कांपती जुबान से जैसे ही रंगी मिस्त्री ने कहा, उन्हें दो बरस पहले कान में सुनने के लिये लगाने वाली मशीन मिल गई थी, वैसे ही देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद खुशी से ताली बजाने लगे। और झटके में मंत्रीजी के पीछे खडे दो दर्जन लोग भी हो-हो करते हुये तालियां बजाते हुये सलमान खुर्शीद जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे। यह दिल्ली की उस प्रेस कॉन्फ्रेन्स की तस्वीर है, जिसे डा. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट पर विकलांगों के लिये मिले भारत सरकार के बजट को हड़पने का आरोप लगने के बाद सफाई और सबूत देने के लिये खुद मंत्रीजी ने बुलवाया था। आरोप ने सलमान खुर्शीद की साख पर बट्टा लगाया तो प्रेस कान्फ्रेन्स में सलमान खुर्शीद ने अपने खिलाफ खबर बताने-दिखाने वाले चैनल और इंडिया टुडे ग्रुप के एडिटर-इन-चीफ और प्रोपराइटर अरुण पुरी की साख पर भी यह कहकर सवाल उठा दिया कि रुपर्ट मर्डोक की तर्ज पर जांच होनी चाहिये। सबूत के तौर पर फर्रुखाबाद में अपने गांव पितौरा के कासगंज मोहल्ला के 57 बरस के रंगी मिस्त्री को मीडिया का सामने परोस कर खुद को आरोपो से बरी मान लिया।
तो क्या वाकई सत्ता अब अपनी आलोचना तो दूर अपने खिलाफ किसी भी खबर को देखना-सुनना नहीं चाहती है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि पहली बार आरोपों का जवाब देने से पहले ही कानून मंत्री ने प्रेस कान्फ्रेन्स के नियम-कायदे यह कहकर तय किये कि वह जो मूल सवाल सोचते है, जवाब उसी का देंगे। और सड़क से उठने वाले सवालों से लेकर मीडिया के उन सवालो का जवाब नहीं देंगे, जिसे वह देना नहीं चाहते हैं। यानी मीडिया जिस खबर को दिखा रहा है, उसके मूल में ट्रस्ट की साख पर फर्जीवाडे का जो बट्टा लगा है, उस फर्जीवाड़े का जवाब और जो सवाल केजरीवाल ने सीधे मंत्रीजी से पूछे उनके जवाब को मंत्रीजी ने पहले ही प्रेस कान्फ्रेन्स के नियम से बाहर कर दिया। हालांकि प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मीडिया के सवालो पर नो कमेंट कहकर बात आगे बढ़ायी भी जा सकती थी।
लेकिन पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेन्स में आजतक के रिपोर्टर दीपक शर्मा के सवाल पर मंत्रीजी ने धमकी दी, नाउ विल सी यू आन कोर्ट [अब अदालत में तुम्हे देखेंगे]। अगर याद कीजिये तो इमरजेन्सी के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेस में जब इंडिया-टुडे के पत्रकार सुमित मित्रा ने इंदिरा गांधी से सवाल किया तो इंदिरा गांधी ने कहा था, मैं एंटी इंडिया पत्रिका के सवाल का जवाब क्यों दूं। इस पर उस दौर में इंडिया-टुडे के एडिटर अरुण पुरी ने बाकायदा कवर स्टोरी की थी, जिसमें देवकांत बरुआ की प्रसिद्द टिप्पणी का जिक्र करते हुये लिखा था इंडिया इज इंदिरा और जो इंदिरा के खिलाफ है वह एंटी इंडिया है। हालांकि इंडिया टुडे की इस कवर स्टोरी के बाद अरुण पुरी इंदिरा सरकार के निशाने पर जंरुर आये। लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं आया जब किसी मंत्री ने इंडिया टुडे के रिपोर्टर को सवाल पूछने पर कहा कि आदालत में देख लूंगा। असल में सवाल सिर्फ सलमान खुर्शीद का नहीं है अगर साख के सवाल पर आयेंगे तो सवाल मीडिया से लेकर राजनीति और संस्थानों से लेकर आंदोलन तक पर है। ढह सभी रहे हैं। इंडिया टुडे भी किस स्तर तक बीते दिनों में गिरा, यह कोई अनकही कहानी नहीं है और आजतक ने भी खबरों के नाम पर कैसे तमाशे दिखाये, यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन इसी दौर में राजनेताओं और कैबिनेट मंत्रियों को लेकर कैसी कैसी किस्सागोई मीडिया से लेकर सड़क तक पर हो रही है, यह भी किसी से छुपाने की चीज नहीं है। न्यूयार्क टाइम्स ने तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर रिपोर्ट लिखते लिखते एसएमएस में चलते उस चुटकुले तक का जिक्र कर दिया, जिसमें दांत के डाक्टर के पास जाकर भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुंह नहीं खोलते हैं।
जाहिर है इसका मतलब साख अब सत्ता के सिरहाने की चीज हो चुकी है। यानी जो सत्ता में रहे साख उसी की है। राडिया टेप आने के बाद भी सत्ताधारियों की साख की साख पर कोई बट्टा नहीं लगा। और उसमें शरीक मीडिया कर्मी भी बीतते वक्त के साथ दुबारा ताकतवर हो गये और सत्ता के साथ खड़े होने का लाइसेंस पा कर कहीं ज्यादा साख वाले संपादक माने जाने लगे। फिर साख का मतलब क्या अब सिर्फ जनता के बीत जाकर चुनाव जीतना है। क्योंकि कानून मंत्री ने अपने इस्तीफे के सवाल पर उल्टा सवाल यह कहकर दागा कि मैं इस्तीफा देता हूं तो अऱुण पुरी भी इस्तीफा दें। वह भी जनता के बीच जायें। जनता ही तय करेगी कि कौन सही है। तो जिस पत्रकारिता का आधार ही जनता के बीच साख के आसरे खड़ा होता है उसी की परिभाषा भी अब नये तरीके से गढ़ी जा रही है। या फिर चुनाव में जीत के बाद सत्ता संभालते और भोगते हुये राजनेता यह मान चुका है कि साख उसी की है, जो अगले पांच साल तक रहेगी। यानी सारी लड़ाई और सारे संस्थानों की बुनियादी साख को ही राजनीति के पैमाने में या तो मापने की तैयारी हो रही है या फिर अपनी साख बचाने के लिये हर किसी को अपने पैमाने पर खड़ा करने की सत्ता ने ठानी है। हो जो भी लेकिन इस दौर में राजनीतिक की साख भी कैसे धूमिल हुई है यह हेमवंती नंदन बहुगुणा के पोते साकेत बहुहुणा के चुनावी प्रचार और चुनावी हार से भी समझा जा सकता है। साकेत बहुगुणा को जिताने के लिये उत्तारांचल के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपनी और कांग्रेस की सारी ताकत वैसे ही चुनाव में झोंकी जैसे 1982 में हेमवंती नंदन बहुगुणा को हराने के लिये इंदिरा गांधी ने झोंकी थी। याद कीजिये तो मई 1981 से लेकर जून 1982 तक के दौरान इंदिरा गांधी हर हाल में हेमवंती नंदन बहुगुणा को हरवाना चाहती थी। पहली बार जमकर वोटों की लूट हुई तो चुनाव आयोग ने वोट पड़ने के बाद भी चुनाव रद्द कर दिया। दूसरी बार इंदिरा ने तारीखों को टलवाया और जून 1982 में जब मतदान हुआ तो उस चुनाव में बहुगुणा के टखने की हड्डी टूट गई थी। तो देहरादून में बुढिया के होटल से जाना जाने वाले होटल के कमरे में बेठकर ही उन्होंने गढवाल के हर गांव में सिर्फ एक पोस्टकार्ड यह लिखकर भेजा था, टखना टूटने से चल नहीं पा रहा हूं। चुनाव प्रचार करने भी आपके पास नहीं आ पाउंगा। आपके लिये जो किया है उसे माप तौल कर आप देखलेंगे। आपका हेमवंती नंदन बहुगुणा। तो पोस्टकार्ड में वोट देने को भी सीधे तौर पर नहीं कहा गया था। फिर भी 18 जून 1982 को चुनाव परिणाम आया तो बहुगुणा ने कांग्रेस के उम्मीदवार चन्द्र मोहन नेगी को 29,024 वोटो से हरा दिया था। तो सत्ता की ठसक को बहुगुणा ने अपनी उसी साख से हराया जिसे एक दौर में इंदिरा गांधी ने खारिज किया था।
लेकिन अब के दौर में नया सवाल यह है कि साख को लेकर जिस परिभाषा को कानून मंत्री सलमान खुर्शीद गढ़ रहे हैं, उस पर खरे उतरने से ज्यादा संस्थानों को ढहाते हुये साख बरकरार रखने का आ गया है। जाहिर है अऱुण पुरी तो चुनाव लड़ने मैदान में उतरेंगे नहीं और सलमान खुर्शीद पत्रकारिता के मिजाज को जीयेंगे नहीं। तो शायद साख की राजनीतिक परिभाषा को विकल्प के तौर पर सड़क से अरविन्द केजरीवाल गढ़ सकते हैं। क्योंकि इस वक्त इंडिया टुडे की रिपोर्ट और कानून मंत्री के अदालती घमकी के बीच आंदोलन लिये सड़क पर केजरीवाल ही खड़े हैं। और अब दिल्ली के घरना स्थल से उनका रास्ता सलमान खुर्शीद के राजनीतिक शहर फर्रुखाबाद ही जाता है। जहां जाकर वह सलमान को राजनीतिक चुनौती दें। क्योंकि पहली बार जनता को तय करना है की चुनाव में जीत का मतलब ही साख पाना है तो फिर फर्रुखाबाद भी साख की कोई नयी परिभाषा तो गढ़ेगा ही। तो केजरीवाल के ऐलान का इंतजार करें।
Monday, October 15, 2012
मीडिया को सूली चढ़ाकर सत्ता की साख बचाने का फर्रुखाबादी खेल
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:50 AM
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5 comments:
वाकई इन्तजार में हैं.
every one word like gold
अच्छा लिखा आपने !
i see that kejariwal n team lacking a solid strategy to take everyone with them n specifically citizens of india who don`t vote.
because this sect of india is little bit feeling betrayed by previous course of agitations.
they r unable to digest failure of a movement. people think differentely, they want if u hav to come in politics then make a fault proof structure of party, insulate it with internal democratic features, do public welfare activities, take a stand on each n every prolem of country, n then contest election constructevly.
this kind of exposes shd be handed over to media because it is duty of jornalism not poltical party to criticism of govt.
so on d voting behavior of indian people, mind set of different classes i don`t expect much for arvind n team.......
they hav to be much mature for victory in elections, their current performance is excellant in aspect of investigating jornalism.....
wat do u say???
yor opinions r much valuable.....
मजा आ गया सर इस तरह के article अगर पढने को मिल जाये तो दिल खुश हो जाता है बहुत अच्छा लिखते है सर आप.
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