जिनके खिलाफ आवाज उठी वे ही अंतिम संस्कार में क्यों थे
हमने शीला दीक्षित को जंतर-मंतर आने से रोका। शीला दीक्षित अंतिम संस्कार में चेहरा दिखा आयीं। हमने मनमोहन सिंह की चकाचौंध व्यवस्था में खोते मानवीय मूल्यों के खिलाफ आवाज उठायी। मनमोहन सिंह खुद सिंगापुर से आये कौफिन में बंद लडकी को रिसीव करने पहुंच गये। हमने सोनिया गांधी को अंधी होती व्यवस्था के खिलाफ जगाने की कोशिश की तो हमें 10 जनपथ के बाहर का रास्ता दिखा कर लड़की के शव पर चंद आंसू बहाने सोनिया गांधी ही हवाई अड्डे पहुंच गयीं। हम नेताओं के तौर तरीके, मंत्रियों के सलीके और पुलिस की ताकत के खिलाफ एकजुट हुये तो नेता, मंत्री और पुलिस ही रात के अंधेरे में मानवीयता का गला घोंट कर सरोकार को दरकिनार कर अपनी मौजूदगी में लड़की का अंतिम संस्कार कर शांति बनाये रखने की अपील कर खुश हो गये। हम क्यों शरीक नहीं हो पाये अंतिम संस्कार में। हम क्या करें। हमें लगा इस व्यवस्था में जो जो दोषी हैं, उन्हें आम लोग एकजुट होकर कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जिस तरह कठघरे में खड़ी व्यवस्था चलाने वाले ही जब पीड़ित लड़की को सफदरजंग से सिंगापुर भेजने का निर्णय लेते हैं और सिंगापुर से ताबूत में बंद लडकी के दिल्ली लौटने पर उसे श्रद्यांजलि देकर अपने होने का एहसास हमे ही कराते हैं, जैसे वह ना हो तो देश रुक जायेगा यह कब तक चलेगा।
यह जंतर-मंतर पर बैटरी से चलने वाले माइक से खामोशी में गूंजती ऐसी आवाज है जिन्हें सुनने के बाद करीब पांच से सात सौ लोगों के सामने यह सवाल खुद ब खुद खड़ा हो जाता है कि उनके विरोध का अब तक का तरीका सरकार-व्यवस्था के सामने कितना अपाहिज सा है। जो देश भर में बन रहे इंडियागेट या मुनीरका या जंतरमंतर से आवाज उठती है, वह मीडिया के जरीये समूचा देश देख तो लेता है लेकिन वह सिवाय भीडतंत्र से आगे क्यों निकल नहीं पाती। बड़े-बुजुर्ग ही नहीं बल्कि स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले लड़के लड़कियां भी जिस शिद्दत से अपने गुस्से का इजहार कागजों पर स्लोगन लिखते हुये और बीच बीच में नारे लगाकर करते हैं, वह किसके खिलाफ है। जो पुलिस नाकाबिल निकलती है, वही पुलिस लड़की के शव की सुरक्षा में लगती है। जो पुलिस सड़क पर अपराधियों को पकड़ नहीं सकती, वही पुलिस इंडिया गेट और लुटियन्स की दिल्ली की सुरक्षा में लग जाती है। जो पुलिस आम आदमी के खिलाफ अन्याय को एफआईआर नहीं मानती वही पुलिस अपनी एफआईआर में इंडियागेट से लेकर जंतरमंतर तक खड़े अपने विरोध के स्वर को अन्याय मान लेती है। जो सरकार चकाचौंध दिल्ली में लुटती अस्मत को संयोग मान कर आंकड़ों तले दिल्ली को सुरक्षित और विकासमय होना करार देती है, वही सरकार अपने विरोध को दबाने के लिये विकास के पायदान पर खड़ी मेट्रो को बंद कर देती है। सत्ता की तरफ जाती हर सड़क पर आवाजाही रोकने के लिये रविवार के दिन भी खाकी का आतंक खुले तौर पर तैनात करने से नही कतराती। यह सारे सवाल जंतर मंतर की सड़कों पर सौ-सौ मीटर तक पड़े उन सफेद कैनवास में दर्ज हैं, जिसे अपने आक्रोश से हर बच्चे ने रंग रखा है। सफेद कागज रंगते रंगते हाथ थकते हैं तो खड़ा होकर कुछ ऐसे ही सवालों को हवा में उछालता है और गुस्से में किसी बुजुर्ग से पूछता है कि क्या आजादी इसी का नाम है। क्या इसी भारत पर नाज है। और सवालो के बीच उसी गुस्से में कोई पिता की उम्र का व्यक्ति जवाब भी देता है, करें क्या जो कुछ नहीं कर सकते वही नेता बन कर सरकार चला रहे हैं। नेता को पढ़ाई-लिखाई कर नौकरी के लिये संघर्ष तो करना नही है। जिन्हे जिन्दगी जीने के लिये संघर्ष करना पडता है उनके लिये सरकार का मतलब सिर्फ वोट डालना है। आवाज तो वोट के खिलाफ भी उठानी होगी। नहीं तो हमारा वोट और हमारी सरकार। हमारी सरकार और हमारी पुलिस। हमारी पुलिस और हमारा कानून।
तो फिर अपराधी भी तो हमीं हैं। यह सब बदलेगा कैसे। सवाल सुधार का नहीं है। हर तरीके को बदलने का है। नौवीं कक्षा की छात्रा हो या मिरांडा हाउस में पीजी की छात्रा। वह यह समझने को तैयार नहीं हैं कि जो उनके सवाल है वह सवाल सरकार के मन में क्यों नहीं रेंगते। क्या देश इतना बदल गया है कि दिल्ली में रहते हुये भी मंत्री और जनता की समझ एक नहीं रही। सरकार सड़कों पर खाकी वर्दी का खौफ दिखाकर हमें कानून सिखाना चाहती है। लेकिन कानून देश और समाज की सोच को खत्म कर कैसे चल सकता है। सरकार किस पर राज करना चाहती है। राजनीतिकशास्त्र या समाजशास्त्र नहीं बल्कि कैमिस्ट्री की पढाई कर रही दिल्ली विश्वविघालय की छात्रा के सवाल समाज की जरुरत को लेकर है। माइक हाथ में थामकर वह सीधे सरकारी तंत्र पर अंगुली उठाती है। फांसी से समाधान नहीं होगा। जो बलात्कारी हैं, उन्हें थाने से लेकर अदालत और अदालत से लेकर जेल ले जाने के दौरान चेहरे ढके क्यों गये। क्यों नहीं उनके चेहरे पूरे देश को दिखाये गये। बलात्कारी की बहन, मां, बेटी के सामने यह सवाल आना चाहिये और बलात्कारी के सामने भी यह सवाल आना चाहिये कि बलात्कार करने के बाद उसके अपनो का समाज में जीना मुश्किल होगा। सामाजिक बहिष्कार की स्थिति हर बलात्कारी के सामने होनी चाहिये। फांसी तो अपराध की सजा है । लेकिन जिस दिमाग और माहौल की यह उपज है, उसें समाज की एकजुटता ही रोक सकती है। लेकिन सरकार या नेताओ का नजरिया समाज को महत्व देना ही नहीं चाहता। वह हर अपराध के लिये कानून को देखता है। ऐसे में यह सवाल बार बार आयेगा कि कानून लागू करने वाला और लागू करवाने वाला अगर अपराधी निकलेगा तो फिर समाधान का रास्ता निकलेगा कैसे। तो फिर संसद के विशेष सत्र का भी मजलब क्या है, जिसकी मांग विपक्ष कर रहा है। सही कह रहे हैं। संसद की महत्ता के आगे समाजिक दबाव बेमानी रहे यह हर नेता चाहता है।
कानून तोड़ने पर पुलिस और अदालत काम करती है। लेकिन कानून बरकरार रहे इसके लिये सामाजिक माहौल होना चाहिये। और फिलहाल समाज से कोई सरोकार सरकार का तो नहीं है। सही है सिर्फ सरकार ही नहीं उस राजनीति का भी नहीं है जो सत्ता के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। किसी हद तक ना कहिये, संसद के भीतर तो अब अपराध करने वालों की पूरी फेहरिस्त है। 162 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले किसी ना किसी थाने में दर्ज हैं। लेकिन राजनीति में सभी माफ है। क्योंकि राजनीतिक आरोपों की छांव हर अपराधी को बचा देती है। यह सवाल जवाब चकाचौंध तो नहीं लेकिन पेट भरे आधुनिक स्कूल कॉलेजों में पढ़ रहे लड़के लड़कियो के सवाल हैं, जो आपस में संवाद बना रहे हैं । जंतर-मंतर की सड़क के दोनों किनारे पुलिस के जमावडे के बीच गोल घेरा बना कर बैटरी के माइक या बिना माइक ही चिल्ला चिल्ला कर अपने होने का एहसास करा रहे हैं। इन्हें डर लग रहा है कल से लोगों की तादाद भी कम होती जाये। लोग फिर ना भुल जाये। वह मीडिया से गुहार लगाते हैं, आप तो बोलिये जिससे लोग आते रहे। विरोध करते रहें। नहीं तो सरकार फिर कहेगी यह पिकनिक मनाने आये थे और हमें अपने लोकतंत्र पर नाज है।
Monday, December 31, 2012
जिन्हें नाज है हिन्द पर वह कठघरे में है
Posted by Punya Prasun Bajpai at 11:00 AM
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12 comments:
...सब कुछ कह दिया है पंडिज्जी !
JAB JINDAGI TINKA TINKA BIKHAR RAHI THI TO WAHA KOI POLICE SURACHA NAHI THI PAR SHANT SHARIR KO HAR TARAH SE SURACHA MAUJOOD THI..HAR KOI YAHI KAh RAHA THA YAAR BAHUD DUKHAD HAI HAM TO APNE AASU HI NAHI ROK PAAYE AUR STAA KO JITNI GALIYA DENI THI SABNE DI..PAR SAWAL YAHI HAI KI SADAK PAR ITANA GUSSA PASRA HAI, MEDIA ME BHI ITNI TALKHI PAR SARKAR TAB BHI ITNI GAMBHIR KYO NAHI DIKH RAHI HAI..BHAWANO SE DIL PIGHLTA HAI ,DESH NAHI CHALTA AUR YAHI HUAA HAI..SADAK PAR JO BHID HAI YADI USE AIK GAIR POLITICAL LEADERSHIP MIL JAATA JISKE NETRITWA ME BHID AAGE BADHTA TO AISA KUCH NAHI THA KI SARKAR NAHI JHUKTI..GUSSA HAI PAR CLEAR AGENDA BHI HO TAAKI SATTA KE KANO ME CLEAR BAAT PAHUCHE..MEDIA SATH ME HAI PAR KYA PURA SACH DIKHA PAAYE? MEDIA KUCH CHUPA RAHI HAI SABHI JAANTE HAI..
यही है शासन करने की सर्वश्रैष्ठ पद्धत्ति-लोकतांत्रिक गणराज्य। क्या किया जाए, समझ से परे लगता है। आप इसके लिए सत्ता प्रतिष्ठानोँ को दोष देते है लेकिन मुझे जनता का ही मिजाज समझ मेँ नहीँ आता.!! 2004 मेँ एनडीए के अटल बिहारी क्या इतने बुरे थें.? अन्ना के आन्दोलन मेँ क्या कमियाँ जनता को लगी जो दोबारा तिबारा जाने मेँ घबराने लगी.? 5 सालोँ मेँ उ.प्र. की जनता मुलायम सरकार की करतूतोँ को भूल गई जो फिर 5 सालोँ के लिए ताज पहना दिया.? वीरभद्र सिंह को भ्रष्टाचार के खिलाफ केन्द्र मेँ मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा वे मुख्यमंत्री बन गए, खण्डूरी के लोकायुक्त की अन्ना ने तारीफ की लेकिन मुख्यमंत्रित्व के साथ साथ विधायकी भी चली गई.!!
हो सकता है इन हार जीत के पीछे अन्य कारण होँ लेकिन जो भ्रष्टाचार मेँ सीधे-सीधे डूबे हैँ जनता को वे नहीँ दिखाई देता है.?
आदरणीय प्रसूनजी,
देश के निति निर्धारक हमें जिस व्यक्ती प्रधान समाज की ओर ले जाना चाहते हैं, वहीँ पर पुलिस का रोल है । हमारे भारतीय संस्कृति में व्यक्ति, दम्पति, परिवार, समाज और राष्ट्र सबका का बेजोड़ ताल मेल था और शायद इसलिए पुलिस की आवश्यकता नहीं थी । आपने जो "सामाजिक बहिस्कार" की जो बात कही वही तो था हमारे भारतीय समाज की रीढ़ की हड्डी। कोई गलत करने से पहले दो बार जरूर सोचता होगा की इसके दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं ।
अपने इतिहास को भुलाकर कोई भी देश अपने लिए अपना उत्तम भविष्य नहीं बना सकता । यहाँ के family system को बर्बाद करके ये लोग देश को बर्बादी के रस्ते पर ही ले जा रहे हैं ।
ब्रजेश,
मुंबई
हम पोस्टों को आंकते नहीं , बांटते भर हैं , सो आज भी बांटी हैं कुछ पोस्टें , एक आपकी भी है , लिंक पर चटका लगा दें आप पहुंच जाएंगे , आज की बुलेटिन पोस्ट पर
बेकार खुजली मिटाने का रोना हैं,
कोऐ के पिछे भागने के बजाय अपने कान पर हाथ रखे, विपक्ष भूमिका में मीडिया इन लोकलुभावने नारो को इसीलिऐ जमाऐ रखना चाहता हैं कि जंतर मंतर पर एक कैमरा टांग कर 24 घंटे के समाचार के नाम पर विज्ञापन चलाऐ रखे जिन्हे व्यवस्था को कोसने का भी पैसा मिलता हैं ,
जरा खिडकी खोल कर देखिये हमारी तथाकथित प्रगतिशील कह लाने वाली युवा किस तरह बेलगाम हैं जो पल्लू संस्कार और मर्यादा के लिऐ दिया गया था उससे सडको पर मूंह छिपा ब्याभिचार किया जा रहा हैं इनके सब कर्म understood हैं, खामियाजा मध्यमवर्गीय, अपेक्षाकर्त कम खूबसूरत परिवार के लिऐ लडती मरती लडकी को भुगतना पड रहा हैं, हम अपने को सुधारये यही बेहतर हैं नही तो सच हैं कि शाम को कैडल जला शेखी बघार कर रात को पब में मटकने वाली जमात खुद depression का शिकार हो रही हैं जिनके लिऐ हर गली मेंसरकारो ने नशाखोरी की दूकाने खोल रखी हैं
Sir, No badi khabar ?
मौजूदा सरकार का लक्ष्य तो केवल आते हुए संघर्ष या स्थिति को किसी भी सूरत में घडियाली आसू दिखाकर या रौंदकर अगले चुनाव तक सत्ता में टिके रहना ही है। कड़े कानून बनाने से पहले समाज का हर वो आईना बदलना होगा जिसमे समाज की सूरत वेहशी दिखे। हर सरकार कानून बनाते हुए अपने गिरबान तले पल रहे दागी लोगों को भी उसके अन्दर लाये जिससे कांडा, शर्मा जैसो की हिम्मत धराशाही हो जाए। एक शव को पुलिस सुरक्षा मिलने से बेहतर है आम आदमी को मिले ताकि वह शव में तब्दील ना हो। मिडिया भी नैतिकता की तर्ज पर समाज सुधार में अपना योगदान दे ना की केवल रफ्तार भरी खबरों के बिच अपना कॉर्पोरेट मुनाफ़ा बनाकर बुनियादी खबर को दरकिनार कर दे।
"ये पुरापे, ये गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियाँ, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज है हिंद पे वह कहाँ है?"
अभी खबर मिली है। आप जी न्यूज छोड़ गए। बधाई!
नववर्ष पर शुभकामनाएँ! आप के सभी संकल्प पूरे हों!
gr8 sir you r always king in journalism
jai hind
happy new year u n ur family
manvendra
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jai hind
happy new year u n ur family
manvendra
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