जो लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून की मांग करते हुये जंतर-मंतर से शुरु हुई वही लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ अब खुद राजनीतिक लड़ाई के लिये उसी जंतर मंतर पर तैयार है। तो क्या वाकई राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे विकल्प देने को तैयार हैं। और अगर सामाजिक संघर्ष का रास्ता राजनीति की राह पकड़ने को तैयार है तो क्या संसदीय राजनीति के भीतर घुसकर अन्ना हजारे चुनावी जीत की उस व्यवस्था को तोड़ देंगे, जो धन-बल से लेकर जातीय समीकरणों के आसरे बनी हुई है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अन्ना आंदोलन भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उठा रहा है और मौजूदा दौर में भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह सरकार नतमस्तक है, उसकी एक बड़ी वजह राजनीतिक आंदोलन और सामाजिक संघर्ष की वह धारा ही है, जिसने नवउदारवाद या आर्थिक सुधार या फिर लूट की अर्थवयवस्था की तरफ से आंख मूंद कर चुनावी राजनीति के संघर्ष की जीत हार में ही देश को देखना शुरु कर दिया। सीधे कहें तो जेपी आंदोलन के बाद जनता प्रयोग के फेल होने के बाद से जब किसी राजनीतिक आंदोलनों की गोलबंदी किसी भी स्तर पर हुई तो उसे सत्तालोलुपता ही करार दिया गया। और मंडल आयोग के लागू होने के बाद सामाजिक संघर्ष राजनीतिक लाभ पाने में खो गया।
मंडल से निकले जातीय समीकऱण के चुनावी दायरे में कभी आर्थिक सुधार के वह मुद्दे नहीं आये जो दिल्ली से तय होते और गांव को शहर में तब्दील करने से लेकर विकास के नाम पर खेती की जमीन को भी हड़प लेते। इसके उलट चुनावी राजनीति का मतलब वोटरों के लिये सत्ता से सुविधा पाने या फिर न्यूनतम जरुरतों तक के लिये एक नीति बनवाना या पैकेज पाने पर ही जा टिका। यानी राजनीतिक तौर पर बीते बीस बरस में कभी कोई चुनाव इस आधार पर लड़ा ही नहीं गया कि जिस अर्थव्यवस्था को देश की नींव बनायी जा रही है वह गांवों को कंगाल और शहरों को गरीब बना रही है। ध्यान दें तो अन्ना हजारे राजनीतिक विकल्प का सवाल उठाते हुये पहली बार कुछ नये संकेत दे रहे हैं। जो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार को चुनौती देता है। ग्राम सभा की गोलबंदी ही नहीं बल्कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जरीये ग्राम सभा को दिल्ली के निर्णय में दखल देने के सवाल को भी अन्ना जिस तर्ज पर उठा रहे हैं, वह एक नयी राजनीतिक लकीर है। क्योंकि विकास की चकाचौंध में पहली जरुरत जमीन की है और जमीन का मतलब है खेती की जमीन यानी किसानो को मजदूर में बदलने की सोच। आर्थिक सुधार की धारा में इसका कोई विकल्प नौजूदा सरकार के पास नहीं है।
लेकिन अन्ना टीम जब हर ग्राम सभा को ही यह अधिकार देना चाहती है कि जमीन दी जाये या नहीं , निर्णय वही ले तो इसका एक मतलब साफ है कि अन्ना का राजनीति वर्तमान संसदीय चुनावी धारा को 180 डिग्री में घुमाना भी चाहते हैं और आर्थिक सुधार को राजनीतिक चुनौती भी देना चाहते हैं। असल सवाल यही से खड़ा होता है कि क्या वाकई जंतर-मंतर से राजनीतिक विक्लप की धारा निकल पायेगी जो संसद के अभीतक के तौर तरीको को बदल दे। क्योंकि इसका प्रयास इससे पहले कभी किसी आंदोलन में नहीं हुआ जहां संविधान को आधार बनाकर जनता के हक के सवाल खड़े किये जा रहे हैं। जहां चुनी हुई सरकार को जनता के सेवक के तौर पर काम करने की दिशा में यह कहते हुये ले जाया जा रहा है कि यह संविधान का आधार है। अगर ध्यान दें तो जेपी ने भी जनता पार्टी के चुनावी मैनीफेस्टो में उन बातों का जिक्र किया था जो बकायदा संविधान के जरीये आम लोगो के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। जबकि अन्ना आंदोलन संविधान को ही अपना मैनिफेस्टो मान कर काम कर रहा है। यानी अलग से कोई ऐलान करने की जरुरत नहीं है सिर्फ लोकतंत्र के अर्थ को ही अन्ना हजारे परिभाषित कर रहे हैं। क्योंकि अन्ना जिस राजनीतिक लकीर को खींच रहे हैं उसके दायरे में किसान, मजदूरों के सवाल हैं। देश की खनिज संपदा के लूट के सवाल हैं। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले संस्थानों के भ्रष्ट होने के सवाल हैं। यानी पूरी प्रक्रिया में ईमानदारी की राजनीति का सवाल खड़ा होता है।
यहां सवाल वोटरों की इमानदारी और चुनावी राजनीति से मिलने वाली सत्ता की इमानदारी से आगे का है। क्या राजनीतिक विकल्प की सोच इस इमानदारी को चुनावी लड़ाई में मान्यता दे देगी। क्योंकि इमानदारी का चुनावी प्रयास जमानत जब्त करने की दिशा में भी जाती है और जमानत जब्त भी करवाता है। मालवंकर ने तो पोस्ट कार्ड के जरीये वोटरों को अपनी ईमानदारी से चुनाव लड़ने का सच बताया लेकिन गुजरात में वह हार गये। जनरल एस के सिन्हा आर्मी चीफ ना बनाये जाने पर 1984 में पटना से चुनाव मैदान में खड़े हुये लेकिन उनकी जमानत जब्त हो गई। लेकिन इसके उलट 1957 में पटना में नामी अर्थशास्त्री और समाजवादी डा. ज्ञानचंद की जमानत जब्त और किसी ने नहीं बल्कि पटना के बाकरगंज इलाके में पंसारी की दुकान चलाने वाले रामशरण साहू ने करवा दी। यानी राजनीतिक विकल्प सिर्फ चुनावी जीत से तय नहीं हो सकती बल्कि समाज के भीतर उन आंकाक्षाओं को बदलने से तय होगी, जिसे बीते बीस बरस में राजनीतिक सत्ता के जरीये ही इस तरह जगायी गई है जहा सत्ता पाना या सत्ता की मलाई भर मिल जाने में ही जीवन तृप्त माना जाने लगा है। ऐसे में अन्ना के सामने जंतर-मंतर से आगे का रास्ता सिर्फ राजनीतिक पार्टी बनाने या ईमानदार उम्मीदवारों को खोजने भर का नही है बल्कि राजनीतिक तौर पर मौजूदा परिस्थितियों से उस जनता को जोड़ने का भी है, जो हाशिये पर है। इसलिये पहली बार अन्ना हजारे के देश नवनिर्माण पार्टी [अगर यह पार्टी का नाम हो तो ] का काम महात्मा गांधी और विनोबा भावे के सपने को जगाना भी है और जेपी की अधूरी पडी संपूर्ण क्रांति और मंडल आयोग से पैदा हुई सियासी राजनीति से आगे ले जाकर उस आर्थिक सुधार को चुनौती देनी है, जिसकी विंसगतियों से पहली बार पूरा देश आहत है लेकिन किसी दूसरे राजनीतिक दल के पास अभी तक कोई विकल्प नहीं है।
Saturday, August 4, 2012
राजनीतिक विकल्प का सपना
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:15 AM
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14 comments:
प्रसून भाई, किसी तरह की व्यूह रचना को तोड़ने के लिये सिरफिरे ही प्रयास करते हैं और सफल भी होते हैं..शुरुआत का स्वागत किया जाना चाहिये (कम से कम मेरा तो ऐसा मानना है)। धन-बल से सुसज्जित राजनीति को सुधारने के लिये हममे से कुछ लोगों को आगे आना ही होगा। आप अपनी क्षमता(कलम)से लगे हैं, तो कोई किसी और ढ़ंग से। रही दुनिया की बात तो जन सूत्र होते हैं और परिवर्तन सूत्रधार लाते हैं। ऐसी हर कोशिश शुरुआत में अजीब लगती है, इसे सहारा दिया जाना चाहिये...बाकी तो सब भविष्य के गर्त में है।
Prasunbhai,
I am regular watch your badi Khabar.
LALUPRASAD AND MULAYAMSING IS PRODUCT OF JAYPRAKASH NARAYAN'S ANDOLAN, NOW ANNA WANT TO GIVE AS MORE LALUPRASAD AND MULAYAMSING.....!!
Prasun sir - आज से कई हजारों साल पहेले महाभारत का यूध हुवा था.उस समय kee राजनीती के बारे में सबको ज्ञान है .
लाक्षा गृह काण्ड के बाद उस समय के जनता और पांडवों में , खास तौर से भीम और अर्जुन में , जबरदस्त akrsoh था . यूं लगता था के अब यूध हो जाना चाहिए जिस से जनता और पांडवों दोनों के साथ न्याय हो . लेकिन युगपुरुष श्रीकृष्ण ने और उस समय के प्रबूध लोग जैसे विदुर ने रोका . और फिर कए सालों के बाद , जब उचित समय आया , तब उन्हों ने एक महा यूध की व्यापक संग्रचना की और कौरवों का संपूर्ण विनाश किया .
ये बात पौराणिक जरूर है , लेकिन ३ अगस्त २०१२ के जन आन्दोलन के बाद ये काफी हद तक प्रासंगिक लगती है . अगर जल्दिबादी mein सिर्फ एक कानून बन जाता , लेकिन उसको तोड़ मरोड़ के इस्तेमाल करने वाले सत्ता में रहते तो ये महा पाप का खेल शायद ख़तम नहीं होता . नहीं मैं yehan किसी को पाण्डवा और कृष्ण नही बना रह हूँ , लेकिन ये बात भी सही लगती है के शायद नियति इशारा कर रही है एक बड़े पय्माने के परिवर्तन की तरफ. और इस महा परिवर्तन के संकेत charon तरफ हैं.
नितीश का बहुमत मिलना , ममता kaa अभूतपूर्व विजय अभियान , अखिलेश की ऐतेहासिक जीत - ये सब इशारा कर रहे हैं के समय अब करवट लेने को तड़प रह है , बस एक अच्छे विकल्प kee तलाश है .
इतिहास के पन्नो में एक और ऐसा दौर दर्ज है - जय परकाश जी का संपूर्ण क्रांति जन आन्दोलन . उस आन्दोलन की समीक्षा की जाये तो अज के कए नेता उसे आन्दोलन की देन हैं .
जैसे mulayan सिंह , लालू यादव . अब इन लोगो के बारे में सब लोग जानते हैं और समझते हैं. तो फिर इस बात की क्या विश्वनीयता है के मौजूदा अन्दोला एक मजबूत लोकतंत्र दे पायेगा?
मेरे हिसाब से , इस आन्दोलन की नीव हैं जनता से पूरी पारदर्शिता , जनता का नि स्वार्थ सहयोग और भागीदारी.
इस तकनिकी फसबूक , इन्तेर्र्नेट , ट्विट्टर युग में ये जरूरी नहीं के हर आन्दोलन कम से कम १०-२० साल hee चले फिर उसके बाद ही वोह आगे बढ़ सकता है राजनीती में .
Egypt में भी एक दबा हुवा गुस्सा गुबार बन के उठा और देखते हे देखते तानाशाह को पलट दिया .लेकिन हम कभी नहीं कहेंगे की ऐसा कूच इंडिया में भी हो . लेकिन वोह सिर्फ ये दर्शाता है के किस तरह से किसी विचार को समय आने पे दबाया नहीं जा सकता है .
अब ये अभी कहना मुश्किल है के नयी पार्टी का क्या स्वरुप होगा , वोह तो समय बताएगा . लेकिन, मौजदा राजनीती में आज ये मान लिया गया है की बिना पैसे की नयी लड़ा जा सकता . बिना वोट खरिध्हे नहीं जीता जा सकता , बिना जाट पात के कोई सुनने नहीं आता.हम सबने जब से होश संभाला है हमने चारो तरफ येही सुना है की इस भ्रस्ताचार का कुछ नहीं हो सकता है . हमने सुना है की ये व्यवस्था नहीं बदली जा सकती है .लेकिन आखिर कब तक इस निराशा वादी विचारो में हम घिरे रहेंगे ? आज अगर कोई विकल्प सामने आता है तो फिर इसमें हर्ज क्या है ?
अगर अरविन्द , अन्ना और दूसरे साथी अनशन नहीं तोड़ते तो क्या होता ? किसी के मौत हो सकती थी या फिर जन आक्रोश उठता और दबा दिया जाता . ये तो फिर और भी बुरा होता
अभी कम से कम के विचार मंथन तो शुरू होगा . इस मंथन से जरूर कुछ अच्छा ही निकलेगा . इस नए विचार, आचार और सिस्ताचार को देख कर , शायद दूसरे पार्टी में भी बदलाव आवए . ये तो एक shoobh संकेत होगा .
Prasun Jee, Aapne kai mudde ki baat yaha uthai hai.. lekin Anna Team itni adhir kyo hai.. Use Sansad ko apna kaam karne dena chahiye tha.. lekin lagta hai Anna Team ko kisi bahane ki talash thi taki wey pol party ki baat saamne la saken..Thoda aur dawaw parne par LOKPAL ban sakta tha.. pichle aandolan me desh ke pol party wale Anna ke pichhe chalne ke liye majboor ho gaye the lekin Anna team ki Adhirta ne sirf Anna Team ko hi nahi desh ke bhitar badhi ummid ko phir se napak pol. party ke pichhe kar diya hai.. Jo Anna Team Congress ki chaal ke aage nahi tik pai wah pur pol. system jo abhi prevail kar raha hai uske aage kahri hi nahi ho payegi... Anna ne Desh ki ummido ko tora hai..
Hi prasun jee
anna ki ghosna ne bharastachar ke khilaf khade hue logon ko ek naya vikalp diya hai nikammi sarkar ko badlne ka, ab desh ke matdatao per nirbhare hai ve kitni imandari dikhate hai....
Hi prasun jee
anna ki ghosna ne bharastachar ke khilaf khade hue logon ko ek naya vikalp diya hai nikammi sarkar ko badlne ka, ab desh ke matdatao per nirbhare hai ve kitni imandari dikhate hai....
Dear Kanakkumar Bosmia G,
NITISH KUMAR IS ALSO A PRODUCT OF JAYPRAKASH NARAYAN'S ANDOLAN, ANNA WANTS TO GIVE AS MORE NITISH KUMAR OR EVEN PEOPLE BETTER THAN HIM !! Y don't u think like this sir..
प्रसून जी,
कल अन्ना के अनशन में General V.K Singh के भाषण की एक line सुनकर बड़ी हैरानी हुई (और अच्छा भी लगा), आपके स्टाइल में बोलूँ तो "अगर सिर्फ दो महीने पहले retire हुआ general एक political मंच पर कह दे कि 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' तो इसका मतलब क्या है ?"
मेरा मानना है कि सिर्फ लोकपाल काफी नहीं है, हमें तो उस व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत है जिसकी जड़ें ही खोखली हो चुकी हैं| अगर हमें अपने घर की सफाई करनी है तो घर के अंदर घुसना ही पड़ेगा, बहार बैठ के यह मुमकिन नहीं, यही कारण है कि मैं अन्ना जी के पार्टी बनाने के फैसले से सहमत हूँ| भारत में लोगों की एक आदत है, system को criticise सब करते हैं, सब को पता है कि हमारा सिस्टम इतना सड़ चुका है कि अब बॉस मारने लगा है लेकिन system को साफ़ करने के लिए आगे कोई नहीं आता और अगर कोई आता है तो हम लोग उसकी टाँग खीच कर उसे नीचे उतार देते हैं| यह आदत ठीक नहीं|
last में दुष्यंत कुमार जी कि वही कविता दोरहना चाहूँगा जो कल अरविन्द केजरीवाल जी ने गुनगुनाई थी :
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
विगत असफल प्रयोगों को नजीर मानें तो विकल्प देने के इस प्रयास की नवजात मौत तय है।राजनीति की कटु और निर्मम वास्तविकताएं,अरुचि को जन्म देती है,पर यह भी सच है कि लोकतान्त्रिक राजनीति में अरुचि कि बजाय सहभागिता बेहतर विकल्प है।
शहर अब इंसानियत और आबरू खा रहे हैं . . . . .
इसलिए हर जिंदादिल आंदोलन को आ रहे है. . . . . . .
उन्होने बनाकर पार्टी मंसूबे जता दिए
वर्ना सुना ये गया था
"जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक ये अनशन जारी रहेगा "
मेरा ब्लॉग मेरी बात
bachpan mai humne dekha tha madari aata tha, bander bhulu ke kartab dhikhata tha bhid jud jane per tabiz bechta tha, anna aur ram dev bhi abus tabiz ko bechne ka karobar kar rahe hai jisme desh ki kismat sudharne ki bate hai _____
Dear Aam admi ji,
time will tell us what we get: Lalu Yadav or Mulamsing Yadav or Nitish kumar....
आदरणीय प्रसून जी,
टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित राजनितिक विकल्प कितना भारी या हल्का होगा, ये तो इस बात पर निर्भर करेगा की " नया विकल्प " कितना लोगों तक पहोच पाता है और कितना लोगों की संवेदनाओं से अपने आप को जोड़ पता है. भ्रस्टाचार से तो सभी ग्रसित हैं पर जो सच में लोगों तक अपने को जोड़ पायेगा वो ही एक नया रास्ता बना पायेगा .
इसके लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ेगी, क्यूंकि यह देश विविधताओं से भरपूर है . जाती-धर्म में बटा हुआ है. जिस प्रकार की जातीय समीकरण हमारे राजनितिक दल बना पाते हैं क्या ये लोग कर पाएंगे ? और बिना सही उम्मीदवार खड़ा किये ये जीतने की सोच भी नहीं सकते.
मान लीजिये की किसी हिन्दू बहुल इलाके में कांग्रेस या बीजेपी किसी साफ छवि वाले नेता को खड़ा करती है जो की जातीय समीकरण के कारन जीत सकता है और टीम अन्ना वाले एक बेहद साफ़-सुथरी छवि वाले को खड़ा करते हैं , मुझे तो लगता है उस केस में बीजेपी या कांग्रेस वाले ही जीतेंगे.
जिस माध्यम वर्ग का साथ उन्हें मिल रहा था उसकी भी तो दुर्दशा देखिये. इस देश में दिल्ली, कोल्कता, मुंबई, बंगलोरे, चेन्नई इत्यादि शहर ही ज्यादातर नौकरियां देती है, क्या वहां सभी लोग मतदान कर पाते हैं ? नहीं .
इन शहरों में दो तरह के लोग रहते हैं, एक जो वहीँ के लोकल हैं और दुसरे जो बाहर से आकर वहां काम कर रहे हैं. जो लोकल हैं वो तो मतदान कर सकते हैं पर जो बाहर से आये हैं क्या वो मतदान कर पाते हैं ? नहीं. ऐसा बुद्धिजीवी तबका जो ज्यादा जागरूक है वो मतदान ही नहीं कर पाता.
आपने अपने एक पिछले ब्लोग में लिखा था की कांग्रेस करीब 11 करोड़ मत पाई थी और बीजेपी करीब 9 करोड़. कूल मिलाकर करीब 20 करोड़. एक अनुमान से
(रेफ: http://www.indexmundi.com/facts/india/employment-to-population-ratio)
इंडिया की एम्प्लोय्मेंट/आबादी का अनुपात करीब 43% Male और 23 % Female है. हमारी शहरी आबादी करीब 28 % है तो 20 करोड़ Vote के हिसाब से 5 करोड़ 60 लाख होगा. Male+Female Employment Ratio का अगर 50 % भी अगर बहार से आकर नौकरी करने वालों को रखें तो 2 करोड़ 80 लाख लोग हैं जो vote कर ही नहीं पाते. ये Numbers बहोत ही मोटा हिसाब है पर फिर भी एक अनुमान तो बता ही देता है . और ये लोग ही Middle-Class है और अन्ना के आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिए .
इसलिए मुझे तो उनका रास्ता थोडा कठिन दीखता है,पर वो अगर सही मुद्दे चुने तो शायद लोगों का साथ मिले.
ब्रजेश
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