Friday, August 31, 2012

कोयलागेट से गहरी हो चली है राजनीतिक सत्ता की काली सुरंग


कोयला खादान को औने पौने दाम में बांटकर राजस्व को चूना लगाने के आंकड़े तो हर किसी के सामने हैं। लेकिन अभी तक अरावली की पहाड़ियों को खोखला बनाने, उडीसा में बाक्साइट की खादानों की लूट, मध्यप्रदेश में आयरन-ओर की लूट, कर्नाटक में कौड़ियों के मोल खनिज संपदा की लूट, झारखंड और बंगाल में कोयले के अवैध खनन के तरीके। इन सब का कच्चा-चिट्ठा अभी भी खुलकर सामने नहीं आ पाया है। कुछ मामले राज्यों के लोकायुक्त के पास हैं तो कुछ विधानसभाओं के हंगामे से लेकर अखबार के पन्नो में ही खो कर रहे हैं।

असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या संसद के भीतर खादानों को लेकर अगर राजनीतिक दलों से यह पूछा जाये कि कौन पाक साफ है तो बचेगा कौन। क्योंकि देश के 18 राज्य ऐसे हैं, जहां खादानों को लेकर सत्ताधारियों पर विपक्ष ने यह कहकर अंगुली उठायी है कि खादानो की लूट सत्ता ने की है। यानी आर्थिक सुधार के जरीये विकास की थ्योरी ने मुनाफा के खेल में जमीन और खादानों को लेकर झटके में जितनी कीमत बाजार के जरीये बढ़ायी, वह अपने आप आजादी के बाद देश बेचने सरीखा ही है। क्योंकि बाजार ने सरहद तोड़ी लेकिन उसमें बोली देश के जमीन और खनिज-संसाधन की लगी। इस दायरे में सबसे पहले सत्ता की ही कुहुक सुनायी दी। क्योंकि कोयलागेट के जरीये खादानों के बंदर-बांट की परतों को खोले तो कई सवाल एकसाथ खड़े होते हैं। मसलन, 9 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कोयला खादान अपने मनपसंद को देने का आग्रह किया। 23 सांसदों ने कोयला खादान के लिये अपने करीबी निजी कंपनियो या कारपोरेट की वकालत की। हर किसी ने पार्टी की लकीर से इतर सत्ता की लकीर खींच कर खादानों के लाइसेंस में हिस्सेदारी की मांग विकास के नाम पर की। क्योंकि जो पत्र खादानों को पाने के लिये सरकार के पास गये, उसमें कांग्रेस से लेकर बीजेपी और वामपंथियों से लेकर तीसरे मोर्चे की कवायद करते सांसदो के पत्र भी हैं। हर किसी ने अपने संसदीय क्षेत्र या राज्य में विकास के लिये खादानों को जरुरी बताया और अपने करीबी की यह कहकर पैरवी की कि अगर खादान आवंटित हो जायेगी तो उनके क्षेत्र में विजली उत्पादन या स्टील इंडस्ट्री या फिर सीमेंट या अन्य उघोगों को लाभ होगा। यानी अभी तक मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार की बिसात पर ही राजनीति भी चलती रही और सत्ताधारियो ने कमाना भी सीखा। इसलिये संसद के भीतर अगर यह सवाल विश्वासमत के तौर पर उठ जाये कि कोयला खादान लाइसेंस रद्द होने चाहिये या नहीं। तो फिर वोटिंग की स्थिति में क्या होगा?

जाहिर है गठबंधन टूट भी सकते हैं। यहां तक की पार्टियों की दीवारें भी टूट सकती हैं और खादान के रखवाले एक साथ खड़े भी हो सकते हैं। ध्यान दें तो इससे पहले हर घोटाले में घोटाले को संजो में रखने वाले एकजूट हुये और ससंद की बहस में सारे घोटाले हवा-हवाई हो गये। इस बार हंगामा इसलिये अलग है क्योंकि विपक्षी राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि खादान गंवाकर सत्ता पायी जा सकती है। यानी घोटाले पर समझौता किये बगैर तेवर के साथ खडे होने से सरकार की डूबती साख और डूबेगी। इसलिये बीजेपी का राजनीतिक गणित समझे या तीसरे मोर्चे के समीकरण, दोनों को लगने लगा है कि मनमोहन सरकार गई तो सत्ता की कुंजी उनके हाथ में आनी ही है। इसलिये तर्को के आसरे संसदीय मर्यादा और राजनीतिक नैतिकता की परिभाषा अब मोटा-माल डकारने पर आ टिकी है । जेपीसी को कंगारु कोर्ट बनाकर खारिज किया जा रहा है। पीएसी हंगामे के बलि चढायी जा चुकी है। सीएजी पर तो प्रधानमंत्री को ही भरोसा नहीं है। तो कोयले की खादान से कही ज्यादा गहरी राजनीतिक सुरंग जाती कहा है। जरा इसे समझने के लिये देश चल कैसे रहा है और राजनीतिक तिकड़म या हंगामे का मतलब है क्या, समझना यह भी जरुरी है।

स्पेक्ट्रम के दौर में प्रधानमंत्री अपने ही कैबिनेट मनिस्टर से पल्ला यह कहकर झाड़ते है कि मजबूरी गठबंधन की है और क्रोनी कैपटलिज्म का रुझान मंत्रियो में है। लेकिन कोयला घोटाले की परिभाषा में ना तो गठबंधन की मजबूरी चलेगी ना क्रोनी कैपटलिज्म का तर्क। यहा तो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से निकले दस्तावेज हैं। नीतियों पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी है। कोयला खादानो को निजी हाथों में सौप कर पावर सेक्टर में मजबूती लाने की समझ प्रधानमंत्री की है। 1973 में इंदिरा गांधी के कोयला खादानो का ऱाष्ट्रीयकरण कर मजबूत बनाये गये कोल इंडिया को कमजोर कर निजी भागेदारी को बढ़ावा देते हुये ज्यादा से ज्यादा कोयला निकलवाने का दवाब 2010 में मनमोहन सिंह के कार्यालय से निकली चिठ्ठी में है। फिर आंकड़ों से इतर कैग रिपोर्ट का विश्लेषण भी मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के तौर तरीको पर ही यह समझाते हुये चोट करता है कि कैसे आर्थिक सुधार की थ्योरी ही मुनाफा बनाने वाली निजी कंपनियों के भ्रष्टाचार की जमीन पर खडी है। असल सवाल यही से शुरु होता कि क्या पीएम के इस्तीफे के जरीये विपक्ष आर्थिक सुधार की इसी थ्योरी की परतों को खोलना चाहता है या फिर इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाहता है। भाजपा पहले इस्तीफा चाहती है जबकि विपक्ष माइनस भाजपा सरकार से जवाब चाहता है। यानी जदयू से लेकर वामपंथी और मुलायम-माया से लेकर नवीन पटनायक तक की राजनीतिक जमीन भाजपा से अलग है।

भाजपा को छोड दें तो विपक्ष के हर राजनीतिक दल की जरुरत कमजोर होती कांग्रेस पर निशाना साध कर अपनी जमीन को पुख्ता बनाते जाना है। यानी मनमोहन सिंह जब तक निशाने पर रहे तबतक ठीक। लेकिन भाजपा के लिये सवाल राज्यों की राजनीति को साधने का नहीं है, उसके लिये "टोटल असाल्ट" वाली स्थिति है। यानी प्रधानमंत्री पर सीधा वार कर खुद को राजनीतिक विकल्प के तौर पर ऱखने की समझ। विकल्प की स्थिति संसद की चर्चा, पीएसी या जेपीसी के जरीये पैदा हो नहीं सकती। लेकिन दूसरी तरफ सवाल यह भी है क्या आर्थिक सुधार की परते वाकई संसद के भीतर प्रधानमंत्री के जवाब से उघडती चली जायेगी। जैसा विपक्ष माइनस भाजपा सोच रही है। जाहिर है यह संभव नहीं है। क्योंकि कारपोरेट के मुनाफे पर खड़े होकर विकास की लकीर खिंचने में कमोवेश हर राज्य की सत्ता लगी हुई है। इसमें कांग्रेस या भाजपा शासित राज्यों की ही बात नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव या उससे पहले मायावती। या फिर झारखंड, उड़ीसा या तमिलनाडु के विकास के खांचे में कैसे क्रोनी कैपटलिज्म सत्ता की जरुरत बन चुकी है, यह हर राज्य की योजनाओं के जरीये समझा जा सकता है। क्या संसद की बहस में इसकी कलई खुल सकती है। या फिर मुनाफे के खेल में राजनीतिक दल ही सहमति बनाते हुये अपनी अपनी राजनीति साधकर सबकुछ आम चुनाव में जनता के वोट के हवाले कर लोकतंत्र का राग अलापेंगे। असल में भ्रष्टाचार या घोटाले भी आर्थिक सुधार के जरीये कैसे लोकतंत्र के हिस्से बना दिये गये हैं अब यह खुल कर सामने आना लगा है। सबसे ज्यादा कमाई विकास के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने की दिशा में ही हो सकता है। क्योंकि इन क्षेत्रों में हर नयी योजना के लिये पूर्व में कोई निर्धारित रकम तय नहीं है। तो मनमोहन सिंह के मौजूदा मंत्रिमंडल में संचार [ए राजा तक],रेलवे, जहाजरानी, विमान [ प्रफुल्ल पटेल तक ] और 2009 तक सड़क भी गठबंधन के ही हाथ में रहा। और अगर इन मंत्रालयों के जरीये जितनी भी योजनाओं को अमल में बीते सात बरसो में लाया गया अगर उनकी फेरहिस्त निकाल कर देखें तो कारपोरेट को सौपी गई योजनाओ से आगे कोई फाइल जाती नहीं। देश के पांच टॉप कारपोरेट के जरीये ही हर मंत्रालय में फाइल निकली। आलम यह भी हो गया कि रेलगाडी में मिलने वाले खाने का टेंडर भी उन्हीं कारपोरेट के हवाले कर दिया गया जो देश में उर्जा और संचार का इन्फ्रास्ट्रक्चर देकर भरपुर मुनाफा बना रहे हैं। हां, जहाजरानी के क्षेत्र में देसी कारपोरेट पर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट जरुर हावी रहा। लेकिन देश में बंदरगाहों की स्थिति क्या है यह गुजरात से लेकर आन्ध्र प्रदेश तक में देखा जा सकता है। वहीं कोयला, उर्जा , खादान , स्टील मंत्रालय मनमोहन सिंह के विकास के सबसे प्यारे और जरुरी मंत्रालय हुये तो उन्हें कांग्रेस के हक में रखा गया। लेकिन यहा भी रास्ता निजी हथेलियों के जरीये ही निकाला गया। अगर बारीकी से समझे तो सरकार ने अपनी भूमिका कमीशन ले कर निगरानी के अधिकार अपने पास रखने भर की ही की है। बकायदा सरकारी दस्तावेज बताते हैं 2005 से 2009 तक के दौर में किसी भी मंत्रालय की कोई भी फाइल कारपोरेट से इतर निकली नहीं । यह कैसे संभव है इसका जवाब भी उर्जा मंत्रालय से लेकर जहाजरानी और रेलवे तक की परिस्थितयों से समझा जा सकता है। क्योंकि इन मंत्रालयों में सरकार, मंत्री या नौकरशाहो ने कोई योजना शुरु नहीं करवायी बल्कि कारपोरेट ने अपनी सुविधा और मुनाफा देखकर अपने अनुकुल जो फाइल बढ़ायी, उसी पर नौकरशाहों और मंत्रियों ने चिड़िया बैठा दी। सीधे समझें तो जिस कारपोरेट की जिस क्षेत्र में पकड है और उस क्षेत्र को लेकर वही अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट मंत्रालयों को सौपता है। जिस पर मंत्रालय या कैबिनेट मुहर लगाती है। यानी आजादी के पैसठ बरस बाद भी देश में सरकार के पास अपना कोई इन्फ्रास्ट्रकचर नहीं है, जिसके तहत वह चाहे तो खुद किसी योजना को सरकारी स्तर पर पूरा कर दें। योजनाओं का अमलीकरण अगर मुनाफा बनाकर निजी कंपनियों को करना है तो बीते दस बरस में नयी रफ्तार देश ने यही पकड़ी कि सरकारी नौकरियों से रिटायर होकर निकले बाबूओं को कारपोरेट ने अपने यहा यहकर रखा कि जिस विभाग में वह जिन्दगी खपाकर निकले हैं, अब उस विभाग से जुड़े मंत्रालयों को चाहिये क्या उसकी रिपोर्ट वही तैयार करें। और फिलहाल हो भी यही रहा है कि जो काम सरकारी विभागो को करने चाहिये वह कारपोरेट दफ्तरों में हो रहा है। नीरा राडिया के चार कंपनिया इसकी मिसाल है, जहां संचार, विमान, उर्जा, इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर सड़क परियोजनाओं तक की फाइल कारपोरेट घरानों के लिये बनती और वही फाइले सरकारी नीतियों के जरीये देश के विकास का खांका खींचती।

कहा जा सकता है कि नीरा राडिया तो आज की तारीख में प्रतिबंधित है। लेकिन सरकरी गलियारे में फिलहाल जिन 135 कंपनियों के सुझाव लिये जाते है, वह 135 कंपनियां भी सरकार के लिये नहीं बल्कि कारपोरेट की दलाली कर सरकार के अलग अलग मंत्रालयों के निर्णयों को अपने चहेते या क्लाइन्ट कारपोरेट के मुनाफे के लिये काम करती है। इसलिये इस देश में किसी आईएएस को सचिव स्तर पर पहुंचने के बाद भी तमाम सुविधाओं के साथ लाख रुपये भी नहीं मिल पाते है लेकिन कारपोरेट के लिये काम करते वक्त औसतन कमाई हर रिटायर या नौकरी छोड कर निजी कंपनी से जुड़ने पर सालाना एक करोड़ है। इसका मतलब है मौजूदा दौर में सत्ता किसके पास रहे या किससे खिसके उसके पीछे भी कारपोरेट लाबी की सक्रियता जबरदस्त होगी। और अगर ध्यान दे तो स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद पहली बार 2011-12 में एक दर्जन कारपोरेट घरानों ने मनमोहन सिंह के गवर्नेंस पर यह कहकर अंगुली उटायी है कि सरकार की नीतियां साफ नहीं हैं। जाहिर है पहला बार कारपोरेट घराने भी समझ रहे हैं कि अगर भारत कमाई का सबसे बड़ा बाजार बनता जा रहा है तो अब कोई नीति तो सरकार को अपनानी ही होगी जिससे काम शुरु हो। लेकिन मनमोहन सरकार की मुश्किल यह है कि पहली बार घोटालो में सिर्फ मंत्री नहीं बल्कि कारपोरेट, नौकरशाह और बिचौलिये भी फंसे हैं। इसलिये आर्थिक सुधार के पुराने रास्तो पर ब्रेक लग गयी है और किसी भी मंत्रालय से कोई फाइल निकल नहीं पा रही है। ऐसे मोड़ पर संसद के भीतर की बहस या प्रधानमंत्री का इस्तीफा किसे कितना राजनीतिक लाभ देगा, बात इससे आगे बढ़ती नहीं है। क्योंकि संसद ठप होने या प्रधानमंत्री के इस्तीफे के सवाल पर जन आंदोलन देश में खड़ा नहीं हो रहा बल्कि उन नीतियों को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं, जिससे जनता आहत है और उसके निदान का रास्ता किसी राजनीतिक दल के पास है नहीं। शायद इसीलिये सरकार के पास भी सरकार चलती रहे के अलावे कोई एंजेडा है नहीं और कांग्रेस या कहे सोनिया गांधी भी संसद के ठप होने में लोकतंत्र की उडती धज्जियो का राग ही अलाप रही हैं। यानी संसद चले और लोकतंत्र जीवित हो जायेगा, इसे सोचने का मतलब है पहली बार राजनीतिक सत्ता के संघर्ष में देश कितना बेबस है यह खुलकर नजर आ रहा है। लेकिन संसद चले या ना चले किन देश बेबसी या खामोशी से नहीं बल्कि सड़क के संघर्ष से लोकतंत्र का असल रास्ता देने को तैयार है तो फिर 2014 को लेकर एक नयी पटकथा लिखी जा सकती है। खामोश देश को देखे तो उसे संघर्ष का इंतजार है। और संघर्ष के इतिहास को टोटले तो बस एक चिंगारी की जरुरत है। क्योंकि पहली बार संसदीय ढांचे में ही संसदीय और संवैधानिक संस्थाओ की घज्जियां उड़ायी जा रही है।

1 comment:

Brajesh said...

आदरणीय प्रसून जी,

आपका ब्लॉग पढ़कर तो सच में यही लगता है कि राजनीतक सत्ता की सुरंग कोयले से भी काली है जिसमे सभी राजनितिक दल और उनके नेता किसी न किसी रूप में लिप्त नज़र आते हैं । हमारे देश में अमूमन सारे महत्वपूर्ण मिनेरल एवं ओर मिलते हैं जिसमे आयल एंड गैस , कोयला, लौह अयस्क, bauxite, dimond, gold, zinc n lead, uranium और कई अन्य तरह के पत्थर जैसे marble, granite और रत्न में काम आने वाले पत्थर शामिल हैं । आयल न गैस को छोड़ दें जिसकी नीलामी अपेक्षाकृत पारदर्शी है NELP के माध्यम से होती है, वो भी 1998 के बाद , तो हम पाते हैं कि अन्य किसी भी मिनेरल की mining एंड quarrying पारदर्शी तरीके से होती नहीं है । यानि की पिछले 65 साल से भारतियों के द्वारा ही अपने देश की लूट की जा रही है ।

कोयला घोटाला शायद पहला ऐसा घोटाला है जिसने पूरे देश में mining एंड quarrying में हो रहे गहरे लूट को देश के सामने लाकर रख दिया है । इस गोरख धन्धे में किसके किसके हाथ सने हुए हैं किसी को नहीं पता । कौन से मिनेरल delhi से आवंटन होता है और कौन से स्टेट capitals से ये भी हमें नहीं पता । आवंटन किस प्रकार से होती है या उसकी प्रक्रिया क्या है किसी को कोई जानकारी नहीं । यानि आपने ही देश में आप अनजान की तरह रह रहे है और जिनको जानकारी है और सामर्थ है वो लगे हुए है लूटने में । इस लूट के पैसे से कितने लोग करोडपति बन गए, हमारे राजनितिक दल खड़े हो गए, कितना काला धन विदेशों में जमा हुए इसकी कोई थाह नहीं । मैं तो ये भी मानता हूँ की ये जो maoist naxalism का प्रॉब्लम है वो भी इस illegal mining के opaque सिस्टम के कारन ही है । इंदिरा गाँधी ने एक झटके में हमारे Tribal लोगों को कंगाल बना दिया, सबकुछ nationlise करके । उसके बाद कोई भी पारदर्शी प्रकिया नहीं बनाई गयी जिससे mines एंड minerals का सही ढ़ंग से exploration एंड exploitation हो और जिस इलाके से हो वहां के लोगों को रोजगार और उस इलाके का विकाश हो । आजादी के 65 years होने के बावजूद आज तक इन मिनरल्स के locations की mapping nahi हुई है । आपको आज भी कौनसे मिनरल्स कहाँ है और कितनी मात्र में है इसकी कोई सटिक जानकारी नहीं मिल सकती। Geological Survey of India जिसका काम ही है ये mapping करना, पुरे साल क्या करती है किसी को नहीं पता ।

मैं तो ये मानता हूँ की मीडिया चाहे तो इन सारे नकाब पोश लूटेरों को expose कर सकती है और अभी तो सबसे सटिक time है क्यूंकि हर expose एक party दुसरे पार्टी को निचा दिखने के लिए करेगी। और मीडिया लोगों में स्पेशल programs के जरिये लोगों में इस लूट के प्रति जागरूकता पैदा कर सकती है ।

ब्रजेश
मुंबई