स्वाधीनता के 62 बरस बाद लोकतंत्र का सच
क्या गणतंत्र दिवस के मौके पर कोई यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बनना भारत के लिये सबसे महंगा सौदा हो गया। यकीनन किसी भी देश के लिये अपना संविधान होना और संविधान की लीक पर जनता को अपने नुमाइन्दों को चुनने का अधिकार मिलने से बड़ा लोकतंत्र कुछ होता नहीं । लेकिन देश चलाने के लिये देश बनाना भी पड़ता है और जब देश बनाने का रास्ता भ्रष्टाचार और कालेधन की जमीन पर संसदीय चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा गढ़ने लगे तो क्या हो सकता है। यकीनन जो संविधान में दर्ज होगा सिर्फ उनके शब्दों को महत्व दिया जायेगा, उसके अर्थ देश बनाने के रास्ते पर ले जाने कतई नहीं होंगे।
संयोग से देश जब 63 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तो पहली बार राजपथ पर चुनाव आयोग की झांकी भी निकली। जिसने इस बात का एहसास कराना चाहा कि लोकतंत्र का तमगा भारत ने अपनी छाती में यूं ही नहीं टांगा है बल्कि उसके पीछे देश के बहुसंख्य तबके की भागेदारी है। लेकिन क्या यह कल्पना भी की जा सकती है कि संविधान लागू होने का बाद जितना पैसा 1951-52 में पहला चुनाव कराने में लगा उससे कही ज्यादा पैसा आज यूपी चुनाव की एक विधानसभा सीट पर लग रहा है। और 13 मई 1952 को जब पहली बार संसद बैठी तो उसके सामने देश को मुश्किलों से निकालने का जो बजट था, वह साठ बरस बाद एक विधानसभा की योजनाओं से होने वाली कमाई से भी कम है। देश में पहला चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक चला। जिस पर कुल खर्च 10 करोड 45 लाख रुपये आया। और साठ बरस बाद यूपी चुनाव के आंकडे बताते हैं कि हर सीट पर औसतन पांच सौ करोड़ रुपये न्यूतम जरुर लग रहे हैं। यानी यूपी विधानसभा चुनाव में करीब दो लाख करोड़ रुपये स्वाहा होंगे।
ऐसा भी नहीं है कि संविधान के तहत बने चुनाव आयोग ने कोई तय राशि चुनाव को लेकर तय नहीं की है। बकायदा चुनाव आयोग के नियम 1961 की धारा 77 के तहत हर विधानसभा सीट पर 10 लाख रुपये तक कोई भी उम्मीदवार खर्च कर सकता है। और लोकसभा सीट पर 25 लाख रुपये। लेकिन सवाल है जब भ्रष्टाचार की गाढ़ी काली कमाई और मुनाफा बनाने की नीतियो के तहत कमाई में इतना धन हर किसी के पास हो, जिससे वह सत्ता में आने के बाद बकायदा सरकारी नीतियों के तहत लगाये गई पूंजी से कई गुना ज्यादा पूंजी बना ले तो फिर चुनाव आयोग क्या कर सकता है। क्योंकि दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के तमगे की कीमत कितनी ज्यादा है, इसका एहसास 1952 के बाद के 15 आम चुनाव से भी समझा जा सकता है। मसलन आर्थिक सुधार का रास्ता पकड़कर जैसे ही भारत के बाजार खुले वैसे ही लोकतंत्र की परिभाषा भी बाजार के हिसाब से रफ्तार पकड़ने लगी। और 1991 के आम चुनाव में 3 अरब 59 करोड 10 लाख 24 हजार 679 रुपये खर्च हुये। जबकि सत्ता में आने के बाद पीवी नरसिंह राव ने देश को घाटे का बजट देते हुये बिगड़े आर्थिक हालात पर अंगुली उठायी थी। संयोग देखिये 1991 में देश का बजट रखने वाले और कोई नहीं अभी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही थे जो उस वक्त वित्त मंत्री थे। और बजटीय भाषण में मनमोहन सिंह ने तब खुली बाजार अर्थनीति की खुली वकालत की थी।
देश का खजाना किताना खाली है इसका अहसास भी 1992-93 के बजट में कराया गया। आर्थिक सुधार की जिस रफ्तार को मनमोहन सिंह ने 1996 तक देश को पकवाया उसका असर देश के विकास में कितना हुआ यह तो आज भी हर कोई उस दौर को महसूस कर टिप्पणी कर सकता है। लेकिन 1998 के आम चुनाव में सत्ता के लिये लगी राजनीतिक दलों की पूंजी 1991 की तुलना में दिगुनी हो गयी। 1998 में छह अरब 66 करोड 22 लाख 16 हजार रुपये खर्च हुये। और 2004 के जिस चुनाव में भाजपा का चमकता हुआ भारत का नारा हारा और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने उस चुनाव मे खर्चा 13 अरब रुपये पार कर गया। जाहिर है यह वैसे आंकड़े है जो चुनाव आयोग देता रहा है। ऐसे में चुनाव आयोग ने इस वक्त भी पांच राज्यों के चुनाव के मद्देनजर जो आंकडे दिये हैं, वह एक अरब से नीचे का है। लेकिन चुनाव आयोग ने ही इसके संकेत भी दिये हैं कि चुनाव में करीब एक अरब कालेधन के तौर पर चुनाव में लगेगा भी। यानी स्वाधीनता के गीत साठ बरस की यात्रा के बाद ही चुनावी लोकतंत्र तले यह मानने लगे कि जितना पैसा चुनाव आयोग चुनाव कराने में खर्च करता है उससे ज्यादा कालाधन तो नेताओ के जरीये चुनाव मैदान में लग जाता है। लेकिन संयोग से इस बार तो सिर्फ यूपी में ही चुनावी लोकतंत्र पर चुनावी धनतंत्र इतनी हावी है कि हर विधानसभा सीट पर पांच सौ करोड़ कोई मायने नहीं रख रहा है। क्योंकि उत्तर प्रदेश में सत्ता का मतलब विकास की सैकड़ों योजनाओं के बंदर बांट की वह कीमत है जिसकी वसूली उस राजनीतिक दल को करनी है जो सत्ता में आ जाये । इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खनन परियोजना और पावर प्लाट से लेकर चकाचौंध शहरी करण के नये नये तरीकों के लिये जमीनों पर कब्जा करने के लिये सत्ता में होना जरुरी है। और जिन निजी कंपनियों से लेकर कारपोरेट सेक्टर या रियल इस्टेट की लाबी से लेकर शूगर मिल की वह लॉबी जिसकी नजर राज्य की योजनाओं पर है, उसने करीब सत्तर हजार करोड़ से ज्यादा पूंजी चुनाव में उम्मीदवारों के पीछे लगायी है।
दरअसल, लोकतंत्र के इस महापर्व से मुनाफा कमाने का रास्ता बेहद सीधा है। सत्ता में मायावती आये या मुलायम या फिर गठबंधन की सरकार बने। छह महीने के भीतर करीब नब्बे लाख करोड की योजनाओं को निजी हथेलियों पर रखना है। और यह सौदेबाजी सत्ता को भी तीस से चालीस फीसदी रकम दिलाती है तो इतनी ही रकम या इससे कहीं ज्यादा निजी हाथ कमा लेते है। खासकर रियल इस्टेट और पावर प्लांट को लेकर जितनी जमीन मायावती के दौर में बंटी उस पर खड़ी इमारत-माल-एसआईजेड का मोल ही लगाया जाये तो करीब पचास लाख करोड़ पार कर जाते हैं। जाहिर है ऐसे में वह धंधेबाज, जिनके हाथ मायावती के दैर में कुछ नहीं आया वह सत्ता परिवर्तन के लिये चुनाव में पैसा लगा रहे हैं तो जिनके वारे-न्यारे मायावती ने किये वह तबका इस डर से चुनाव में मायावती को जिताने के लिये पैसा लगा रहा है कि कही सत्ता बदली तो उसके मुनाफे पर सत्ता की नजर ना पड़ जाये ऐसे में यूपी के चुनाव मैदान में तीन सौ से ज्यादा वैसे उम्मीदवारों के पीछे भी 10 हजार करोड़ से ज्यादा लगा हुआ है, जो जीतेगें नहीं लेकिन जिनके खड़े होने से समीकरण पैसा लगाने वालो के हक में जा सकते हैं। यानी चुनाव मैदान में भाजपा और कांग्रेस के अलावा उन निर्दलीय बागियों के पीछे भी इस बार पैसा लगा है जो सीधी टक्कर में फच्चर फंसा सकते हैं।
जाहिर है इन हालातों के बीच स्वाधीनता दिवस का सवाल कोई कैसे उठाकर कह सकता है कि वोटर अपने नुमाइन्दों को चुनेगा। या फिर वोटर मुद्दों के आसरे नुमाइन्दों को वोट देगा। क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राज्य उत्तरप्रदेश की माली हालत इतनी बदतर है कि चुनाव के वक्त या चुनाव के बाद की सियासी सौदेबाजी में खोने के अलावा कोई विकल्प किसा के पास है नहीं। रोजगार दफ्तर में एक करोड़ युवा वोटरो के नाम दर्ज हैं। करीब डेढ़ करोड किसान गरीबी की रेखा से नीचे हैं। राज्य के बीस फीसदी वोटर मजदूर हैं, जिनकी रोजी रोटी चले कैसे इसके लिये कोई नीति कोई बजट सरकार के पास नहीं है। और सोढे बारह करोड वोटरो में से बीस लाख सरकारी कर्मचारी को निकाल दें तो महज पचास लाख मजबूत रोजगार ही पूरे उत्तर प्रदेश में है। इसलिये स्वाधीनता दिवस के मौके पर अगर लोकतंत्र के गीत गाने तो पहले सह समझ लेना होगा कि 2009 के आम चुनाव में भी 70 करोड के वोटर वाले देश में मजह 29 करोड़ लोगों ने ही वोट डाला। लेकिन चुनाव में सफेद काला मिलाकर 100 अरब रुपये से ज्यादा खर्च हो गये। यानी 62 बरस बाद सबसे ज्यादा पैसा कही आया है तो वह देश को दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र बनाये रखने वाले उस संसदीय चुनाव में जिसमे वोट डालने वाला अस्सी फीसद के दो जून की रोटी कोई मुद्दा नहीं है।
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Monday, January 30, 2012
सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे महंगा हो गया
Posted by Punya Prasun Bajpai at 3:25 PM
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लोकतंत्र का सच
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6 comments:
आप के आकडे आंख फैला रहे है, कोई रास्ता भी तो नही सुझता,सब यू ही चले ये ठीक नही , बेहतर होता की उम्मीदवार की योग्यता पर कडाई बरती जाऐ...
Convictions are so rarely seen these days. We may have high and noble ideas but when it comes to actually do some thing about them, few actually step forward. We see a great soul there and ask as Bachchan does in this moving poem, “Andheri raat main deepak jalaye kaun baitha hai ?
किसी ने मुर्तिया लगवायी ,
किसी ने जेबे कटवाय़ी ,
कोई खेल मे घोटाला था ,
तो कहीं घोटालो मे खेल था ,
सारे खेल , सारे घोटाले फिके हो गये ,
इस वार चुनाव मे कई सिलेन्डर* पीपे हो गये ,
क्यो रहता पीछे चमचे* वो भी थाल हो गये ,
जो नही खाते थे वो माला माल हो गये ॥
सिलेन्डर (लाल वत्ती )
स्वाधीनता दिवस के मौके पर अगर लोकतंत्र के गीत गाने तो पहले सह समझ लेना होगा कि 2009 के आम चुनाव में भी 70 करोड के वोटर वाले देश में मजह 29 करोड़ लोगों ने ही वोट डाला। aur yahi haqiqt hai hamre loktantr ki
thanx sir
aap yah lekh un logo ki aankhe kholne ke liye kaafi jo loktantr ki.....................
कुत्ता और आदर्शवाद
..............................
अगर खाली पेट
आदर्शवाद से भर जाता तो
भूखी सडांध मारती गलियों में
दंगे नहीं होते
आदर्शवाद से सिर्फ पेट भरता है
हमारे खाए पीये अघाए
नेताओं का
जो वक़्त पड़ने पर किसी गरीब की
चिता की आग में भी
आदर्शवाद की खिचड़ी
पका सकते है
आदर्शवाद कुछ नहीं होता
होती है सिर्फ भूख
दो कुत्तो को या भूखो को
रोटी के लिए लड़ते देख
आदर्शवाद की बात सोचना
महापाप है
उनके लिए तो सिर्फ एक ही
आदर्श है कि
कैसे
बीच में पड़ा रोटी का वो
टुकड़ा
हाथ में आये
हेमू सिंह
श्री गंगानगर राजस्थान
लोकतंत्र की झांकी ........!! मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की ! प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की, जय बोलो बेईमान की ! महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेल
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार .किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोलो बेईमान की ! दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डाल -डाल सरकार है, पात-पात कर चोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की, जय बोलो बेईमान की ! चैक कैश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की ! वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छह सौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की, जय बोलो बईमान की ! खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की ! बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की, जय बोलो बईमान की ! मिल-मालिक से मिल गए नेता नमक हलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की ! न्याय और अन्याय का, नोट करो डीफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती बोल रही बलवान की, जय बोलो बईमान की ! पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की ! नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की, जय बोलो बईमान की !
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