है। हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है। तीस से ज्याद माओवादी बंगाल के जेलो में बंद हैं। अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूंखार अपराधी के साथ होता है। दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण हैं। प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योंकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालों को जेल में बंद किया जा सकता है। लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं हैं। अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते हैं। जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही। अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है। नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है। महिलाओ के साथ बलात्कार की कई घटनाये सामने आयी हैं। लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियो से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।
जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है। लालगढ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे है उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालों का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है। जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थको पर पुलिस अत्याचार हो रहा है। इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है। उन्हें गांव छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संधर्ष लंबे वक्त तक चल सके । अब यह
सवाल-आप ग्राउंड जीरो पर है। हालात क्या हैं लालगढ के।
जबाब-लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैंप जरुर लगा लिये हैं लेकिन गांवों में किसी के आने की हिमम्त नहीं है। आदिवासी महिलाएं-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं। लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी -ग्रामीण मारा जाये। इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमनें गांववालों को मानव ढाल बना रखा है। पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही है । माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे। बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उढा रहे हैं। फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है । जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमें पुलिस से ज्यादा है। इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है जहां तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती हैं। उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।
आखिरी सवाल-कभी सीपीएम के साथ खड़े होने के बाद आमने सामने आ जाने की वजह।
जबाव-अछ्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया। क्योकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे। उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर यह आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियों को लागू कराने का वक्त नहीं दिया। अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातो को ज्योति बसु ने 32 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये।
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Friday, November 25, 2011
कभी ममता के संघर्ष के साथ खड़े थे किशनजी
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:30 AM
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किशनजी
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4 comments:
नक्सलबाडी ही बंगाल की राजनैतिक विचारधारा की जनक हैं,लडना भिडना उनका खून हैं जो ममता के राजनैतिक राह में भी स्वाभाविक रूप से दीखता हैं पर गलोब्लाईजेशन के दौर में यहां की राजनीति और आम आदमी को अब नऐ सिरे से अपनी राह तलाश करनी चाहिये
पुण्य प्रसून जी आपके सभी सवाल लाखटके के हैं ...ममता तो किशनजी के बदौलत ही सरकार बनायीं किंतु अब अपने आपको साख पाख बनाने की कवायद मात्र है इस मसले इनकी पार्टी का पल्ला झाड़ना
ये पहले से लगता था और होना था सियासत नक्सलियों सियासी हित तो साध सकती है...पर बर्दाश्त नहीं कर सकती।
it is just not correct. CPM never used Naxalites to capture power. Can you please explain me your first paragraph... I wait for your reply.... Please correct my doubt....
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