Monday, February 27, 2012

बंदूक के साथ कलम थामे हाथ : "स्क्रिप्टिंग द चेंज"

जब वामपंथी धारा बैचारिक तौर पर कमजोर लग रही हो,जब राइट की समूची सोच सत्ता को ही वैचारिक आधार मान रही है। जब अतिवाम का संघर्ष भी हिंसा की कहानी से आगे ना बढ़ पा रहा हो तब क्या कोई लेखन एक नयी धारा और वैचारिक सोच को धार दे सकती है। खास तौर से तीस बरस तक माओ की थ्योरी, सत्ता बंदूक की नली से निकलती है वाली धारा के साथ जुड़े रहे और मौत के बाद जो लेखन सामने आये वह राज्य सत्ता के लोकतंत्र को तानाशाही वाले चेहरे में देखे और बंदूक से इतर सामाजिक-आर्थिक कैनवास में देश को संजोकर एक बेहतर समाज की कल्पना। यह सब रोमानी लग सकता है लेकिन आर्थिक सुधार तले सरोकार की राजनीति को हाशिये पर ढकेल जब आम आदमी की रोटी से लेकर कॉरपोरेट के पांच सितारा जीवन को सत्ता विकास के अक्स से जोड़ने लगे तब यह रोमानीपन भी एक नयी विचारधारा हो सकती है। क्या इससे इंकार किया जा सकता है।

दरअसल यह तो आज के दौर में सत्ता अपने आप में सबसे बडी विचारधारा मान ली गई है। ऐसे वक्त में सुधार के सवाल ही विकल्प मान लिये जाते हैं। ऐसे वक्त में नक्सलवादी अनुराधा गांधी के लेखन राजनीतिक सत्ता के अर्थशास्त्र को चुनौती देती है और हर उस मुद्दे पर सवाल-जवाब करते हुये सत्ता को कटघरे में खड़ा करती है, जिन मुद्दों को सियासत अपने रंग में रंग कर देश के इतिहास को ही आर्थिक सुधार तले बेमानी करार दे रही हो, तो संकेत साफ है कि बदलाव की धारा देश में अब भी बची हुई है। खासकर जाति,आरक्षण, दलित, आदिवासी और मजदूरों से जुड़े उत्पादन का सवाल। देश की समूची राजनीति या कहे हर राजनीतिक दल की जमीन ही जब इन्हीं मुद्दों के आसरे अपनी सियासत को चमकाने में लगी हो ऐसे दौर में कोई किताब अगर जातीय व्यवस्था के पीछे की राजनीति पर एतिहासिक तथ्यों के आधार पर सवाल खड़ा करें। आरक्षण के पीछे राजनीतिक लाभ पर समाज को टिका कर संघर्ष कुंद किये जाने के तथ्यो को रखें। दलितों के सवाल को ज्योति बा फूले से लेकर आंबेडकर और ई वी रामास्वामी यानी पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन से लेकर कांशीराम के सियासी दलित सम्मान के आंदोलन में दलितों के निजपन को टटोलें। आदिवासियों को जंगल की तर्ज पर खत्म करने के ब्रिटिश व्यवस्था से लेकर मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार के दौर का विश्लेषण राजनीतिक संघर्ष को उकसाये। और इन सब के बीच मजदूर शब्द को ही खत्म कर बीपीएल और मनरेगा सरीखे योजनाओ में समेटने का प्रयास हो।

तो जाहिर है यह आहट विकल्प से ज्यादा परिवर्तन की है। असल में जो लिखा जा रहा है, जो पढ़ाया जा रहा है उससे हटकर एतिहासिक परिपेक्ष्य में देश के इन मुद्दो को समझने और समझाने पर तर्क करती किताब "स्क्रिप्टिंग द चेंज" है। अनुराधा गांधी के लिखे हुये पन्नों को समेटकर इसे किताब की शक्ल में लाने का काम मुंबई के मानवाधिकार कार्यकर्ता आनद तेलतुंबडे और नागपुर यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर शोमा सेन ने किया है ।

सत्तर,अस्सी,नब्बे के दशक में मुबंई के एलफिस्टोन कॉलेज से लेकर विदर्भ, बस्तर और झारखंड के जंगल तक के सफर के दौरान कलम और बंदूक साथ साथ उठाये देश को समझने और समझाने की ही जद्दोजहद करती अनुराधा गांधी की "स्क्रिप्टिंग द चेंज" लेखन और आंदोलन को लेकर नयी परिभाषा गढ़ती है। करीब 4 बरस पहले झारखंड के जंगलों में जानलेवा मलेरिया होने के बाद मुंबई के अस्पताल में मौत के बाद अनुराधा गांधी को लेकर माओवादी-नक्सलवादियों से लेकर सरकार के सामने यही तथ्य उभरे कि अनुराधा गांधी सीपीआई एमएल पीपुल्स वार में सेन्ट्रल कमेटी की पहली महिला सदस्य थी। महाराष्ट्र में सीपीआई एमएल को स्थापित करने वाले सदस्यो में से थी। और विदर्भ से लेकर बस्तर तक के जंगलों में आदिवासी महिलाओ और शहरी कामगारों के बीच काम करने से पहले मुंबई के आधुनिक एलफिस्टोन कालेज में दुनिया के हर मुद्दे पर चर्चा करते वक्त परिवर्तन की धारा की वकालत करने वाली लड़की थी। संयोग से "स्क्रिप्टिंग द चेंज" ऐसे वक्त सामने आयी है जब सीपीआई एमएल पीपुल्स वार का कमोवेश साठ फीसदी नेतृत्व या तो एनकाउंटर में मारा जा चुका है या फिर जेल में है। और विचारधारा या वैचारिक तौर पर देश की व्यवस्था में कोई प्रभाव डालने की स्थिति में भी आंदोलन नहीं है। साथ ही कोई राजनीतिक दल भी सत्ता के चुनावी तंत्र से इतर संसदीय राजनीति को जीने की स्थिति में भी नहीं है। और देश की मुनाफा केन्द्रित अर्थव्यवस्था से इतर कोई राजनीतिक व्यवस्था भी देश में मायने नहीं रख पा रही है। ऐसे में "स्क्रिप्टिंग द चेंज" पहला सवाल जातिय व्यवस्था की राजनीति पर करती है।

कैसे सामाजिक सुधार राष्ट्रवाद और वाम आंदोलन के दायरे में चला। कैसे जाति-विरोधी संघर्ष वर्ग-संघर्ष का हिस्सा बना और कैसे वर्ग संघर्ष जातीय हिंसा तले राजनीतिक जातीय व्यवस्था को मजबूत करते चला गया । इसी तरह आरक्षण भी कैसे सुधार नीति है जो राहत तो देती है लेकिन स्वतंत्रता नहीं। और किस तरह दलितों के हक को सफेदपोश नौकरी पाने की ललक में खत्म कर देती है। साथ ही मध्यम वर्ग से टकराव पैदा कर आरक्षण को राजनातिक मसाला बना दिया गया। और इससे सत्ताधारियों के खिलाफ कैसे वह आंदोलन सत्ता के ही औजार बन गये जिसे सत्ता के खिलाफ बाबा साहेब आंबेडकर खड़ा करना चाहते थे। दरअसल "स्क्रिप्टिंग द चेंज" की सबसे बडी महत्ता अतिवाम आंदोलन के सामानांतर वह लेखन है जो आंदोलन की कमजोरी के साथ साथ हर मुद्दे को एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने को बाध्य करता है। यानी लोगों के बीच उन्ही के सवालों को लेकर संघर्ष करता कोई एक्टीविस्ट आंदोलन की सीमाओं से बाहर जा कर जिन रास्तों से परिवर्तन हो सकता है उसे पन्नों पर उकेरता भी है और उन रास्तो पर आंदोलन क्यों नहीं चल पा रहा है इसे महसूस भी करता है , ऐसे में लेखन किस तरह दस्तावेज की तरह बंद कमरे से बाहर संघर्ष को शब्द देते है यह "स्क्रिप्टिंग द चेंज" को पढ़ते वक्त बखूबी महसूस किया जा सकता है। चूंकि "स्क्रिप्टिंग द चेंज" में नक्सलवादी पत्रिकाओं के अलावे इक्नामिक एंड पालिटिकल वीकली और फ्रंटियर में छपे लेखों का संग्रह तो है ही इसके अलावे अनुराधा गांधी के उन लेखों को भी शोमा सेन ने सहेजा है जो नागपुर में अनुराधा गांधी की किताबों के ढेर और कागजों में हाथ से लिखे लेख और कही ना छपे कटे-फटे जेरोक्स लेखों का कॉपी है। इसमें नक्सली संगठन पीपुल्स वार यानी उच्च-मध्यम तबके के परिवार से निकली अनुराधा गांधी के जहन में आंदोलन करते करते बंदूक थामना और संसदीय लोकतंत्र की दुहाई देते हुये राजनीतिक सत्ता की तानाशाही पर मोहताज समाज में स्वतंत्र अभिव्यक्ति तक पर बंदिश के सवालों में उत्पादन से जुडे मजदूर को खत्म करने की सोच कैसे चल रही है।

यह बेहद महीन तरीके से इससे पहले कहीं ना छपे लेखों में है। यानी जहां बंदूक चुक रही है या फिर बंदूक क्यों मजबूरी बना दी गई है और इन परिस्थितियो में कोई एक्टीविस्ट क्यों सोच रहा है जो बंधूक की बंदिशे लागू नहीं करा पाती और राज्य बंधूक को ही मुद्दा बनाकर असल मुद्दे से परिस्थितियों को अलग कर देता है । खासकर महिलाओं के संघर्ष के सवालो से लेकर ट्रेड यूनियन चलाने के दौरान कैसे ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत संरचना के लिये टाप कारपोरेट घरानों के उघोग-धंधो के बीच रहते हुये जूझना पड़ता है, यह नागपुर के नजदीक खापडखेडा से लेकर महाराष्ट्र की सीमा पर चन्द्रपुर-गढचिरोली तक के संघर्ष के दौरान के लेखन से समझा जा सकता है । असल में "स्क्रिप्टिंग द चेंज" बंदूक के मुकाबले कलम की ताकत का एहसास भी कराती है और जब विकल्प के सवाल गौण हो चुके हो तब परिवर्तन का माद्दा पाले कोई किताब वैचारिक तौर पर दूर एक टिमटिमाती रोशनी की तरह चमके तो कुछ तो बात होगी । यूं किताब की प्रस्तावना लिखते वक्त अरुणधंति राय भी मानती है कि उन्हे मलाल रहा गया कि उनकी मुलाकात अनुराधा गांधी से क्यों नहीं हुई ।

3 comments:

Arun sathi said...

बहुत सार्थक जानकारी दी सरजी आपने, वैसे जिन मुददों को जी कर लिखा जाता है उसमें प्राण तो होगा ही।

सतीश कुमार चौहान said...

मजदूर शब्द को ही खत्म कर बीपीएल और मनरेगा सरीखे योजनाओ में समेटने का प्रयास हो। यह तर्क कुछ हजम नही हुआ...

Dr. A Ram Pandey said...

do gandhi, Shayad hi kisi ek baat par rai milti ho, Sivay kalam ki takat ki.