Friday, April 12, 2013

बेइज्जत होता किसान-महाराष्ट्र सूखा पार्ट-1

महाराष्ट्र में सूखा सिर्फ किसानों के लिये है। खेती की जमीन के लिये है। उद्योंगों, शुगर फैक्ट्री, पांच सितारा होटल , बीयर बार और नेता मंत्रियों के घरो से लेकर किसी भी सरकारी इमारत में पानी की कोई कमी नहीं है। बीते हफ्ते विदर्भ और मराठवाडा घुमने के दौरान मैंने पहली बार महसूस किया कि सिर्फ राजनेता ही नहीं हर तबके के सत्ताधारियो के विकास और चकाचौंघ के दायरे से किसान और खेती बाहर हो चुके हैं। सरकार की नीतियां ही ऐसी हैं जिस पर चलने का मतलब है किसानी खत्म कर मजदूरी करना। या फिर उघोग घंघों को लाभ पहुंचाने के लिये खेती करना। फसल दर फसल कैसे खत्म की जा रही है और खेती पर टिके 70 फिसदी से ज्यादा नागरिको की कोई फिक्र किसी को नहीं है। अपनी सात दिनो की यात्रा के दौरान मैने भी पहली बार जाना कि महाराष्ट्र के नेताओं की लूट ग्रमीण क्षेत्रो में सामंती तौर तरीको से कहीं ज्यादा भयावह है। और यह चलता रहे इसके लिये सरकार की नीतिया और नौकरशाही का कामकाज और इसमें कोई रुकावट ना आये इसके लिये पुलिस प्रशासन का दम-खम अपने रुतबे से कानून बताता है और एक आम नागरिक या किसान-मजदूर सिर्फ टकटकी लगाये अपना सब कुछ गंवाये देखता रहता है।

इसकी शुरुआत मैं लातूर जिले के शिराला गांव में स्थित स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से कर रहा हूं। क्योंकि पहली बार मैंने किसानो को बे-इज्जत होते हुये सरेआम देखा। और बेइज्जत करने के तौर तरीको के पीछे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की गाइडलाइन्स बतायी गयी। पानी के लिये तरसते किसानों के खेतों में जाकर सवाल जवाब करने पर मुझे एक किसान ने लगभग रोते हुये बताया कि उसने बैंक से 70 हजार रुपये कर्ज लिये थे। चार साल हो गये हैं। कर्ज लौटा नहीं पा रहा हूं। हर बार कपास होता नहीं । पिछले बरस जब कपास ठीक ठाक हुआ तो किमत ही नही मिली । सरकार ने समर्थन मूल्य उपज के खर्च से भी कम कर दिया और दवाब डाला कि कपास की जगह मै गन्ना उगाउ । क्योकि लातूर में शुगर फैक्ट्री को गन्ना चाहिये । और महाराष्ट्र में सरकार ने फसल खरीद को लेकर जो समर्थन मूल्य तय किया है उसमें गन्ना इसलिये अव्वल है क्योंकि सारी शुगर फैक्ट्री उन्हीं नेताओं की है जो विधानसभा में नीतियों को बनाते हैं। लेकिन किसान ने डबडबायी आंखों से बताया कि बैक ने उन्हें नोटिस भेजा है और बैक की दीवार पर बडे बडे अक्षरो में यह लिख दिया है कि किसान मोटघरे ने चार बरस से बैक का कर्ज नहीं लौटाया है। और इस किसान का सार्वजनिक बहिष्कार होना चाहिये। किसान ने अगले तीस दिनो में अगर बैक का कर्ज नहीं लौटाया तो बैक के अधिकारी गांव में कर्जदार किसान के घर के बाहर ढोलक-डमरु बजाकर किसान को चोर करार देकर सार्वजनिक तौर पर बदनाम करेंगे।

असल में शिराला बैक जाने पर जैसे ही कैमरे पर 100 से ज्यादा किसानों के नाम की सूची को हमने कैमरे में उतारा वैसे ही बैंक का मैनेजर सक्रिय हो गया। और गांव वालो को उकसाने लगा कि अगर इसी तरह बैक का नाम अखबार या टीवी में आने लगेगा तो गांव में बैक ही बंद करना पडेगा । फिर गांववालो को और मुश्किल का सामना करना पड़ेगा। जो किसान अपनी बदनामी के फैलने से रो रहे थे उन्हीं के खिलाफ बैक का पक्ष लेकर बाकि गांव वाले कर्जदार किसानों पर ही कसीदे गढ़ने लगे। पुलिस ने भी सरकारी कामकाज में रुकावट डालने के लिये कर्जदार किसनो को घेर लिया। जब बैंक मैनेजर से बात हुई तो उसने कहा उन्हे नादेंड हेडक्वार्टर से यह निर्देश आया है कि कर्जदार किसानों के नाम बैकं की दीवार पर चस्पा करें। ऐसे में लातूर के कई दूसरे बैक का दौरा करने पर देखा गया कि कर्जदार किसानों के नाम चस्पा हैं। जानकारी मिली कि पचास हजार से साढे पांच लाख तक के कर्जदार किसानों की तादाद सिर्फ महाराष्ट्र में 15 हजार है। और इन किसानो को लेकर बैंक का जो पैसा फंसा है वह 6 से 8 करोड के बीच है। और बैंक इस पैसे की उगाही तुंरत चाहते हैं ।जाहिर है उपर से देखने पर यह सही लगा कि बैंक क्या करें। लेकिन बैक के ही एक अधिकारी ने जब जानकारी दी कि किसानो ने चार बरस से अगर 6 से 8 करोड नहीं लौटाये हैं और उनके नाम चस्पा कर दिये गये है तो बीते 12 बरस से मराठवाडा के दो हजार उघोगो ने दस हजार करोड़ से ज्यादा की रकम बैंकों से कर्ज लेकर नहीं लौटायी है। और आजतक किसी उघोग का नाम या उघोगपति का नाम बैक की दीवार पर चस्पा नहीं किया गया। सिर्फ लातूर की शुगर को-ओपरेटिव पर ही बैक का ती सौ करोड़ से ज्यादा का कर्ज है। और कर्जदार तमाम बड़े राजनेता हैं। जिनकी दखल सरकार से लेकर हर बडे महकमे में है। लेकिन उनका नाम कभी सामने नही आया। जबकि उघोगपतियों ने कम से कम पांच करोड़ रुपये बैक से कर्ज लिया है। यानी सभी किसानो पर एक उघोगपति भारी हैं। और यह सवाल जब बैक मैनेजर के सामने रखा गया तो उसने सरकार के फरमान का जिक्र कर यह कहते हुये पल्ला झाड़ा कि उद्योगों को तो ई-मेल के जरीये नोटिस भेजा जाता रहता है। किसान अनपढ हैं, इसलिये बैंक की दीवार पर नाम चस्पां हैं।

5 comments:

सतीश कुमार चौहान said...

सब ठिकरा बैक पर , ये ठीक नही, बैं‍‍क हमारे आपके पैसे से ही चल रहा हैं इस एवज में ये हमारा पैसा न दे तो हमारा क्‍या रियेक्‍सन होगा, बात नीति बनाने वालो की हो तो बेहतर जिनके तमाम कारनामे करतूत मीडिया ही विज्ञापनो की पैकेजिंग में लोकलुभावनी बना कर दिखाती हैं,मीडिया ही घूटने टेक चूका हैं ,बस रोटी सेंक रहा हैं मोदी के मीडियाई उन्‍माद पर ..............

VINAY KUMAR SINGH said...

wah kya likha hai apne .

Unknown said...

बहुत बढ़िया सर.अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिये भी आपने नेताओ क साथ-साथ उन तमाम पत्रकारों को भी आपने जमीनी हकीक़त से रूबरू कराया,जो AC में बैठकर और शीशे में दुनिया को देख कर बड़ी-बड़ी बातें करते है....आपकी एक बात याद आ गई,जब आपने पहली मीटिंग में हमसे कहा था-अरे भाई,हम पत्रकारों का काम ही है,जनता के बीच जाना और उनके दुःख-दर्द को सामने लाना........

अम्बरीष मिश्रा said...

अंततः

लड़ाई व्यक्ति व्यक्तित्व और कंपनी प्रोफिट के बीच में है

एक नीति के तहत कानून कुछ लोगों की कठपुतली है और बाकी सब किरदार

अम्बरीष मिश्रा said...

अंततः

लड़ाई व्यक्ति व्यक्तित्व और कंपनी प्रोफिट के बीच में है

एक नीति के तहत कानून कुछ लोगों की कठपुतली है और बाकी सब किरदार