Sunday, September 1, 2013

अन्ना का सत्याग्रह क्यों भारी है सिल्वर स्क्रीन के ' सत्याग्रह' पर

अगर फिल्म 'सत्याग्रह' का अंतिम डायलॉग, अब बाहर से नहीं अंदर जाकर हम सिस्टम को सुधारेंगे,  ना होता तो यह फिल्म अरविन्द केजरीवाल को अच्छी नहीं लगती और अन्ना हजारे को तो वैसे भी फिल्मी सत्याग्रह ने बेबस और उम्रदराज ठहराकर हिंसक शिकार कर लिया। तो अन्ना फिल्म देखना भी पंसद नहीं करेंगे । लेकिन फिल्म के आखिरी डायलॉग ने अरविन्द केजरीवाल केचुनावी सत्याग्रह की अलख को यह कहकर जलाए रखा है कि युवाओं को अपने भीतर का गुस्सा मरने नहीं देना है। हिंसा के रास्ते निकल कर आक्रोश को बदले की भावना में जाया नहीं करना है बल्कि विधानसभा के भीतर पहुंच कर नया रास्ता बनाना है। चुनावी राजनीति में कूदे केजरीवाल ने भी यह रास्ता यही कहकर पकड़ा है। तो फिल्मी सत्याग्रह का आखिरी संदेश केजरीवाल के लिये ऑक्सीजन बनकर आया है।


क्योकि 2011 के सत्याग्रह के बाद अन्ना हजारे चुनावी राजनीति के रास्ते निकलने से इंकार कर गये तो केजरीवाल ने अलग रास्ता चुना। और आज भी जब जब सत्याग्रह आंदोलन से निकले केजरीवाल के चुनावी रास्ते का सवाल उभरता है तो हर किसी को चाहे अनचाहे अन्ना के आंदोलन का रास्ता भी नजर आता है और ना चाहते हुये भी कठघरे में अरविन्द केजरीवाल खड़े नजर आते ही हैं। क्योंकि 2011 का सत्याग्रह और उस दौर में उपजे जन-आक्रोश का दायरा केजरीवाल के चुनावी रास्ते और अन्ना के अब के आंदोलन करने के तौर तरीको से कहीं बड़ा था। तो क्या जिस रास्ते अन्ना देश-विदेश भ्रमण में निकले हैं, और जिस तरह केजरीवाल दिल्ली की राजनीति में जा सिमटे है वह उस सपने की मौत है जिसे दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर शहर दर शहर बने रामलीला मैदान में दिखायी दिया। या फिर आंदोलन के जरीए परिवर्तन इस देश की रगों में नहीं दौड़ता, यह दिखाने-बताने का एहसास है केजरीवाल की पहल।

फिल्म सत्याग्रह देखते वक्त केजरीवाल का ही एहसास बार बार कुलाचे मारते हुये दिखता है। संघर्षरत किसान-मजदूर पर भारी सोशल मीडिया की भूमिका। शहरी युवाओं के अराजक गुस्से को बदलाव का बयार बताना। पांरपरिक आदर्श के तौर पर स्कूल के प्रधानाचार्य को परिवर्तन का सबसे तेज हथियार बताना। और भ्रष्ट राजनेता को खलनायक करार देना। इसीलिये सत्याग्रह। व्यवस्था को दीमक की तरह चाट गये भ्रष्टाचार और देखते देखते लोकतंत्र की सबसे मजबूत संस्था चुनावी राजनीति की जमीन के ही पोपली होने की वजहों से दूर भागती फिल्म उसी वक्त सबसे कमजोर लगती है जब अन्ना के सत्याग्रह के दौर में सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य को फिल्मी सत्याग्रह में दोहराया जाता है। याद कीजिये जिस भरोसे के साथ अन्ना हजारे ने सत्याग्रह के दौरान चुनी हुई सरकार और संसद को जनता की नौकर कहा था तो हजारों हजार की तादाद में मौजूद ना सिर्फ लोगो की आंखों में भरोसा जागा था बल्कि देश में जहां जहां अन्ना के आंदोलन पर प्रतिक्रिया आई वहां वहां सरकार को देश के नागरिको का नौकर कहने से कोई नहीं कतराया। लेकिन प्रकाश झा के सत्याग्रह में जब अमिताभ बच्चन सरकार को जनता का सेवक बताते है तो डायलॉग बोलते वक्त बच्चन साहब बेहद कमजोर लगते हैं। जबकि सामान्य स्थितियों में देखे तो बॉलीवुड में एक अमिताभ बच्चन और दूसरे नसीरुद्दीन और तीसरे ओमपुरी ही है जो राजनीतिक डायलॉग बोलें तो देखने वाले को भरोसा जागता है। लेकिन फिल्म सत्याग्रह में जब अमिताभ सरकार को जनता का सेवक बनाते हैं तो बोलते वक्त अमिताभ की आंखें और हाव भाव ही यह भरोसा देखने वाले को तो दूर खुद अमिताभ में नहीं जागता कि वह जो कह रहे है उस वक्त उन्हें अपने डायलॉग पर भरोसा है।

कुछ यही परिस्थितियां फिल्म में अजय देवगन के देखते वक्त केजरीवाल को उभारती हैं। लेकिन यहां भी फिल्म के डायलॉग ना सिर्फ कमजोर पड़ते दिखायी देते है बल्कि डायलॉग बोलने का अंदाज शारीरिक श्रम करता सा दिखायी देता है। मसलन फिल्म सत्याग्रह में जब सरकार से बातचीत फेल होती है और अनशन पर बैठे अमिताभ की कोई फिक्र सरकार नहीं दिखाती तो मंच पर आकर अजय देवगन जिस सपाट तरीके से सरकार की बेफ्रिकी की जानकारी देते हैं और जनता खामोश रहती है उसे देखकर अन्ना के सत्याग्रह का वह क्षण याद आ गया। जब प्रणव मुखर्जी से बातचीत फेल होती है और केजरीवाल रामलीला मैदान पहुंचकर जानकारी देते हैं कि कैसे प्रणव मुखर्जी ने कहा कि अन्ना के जान की फिक्र उन्हें नहीं है। और चर्चा करने के बाद मंच पर पहुंचकर जब केजरीवाल इसका एलान करते हैं कि प्रणव मुखर्जी ने कहा कि अन्ना की जान जाती है तो जाये उन्हें कोई फिक्र नहीं तो रामलीला मैदान से लेकर देश भर में एसी तीखी प्रतिक्रिया होती है कि उसी दिन पांच घंटे बाद रात के साढे ग्यारह बजे उसी प्रणव मुखर्जी को मीडिया के सामने आकर सफाई देनी पडती है कि उन्हें अन्ना की जान की फिक्र है ।

दरअसल प्रकाश झा की समझ पहली बार यहीं चूकी कि अन्ना के आंदोलन को वह सिल्वर स्क्रीन के लारजर दैन लाइफ से छोटा मान बैठे। अन्ना के आंदोलन का ना तो कैनवास ही प्रकाश झा समझ पाये और ना ही अन्ना के आंदोलन की तीव्रता। असर इसी का हुआ कि डायलॉग पर मेहनत नहीं हुई। संघर्ष और सपने का कोई ताना बाना नहीं बुना गया। फिल्मी सत्याग्रह एक ईमानदार इंजीनियर की हत्या में ही सिमट गयी और सत्याग्रह की जटिलता से फिल्म पूरी तरह ना सिर्फ अनभिज्ञ रही। बल्कि जिन्होंने अन्ना के आंदोलन में किसी भी तरह की शिरकत की [जो लड़के रामलीला मैदान पहुंचे या जिन युवाओ ने तिरंगा लहराया। या जिन छात्रों ने वंदे मातरम का नारा लगाया। या फिर जो अपने आक्रोश को बताने रामलीला मैदार आ पहुंचे। ]  वह चेहरे तो याद नहीं लेकिन पहले दिन का पहले शो को देखते वक्त जो प्रतिक्रिया सिनेमा के अंधेरे में अलख जगा रही थी वह वही गुस्सा, वही आक्रोश था जो दिल्ली के जंतर मंतर या रामलीला मैदान में नजर आया वह घुप्प अंधेरे में गूंजा। फिल्म के शुरुआत में जैसे ही अमिताभ बच्चन भोजन के टेबल पर आदर्शवाद का पाठ अजय देवगन को पढ़ाते हैं, वैसे ही अंधेरे में आवाज गूजती है....बुढउ और ना पाठ पढ़ाओ....खुद पैसा बनाओ और डायलॉग ईमानदारी के। हो सकता है अमिताभ बच्चन के लिये सत्याग्रह में आदर्श शिक्षक की भूमिका सिर्फ एक चरित्र हो लेकिन अन्ना के आंदोलन ने लोगो के अंदर के सपनों को जिस तरह जगाया और जिस तरह आंदोलन बिखरा और हर सपने की हथेली खाली रही उसका आक्रोश बार बार फिल्म देखने के दौरान स्कूल कॉलेज से भाग कर थियेटर पहुंचे लड़कों की तीखी जुबान से समझ कर आया कि सड़क के सत्याग्रह पर सिल्वर स्क्रीन का सत्याग्रह ना तो भारी पड़ सकता है और ना ही कोई यह मुगालता पाल सकता है कि उसने अपना कर्म पूरा किया। क्योंकि सत्याग्रह अविरल संघर्ष की ऐसी जमीन बनाती है, जिस पर करोड़ों का धंधा कर ना तो प्रकाश झा वाहवाही पा सकते हैं ना ही अमिताभ सरीखा कलाकार सिर्फ भूमिका निभा कर कह सकता है कि उसका काम खत्म और ना ही दर्शक सिनेमा घर से खाली मन घर लौट सकता है कि उसने एक औसत या अच्छी या बुरी फिल्म देखी। लेकिन संयोग देखिये जिस मुनाफा बनाने वाली राजनीतिक सियासत के खिलाफ अन्ना आंदोलन खड़ा हुआ। उसी से मुनाफा बनाने के लिये प्रकाश झा ने सिनेमायी ताना-बाना बुना और उसी ताने बाने को अपने हक में मुनाफे के तौर पर देखने के लिये केजरीवाल भी दिल्ली के सिनेमाघरो के बाहर पर्चे बांटने लगे कि "सत्याग्रह" के बाद सिस्टम में शामिल होकर ही सिस्टम को बदलना है तो आप अपना वोट आम आदमी पार्टी को दें। यानी सिल्वर स्क्रीन के सत्याग्रह के आखिरी डायलॉग से उम्मीद पाते केजरीवाल इस सच को समझ नहीं पाये कि प्रकाश झा दो बार लोकसभा चुनाव [2004 और 2009] लड़कर हार चुके हैं और उसके बाद उन्होंने फिल्म सत्याग्रह बनायी है। और केजरीवाल तो सड़क पर सत्याग्रह करने के बाद राजनीतिक चुनाव लड़ने जा रहे हैं। उन्हें तो फिल्म को रिलीज ही नही होने देना चाहिये था क्योंकि यह आज के उन युवाओ के सपनों के साथ की जा रही मुनाफाखोरी है, जिसके खिलाफ अन्ना आंदोलन शुरु हुआ था। 

5 comments:

Arun sathi said...

हमेशा की तरह तह तक जाती आलेख.. आभार

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आदरणीय,

आपके चिंतन, लेखन और प्रसारण

सबका मुरीद हूँ।

शुभकामनायें -

डॉ.चन्द्रकुमार जैन
प्रोफ़ेसर
राजनांदगाँव,छत्तीसगढ़

mo. 09301054300

Unknown said...

Maroona ke ....Apka koi jawab nahi hai - par--
Koi bhi rape ya koi bhi jurm kare galat hai - nayay jaldi ho iske liye muhim chalao, par verdict dena tumhara kam nahi hai wo bhi partiality kerte hue, akya ye sahi hai - kal aap se ek sawal kiya gaya tha (Aaj tak 10pm) - 4 catholic and muslim controversy ke bare me batayen jiska media trial kiya gaya ho-aapne kashmir ka jikra kar ke tal diya. aisa koi media trial nahin hai na? kerla me ek christian ne islam ke bare men kuch likh diya tha to ek muslim ne uska hath kat diya tha. --kaya aaplog ko dar lagta hai?

Kanoon ka palan hona chahiye - par Isratjahan par aapka documentary - kaya wo us layak thi?
jada pee liye the kaya?

वैभव शिव पाण्डेय "क्रांति" said...

सर प्रणाम
आपने जिस गहराई से फिल्म की समीक्षा की है वह काबिले तारीफ है। प्रकाश झा साहब को यह समीक्षा जरूर पढ़नी चाहिए। मैनें फिल्म अभी देखीं नहीं । लेकिन अब जब फिल्म देखूंगा तो आपकी समीक्षा को देखने का प्रयास करूंगा।

वैभव शिव पाण्डेय "क्रांति" said...

सर प्रणाम
आपने जिस गहराई से फिल्म की समीक्षा की है वह काबिले तारीफ है। प्रकाश झा साहब को यह समीक्षा जरूर पढ़नी चाहिए। मैनें फिल्म अभी देखीं नहीं । लेकिन अब जब फिल्म देखूंगा तो आपकी समीक्षा को देखने का प्रयास करूंगा।