आजादी के बाद यह पहला मौका है जब केन्द्र सरकार ने दंगों की आशंका जताते हुये 12 राज्यों को पहले से ही अलर्ट कर दिया कि आपके यहां दंगे हो सकते हैं। बीते नौ बरस में केन्द्र सरकार में यह पहला मौका आया जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों किसी घटना को देखने समझने पहुंचे हों। और यह भी अपनी तरह का पहला मौका है जब यूपी के सीएम अखिलेश यादव मुज्जफरनगर के दंगा पीड़ितों के घाव पर मरहम लगाने से पहले अपनी पार्टी के कद्दावर अल्पसंख्यक नेता आजमखान के सियासी घाव पर मरहम लगाने घर पहुंचे। उसके बाद आजम खान से दिशा निर्देश पाकर ही सीएम मुजफ्फरनगर गये। तो रुठे आजम खान को 14 सितंबर को उनके सरकारी आवास पर जाकर मनाया फिर 15 सितंबर को मुजफ्फरनगर गये। और एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन ने दंगे के सच के पीछे सरकार के ही खड़े होने के सच को उस वक्त दिका दिया जब इस पर सियासत तेज होनी थी उसमें तल्खी आनी थी। लेकिन दंगों को लेकर देश में आजादी के बाद से होती सियासत को पहली बार एक ऐसा सिरा मिला है, जहां राजनीतिक सत्ता लोकतंत्र को ताक पर रख संविधानिक संस्थाओं को भी कैसे अपनी सत्ता के अनुकूल करती है।
तो क्या यह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद की राजनीतिक तस्वीर से अब मुसलमान डर सकता है। क्योंकि एक बार फिर यूपी का मुसलमान राजनीतिक बिसात पर सबसे महत्वपूर्ण होकर भी प्यादे से ज्यादा हैसियत नहीं रख रहा है। यानी मुस्लिम वोट बैंक चुनावी असर तो डाल सकता है लेकिन दंगों के साये में अगर चुनाव हुये तो उन्माद के आसरे एक ऐसी लकीर यूपी में खिंच सकती है जो क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर ढकेल सकती है और 70 के दौर से लेकर मेरठ-मलियाना और अयोध्याकांड के वक्त के बीच जिस तरह वोट का ध्रुव्रीकरण हुआ, उसी रास्ते 2014 की बिसात भी बिछ सकती है। यानी यूपी में लोकसभा की 80 सीट में से 55 सीट सीधे सीधे हिन्दुत्व की प्रयोगशाला और 25 सीटे मुसलिम बहुल वोटबैंक के साथ यादव या दलित वोट बैंक के गठजोड़ की प्रयोगशाला बन जायेगी।
ध्यान दें तो इमरजेन्सी और बोफोर्स के मुद्दे यानी 1977 और1989 के वक्त के अलावे यूपी में हमेशा से वोटों का ध्रुवीकरण सीधे कांग्रेस के पक्ष में रहा है, इसीलिये दिल्ली का रास्ता भी लखनऊ होकर आता रहा है। लेकिन मंडल के बाद से क्षत्रपों ने कांग्रेस और बीजेपी को जिस तरह हाशिए पर ला पटका है उसमें मुज्जफरनगर के दंगों के बाद पहली बार चुनावी संकट के बादल मुलायम-मायावती दोनों पर गहराने लगे हैं। क्योंकि बीते दो दशक में मुस्लिम वोट बैंक चुनावी गठजोड़ के आसरे सत्ता की मलाई खाने में जुटता। और यह मान कर चलता की सरकार चाहे दिल्ली में कांग्रेस की हो या फिर यूपी में माया या मुलायम की। सत्ताधारी कहलायेगा वही।
लेकिन अर्से बाद मुलायम की सत्ता तले जिस तरह मुजफ्फररनगर दंगो के बाद उसके घाव पर मलहम लगाने की होड़ मची है, उसने मुस्लिमों के सामने भी सियासी संकट पैदा किया है और जाट बहुल क्षेत्र में भी यह संदेश दिया है कि अब रास्ता तो दिल्ली में सत्ताधारी के साथ खड़े होने का है। लेकिन 2014 को लेकर मची होड़ में सत्ताधारी होगा कौन। क्योंकि मार्च के महीने में जब यूपी के सीएम से पूछा गया कि उत्तरप्रदेश में कितनी सांप्रदायिक हिंसा हुई तो बकायदा सीएम अखिलेश यादव ने लिखित जवाब दिया कि 15 मार्च से 31 दिसबंर 2012 यानी 9 महीने में 27 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुई। और राजनीतिक तोर इस हिंसा को समझे तो कुल 18 जिलों की 25 लोकसभा सीट प्रभावित हुईं। प्रभावित जिलो में औसतन 27 से 42 फीसदी मुस्लिम हैं। यहां मुस्लिम वोट जिसके पक्ष में, जीत उसी की मानी जाती रही है और 2009 में इनमें से किसी भी सीट पर बीजेपी का कब्जा नहीं रहा। फिर अगर मुजप्फरनगर को छोड़ दे तो बाकी सोलह जिलों में हुई सांप्रदायिक हिंसा की त्रासदी यूपी में ज्यादातर मुस्लिम और यादव के बीच संघष के तौर पर ही उभरी। और यूपी में मुलायम की सत्ता इन्हीं दोनों के गठजोड़ की सत्ता की कहानी है। तो क्या संघर्ष की बड़ी वजह सत्ताधारी होने के लाभ के टकराने की वजह रही।
अगर ऐसा है तो सत्ता का लाभ ना मिल पाने या सत्ताधारी होकर मनचाही मुराद की कहानी ही यूपी में सांप्रदायिक संघर्ष की कहानी है। असल में मुजफ्फरनगर की हिंसा ने यूपी में पहले हुई सांप्रदायिक हिंसा को एक नयी जुबान दे दी है। और यह जुबान एक ऐसी बिसात बिछा रही है, जहां नरेन्द्र मोदी के नाम पर बीजेपी एक बड़े खिलाडी के तौर पर खुद ब खुद खड़ी हो रही है। और पहली बार इसका बड़ा कारण साप्रायिक संघर्ष की वजह बीजेपी का ना होना है। मु्स्लिम वोट बैंक को लेकर मुलायम और कांग्रेस का सीधा संघर्ष है। यादव, जाट और मुस्लिम वोट बैंक सत्ता की कुंजी बनने को तैयार हैं और सबसे बड़ी बात की सेक्यूलर लाबादा ओढे राजनीतिक दलों के दामन पर ही दाग लग रहा है। असल में यूपी में पहली बार सांप्रादायिक हिंसा ने उस सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को तोड़ दिया है जो राजनीतिक दलों के आसरे खुद को सुरक्षित मान कर चुनाव को एक बड़ा शस्त्र माने हुये थे। पश्चिमी यूपी की जाट बहुल 12 सीटों का समीकऱण अजित सिंह के लिये डगमगाया है। 25 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम बहुल 32 सीटों का समीकरण सपा के लिये डगमगाया है। 41 सीट जो यादव-मुसलिम गठजोड़ मुलायम की जीत सुनिश्चित करते वह भी डगमगाया है। यानी पहली बार यूपी का राजनीतिक मैदान खुला है। जहां कोई दावा नहीं कर सकता कि भविष्य में उसकी जीत पक्की है। और संयोग से यही हालात कांग्रेस में आस जगाये हुये हैं और मोदी की अगुवाई में बीजेपी में उत्साह भर रहे हैं। इसलिये दंगों के बाद के सियासी माहौल की नब्ज कांग्रेस कितना थामती है और बीजेपी कैसे भुनाती है इंतजार सभी को इसी का है। लेकिन मुजफ्फरनगर ने झटके में दंगों पर सियासत को खुली किताब की तरह रख दिया।
आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को यूपी सरकार ने यह कहकर सस्पेंड कर दिया कि दुर्गा शक्ति ने जो किया उससे दंगा भडक सकता था। लेकिन मुजफ्फरनगर के सोलह थानो में दंगे हो गये और यूपी सरकार ने किसी थानेदार से लेकर किसी अधिकारी तक को सस्पेंड नहीं किया। असल में देश की त्रासदी यही है कि दंगों को लेकर कभी किसी पुलिस अधिकारी या किसी अफसर को सस्पेंड करने की परंपरा नहीं रही। कहें तो सियासत ने हमेशा दंगों को कुछ इस तरह भुनाया है कि दंगा प्रभावित इलाकों के अधिकारी या तो जांच के बाद दोषी पाये गये या फिर सियासी तमगा पाकर और कद्दावर अधिकारी बनते चले गये। आजादी के बाद से देश में 2 हजार से ज्यादा साप्रादायिक हिंसा हुई है।
लेकिन दंगों की वजह से किसी आईएएस को सस्पेंड नहीं किया गया। लेकिन जानकारी के मुताबिक हर दंगो के बाद प्रभावित इलाकों के थाने पर हर जांच के बाद अंगुली उठी और हर दंगे के बाद जांच में दोषी राजनेताओं को ही ठहराया गया। इतना ही नहीं दंगों के बाद का असर सबसे ज्यादा राजनीतिक तौर पर ही पड़ा और यह सच है कि 1969 में गुजरात में मारे गये 660 लोगों के मारे जाने के बाद भी राजनीतिक मिजाज ही सामने आया और 1980 में यूपी के मुरादाबाद में सरकारी आंकड़ों में 440 लेकिन 2500 से ज्यादा के मारे जाने के बाद भी सियासत ही उभरी और 1983 में असम के नीली में दो हजार मुस्लिमों के मारे जाने के बाद भी सियासत ने ही रंग बदला और 1984 के सिख दंगों ने तो समूचे देश को ही यह पाठ पढ़ा दिया कि हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा कितनी खतरनाक होती है। कुछ यही 2002 में गुजरात में हुआ। संयोग से हर दंगे का पाठ या तो राजनीतिक था या फिर सामाजिक आर्थिक ताने बाने के टूटने की अनकही कहानी। लेकिन देश के मौजूदा हालात को समझे पहली बार केन्द्र सरकार ने 12 राज्यों को पहले से ही चेता दिया कि आपके यहां दंगे हो सकते हैं। यानी दंगे अब आतंक का नया चेहरा ओढ़ रहे हैं। या फिर राजनीति का नया औजार हो चला है दंगा। जहां तंत्र और लोकतंत्र दोनों फेल हैं, वहा दंगे हैं और सियासत का बदलता रंग हैं।
Wednesday, September 18, 2013
दंगों की छांव में सियासी जश्न
Posted by Punya Prasun Bajpai at 4:51 PM
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4 comments:
akhilesh sarkar ne savidhan ki dhajjiye udaai to aap ne bhi UP sarkar ki dhajiyaa udaai par dhurbhgy ye ki koi natija saamne nahi aya. sach ko dekhe to jubani jang ke alawa kya huaa. kya bahas mubahiso se hi har chij durust ho sakti hai. ab kaun sa nastar le aayege.neta to bolte huye sharm bhi mahsoos nahi karte aur janta vote dete samay besharm ho jaati hai.koi sima nahi, maryada nahi sirf baate hai jo sirf tv par kayam hai.desh sirf netawo ka nahi us janta ka bhi hai jiske liye app 24 ghante paresa rahte hai par phir bhi kya hasil.
sirji, namaskar, shyad ye wot bank ki rajniti me munafa pane ke chakkar me, shayad un sabhi partiyo ko ghata jhelna pad sakta he, ye jua jin partiyo ne khela shyad unhe bhi, ghata ho sakta hai... ab fesla mujjafar ya up ke logo ko lena he... ya fir har bar rajnitika bali bante rahana he.
sab kuch vote banka ke liye hi hai
अब एक डर उभरकर सामने आया है, कहीं देश वाद की तरफ न चला जाये, देश में एक लॉबी बन रही है, जो बेहद घातक है, लोकतंत्र के लिए।
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