Saturday, June 1, 2013

रेडकॉरिडोर का सफर-1

दरभा हमले के बाद दण्डकारण्य का सच

छत्तीसगढ़ के जिस दरभा घाट के मुहाने पर राजनेताओं के काफिले पर नक्सलियों ने हमला किया और उसकी बैचेनी रायपुर से दिल्ली तक दिखायी दी, उसके मर्म में क्या वाकई लोकतंत्र की परिभाषा छुप गयी। जिस तरह से केन्द्र या राज्य सरकार या बीजेपी-कांग्रेस ने हमले के तुरंत बाद इसे लोकतंत्र पर हमला करार दिया उसके मर्म में क्या किसी ने यह टटोलने की कोशिश की कि जहां खून बहा, जहां हमला हुआ वहां लोकतंत्र है भी या नहीं। आदिवासी बहुल क्षेत्र , दण्काराण्य या रेड कॉरीडोर नाम जो भी दे दीजिये लेकिन यहां की जिन्दगी में राजनेताओं की सत्ता के तौर तरीको ने जिस तरह जहर घोल दिया है, उसका असर यही है कि पग पग पर से गुजरते हुये हर हालात से टकराने के बाद आपको भी लग सकता है कि हमला लोकतंत्र पर नहीं हुआ। बल्कि लोकतंत्र है नहीं और उसी के गुस्से और आक्रोश का परिणाम है हमला-दर-हमला। हिंसा-प्रतिहिंसा। दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक की फाइलों में इस रेड कॉरीडोर को लेकर बाबुओं के रिसर्च के दस्तावेजों से उलट रेडकॉरीडोर है। जहां की वजहो से देश की सत्ता को कोई मतलब नहीं है और वजह है क्या इसे ही टटोलने के लिये लगातार 48 घटे तक मैंने 1700 किलोमीटर का रास्ता दरभा हमले के तुरंत बाद तय किया।

आंध्र प्रदेश के अदिलाबाद जिले का एक मुहाना है कालेश्वरम, जहां से नक्सलवाद ने पहला सफर 1984 में महाराष्ट्र के कमलापुर गांव के लिये नदी के रास्ते किया। कालेश्वरम से महज पांच मिनट का वक्त लगता है महाराष्ट्र के सिरोंचा में नदी के रास्ते कदम रखने के लिये। प्राणहिता नदी ही आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है। आंध्र की तरफ तो नहीं लेकिन महाराष्ट्र की इस सीमा पर यानी सिरोंचा में एके47 और एसएलआर के साथ बैठे
चार जवानों ने तुरंत ध्यान खींचा कि नक्सलियो पर नजर तो महाराष्ट्र में रखी गयी है। लेकिन जिस नाव पर बैठकर आंध्र से महाराष्ट्र में कदम रखा और सुरक्षाकर्मियों को देखकर नाव खेने वाले से पूछा कि इनकी जरुरत क्या है और क्या कभी इन बंदूकधारियों ने गोलियां भी दागी हैं। इस सवाल के जवाब में नाव वाले ने तुंरत कहा यह नक्सलियो के लिये नहीं है यह हमारे गुस्से को दबाने के लिये है। यहां सिर्फ पैसो वालों की चलती है और उन्हीं के लिये यह बंदूकधारी नौकरी करते हैं। ऐसा क्या है। तो नाव खेने वाले मारुति सत्यम घनपुपवार ने बेहिचक कहा। नक्सवाद तो तीस बरस पहले आया। लेकिन हम इस नदीं पर पचास साल से नाव खे रहे हैं। पीढ़ियो से यही हमारा धंधा रहा है। जब निजाम थे और सिरोंचा या गढचिरोली भी निजाम के अधीन था तब से हमारे पूर्वज नदी पर नाव चला रहे हैं। लेकिन अब इसे भी हमसे छीनने का प्रयास पैसे वाले कर रहे हैं। हर साल नाव चलाने की बोली लगती है। इस बार बोली 14 लाख रुपये सालाना तय कर दी गयी है। इतना पैसा कहां से हम दे सकेंगे। जबकि सिरोंचा नगर परिषद में बकायदा बोर्ड लगा है कि साढ़े तीन लाख से ज्यादा की बोली नहीं लगनी चाहिये। लेकिन जिनके पास पैसा है अब वह नदी पर कब्जा करना चाहते हैं। और अपनी नाव देकर हम मछुआरो को दो हजार के महीने पर नौकर बनाना चाहते हैं। सिरोंचा नगर परिषद में हमने शिकायत भी की, लेकिन नगर परिषद का कहना है कि उसे कोई ज्यादा पैसे देगा तो वह नियम
कायदे क्यों देखे। मारुति घनपुपवार यहीं नहीं रुके बोले आप हमारे साथ दुबारा नदी पार कर अदिलाबाद चलें। उस पार कालेश्वरम से भी नाव चलती है। उस नाव के मालिक नदी पार ही टेंट लगाकर बैठे हैं आप खुद उनसे पूछ लीजियेगा , वहां क्या हालात है। रास्ता पांच मिनट का ही है तो मैं भी नाव पर फिर उस पार चल पड़ा। कालेश्वरम यानी नदी पार के नाविक ने बताया कि हर बरस नाव चलाने की बोली तो उनके यहां भी लगती है। लेकिन उनके रोजगार पर कोई आंच कभी नहीं आयी क्योंकि अन्ना लोग न्याय करते है। अन्ना यानी माओवादी। जो बंदूक लेकर घूमते हैं । उन्होने कालेश्वरम नगर परिषद को कह रखा है, जो पीढियो से नाव चला रहे हैं, पहली प्राथमिकता उन्हें ही देनी होगी। और बोली साठ हजार से ज्यादा नहीं लगेगी। अन्ना से सभी डरते है तो पैसे वाले भी यहां खामोश रहते हैं। लेकिन सिरोंचा में पुलिस और बंदूक का साया नदी किनारे से ही आतंक पैदा करता है तो वहां 14 लाख की बोली लग जाती है। ऐसे में मारुति ने हमारे चलते चलते यही सवाल किया कि अब माओवादी यहां भी आते है तो उनका विरोध कौन करेगा। और जो बंदूकधारी हमारे नाव पर निगरानी के लिये बैठे हैं, उन पर हमला होता है तो कौन किसका साथ देगा यह आप ही सोच लीजिये। और किसी तरह 14 लाख की रकम को कम करवा दीजिये जिसे हम दे सके या साढे तीन लाख की बोली वाले नियम को लागू करवा दीजिये। नहीं तो अगली बार आप नाव खेने वालो को भी माओवादी कहेंगे। पता नहीं यह धमकी थी या भविष्य की आहट। लेकिन इस गुस्से को शांत करने के लिये हमने पूछा यहां कुछ खाने को मिलेगा। खाना है तो प्राउन खा कर जाइये । प्राणहिता नदी के प्राउन के लिये तो हैदराबाद से हमे ऑर्डर आता है। मारुति ने नदी पार करते है सिर्फ पांच मीटर की दूरी पर सडक किनारे एक होटल का रास्ता दिखाया। और वाकई चार प्राउन की प्लेट सिर्फ पच्चतर रुपये में। जिसकी कीमत दिल्ली में हजार रुपये तो हैदराबाद में साढे सात रुपये है। खैर, रेडकॉरिडोर के पहले पढ़ाव में गुस्से के इजहार और जायके को चखकर हमने तय किया कि हम कमलापुर गांव जायेंगे, जहां पहली बार नक्सवाद ने कमलापुर अधिवेशन के जरीये महाराष्ट्र में दस्तक दी थी।

सिरोचा से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर कमलापुर गांव है। रास्ता ठीक ठाक । सिर्फ 7 किलोमीटर का पैच उबड़-खाबड़। मुख्यसड़क यानी सिरोंचा से अल्लापल्ली जाने वाली सड़क से सिर्फ 100 मिटर अंदर घुसते ही कमलापुर गांव। जहां 1984 में सिर्फ कमलापुर अधिवेशन का नाम सुनकर अगल-बगल से दस हजार से ज्यादा लोग जुट गये थे। अगल बगल से मतलब आंध्र-महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश है।

मध्यप्रदेश का वह इलाका जो अब छत्तीसगढ बन चुका है और 10 हजार से ज्यादा तादाद इसलिये क्योंकि पहली बार पुलिस ने दावा किया था कि उसने 10 हजार लोगो को गिरफ्तार कर कमलापुर अधिवेशन होने ही नहीं दिया। क्योंकि कमलापुर अधिवेशन होता तो वह नक्सलबाडी की तरह ही एक नये संघर्ष को पैदा करता। कमलापुर में मुद्दा तेंदू पत्ता, न्यूनतम मजदूरी और जंगल गांव का था। यह सारी बाते और कोई नहीं कमलापुर अधिवेशन में शरीक होने से पहले ही गिरफ्तार कर लिये गये एड. एकनाथ साल्वे ने बतायी तो अधिवेशन में पहुंचे शिव के मुताबिक पुलिस ने उन्हे कमलापुर में गिरफ्तार इसलिये किया क्योंकि उस वक्त आंध्र की नक्सली लहर ने महाराष्ट्र सरकार को संदेश दे दिया था कि जो भी सम्मेलन में शरीक होने पहुंचे उसे नक्सली मान कर गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया जाये। और पुलिस खुले तौर पर बिना कोई धारा लगाये बस अधिवेशन होने देना नहीं चाहती थी। उस वक्त मुंबई के एलिफेस्टन कॉलेज से निकले स्कॉलर कोबात गांधी, अनुराधा गांधी, सुजन अब्राहम का लोग सम्मेलन में इंतजार कर रहे थे लेकिन पुलिस ने कमलापुर पहुंचने वाले हर रास्ते की नाकेबंदी कर रखी थी। कोई पहुंचा नहीं तो कमलापुर अधिवेशन को असफल करार
दे दिया गया।

लेकिन साहेब तीस बरस पहले के सम्मेलन के दौर में जो पुलिस ने किया उससे सैकड़ों परिवार तबाह हो गये। अचानक हमारी बातचीत के बीच में ही कमलापुर गांव का एक शख्स कूद पडा । 55-60 की उम्र के इस आदिवासी ने जो जानकारी दी उसने कई सवाल नक्सलवाद के नाम पर पुलिसिया कहर के दिखा दिए। गांव में सैकड़ों परिवारों को पुलिस ने बेदखल कर दिया। अगल-बगल के गांव से जो सिर्फ यह देखने आये थ कि गांव में होने क्या वाला है, उनपर ऐसी ऐसी कलम [धारायें] पुलिस ने लगायी कि उनके बच्चों के लिये जीवन जीना मुश्किल हो गया। उस वक्त से अभीतक सवाल सुलझे तो नहीं लेकिन नकसलियों की तादाद पुलिस फाइल में बढती गई और तेदू पत्ता से लेकर जंगल गांव से आगे के सवाल ने अब जिन्दगी जीने की न्यूनतम जरुरतों का मोहताज बना दिया है। कमलापुर के जिस मैदान में 30 बरस पहले अधिवेशन होना था आज वह जमीन बंजर है। गांव में करीब सवा किलोमीटर पगडंडी वाली सडक ही सबकुछ है। अंग्रेजी अक्षर एल की शक्ल में ही पगडंडी हैं। तो गांव के करीब 700 घर भी उसी के इर्द-गिर्द सिमटे हुये हैं। इस गांव में किसी गांधी के नाम की कोई योजना पहुंची नहीं और माओ या कोण्डापल्ली के नाम को जान कर भी हर कोई अनजान रहता है। चालीस फीसदी गांव के घरो में बच्चे शहर जाने के बाद गांव लौटे नहीं। जिन्हे रोजगार का कोई माध्यम मिला वह नहीं लौटा क्योकि लौटने पर पुलिस के सवाल और थाने के चक्कर उसे नौकरी पर जाने नहीं देगें और थानों के चक्कर नक्सलियों के मन में शक पैदा करेगी। तो गांव में अघेड लोग कैरम बोर्ड खेलते भी दिखे और ताडी का सार्वजनिक जायका लेते भी नजर आये। लेकिन पूछने या टटोलने पर यह जानकारी हर किसी को थी कि पहली बार राजनेताओ को छत्तीसगढ में निशाने पर लिया गया। लेकिन हमले से रास्ता निकलता नहीं है, और बीते 30 बरस में जिन्दगी और मुश्किल होती जा रही है। क्योंकि इसी दौर में कमलापुर के ही छह आदिवासी पर टाडा भी लगा और तीन ग्रामीणो पर पोटा भी। यह अलग बात है कि 1984 के बाद से कमलापुर में कोई दस्तक नक्सवाद ने दी नहीं। लेकिन पुलिस की दहशत बार बार गांववालों को 84 के खौफ की याद दिला देती है। और आक्रोश हर चेहरे पर पढ़ा जा सकता है, जिन्हें लगता है कि आजादी का स्वाद उनके लिये नक्सलवाद के नाम और पुलिस की जुबान के बीच ही चखना है।  लेकिन महाराष्ट्र के बाद जिस तरह बस्तर में नक्सवाद ने खामोशी से दस्तक दी और उसके बाद जिस तेजी से नक्सलवद सियासी जरुरत बनी उसे टटोलने हम दोरणपाल के लिये निकल पडे। छत्तीसगढ में दोहणपाल का मतलब है विस्थापित आदिवासियों की ऐसी जमीन जहां एक तरफ नक्सली है तो दूसरी तरफ सलवा जुडुम और तीसरा जिसे कोई नहीं जानता वह है डरा, सहमा विस्थापित आदिवासी। जहां 2005 में गांव छोडकर सैकडो या हजार नहीं बल्कि सवा लाख आदिवासी पहुंचे।

(जारी...........)

5 comments:

Shubham said...

apki is post ke liye main pichli post ke baad se 50 baar ping kar chuka, ye pakka pata tha program dekhkar ki maharastra ke sokhe baad naksalbaad ki navj bhi aapne tataoli hogi jise shabdon mein jaroor piroyenge. waiting for your next post.

पुष्यमित्र said...

बहुत शानदार ... सच्चाई का पता जमीन पर ही चलता है। इन्तेजार रहेगा

Ayush said...

समाजी बेबसी हर शहर को मकतल बनाती है,
कही नक्सल बनती है कही चम्बल बनाती है. राना

Neelkant Tripathi said...

prasoon ji apka blog parh k Acha laga .....Pata nahi ye bechare adiwashi kab azad hoge

Neelkant Tripathi said...

prasoon ji apka blog parh k Acha laga .....Pata nahi ye bechare adiwashi kab azad hoge