Tuesday, March 13, 2012

राष्ट्रपति का अभिभाषण और मायके का सच

देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 1952 में सिर पर मैला ढोने वालों का जिक्र कर इसे भारतीय सामाजिक-सासंकृतिक परंपराओं की गुलामी करार दिया था और कहा था कि पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इसे पूरी तरह समाप्त करने का बीड़ा देश को उठाना होगा। लेकिन त्रासदी देखिये राजेन्द्र बाबू के अभिभाषण के साठ बरस बाद भी न तो मैला ढोने वाले खत्म हुये और न ही राष्ट्रपति के भाषण में कोई परिवर्तन आया। जिस गुलामी को खत्म करने का जिक्र देश की पहली लोकसभा के सामने पहली पंचवर्षीय योजना के सामने चुनौती के रुप में राजेन्द्र बाबू ने रखा। उस गुलामी का जिक्र साठ बरस बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 15 वीं लोकसभा के बजट सत्र की शुरुआत के अपने अभिभाषण में 12 वीं पंचवर्षीय योजना को समवेशी विकास के साथ किया।

साठ बरस पहले इस काम को खत्म करने का सवाल था और साठ बरस बाद सिर पर मैला ढोने वालो को राहत और सुविधा देने की बात है। यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि परंपराओं के आसरे देश का लोकतंत्र मजबूत होते देखने की परंपरा ही वोटरों की बढ़ती तादाद के दायरे में सिमटा दी गयी। और यह परंपरा कैसे गुलाम हो रही है यह भी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संसद में आखिरी संबोधन में ही झलका। 70 मिनट के संबोधन में मनमोहन सरकार के 36 मंत्रालयों की उपलब्धियों की दो-दो लाइनों से लेकर दो दो पेज तक को ही राष्ट्रपति ने यह जानते-समझते हुये पढ़ा कि उनकी सरकार का कद जनादेश के तौर पर इतना छोटा हो चुका है कि अपनी मर्जी के शख्स तक को वह अगला राष्ट्रपति नहीं बनवा सकतीं।

राष्ट्रपति के अभिभाषण की ऐसी परंपरा तले जब बजट सत्र राजनीतिक तौर पर मंगलवार [13 मार्च] से खुलेगा तो फिर जिन मुद्दो को सफलता के साथ राष्ट्रपति ने रखा है उसकी धज्जियां जब तथ्यों के आसरे उड़ेगी तो उसे लोकतंत्र का हिस्सा माना जायेगा या झूठ का अभिभाषण। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि भ्रष्टाचार,कालाधन, आंतरिक सुरक्षा, और ई-गवर्नेंस से इतर शिक्षा, स्वास्थ्य , खेती और हर पेट के लिये अनाज के सवाल को समाधान की लीक पर लाने की जो सोच राष्ट्रपति के अभिभाषण में उभरी उसके हर पायदान पर इतना बड़ा छेद है कि उसको समेटे हर राजनेता और कारपोरेट अपने आप में शहंशाह हैं। क्या बजट सत्र शुर होते ही इंतजार रेल बजट और आर्थिक सुधार की पटरी पर दौड़ते आम बजट का ही होगा जो अगले 100 घंटों में देश के सामने होगा। या फिर संसद के भीतर कोई यह सवाल भी उठायेगा कि देश के आमलोगों की न्यूनतम जरुरतों को ही जब चंद हथेलियो में सिमटा दिया गया है तो फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती और मुफ्त अनाज देने का सब्जबाग संसद की मर्यादा को ताक पर रखकर क्यों दिखाया जा रहा है। ऐसी कौन सी परंपरा राष्ट्पति को सच के सामने आंख मूंद कर भाषण देने को मजबूर करती है, जबकि उनके अपने मायके में सबसे बदतर हालात हैं। ऱाष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के मायके जाने के लिये नागपुर हवाई अड्डे पर उतरना ही पड़ेगा। और आंखे खुली हों तो उतरते जहाज की खिड़की से ही हवाई अड्डे के उस विस्तार को देखा जा सकता है जिसके दायरे में गांव, घर, खेती सबकुछ आ जाता है। और हवाई अड्डे से बाहर कदम रखते ही महज 500 मीटर के बाद नियान रोशनी से नहाये मिहान[ मल्टीमाडल इंटरनेशनल कारगो हेडलिंग] नाम की वह परियोजना बोर्ड पर लिखी नजर आती है, जिसके दायरे में अंतराष्ट्रीय कारगो से लेकर अत्याधुनिक टाउनशीप और आधुनिक बाजार का वह चेहरा है जो आर्थिक सुधार का अनूठी खिड़की है। लेकिन नजरों में अगर चकाचौंध तले अंधेरे को देखने की हिम्मत हो तो फिर नागपुर हवाई अड्डे से पांच सौ मीटर दूर जाने की भी भी जरुरत नहीं है। हवाई अड्डे की दीवार पार करते ही शिवणगांव के रास्ते पर टंगे ब्लैक बोर्ड को देखा जा सकता है। इस पर लिखा है, "वेलकम टू मिहान, शेतकरयांचे श्मशान'" यानी [ मिहान में स्वागत, किसानों का श्मशान]। और संयोग से नागपुर से राष्ट्रपति के मायके अमरावती जाते वक्त अगर हाई-वे छोड़ गांवों की पगडंडी पकड़ें तो शिवण गांव, चिंचभुवन गांव, तेलहरा गांव , दहेगांव, कुलकुही गांव समेत दर्जनों गांव ऐसे पड़ते हैं, जिनकी करीब तीन हजार हेक्टेयर जमीन मिहान परियोजना तले ले ली गई है। और 50 हजार से ज्यादा किसान परिवार खेती-मजदूरी से भी गये और दो जून की रोटी के लाले सभी के सामने है। क्योंकि बीते दस बरस के खेती जमीन के हड़प के दौर में अब किसी परिवार के पास ना तो मुआवजे का एक रुपया बचा है और ना ही दो जून की रोटी जुगाड़ करने का काम।

सवाल यह भी नहीं है कि राष्ट्रपति ने सबको-शिक्षा की जो दुहाई अपने अभिभाषण में दी उसका असल चेहरा उन्हे अपने मयके विदर्भ में दिखायी ना देता हो। शिक्षा को लेकर सरकार का बजट 55 हजार करोड़ का हो। लेकिन विदर्भ का सच यह है कि यहा आज भी प्राथमिक शिक्षा का मतलब मिड-डे मील है। और उच्च शिक्षा का मतलब नेताओं के प्राईवेट स्कूल कॉलेज। 27 नेताओं के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेज यहां पर है। करीब 42 नेताओं के स्कूल विदर्भ में हैं। यह स्कूल कॉलेज हर राजनीतिक दल से जुडे नेता-मंत्री के हैं। जिनके जरीये औसतन मुनाफा हर बरस करीब 500 करोड़ का है। यानी शिक्षा कितना बडा धंधा है, यह राष्ट्रपति के मायके में घड़ल्ले से चलता भी है और घड़ल्ले से देखा भी जा सकता है। अभिभाषण ने संकेत दे दिये कि अब सरकार का मिशन स्वास्थ्य सेक्टर को लेकर है, जो एनएचआरएम यानी ग्रामीण क्षेत्र के बाद शहरों में जोर पकड़ेगा। और यह बजट में नजर भी आयेगा। लेकिन अगर राष्ट्रपति के मायके में झांक कर अस्पतालों और इलाज का हाल देख लें तो समझा जा सकता है कि देश में इलाज होता किसका है। विदर्भ के नौ जिलों में कुल 191 सरकारी अस्पताल है जो पेड़ के नीचे से लेकर झोपड़ी तक में चलते हैं। जबकि पूरे विदर्भ में 1095 निजी अस्पताल हैं। जहां इलाज के लिये जेब में कम से कम 500 रुपये जरुर होने चाहिये। जबकि 70 फिसदी लोगो की महीने भर की आय पांच सौ रुपये नहीं है। यहा सरकारी अस्पताल का मतलब है नब्ज पकड कर घरेलू दवाई का सुझाव देना या फिर बचे 16 जिला अस्पताओं में इलाज के लिये भेजना। राष्ट्रपति की आंख में संसदीय मर्यादा कैसे पट्टी बांध देती है, यह अभिभाषण में मुफ्त अनाज बांटने की सरकार की सोच या आर्थिक पैकेज के जरीये पेट और पीठ एक किये लोगो की राहत देने के एलान के दायरे में विदर्भ के सच से भी समझा जा सकता है। क्योंकि प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने के बाद जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ गये तो 22 हजार करोड़ के पैकेज का ऐलान कर चले आये। लेकिन 2007 के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल करीब दो दर्जन बार अपने मायके गई और नागपुर हवाई अड्डे से लेकर अमरावती में घर तक में हजारों कागज राष्ट्रपति के हाथ तक पहुंचे, जिसमें सिर्फ इतना ही दर्ज था कि प्रधानमंत्री जो कहकर गये वह नहीं मिला। पैकेज का पैसा तो दूर मवेशियों तक को गिरवी रखना पड़ रहा है जिससे पैकेज का पैसा पाया जा सके। बैंक के कर्मचारी और सरकारी अधिकारी बिना घूस या कमीशन प्रधानमंत्री के पैकेज का एक पैसा भी नहीं देते। सरकारी खाद, बीज भी नहीं मिलता। इस बार तो पानी भी नहीं हुआ। कपास की खेती खत्म हो चुकी है। किसानों का कहना है कि जमीन हड़पने वालों के चंगुल से हमें बचायें। हम पीढियो का पेट भरती आई जमीन किसी को नहीं देना चाहते है। किसी तरह बेटे -बहु को कोई काम मिल जाये। और फलां तारीख को खुदकुशी करेंगे। यह सारे वक्तव्य उन दस्तावेजों का सच है, जो गाहे-बगाहे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के पास विदर्भ के लोगों ने पहुंचाये। कभी अकेले। करीब समुदाय में। लेकिन इस सच पर कृषि मंत्रालय के कागजी दस्तावेज या सरकार की नीतियों का फरेब कैसे भारी पड़ जाता है, यह भी राष्ट्रपति के अभिभाषण ने झलका दिया। जिसमें ऐसा कोई लफ्ज संसद में
राष्ट्रपति ने नहीं बोला जिसके अक्स में आम आदमी यह महसूस करता कि उसके दर्द उसकी त्रासदी या फिर उसके जीने के सच के साथ कोई सरोकार-संवाद भी संसद कर पा रही है। ऐसे में यह सवाल कितना बड़ा या कितना छोटा है कि पांच राज्यों के जनादेश तले संसद के बजट सत्र से क्या निकलेगा। और सरकार अब तो आर्थिक सुधार की उड़ान छोड जनता की नब्ज को पकड़ेगी। जबकि राष्ट्रपति को यह गर्व है कि सरकार का हर मंत्रालय देश के विकास में लगा हुआ है।

दरअसल, सरकार और आम आदमी के बीच की खाई कितनी बड़ी है यह कपास के निर्यात पर से प्रतिबंध उठान से लेकर खनिज संस्थानों के खनन को निजी हाथों में सौंपने के खेल से भी समझा जा सकता है। संयोग से राष्ट्रपति के पास आखिरी पर्चा विदर्भ के किसानों ने यह कहकर पहुंचाया था कि कपास उगाने के बाद उन्हें आधी कीमत भी नहीं मिलती और अब निर्यात के लिये रास्ता खुला है तो कीमत एक चौथाई भी नहीं मिलेगी क्योंकि सरकार की नीति से किसानों का नहीं उन निर्यातकों को फायदा होगा, जिनकी अंटी में रुपया भरा पड़ा है। वहीं खनन को निजी हाथों में सौंपने पर चन्द्रपुर के खनन मजदूरों ने गुहार लगायी थी कि उन्हें मनरेगा से भी कम मजदूरी मिलती है। सिर्फ 45 से 85 रपये रोज। और उसपर सरकार कोई न्यूनतम नियम बना दें तो उन्हें राहत मिले। संयोग से यह अर्जी भी राष्ट्रपति को ही चन्द्रपुर के मजदूरों ने यह सोच कर सौपी की राष्ट्रपति तो सरकार या नेताओ से ऊपर है। लेकिन अभिभाषण ने जतला दिया कि देश में नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह के काल तक या फिर पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर 12 वी पंचवर्षीय योजना तक के दौर में सवाल वही अनसुलझे हैं, जिसे साठ बरस पहले ही सुलझाना था। अंतर सिर्फ इतना ही है कि 1952 में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद चुनी हुई सरकार को सुझाव भी देते थे लेकिन 2012 में राष्ट्रपति चुनी हुई सरकार के गीत ही गाते हैं।

3 comments:

रोहित बिष्ट said...

मुद्दे से सहमत,पर 'राष्ट्रपति का मायका' शब्द पर आपत्ति,कुछ लेंगिक भेदभाव की बू आयी।संवेधानिक पदों पर आसीन लोगों का समग्र राष्ट्र से अतिरिक्त जुडाव होता है।विगत ६० वर्षों में बहुत से प्रश्नों और समाधानों का गवाह रहा है लोकतंत्र ।उम्मीद बनाये रखना सर्वोत्तम विकल्प है।

Shanti Garg said...

बहुत ही बेहतरीन रचना....

मेरे ब्लॉग
पर आपका हार्दिक स्वागत है।

सतीश कुमार चौहान said...

बहुत सी बाते हैं पर किस किस जगह कैसे याद दिलाऐ ..... पर ये भी याद रखना होगा कि इस पद की अपनी गरिमा बनाऐ रखना सबका दायित्‍व हैं