Thursday, March 29, 2012

बबुआ कह जगाने वाला खुद ही सो गया


प्रसून जी गुड मॉर्निंग..लोकमत समाचार में आज छपा विश्लेषण "गडकरी का बीजेपी खेल" अच्छा है , पर सवाल यह है कि बीजेपी ही कोई पहली बार"कांग्रेस की लीक"पर नहीं चल रही, कांग्रेस भी यही करती रही है। बाबरी मस्जिद के समय नरसिंह राव ने जो किया वह भाजपई कदम ही था और मुसलमानों के सामने इस "एतिहासिक चूक" को धोने की कोशिश कांग्रेस लगातार कर रही है। एक "सांपनाथ" तो दूसरा "नागनाथ" हमेशा रहे हैं। बीजेपी को हमेशा व्यापारियों की पार्टी कहा जाता है। आपने संचेती, अंशुमान जैसे उघोगपतियों ने नाम तो गिनाये लेकिन पूर्ती उद्योग समूह के मालिक गडकरी कैसे कम हैं। और यह वैश्वविक पूंजी है जो संघ और कांग्रेस दोनों की राजनीति तय करेगी।

महज 4 दिन पहले 22 मार्च की सुबह सुबह यह पहला एसएमएस जगदीश शाहू का था। जिसे पढ़कर जाना कि लोकमत समाचार ने मेरा आलेख छपा है और हमेशा की तरह शाहू जी के भीतर कुलबुलाहट बात करने को मचल रही है। जाहिर है उठते ही फोन किया और उधर से चिरपरिचित अंदाज में शाहू जी बोल पड़े, सो रहे थे बबुआ। मेरे लिखे-कहे शब्दों को लेकर शाहू जी के भीतर की कुलबुलाहट और मुझे सोने से जगाने की बबुआ कह कर उठाने की फितरत कोई आज की नहीं है। करीब 22 बरस पहले 1989-90 के दौर में भी अक्सर नागपुर के विवेकानंद सोसायटी के मेरे कमरे में सुबह सुबह शाहू जी दस्तक देकर पूछते-सो रहे हो बबुआ। काली चाय नहीं पिलाओगे। दिल्ली में जेएनयू छोड़ नागपुर में काली चाय से लेकर जाम और खबरों को कांटने-छापने की संपादकीय मजबूरी को लेकर मेरे हर आक्रोश को बहस में बदल देने वाले शाहू जी के भीतर कमाल का ठहराव था। इस ठहराव को 22 बरस पहले महसूस इसलिये नहीं कर सकता था क्योंकि मैं भी उस वक्त को जी रहा था। चाहे दलित संघर्ष हो या नक्सलियों की विदर्भ में आहट या फिर आरएसएस के हिन्दुत्व की प्रयोगशाला और नागपुर से चार सौ किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश {अब छत्तीसगढ} के दल्ली राजहरा में शंकरगुहा नियो का संघर्ष। मैं रोजमर्रा की खबरों से इतर विकल्प की तरह खुद को पेश करती खबरों को पकड़ना चाहता और शाहू जी सरलता से विकल्प शब्द पर ही यह कहकर बहस छेड़ देते कि इन्हें विकल्प कहने से पहले इनके दायरे में घुस कर इन्हें समझना चाहिये। और शाहू जी की वह सरलता मेरे लिये एक चैलेंज बन जाती। क्योंकि खबरों के बीच घुसकर पत्रकार एक्टिविस्ट हुये बगैर भी पत्रकार रह सकता है और खबर निचोड़ सकता है, यह मुझे बार बार लगता और शाहू जी इसे ही नहीं मानते।
दलित के भीतर आक्रोश को समझने के लिये दलित रंगभूमि चलाते संजय जीवने से जुड़ा। उसे खंगाला। जनसत्ता में एक बड़ा लेख लिखा । 6 दिसबंर 1992 की आहट में संघ मुख्यालय का चक्कर लगाते हुये सरसंघचालक देवरस से कई बार बातचीत की। उसे जनसत्ता ने छापा। नक्सलियों की विदर्भ में आहट को सामाजिक संदर्भ में देखते देखते चन्द्रपुर-गढ़चिरोली के जंगलों से लेकर नागपुर में आईजी रैंक के पहले नक्सलविरोधी कैंप में पहले आईजी कृष्णन के साथ लंबी बहस की। और दिल्ली से निकलते संडे आब्जर्वर, संडे मेल और जनसत्ता में लेख लिखकर खामोश हो गया।

लेकिन जिस दिन शंकर गुहा नियोगी की हत्या हुई और एक पूरा पेज लोकमत समाचार में मैंने खुद लिखकर निकाला, उस सुबह शाहू जी ने बिना दस्तक दिये ही मुझे सोये हुये ही गले से लगाकर बोले-"कमाल है। बबुआ कमाल का लिखा है। लगता ही नहीं है कि नागपुर का अखबार है। मै आज ही विजय बाबू से बात करता हूं कि जो आप दिल्ली-मुबंई के अखबारों में लिखते है, उसे लोकमत समाचार में क्यों नहीं छापा जा सकता।"

अरे-अरे आप ऐसा ना करिये। मेरी रईसी तो रहने दीजिये। दिल्ली से जो पैसा आता है वह बंद हो गया तो फिर "प्रिंस {हमारा प्रिय बार प्रिंस }"कौन जायेगा । तो शर्त है बबुआ सोइए नहीं। यह भी मत सोचिये कि एक बार विषय को जान-समझ कर लिख दिया बस काम खत्म। लिखने का वोमिट करना छोड़िये। आपको जूझना होगा खबरों के लिये नही बल्कि विकल्प नजर आने वाली खबरों को खबर बनाने के लिये। आज ही मैं पत्नी से आपके लिये हरी मिर्च का डिब्बे भर आचार बनवाता हूं।

सादी ब्रेड में हरी मिर्च के आचार को रख खाकर जीने का सुकून मेरे भीतर कितना है और इसके जरीये मैं खबरों को टोटलने निकल सकता हूं। यह शाहू जी को बखूबी पता था कि खाने की जद्दजहोद अगर आसान हो जाये तो मेरी लिये 24 घंटे सिर्फ पत्रकारिता के हैं। और शाहू जी टीस थी कि बच्चों के बड़े होने से पहले अगर झोपड़ीनुमा कच्चा मकान पक्का हो जाये तो जिन्दगी पत्रकारिता और लेखन के जरीये कैसे भी काटी जा सकती है। ट्रैक्टर भर ईंट और बालू की कीमत क्या है । नल और पाइप की कीमत क्या है। मजदूर रोज की दिहाड़ी कितनी लेते हैं। सबकुछ 1990-93 के बीच मैं जानता रहा और शाहू जी का घर पक्का होना शुरु हुआ । एक दिन सुबह सुबह हरी मिर्च का डिब्बे भर आचार लेकर पहुंचे और बड़े गर्व से बोले आज बबुआ नहीं...प्रसून जी घर का एक कमरा पक्का हो गया और बाकी के हिस्से में ढलाई का काम शुरु हो गया। अब बरसात में भीगेंगे नहीं । और तुरंत पूछ बैठे आपका मेधा पाटकर के आंदोलन को लेकर क्या सोचना है। यह रास्ता ठीक है या फिर अनुराधा गांधी का। शाहूजी मेधा पाटकर और अनुराधा को क्यों मिला रहे हैं। इसलिये क्योंकि एक का रास्ता घर छोड़ कर हथियार के जरीये संघर्ष का है तो दूसरा लोगों के बी उनके घरों को बचाने का प्रयास है।

शाहू जी आप घर का मसला छोड़िये और यह देखिये कि दोनों ही संघर्ष सरकार से कर रही हैं, जिसका पहला काम आम लोगों का घर ना उजड़ने देने का भी है और हक दिलाना भी है। तो आप बतायेंगे नहीं। इसमें बताने जैसा कुछ नहीं है, यह वैसा ही है कि जैसे विनोद जी आपका लिखा छाप देते है और मेरे लिखे को रोक देते हैं। जबकि मैंने तो अमरावती में कुपोषण से मरे बच्चों की पूरी सूची ही दे दी थी। अरे बबुआ अपनी पत्रकारिता में संपादक को क्यों देखते हैं, यह बताइये ढाई सौ रुपये हैं। आज गिट्टी गिरवानी है। अरे शाहू जी हो जायेगा। रात में दे देंगे। कमोवेश हर रात और हर दिन साइकिल से नागपुर को मापते शाहूजी। कभी आंदोलनों को लेकर छटपटाहट तो कभी अनुवाद से लेकर कोई भी लेखन की खोज, जिससे चंद रुपयों का जुगाड़ हो सके। और कभी सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग करने की धुन। और इसी धुन के बीच बीते 22 बरस से जवाहललालजी दर्डा से लेकर विजय दर्डा और एस एन विनोद से लेकर अच्युतानंदन होते हुये गिरीष जी के जरीये लोकमत समाचार की यादों के आसरे कैसे जीने की आदत शाहू जी ने मेरी भी बना दी, इसको देखने समझने के लिये हम दोनों ने 24 अप्रैल 2012 की तारीख तय की थी। इस दिन शाहू जी के सबसे छोटे बेटे कुंदन की शादी रामटेक में होनी तय हुई। शाहू जी ने कहा विजय बाबू से लेकर हर किसी को इस शादी का न्यौता दे रहे हैं। जो हमारे नागपुर में अतीत के साझे ऑक्सीजन रहे हैं। लेकिन जिन्दगी की त्रासदी देखिये जो 22 बरस से बबुआ सो रहे हो कहकर जगाता रहा, उसके ही लाडले ने 27 मार्च को सुबह सुबह फोन पर कहा कि पिताजी नहीं रहे।

14 comments:

prashant said...

जीवंत सच निसंदेह अदभुत श्रधांजलि

arvind rawal said...

shahuji nahi rahe yah aapka lekh padkar pata chla. babuaa ko jagane wala so gaya yaha jankar bada dhuk huaa. atit ke jharoko ko yaad karte huye aapne unke sath bitaye huye palo se hame avgat karaya .... thanku.

मनोज कुमार said...

विनम्र श्रद्धांजलि।

gyaneshwaari singh said...

bahut marmsprshi raha apka lekh..aur bhav bhini shridhnajali hamari taraf se bhi..bhagwan divgant aatma ko shanti de

AMBRISH MISRA ( अम्बरीष मिश्रा ) said...

कुछ नही हुआ ...
बहुत... कुछ हो गया...

सफ़ेद चादर मे ...
फिर.... कोई सो गया...

एक काल सुनकर ...
मै खामोश.... हो गया.......

बहुत कोलाहल था ...
अचानक... सब शान्त हो गया ...


बबुआ कह कर जगाने वाला ......
न जाने क्यो.. हमेशा के लिये... सो... गया........?







खेद .. सम्वेदना सहित ....

सतीश कुमार चौहान said...

विनम्र श्रद्धांजलि।
एक साधारण पर दिल की गहराई पर उतरती बात इस .जीवंत सच में कितनी प्‍यार हैं

Atul Shrivastava said...

श्रध्‍दासुमन.....
हर इंसान में कुछ न कुछ विशेष छुपा होता है, बस जरूरत होती है उसे पहचानने की.....

संतोष त्रिवेदी said...

शाहू जी को विनम्र श्रद्धांजलि....आप हमेशा जगते रहें और दूसरों को जगाते रहें यूँ ही !

Akhilesh Jain said...

प्रसूनजी, साहूजी को इससे बड़ी श्रधांजलि क्या हो सकती थी की आपने उसे एक लेख देकर अमर कर दिया..

आम आदमी said...

ऊपर वाला साहूजी कि आत्मा को शान्ति दे !

आपका लेख ने कुछ पुरानी यादें ताज़ा करदी, कुछ बिछडों कि याद दिला दी!

आम आदमी said...

ऊपर वाला साहूजी कि आत्मा को शान्ति दे !

आपका लेख ने कुछ पुरानी यादें ताज़ा करदी, कुछ बिछडों कि याद दिला दी!

देवेश तिवारी (Devesh Tiwari) said...

प्रसून जी पुरानी यादों को जिवंत रुप देकर सहेजने की कला कोई आप से सीखे। साहू जी का सर्मपण और आपके प्रति लगाव सारा कुछ बयां हो गया। शाहू जी को श्रद्धांजली। पत्रकारिता करने बिलासपुर से रायपुर आ गया हूं इतनी तन्खवाह भी नहीं की एकाएक टीवी ले सकूं बड़ी खबर की कसक दिल में दबाए बैठा हूं। खैर पढ़ने की तमन्ना आपके ब्लाग से पूरी हो जाती है।

देवेश तिवारी (Devesh Tiwari) said...
This comment has been removed by the author.
Devesh said...

साहू जी को श्रद्धांजलि एवं उनके परिवारजनों को हमारी संवेदना. समय बहुत क्रूर है और अपने पहिये से रौंदते हुए अच्छे-बुरे अवसर का भी भान नहीं करता है.