Sunday, April 14, 2013

खेत ची जमीन श्मशान आहे.... : महाराष्ट्र सूखा-आखिरी पार्ट



सत्ता की मस्ती में मरते किसान

ए खेत ची जमीन नाही..श्मशान चे जमीन आहे। संयोग से यह बात विदर्भ से लेकर मराठवाड़ा के गांव गांव में घूमते वक्त औरंगाबाद के उसी डैम के किनारे महादेव ने कही जिसकी नींव डालते वक्त लाल बहादुर शास्त्री ने समूचे मराठवाडा की प्यास बुझाने का सपना जगाया था। महादेव ने 1965 में जय जवान जय किसान के सपने तले अपनी 165 एकड़ जमीन 164 रुपये पचास पैसे प्रति एकड़ के भाव से सरकार को दे दी और 2013 में महज तीन एकड़ जमीन सींचने के लिये तो दूर घर में खाना बनाने के लिये उसी डैम किनारे पानी नहीं है। किसानों के सामने यह सवाल समूचे मराठवाडा में हर डैम या सिंचाई परियोजना को लेकर है। बुलढाणा की रमाबाई हो या जालना के बाबुलकर। लातूर के गायकवाड हो या उस्मानाबाद के बाबलसुरे। किसी की खेती परियोजना में आ गई तो किसी की खेती परियोजना ने ही परती कर दी। डैम और परियोजनाओं से पटे पड़े महाराष्ट्र का नया सच यही है कि बीते डेढ दशक के दौरान सत्ताधारियों ने मुनाफे के विकास की ऐसी लकीर खींची, जिसमें किसान की खेती किसान की मेहनत की जगह सरकारी नीतियों पर टिक गयी। उघोगों के सामने खेती हाशिये पर चली गयी। और उघोगों के मुनाफे के लिये खेती के तौर तरीके किसानो को सरकारी नीतियों के तहत बदलने पड़े। कपास की खेती ने खुदकुशी करना सिखाया। तो गन्ने की खेती ने अन्न छोड़ पैसे के पीछे भागना सिखाया। जमीन पहले बंजर हुई। फिर खेती छोड़ मजदूरी करना किसान की मजबूरी बनी और अब 2012-13 का
सच यही है कि मराठवाडा के 12 लाख किसान पश्चिमी महाराष्ट्र में गन्ना काटने की मजदूरी कर अपना जीवन चला रहे हैं। और शुगर फैक्ट्रिया चलती रहीं। इसके लिये हर डैम का पानी आज भी उन्ही शुगर फैक्ट्रियो को जा रहा है जिसके मालिक वही राजनेता है जो किसानों के वोट पाकर विधानसभा में महाराष्ट्र के विकास की नीतिया बना रहे हैं। और किसान परती जमीन पर बैठकर इन्द्र भागवान से मन्नत भी मांग रहा है और उघोगों के साये में निगली जा रही खेती को बचाने की गुहार भी लगा रहा है।

तुमची रोजी रोटी कशी चलते। मेरी रोजी रोटी। मैं तो आपसे पूछ रहा हूं तुमची रोजी रोटी कशी चलत आहे... । तुम्ही पत्रकार आहे ना ...घरात कोंण कोंण आहेत .... सभी हैं। तुमची खुशनसीबी आहे। और 81 बरस के महादेव की जुबान इसके बाद डगमगा गई ...आंखे भींग गई और लगभग रोते हुये खेत की जमीन को श्मशान चे जमीन कह कर कुछ भुनगुनाते हुये महादेव चल दिये। मैली धोती । बदन पर अंगोछा । फटी चादर से ढका सिर और माथा । और डैम की तरफ उठती कांपती अंगुलियों के साथ ही उल्टे सवाल से महादेव ने सूखा पर सवाल करने पर जवाब दिया था। बाद में गांववालों ने बताया मराठवाडा की प्यास बुझाने और किसानों को राहत देने के लिये लालबहादुर शास्त्री के दिखाये सपनो के आसरे जीने वाले किसानो में एकमात्र महादेव ही बचे हैं। खेतीहर किसान महादेव इस सच को मानने के लिये आज भी तैयार नहीं है कि जिस डैम को बनाने के लिये 45 गांव समेत 35 हजार डेक्टेयर जमीन डूब गयी। वह डैम आज एक भी गांव की प्यास क्यों नहीं बुझा पा रहा है। पैठन साड़ी के जरीये दुनियाभर में पहचान बनाने वाले पैठन गांव का नया सच यही है कि चंद हाथो की दुरी पर 1965 में जिस बांध की नींव डालते वक्त लालबहादुर शास्त्री ने समूचे मराठवाडा की जमीन की प्यास बुझाने का सपना जगाया, 48 बरस बाद वहीं बांध सिर्फ पांच सौ मीटर की दूरी पर बसे गांव की प्यास बुझा पाने में भी सक्षम नहीं हो पा रहा है। और इसका असर है कि मराठवाडा के आठ जिलों के तीन हजार से ज्यादा गांव बूंद बूंद पानी के लिये तरस रहे हैं। हर गांव में किसान के माथे पर सिर्फ पसीना है। खेत में अन्न का एक दाना नहीं। सुनसान पड़े खेत खलिहानों में मवेशी भी जाने को तैयार नहीं। हर बावड़ी सूखी है। ट्यूब वैल जमीन
से पानी खींच पाने में असफल है। बावजूद सबके जिन्दगी अपनी रफ्तार से कैसे चल रही है और लोगो कैसे जी रहे हैं, यह सोचने और देखने का नायाब सच 2013 है।

शाम ढलने के बद जैसे ही बिजली आती है, हम खेतों के लिये रवाना हो जाते है । बेटा मनु ट्यूब वैल चलाता है। तीनों बेटियां खेत में मिट्टी हटाकर पानी के लिये रास्ता बनाती है। मैं और मेरे पति वागुलकर खेती का काम शुरु करते हैं। रात एक बजे तक और कभी कभी रात तीन बजे तक खेत में काम कर लौटते हैं। उसके बाद बिजली फिर चली जाती है तो गांवों में कोई काम होता ही नहीं। अगर रात में काम ना करें तो बच्चे पढ़े कैसे और हम जीयें कैसे। दो बार पुलिस पकड़ ले गयी की रात में खेत में क्या कर रहे हो। जब पुलिस को समझ में आया कि हालात ऐसे हैं कि खेत को पानी तो रात में ही दो सकते है तो उसने जाने दिया। लेकिन हम तो रात भर खेत खलिहान को जगाये रखते है। यह भी पाप है। लेकिन करें क्या। शालनीताई यह कहते कहते रो पड़ी कि उनके सगे संबंधी उन्हें पागल समझते हैं। सेवाग्राम भी यही है और पावनाग्राम भी यही है। लेकिन आप ही बताओ क्या महात्मा गांधी ने कभी सोचा होगा या विनोवा भावे ने कभी कल्पना भी की होगी कि जिस वर्धा जिले में उनका जीवन बीता और जिस वर्धा के जरीये उन्होने खेती को जीवन से जोड़ने का पाठ दुनिया को पढ़ाया उसी वर्धा में खेती करना कभी हर पल मरने के सामान हो जायेगा। वर्धा के भूगांव में पानी इसलिये नहीं है क्योंकि वहां स्टील इंडस्ट्री और पावर स्टेशन सारा पानी पी रहे है। और जो पानी उघोग के रास्ते खेतों से होते हुये जमीन के नीचे जा रहा है, उससे बीते एक महीने में 80 से ज्यादा मवेशी मर चुके हैं। बापू की कुटिया सेवाग्राम समेत 65 गांव कचरे से बने जहर मिला पानी पीने को मजबूर है। जिले में खेती के लिये तीन योजनाएं लोअर वर्धा, अपर वर्धा और मदन डैम तो हैं। लेकिन 90 फीसदी पानी उघोगों और शहरी मिजाज को विकसित करने में खप रहा है। सिर्फ 11 फिसदी खेती ही ऐसी है जहां तक पानी सिंचाई के लिये पहुंच रहा है। 89 फीसदी खेती के लिये सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है। मौजा, खडकी, आमगांव, वरबडी गांव और किनीगांव समेच वर्धा के साढे तीन सौ ऐसे हैं, जहां के आठ हजार किसान परिवारों को रात में बिजली आने पर ट्यूब वैल से खेत में पानी की व्यवस्था करने के लिये जागना पड़ता है। रात में 8 घंटे बिजली आती है तो उसी दौरान खेती शुरु और खत्म होती है।अब शालनीताई को कोई पागल समझे या खेतीहर उसका जीवन तो शाम ढलने के बाद ही शुरु होता है।

यवतमाल तो किसानों के विधवाओं की जमीन में बदलती जा रही है। लेकिन राहुल गांधी ने जिस तरह विकास की रोशनी से विधवा कलावती का जिक्र कर उसे लाखों दिलवा दिया संयोग से महाराष्ट्र सरकार भी उसी लकीर को खिंचने में लग चुकी है। हाई-वे के किनारे सिर्फ दो किलोमीटर दूर ही जालका गांव में घुसते ही कलावती का घर आ जाता है। अधपक्के घर में जमीन पर लेटी कलावती यह कहने से वहीं कतराती की उसे धन तो मिला लेकिन तकदीर ने उसका साथ नहीं दिया। और  यवतमाल में किसी भी किसान परिवार के तकदीर के साथ कोई नहीं है। कपासउगाते किसानों की पेरहिस्त में कलावती के पति ने 2005 में खुदकुशी कर ली थी। लेकिन बीते सात बरस में सिर्फ यवतमाल के साढे चार चौ गांव में साढ़े तीन हजार से ज्यादा कलावती विधवा हो चुकी हैं। लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। कलावती के गांव से 70 किलोमीटर दूर बोथबोर्डन गांव तो घुसने के साथ ही मरघट सा लगने लगता है। क्योंकि यह ऐसा गांव है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की। एक साथ 22 महिलाओं का विलाप हर किसान की खुदकुशी के साथ बढ़ता। बीते तीन महिनों में यवतमाल के 53 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। इस बार संकट बेमौसम बारिश का है। इसीलिये यहां खुदकुशी की वजह
दोहरी है। कभी पानी नहीं तो कभी फसल की कीमत नहीं। 2010 में पानी नहीं था तो 673 किसानों ने खुदकुशी की और 2011 में कपास की किमत कोई देने को तैयार नहीं था तो 589 किसानों ने खुदकुशी कर ली। और यवतमाल हर दिन उसी रुदन में समाता है,जिसके आसरे खेती की उम्मीद बनने और टूटने का दर्द हर दिन एक रुदन से बढता जाता है। बोर्थबोडर्न में सबसे पहले राहुल गांधी पहुंचे। फिर एम स्वामीनाथन, उसके बाद मणिशंकर अय्यर । फिर श्री श्री रविशंकर पहुंचे और हाल ही में योजना आयोग की एक टीम भी पहुंची। बावजूद इसके ना किसानों को राहत मिली ना खुदकुशी रुकी। और राज्य के सबसे गरीब जिले होने के तमगे ने यवतमाल को हमेशा राहत और पैकेज तले ही टटोला। 2007-08 में प्रदानमंत्री मनमोहन सिंह भी यवतमाल आये तो उन्होंने किसानों की विधवाओं से मिलने का एक अलग से कार्यक्रम रखा। कुल 35 विधवायें उस सभा में पहुंची लेकिन प्रधानमंत्री के जाने के बाद से उसी गांव में 72 और महिलाएं विधवा हो चुकी हैं।

बुलढाणा तो 43 सिचाई योजनाओं पर बैठा है। यहां सबसे पहले 1958 में जवाहर लाल नेहरु नलगंगा सिचाई योजना के साथ आये। और यह कहकर लौट गये कि नलगंगा से बापू के वर्धा की प्यास भी बुझ जायेगी। लेकिन 2013 में नलगंगा का मतलब डैम की सिमेंट की उंची दीवारो की छांव में जमीन पर चादर बिछाकर सोते किसान और हर सुबह शाम झुंड में यह देखने आती ग्रामीण महिलाएं, जिन्हें उम्मीद है कि कोई दिन तो होगा जब उनके आंसुओं पर डैम का पानी भारी पड़ेगा। पानी के लिये परंपराओं को पीछे छोड बुलढाणा की महिलाये अब घर से बाहर बिना घूंघट में निकल कर खेत तक पानी लाने के लिये बांध में काम करने को भी
तैयार है।बुलढाणा की सबसे बडी मुश्किल यह है कि अगर 43 परियोजनाओं के बाद भी सूखा है तो सच यही है कि कोई बांध ऐसा है नहीं जहां कभी सफाई हुई हो। हर बांध तले गाद इतनी ज्यादा जमी है कि पानी अगर बरस भी जाये तो चंद घंटों में सारा पानी बह जायेगा। जबकि बीते दस बरस में बीस हजार करोड़ इन्हीं परियोजना को विकसित करने के नाम पर कौन डकार गया इसकी लिस्ट परियोजना की संख्या से ज्यादा है। सरकार के दस्तावेज में 95 फीसदी योजनायें सूखी हुई हैं और बाकि 5 फिसदी खतरनाक लेवल पर हैं। जीगांव योजना तो ऐसी है कि सूखे के दौर में भी काम पूरा करने के नाम पर कमाई जारी है। अखबार में विज्ञापन निकालकर बकायदा जीगांव योजना के लिये ग्राम पंचायत से लेकर स्कूल की इमारत और डूबने वाले खारकुंडी समेत दर्जन भर गांव के पुनर्वास का टेंडर निकाला गया। और मजे की बात है कि सूखे के दौर में भी तमाम राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों ने टेंडर पाने के लिये होड़ मचा रखी है। और प्रोजेक्ट की कीमत इसी दौर में 394.83 करोड़ से बढकर 4044 करोड़ पहुंच चुकी है।

लेकिन बुलढाणा से सटे जालना का सच तो कहीं ज्यादा गहरा है। जालना की प्यास बुझाने वाली एकमात्र बावडी जो निजाम के दौर से कभी नहीं सुखी वह भी इस बार बिन-पानी है। तो बाल्टी से टैंकर और पाइप से लेकर ट्यूब वैल तक से हर दिन साढ़े चौर करोड़ रुपये कमाये खाये जा रहे हैं। जिसपर सरकार की हीं रोजगार लेने-देने या पानी के लिये लुटने-लुटाने का खेल चलता है । जालना शहर तो पानी खरीद सकता है लेकिन जालना के गांव क्या करें । पहली बार सूखे ने जालना के किसानो को कुदकुशी करना सीखा दिया है। तीन किसानों ने खुदकुशी की। कर्ज लेकर कपास की खेती की। खेत सूख गये । फसल जल गयी । तो कर्ज चुकायेंगे कैसे-खुदकुशी कर ली। 12 हजार हेक्टेयर जमीन पर मौसमी की खेती जलकर खाक हो गयी। 18 हजार हेक्टेयर जमीन पर कपास की फसल सुख कर जल चुकी है। और जिन खेतों में कपास बची हुई है वहां सुबह 7 बजे से दोपहर दो बजे तक कपास बीनने की एवज में सिर्फ 50 रुपये ही देने की स्थिति में किसान है। जालना ही नहीं समूचे मराठवाडा में मनरेगा है, क्या चीज कोई नहीं जानता। ऐसे में किसान जब मजदूरो को मजदूरी देता है तो अपनी स्थिति दिखा-बता कर मजदूरी तय करता है। और जालना में किसी किसान की ऐसी स्थिति
नहीं है कि वह मजदूरी सौ रुपये दे सके। जालना ही नहीं समूचे मराठवाडा में किसानों की जुबान पर यह नारा है कि मजदूरी में सौ रुपये चाहिये तो गन्ने के खेत में जाओ। यानी पश्चिमी महाराष्ट्र में जा कर मजदूरी करो।
और जालना में जब हजारों हेक्टेयर जमीन परती हो चली है और किसानों के घरों में चुल्हे बंद पड़ने लगे हैं तो गांव के गांव मजदूरी के लिये पश्चिमी महाराष्ट्र का रुख भी कर रहे हैं। जालना से अगर दस हजार से ज्यादा मजदूर अगर अप्रैल के पहले हफ्ते में काम की खोज में पुणे-मुंबई का रास्ता पकड़ चुके हैं तो सबसे बुरी स्थिति पलायन को लेकर बीड की है।

बीड में तो सबसे बडी सिचाई योजना माझलगांव की तलहटी में बसे माझलगांव केदो हजार किसान परिवारों के सामने संकट हर दिन पानी के जुगाड़ का है। अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके माझलगांव डैम से किसान पानी ले नहीं सकता क्योंकि डैम से सीधे पानी लेने का मतलब है 250 रुपये का चालान या जेल की सजा। डैम में जो पानी बचा है वह वीवीआईपी के लिये है। वीवीआईपी कौन होता है यह सर्किट हाउस में जाकर पता चलता है जहां रजिस्टर में साफ साफ लिखा है कि...सर्किट हाउस में जो भी रुकेगा उसे हर हाल में हर तरह से पानी की सुविधा अधिकारियो को मुहैया करानी होगी। और रजिस्ट्रर में दर्ज इस आदेश की एक कापी डेम के चीफ इंजीनियर के पास भी है। तो डैम के आसपास से गुजरना भी अब माझलगांव के लोगों के लिये मुश्किल है।डैम में पानी नहीं है तो एक मात्र पावर स्टेशन पार्णी में भी काम ठप हो गया है। बिजली और पानी के संकट की वजह से 12 हजार से ज्यादा किसान मजदूर सिर्फ माझलगांव के इलाके को छोड़ चुके है । ट्रैक्टर, बस और हाई-वे पर दौड़ते ट्रकों में इन इलाकों के मजदूर पहली बार काम की खोज में अप्रैल में गांव छोड़ कर जा रहे हैं। चूकि गन्ने के खेतों में काम सितबंर से मार्च तक ही होता है। और अप्रैल के महीने से घरों में मजदूरों के लौटने का सिलसिला शुरु होता है। तो बीड के किसान-मजदूरो के सामने नया संकट सूखे के दौरान काम नहीं मिलने का भी है। और किसानी छोड़ महानगरों का रास्ता पकड़ते मजदूरो की तादाद में लगतार तेजी आ रही है।

उम्सामानबाद और लातूर का सच तो कहीं ज्यादा भयावह है। बीस बरस पहले भूकंप में सब कुछ गंवा चुके इन इलाकों के 300 गांव में सिर्फ यह सवाल है कि भूंकप ने ज्यादा हिलाया या पानी की किल्लत ज्यादा मार रही है । 20 बरस पहले भूकंप का केन्द्रबिन्दु लातूर का किल्लारी था . और उस वक्त किल्लारी के सरपंच डा. एस डी परसालगे थे। जिनकी उम्र अब 80 पार की है। सूखे ने उन्हें इतना हिलाया है कि 23 मार्च को राज्य के मुख्यमंत्री को गांव दर गांव के दर्द को चार पन्नों में उकेर कर एसी कमरे से बाहर निकल कर बोतल बंद पानी छोड़कर एक बार किल्लारी आकर लोहार, सुतार कुभांर, माली, कोली, ढोर, चर्मकार और किसान के घर रात गुजारने का आग्रह किया है। और दावा भी है कि हर घर की हर रात भूंकप से कहीं ज्यादा काली है। सिर्फ एक बार आ तो जाइये। लेकिन महाराष्ट्र के सूखे का नायब सच यह भी है कि सूखा सिर्फ किसान और मवेशियो के लिये है। उघोग, पावर प्लाट, शुगर फैक्ट्री, तीन या पांच सितारा होटल और हर तरह की सरकारी इमारतों में पानी की कोई कमी नहीं है। जहां कमी है वह प्रशासन की पहली और आखिरी प्राथमिकता टैंकर या ट्यब वैल के जरीये इन्हीं जगहों पर पानी पहुंचाने की है। मसलन नासिक से नादेंड तक गोदावरी नदी के किनारे कोई खेत ऐसा नहीं है जहां पानी हो। लेकिन कोई उघोग ऐसा नहीं है जो पानी की वजह से ठप हो गया हो। या कोई होटल ऐसा हो, जहां बोर्ड लगा हो कि पानी का उपयोग कम करें क्योकि इलाके में सूखा पड़ा है और
किसानों को पानी नहीं मिल रहा है। गोदावरी नदीं जब महाराष्ट् से निकल कर आंध्र प्रदेश के तेलांगना क्षेत्र में जाती है तो संयोग से आखिरी जिला भी उसी सूखे मराठवाडा के नादेंड का ही आता है जहां कि 80 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन पर बूंद पर पानी नहीं है। नादेंड शहर से सिर्फ 8 किलोमटर की दूरी पर एशिया का बसे बडी लिफ्ट सिंचाई परियोजना विष्णुपुरी डैम है।जिसके जरीये नांदेड, कंधार और लोहा ताल्लुका के 20 हजार हेक्टेयर जमीन को सींचा जाता रहा है। लेकिन 2013 में इसके 18 गेट में कोई नहीं खुला है । इसी तरह अपर मन्नार परियोजना के जरीये भी 12 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन सूखी पड़ी हैं। और महाराष्ट्र में गोदावरी के आखिरी पड़ाव बाबली डैम के जरीये भी जो 10 हजार हेक्टेयर जमीन सिंची जानी थी वहा बीते तीन महिने से एक बूंद पानी नहीं छोड़ा गया है। यह सच है कि हर डैम में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। लेकिन हर डैम की निगरानी और डैम के पानी को ट्यूब वैल के जरीये निकालने का काम भी सरकारी बंदोबस्त के तहत ही जालना से लेकर औरगांबाद और बीड, उस्मानाबाद, लातूर से लेकर नादेंड के आखिरी गांव बाबली तक जारी है। पानी का संकट कितने खतरनाक स्तर पर है यह नादेंड के बाबली डैम को लेकर आंध्रप्रदेश सरकार के रुख और नादेंड के धर्माबाद ताल्लुका के हालात से समझा जा सकता है, जहां बाबली डैम है। आंध्र प्रदेश का मानना है कि बाबली डैम को विस्फोट कर उडा देना चाहिये क्योकि बाबली डैम गोदावरी के पानी को तेलागांना में आने से रोक रहा है। और गोदावरी तेलांगना के अदिलाबाद, करीमनगर,वारंगल, नालगौंडा. खम्माम के लिये जीवनरेखा है। जबकि महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि गोदावरी पर पहला हक महाराष्ट्र का है और बाबली डैम को उडा दिया गया तो महाराष्ट्र में पांच लाख हेक्टेयर जमीन बूंद बूंद पानी के लिये तरसेगी। पानी के इस संघर्ष के बीच गोदावरी नदी के नादेंड के धर्माबाद ताल्लुका के 26 गांव पूरी तरह सूखे से ग्रस्त है ।
इसमें बाबली गांव भी शामिल है जो बाबली डैम के सबसे करीब है। लेकिन महाराष्ट्र-आध्रे प्रदेश सीमा पर नादेंड के आखिरी साखर कारखाने यानी शुगर फैक्ट्री से 7 अप्रैल को भी धुंआ निकल रहा था और पानी की सप्लाई फैक्ट्री में बेरोक-टोक जारी थी। और बकायदा डैम के सुरक्षा पहरे में। तो सूखा है किसके लिये और महाराष्ट्र सरकार सूखे का रोना रोये क्यों रो रहे हैं उनके आंसुओं पर आंसु बहाये क्यों यह सवाल विदर्भ और मराठवाडा के उघोगों में सप्लाई होते पानी और मुबंई से लेकर पश्चिमी महाराष्ट्र में उप मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और बडे नेताओ के बड़े बोल से समझे जा सकते हैं। जहां महादेव सरीखे किसानों की डबडबायी आंखों से निकलते आंसु बेमानी है और खेती चे जमीन को श्मशान चे जमीन कहना सच है।

2 comments:

सतीश कुमार चौहान said...

इस बेबसी को न‍कार तो खैर कोई नही रहा, बात संवेदनाओ से की जा सकती है और हो भी रही हैं , राजनीति से कुछ हो सकता हैं ऐसा सोचना भी बेवकूफी हैं , व्‍यवस्‍‍‍था को कोस कर भी बेवकुफ‍ी है बे‍हतर होता मीडिया, मोदी उल्‍माद के बजाय सच, सार्थक और सराकरात्‍मक रूप से सूखे की विडम्‍बना को बताया जाऐ क्‍योकी देर सबेर ये समूचे विश्‍व् की समस्‍या बनने वाली है, हम आप हर कोई बूंद बूंद पानी के लिये तरसेगा।

Sarita Chaturvedi said...

KAMAL HAI,AMITABH JI GUJRAT KE DARSHAN TO KARATE HAI PAR MAHARASTR KE IS HISSE ME JANA SAYAD BHUL GAYE ! ACHHI BAAT YE HAI KI AAP KABHI NAHI BHULE..!SAMJHNA BADA MUSKIL HAI KI MUNNA BHAI KE PICHE PURA FILMI KUNABA KAISE PARESAN HAI ...KITNE CHARCHIT FILMI CHEHRE HAR BAHAS ME KAISE AAGE BADH BADH KE BOLTE HAI..AAKHIR YE DARD UNHE DARD KYO NAHI DETA? HAM RAJNETAWO KI BAAT SIRF KYO KARTE HAI? KYO UNSE ITNI AASA? SACHIN , REKHA ,JAYA BACHHAN YE BHI RAJYASABHA ME HAI..KYA INHE SAMNE NAHI AANA CHAHIYE? SARKAR,SYSTEM,RAJNITI, IN PAR NIRBHARTA KHTAM KARNI HOGI..RASTA KAHI AUR DHUDHNA HOGA..