Saturday, November 26, 2011

क्यों नहीं चल रही है संसद

अगर आप याद कीजिये कि संसद इस बरस कब एकजुट हुई। कब सामुहिकता का बोध लेकर चली। कब समूचा सदन किसी मुद्दे पर चर्चा कर समाधान के रास्ते निकला। तो यकीनन आम जनता से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर ऐसी कोई याद आपकी आंखों के सामने नहीं रेंगेगी। यहां तक कि जिस महंगाई का रोना आज सभी रो रहे हैं, उस महंगाई पर भी पिछले सदन में चर्चा हुई लेकिन अधिकतर सांसद नदारद ही रहे। और खानापूर्ति के लिये चर्चा हुई। लेकिन याद कीजिये अगस्त के महीने में रामदेव की रामलीला को पुलिस ने जब जून में तहस-नहस किया और यह मामला संसद में उठा तो हर सांसद मौजूद था। अन्ना हजारे के अनशन को तुड़वाने के लिये तो समूची संसद ही एकजुट हो गई और लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से लेकर प्रधानंमत्री तक की अगुवाई में सभी एकजुट दिखे।

राज्यसभा में जस्टिस सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई को याद कीजिये। अगस्त की ही घटना है। हर कोई सदन में बैठा नजर आया। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है जब जब संसद की साख पर सवाल उठे और जब जब सासंदों व राजनेताओं की साख सड़क पर डगमगायी और जब न्यायपालिका को पाठ पढ़ाने का मौका आया तो संसद ने अपना काम किया। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि पहली बार 22 दिनों के संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर सरकार की जेब में 31 पेंडिंग बिल हैं। नये 19 बिल हैं। और इस फेरहिस्त में हर वह बिल है जो आम जनता से लेकर कारपोरेट तक को सुविधा देगा। फुड सेक्युरिटी बिल आ गया तो सस्ते अनाज को बांटने का व्यापक रास्ता भी खुलेगा। और सस्ते अनाज के जरीये जिले और गांव स्तर पर घोटालो का रास्ता भी खुलेगा। खनन और खनिज संपदा को लेकर माइन्स एंड मिनरल डेवलपमेंट और रेगुलेशन बिल 2011 पास हुआ तो सरकार के हाथ में जमीन हथियाने के रास्ते भी खुलेंगे। और निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाकर अपने तरीके से योजनाओ को लाने का रास्ता भी खुलेगा। सीड्स बिल 2004 पास हुआ तो बाजार किसानों को अपनी बीन पर नचायेगा और बाजार के जरीये किसान की फसल तय होगी। यानी छोटे किसानों की मुश्किल बढ़ेगी।

इसी फेरहिस्त में कंपनी बिल से लेकर मनी लैंडरिंग बिल तक है। जीएसटी को लेकर सरकार कुछ पैसा चाहती है तो हवाला और मनीलैंडरिंग को रोकने के लिये संसद का मंच चाहती है। जाहिर यह सब किसी भी सरकार के लिये जरुरी है। खासकर तब जब सरकार के पास नीतियों के नाम पर विकास का ऐसा आर्थिक मॉडल हो जिसमें निजी हथेलियो को लाभ देते हुये आम जनता की बात की जाये। पहली मुश्किल यही है कि सरकार जो तमगा संसद के चलने से चाहती है वह ना भी मिले तो भी साउथ-नार्थ ब्लॉक से सरकार मजे में चल सकती है। फिर संसद की जरुरत है क्यों और हंगामा मचा हुआ क्यों है। तो हंगामे का पहला मतलब तो यह है कि सरकार चलाना और राजनीति साधना दोनों एक साथ नहीं चल सकते यह पहली बार सरकार भी समझ रही है और विपक्ष भी। लेकिन विपक्ष के हाथ में डोर इसलिये है क्योंकि मनमोहन सिंह के सबसे मजबूत सिपहसलार चिदंबरम फंसे हैं। जो उड़ान चिदंबरम ने यूपीए-1 के दौर में बतौर वित्त मंत्री रहते हुये भरी उसपर इतनी जल्दी ब्रेक लगाना पड़ेगा, यह ना तो प्रधानमंत्री ने सोचा और ना ही सरकार की नीतियों से आसमान में कुलांचे मारते कारपोरेट ने। चिदंबरम के आसरे मनमोहन सरकार की जो नीतियों 2004 से 2008 तक चली, चाहे वह पावर सेक्टर हो या खनन या फिर इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह या एसईजेड।

अगर ध्यान दिजिये तो सरकार के साथ उस दौर में जो निजी कंपनिया सरकारी लाइसेंस का लाभ उठा रही थीं, संयोग से वही सब यूपीए-2 के दौर में घेरे में है। और बीजेपी का खेल अब यही से शुरु हो रहा। बीजेपी के लिये चिदंबरम का मतलब सिर्फ संघ परिवार को भगवा आतंकवाद के नाम पर घेरना भर नहीं है। उसके लिये चिदंबरम का मतलब 2 जी घोटाले में सरकार से बाहर कर उन कारपोरेट घरानो को डरा कर अपने साथ खड़ा भी करना है जिनके आसरे मनमोहन इक्नामिक्स अभी तक चलती रही । इसीलिये अनिल अंबानी के रिलायंस के तीन अधिकारी हो या यूनिटेक के संजय चन्द्र या पिर स्वान के डायरेक्टर जो तिहाड से जमानत पर छह महीने बाद निकले। उन सभी के हालात के पीछे चिदबरंम की खुली बाजार में खुली राजनीति रही और अब सरकार के साथ सटने से लाभ कम घाटा ज्यादा होगा, यही पाठ बीजेपी निजी सेक्टर को पढ़ाना चाहती है। और चूंकि शेयर बाजार से लेकर निवेश का रास्ते इस दौर में उलझे हैं। साथ ही आम आदमी की न्यूनतम जरुरतों से लेकर कारपोरेट का मुनाफा तंत्र भी डगमगाया है तो संसद ना चलने देने के सामानांतर बड़ी सियासत इस बात को लेकर भी चल रही है कि आने वाले वक्त में निजी कंपनियां या कारपोरेट घराने कांग्रेस का साथ छोड बीजेपी के साथ आते है या नहीं।

दरअसल बीजेपी के इस सियासी समझ के पीछे सरकार के भीतर के टकराव भी है। जहां पहली बार आरएसएस को खारिज करने वाली मनमोहन सरकार के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तमाम नेताओं से मिलते हुये संघ के लाडले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी का भी दरवाजा खटखटाते हैं। यानी एक तरफ चिदंबरम की संघ को घेरने की मशक्कत और दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की संघ के दरवाजे पर दस्तक। और इस खेल में बीजेपी चिदंबरम की मात चाहती है। जाहिर है इसी मात के दस्तावेजों को सुब्रमण्यम स्वामी समेटे हुये हैं। लेकिन सरकार के भीतर का सच यह है कि चिदंबरम की मात का मतलब मनमोहन सिंह को प्रणव मुखर्जी की शह मिलना भी होगा, जो मनमोहन बिलकुल नहीं चाहेंगे। और इस सियासी गणित में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आरएसएस की ताकत उभारकर काग्रेस के वैचारिक बिसात को बिछाना चाहेंगे। यानी इस पूरे चकव्यूह को तोड़ेगा कौन और कैसे संसद शुरु होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। लेकिन संसद की जरुरत इस दौर में है किसे और संसद सजेगी किस दिन संयोग से यह सवाल भी संसद को चुनौती देने वाले उसी जनलोकपाल आंदोलन से जुडी है जिसे संसद के पटल पर भी इसी सत्र में रखा जाना है। तो य़कीन जानिये दिसबंर के पहले हफ्ते में जिस दिन सरकार ऐलान करेगी कि आज लोकपाल बिल रखेंगे। उस दिन सभी पार्टिया सदन में जरुर नजर आयेंगी। क्योंकि वहां सवाल संसद के जरीये राजनीति का नहीं बल्कि सड़क के आंदोलन से डर का होगा।

1 comment:

सतीश कुमार चौहान said...

प्रसून जी काफी गंभीर मसले पर आप की खोजपूर्ण रपट, पर स टकराव से आमजन का नुकसान अगर छोड दिया जाऐ तो लाभ पुरा पुरा लेरहे हैं देश के राजनैतिक सयाने,