वोट डालने की खुशी से ज्यादा आक्रोश समाया है वोटरों में
इस चुनाव ने नेताओं को साख दे दी और वोटरों को बेबसी में ढकेल दिया। याद कीजिए चुनाव से ऐन पहले राजनेताओं की साख थी ही कहां और वोटर विकल्प का सपना संजोये राजनीतिक दलों को डरा रहा था। लखनउ के शीश महल में रहने वाले
नवाब जफर मीर अब्दुल्ला का यह जवाब चुनाव को लोकतंत्र से जोड़ने के मेरे सवाल पर था। मेरी नवाबी टोपी को चाहे लोकतंत्र ना मानिये लेकिन लोकतंत्र का अर्थ नेताओं के चुनाव से भी ना जोड़िये। क्योंकि इस लोकतंत्र में हम वोटर बेबस हैं। नवाब जफर मीर की चुभती हुई इस टिप्पणी के आसरे समूचे चुनाव को तो टटोलना मुश्किल है लेकिन बनारस से लखनउ तक की चुनावी पट्टी में जो देखा समझा परखा, उसने पहली बार यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि इस बार चुनाव मुद्दो पर नहीं,जीतने के धन-बल और वोट-बैंक के आसरे लड़ा जा रहा है। पारदर्शिता इतनी ज्यादा है कि राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा दोनों के मंच पर दागी-बागी सबसे मजबूत मोहरे मान लिये गये हैं और मुलायम-मायावती की तकरार में अतीत के सियासी मोहरों को दोबारा जगह मिल रही है। इस चुनावी बिसात पर आम लोगों से सरोकार तो दूर पहली बार चुनावी
रोजगार भी नहीं है। झंडे-बैनर-बिल्ला कुछ भी खरीदने बेचने के लिये नहीं है। बंबू-तिरपाल और प्लस्टिक की कुर्सियां भी भाड़े पर उठाने के लिये कोई राजनेता भी तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जीत के तरीके इस बार भाषण या लहराते झंडे पर नहीं टिके हैं। बल्कि जातीय समीकरण, सत्ता पाने के बाद सत्ता की मलाई चखाने के वादे और महंगे हो चुके यूपी में कौडियों के मोल लाइसेंस दिलाने के दावे हैं। जो संयोग से मायावती बनाम ऑल पार्टी तले आ टिका है। सत्ता पाने के लिये लड़े जा रहे यूपी का सच मायावती के दौर में यूपी में जमीन से लेकर आने वाली परियोजनाओं के उस खेल पर टिकी मुनाफा
कमाने वाली आंखों का है, जिसकी किमत नब्बे लाख करोड़ से ज्यादा की है। यूपी में चीनी मिलो से लेकर पावर प्रोजेक्ट, रियल इस्टेट से लेकर चकाचौंध माल योजनायें और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर न्यूनतम जरुरत शिक्षा-स्वास्थ्य-पानी के स्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिये जो तबका अपनी झोली फैलाये खड़ा है, असल में चुनाव के पीछे वही अपनी ताकत से आ खड़ा हुआ है। जो सत्ता में आयेगा वह छह महिनो में 50 लाख करोड़ का खेल खेलेगा। हर योजना को हरी झंडी वहीं देगा। कीमत तय वही करेगा। इसका पहला असर तो यही पड़ा है कि मायावती के उम्मीदवारों को छोड दें तो कमोवेश हर राजनीतिक दल के जीतने वाले उम्मीदवारों के पीछ सौ अरब से ज्यादा लगाया जा चुका है।
समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा में जिसके भी जितने की जरा भी उम्मीद है उसके पीछे रियल-इस्टेट और कॉरपोरेट का इतना घन लग रहा है कि पहली बार छोटे स्तर पर चुनाव में पूंजी लगाकर जिले या ब्लाक स्तर पर सत्ता से कमाई का लाइसेंस बनाने वालों को कोई पूछ नहीं रहा । पहली बार मायावती के दौर में जिस तरह जिले स्तर पर विकास योजनाओं से सीधी राजनीतिक कमाई को जोड़ा गया उसने हर उस उम्मीदवार की आंखे खोल दी है, जिन्हें अभी तक समझ नहीं आता था कि चुनाव में किसी का पैसा लगवाकर उसे वापस कैसे लौटाया जाता है। इस बार हर विधानसभा सीट की कीमत दो सौ करोड से ज्यादा की है। यानी जो विधयक बनेगा उसे दो सौ करोड का खेल करने का मौका अपने विधानसभा क्षेत्र में मिलेगा, बशर्ते वह सत्ताधारी दल का हो। दरअसल सत्ता के जरिये कमाई के अरबों के खेल के लब्बोलुआब ने चुनावी समीकरण भी बदलने शुरु किये हैं या कहें बनाने शुरु किये हैं। जो सत्ता के गठन के बाद सत्ता से पैसा बनाने के लिये अभी अरबो-खरबो लगा रहे हैं, उनके समीकरण में मायावती के लिये मुलायम की हवा का बहना सही खेल है। क्योंकि मायावती तब पैसे से ज्यादा वोटबैंक देखेगी। और हो भी यही रहा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से इलाहबाद तक मायावती को पैसा नहीं अपने वोट बैंक को सहेजना पड़ रहा है। जो मायावती के पीछे खड़े धंधेवालों के लिये सटीक है। क्योंकि मायावती अब अपने बीस फीसदी वोटबेंक को छितराने नहीं देना चाहती। इसी का परिणाम है कि चाहे चुनाव में जीत सकने वाले अवधपाल हो या नरेश अग्रवाल सरीखे उम्मीदवार, इन जैसे दो दर्जन उम्मीदवारो का टिकट इसलिये काटा क्योंकि दलित वोटबैंक में इन्हे
लेकर आक्रोश है। असल में मायावती के पीछे खड़े धंधेबाज इस हकीकत को भी समझते है कि मायवती का मतलब सिर्फ लखनउ का 5, कालिदास मार्ग ही भ्रष्ट होना है। लेकिन मुलायम का मतलब हर जिले और विधानसभा सीट पर 5, कालीदास मार्ग का बन जाना है।
दरअसल पहली बार समाजवादी पार्टी के जरीये अगर सत्ता में आने के बाद के करोडो के खेल के वारे न्यारे की तस्वीर धंधेबाजों के सामने रखी जा रही है तो पहली बार मायावती का कैडर बेहद महीन तरीके से गांव से लकर लखनउ तक मुलायम के दौर में वसूली के उन तरीकों को बता रहा है जिसके घेरे में सत्ताधारी जाति को छोड हर कोई फंसा। यानी 2007 के चुनाव में जिन वजहो से मुलायम को हार मिली उसे ही अब मायावती दोबारा हथियार बना रही है । और यह धार इसलिये पैनी है क्योकि मायावती ने हर जाति को लेकर जिस तरह भाई-चारा समिति गांव, कस्बा, ब्लाक,जिला, मंडल और राज्य स्तर पर बनाया है उसमें अध्यक्ष को यही काम सौपा गया है कि वह वोटरों को मुलायम के दौर की याद दिलाये। और धंधेवालों को निर्देश दिया गया है कि पैसे बंटने है तो ब्लाक से मंडल स्तर के संगठन को पैसा दें। इसका असर यह हुआ है कि ब्राह्मणों को अपनी जमीन छिनने का दौर याद आ रह हैं। बनिये पैसा वसूली को याद कर रहे हैं। मल्लाहों को अपनी भैंस छुड़ाने के एवज में पैसा देने का दौर याद आ रहा है। गांवों में चारदीवारी पर बैठ कर खुले आसमान का मजा लेते शहरी ग्रामीणों को थाने और मवालियों के डर का एहसास होने लगा है। लेकिन दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी का संगठन तीन स्तर पर सक्रिय है। पहले स्तर पर बाप के खडाउ को पहनते दिखते अखिलेश यादव के साथ खड़ा युवको का जोश। जिनके पीछे सुविधाओ की पोटली हर उस धंधेबाज ने खोली है जिन्हें मायावती ने जगह नहीं दी। दूसरे स्तर पर मुलायम के साथ उन्हीं यादवो का जोश जिसने 2007 तक सत्ता को अपनी अंगुलियो को नचाया। और तीसरे स्तर पर मोहन सिंह सरीके पुराने समाजवादी, जो जगह-जगह खड़े होकर पुरानी गलतियों के लिये माफी मांगते फिर रहे है और उनके साथ नेताजी और अखिलेश के बीच बनी नयी कड़ी से उलझे समाजवादी या फिर सत्ता में समाजवादी पार्टी को लाने का सपना संजोये समाजवादी। तीसरे स्तर पर धंधेबाजो की निगाहे नहीं है। इसलिये पुराने समाजवादियों के सामने मायावती को शह देने के हथियार तो है लेकिन उन हथियारों को समाजवादी पार्टी में कोई उठाने को तैयार नहीं है क्योकि धंधेबाजों ने अभी से यह एहसास करवाना शुरु कर दिया है नेताजी का दौर लौट रहा है।
लेकिन इस रोचक संघर्ष से इतर सचमुच की लोकतांत्रिक पहल में आम वोटर कैसे किस रुप में बेबस है, यह जिले दर जिले और विधानसभा सीट दर सीट उभर रहा है। गांवों में बड़े-बुजुर्ग को लगने लगा है कि मुस्लिमों की तर्ज पर ब्लाक या एकमुश्त वोटिंग के जरीये ही अब कोई सौदेबाजी नेताओं या पार्टियों से हो सकती है। युवाओं में टीस है कि जिला मुख्यलयो में दो महीने पहले तक वह जिस सियासत को अन्ना हजारे के आंदोलन के मंच से चिढा रहे थे । झटके में उन्हें उसी सियासी बिसात पर लोकतंत्र को जीना है। महिलाओं के सामने नेताओ की भ्रष्टाचार और महंगाई के सवाल का उठ पाने का दर्द है। लेकिन इस बेबसी के बीच भी पहली बार वोटरों का आक्रोश कई सवाल खडा कर रह है, जो आम लोगों के सवाल से जा जुड़ा है। हाथियों को चादर पहनाने के निर्देश ने पहली बार चुनाव आयोग को भी वोटरों की जुबान पर एक पार्टी बना दिया है।
लखनउ के युवाओ में आक्रोश है कि जब नेता या राजनीतिक दल कोई चुनावी लाभ देने की घोषणा करता है और अगर वह चुनाव जीतने के बाद पूरा नहीं करते तो उस पार्टी या उम्मीदवार के खिलाफ चारसौबीसी के तहत कार्रवाई क्यों नहीं की जाती। बुजुर्गो में आक्रोश है कि चुनाव आयोग ने जब समूची चुनाव प्रक्रिया को ही पैसे और तकनीक टिका दिया तो फिर वोटिंग भी सौ फीसदी कराने के लिये घऱ घर जाकर पोलिंग अधिकारी वोटिंग क्यो नहीं कराते। इसमें चाहे एक बरस लग जाये लेकिन तब पता तो चलेगा कि फेयर-एंड फ्री इलेक्शन हुआ है। तीसरे-चौथे वर्ग की नौकरीपेशी महिलाओं में आक्रोश है कि जिस चुनाव में बाहुबलियों और भ्रष्ट नेताओं का बोल बाला है वहां चुनाव आयोग के लिये सफल चुनाव का मतलब सिर्फ चुनाव कराना भर ही क्यों है। फिर ऐसे नुमाइन्दों के चुनाव के लिये अगर उन्हें पोलिंग अधिकारी नहीं बनना है तो उसके एवज में भी भ्रष्टाचार के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। लखनउ और इलाहबाद में तो एक हजार रुपये तय तक दिया गया है कि जो पोलिंग अधिकारी नहीं बनना चाहती है वह एक हजार रुपये दे दें। क्योंकि इसके एवज में घूस लेने वाले अधिकारी कागज पर दिखा देंगे कि इन महिलाओं का तीन साल से छोटा बच्चा है, इसलिये उन्हें पोलिंग अधिकारी ना बनाया जाये। यानी चुनाव में भ्रष्टाचार दूर करने के मुद्दे पर चुनाव कराने पर भी जब भ्रष्टाचार पूरे उफान पर है तो फिर लखनऊ के नवाब तो क्या समूचे यूपी में कौन यह कहकर मुस्कुराये कि चुनाव का मतलब लोकतंत्र है।
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Monday, January 23, 2012
नवाब की टोपी और गरीब की झोपड़ी से दूर है चुनावी लोकतंत्र
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:53 AM
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उत्तर प्रदेश चुनाव
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7 comments:
राजनीति ग्यान के जटिल समीकरण और उस पर आपका सरलता से समझाना काविले तारीफ है
क्या कहूँ मैं.......... आँखो मे भर पानी ,
कि चुनाव कि नदी मे राजनैतिक नाव के जातिवाद
की सीट पर बैठे वोटर करे भी तो क्या ............!
ये नाव जा रही है उस सगम कि ओर जहाँ पे विदेशी
और देशी कम्पनियो का मिलन होता है
और यहाँ से ही खत्म होती है देश की यमुना संस्कॄति
और शुरू होती है विदेशी माल कलचर स्भयाता ,
90 लाख की बन्दर बाट , के लिये
जरुरी है जाति वाद
क्योकि ये चसमा लग गया तो सब हरा ही हरा नजर आयेगा ,
साहब , इसको पहन के सब कोई गड्ढे मे जायेगा ,
मैरी गुजारिश है बचा लो .........बचा लो ............बचा लो ........
मेरे लिये नही सही पर अपने लिये या अपनो के लिये तो सही
बचा लो.... बचा लो........... बचा लो.....................
wikipedia pe (religions )धर्म ko dekhe kaise afrca puraa kaa puraa badala
aur kyo libiyaa tunisia aur mishr me huaa sanghrs un NAKASHO kaa mulayyankan kare.
jai ho guru ki......
hemu
editor
yuva jan sandesh
sri ganganagar (rajasthan)
jai ho guru ki......
hemu
editor
yuva jan sandesh
sri ganganagar (rajasthan)
लखनऊ के नवाब तो क्या समूचे यूपी में कौन यह कहकर मुस्कुराये कि चुनाव का मतलब लोकतंत्र है।
सही कहा आपनें
गणतंत्र दिवस कीहार्दिक शुभकामनायें
vikram7: कैसा,यह गणतंत्र हमारा.........
आज आपका Article पढने से ज्यादा मज़ा मुझे, Article को मिले comments पढने में आया क्युंकि एक comment की जगह "This comment has been removed by the author" लिखा हुआ आ रहा है! इस से यह साबित होता है की आप हमारे कमेंट्स पड़ते भी हैं ! मैं तो सोचता था कि आप खाली लिखते हैं और पड़ते सिर्फ हम ही हैं ! आज वाकई में बहुत ख़ुशी हो रही है ! मैं उस भले सजन को धन्यवाद देता हूँ जिसका कमेन्ट आपने डिलीट किया !
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