दिल्ली का 24 अकबर रोड यानी कांग्रेस हेडक्वार्टर हो या 10 अशोक रोड यानी बीजेपी हेडक्वार्टर, दोनों ही जगह 8 दिसंबर को एक अजीबो-गरीब खामोशी थी। शाम में दोनों ही हेडक्वार्टर में 2014 के पीएम पद के दावेदार मीडिया के सामने आये। हाथों को हवा में लहराने की जगह पीछे हाथ को बांध कर राहुल गांधी ने
जिस खामोशी से चुनावी हार मानी और नरेन्द्र मोदी ने ढोल नगाड़ों के बीच भी जिस शालीनता से हाथ जोड़कर अभिवादन भर किया, उसने पहली बार यह संकेत तो दे दिये कि चुनाव परिणाम ने दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को अंदर से हिला दिया है। क्योंकि देश का राजनीतिक मिजाज पहली बार एक ऐसे विकल्प को मान्यता देने को तैयार है जो पारंपरिक राजनीति से इतर हो। और दिल्ली के चुनावी परिणाम ने कांग्रेस और बीजेपी को डरा दिया है। वजह भी यही रही कि 8 दिसंबर के बाद बीते बीते दस दिनो में राहुल गांधी आधे दर्जन से ज्यादा बार मीडिया से रुबरु हुये। इन्हीं दस दिनों में नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ एक रैली को संबोधित किया, जिसमें दिल्ली के चुनाव परिणाम पर खामोशी बरती। और हो यही रहा है कि केजरीवाल के राजनीतिक प्रयोग ने राहुल गांधी को कांग्रेस के भीतर केजरीवाल बनने को मजबूर कर दिया है। तो नरेन्द्र मोदी बीजेपी के कांग्रेस विरोधी राजनीतिक प्रयोग से आगे निकल नहीं पा रहे हैं। यूपी और बिहार के क्षत्रप मुलायम सिंह यादव को केजरीवाल की सफलता पानी के बुलबुले सरीखे लग रही है तो लालू यादव को केजरीवाल बहुरुपिया लग रहे हैं। तो क्या दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद झटके में केजरीवाल वर्सेज ऑल के हालात राजनीतिक तौर पर देश में उभर गये हैं। इसीलिये वैचारिक विरोध होने के बावजूद काग्रेस और बीजेपी केजरीवाल को धराशायी करने वाले मुद्दों पर एक होने से नहीं कतरा रहे हैं। और लोकपाल का 45 बरस बाद संसद में पास होना क्या इसी का प्रतीक है।
यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि लोकपाल को लेकर तब तक कांग्रेस और बीजेपी में सहमति नहीं बनी जब तक चुनावी राजनीति में जनलोकपाल का सवाल उठाकर आंदोलन करने वाली आम आदमी पार्टी को सफलता नहीं मिली। याद कीजिये तो कांग्रेस के साथ खड़ी समाजवादी पार्टी हमेशा लोकपाल का विरोध करती रही और सरकार चलती रहे इसलिये कांग्रेस ने कभी लोकपाल पर वह हिम्मत नहीं दिखायी जो दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद राहुल गांधी से लेकर समूची कांग्रेस ने बोल बोल कर दिखा दिये। जबकि समाजवादी पार्टी आज भी लोकपाल का विरोध कर रही है। तो पहला सवाल मुलायम के समर्थन पर आम आदमी की चुनावी सफलता अब कांग्रेस को कही ज्यादा खतरनाक लगने लगी है। और दूसरा सवाल, तो क्या यह माना जाये कि लोकपाल की तर्ज पर ही अगर देश में महिला आरक्षण को लेकर भी कोई आंदोलन खड़ा हो और फिर वही आंदोलन राजनीतिक पार्टी में तब्दील होकर चुनावी राजनीति में बाजी मार लें तो महिला आरक्षण भी संसद में पास हो जायेगा। क्योंकि महिला आरक्षण का विरोध करने वाले भी वही मुलायम और शरद यादव सरीखे नेता हैं, जो कांग्रेस और बीजेपी के एक होने पर महिला आरक्षण को भी संसद में पास होने से रोक नहीं पायेंगे। यानी केजरीवाल ने पहली बार उस राजनीतिक व्यवव्सथा में सेंध लगा दी है जो सत्ता के जोड तोड में ही आम जनता को उलझाये रखती है और मुद्दो के नाम पर नूरा-कुश्ती इसलिये करती है जिससे राजनीतिक दलों की उपयोगिता बनी रहे। यानी मंडल-कंमडल के बाद पहली बार देश का आम आदमी एक ऐसी राजनीति को देख रहा है, जहां उससे जुड़े मुद्दे उसी के जरीये चुनावी जीत या हार पैदा कर उसे ही सत्ता में पहुंचा रहे हैं।
यानी दिल्ली के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश के आम वोटर ने अगर यह मन बना लिया है या फिर मन में यह मान लिया है कि सभी सत्ताधारी एक सरीखे होते हैं चाहे वह कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर जातीय समीकरण पर क्षत्रपों की सत्ता। तो फिर 2014 को लेकर चल रही राहुल गांधी या कांग्रेस की रणनीति हो या फिर बीजेपी पर भारी नरेन्द्र मोदी। या मुलायम सिंह यादव और वामपंथियो का तीसरे मोर्चे का सपना। सबकुछ धरा का धरा रह सकता है ,अगर यह परिस्थितियां वाकई 2014 के लोकसभा चुनाव में तेजी पकड़ ले गईं तो।
जाहिर है, ऐसे में संसद में पास लोकपाल क्या वाकई आम लोगों के जहन में सत्ताधारियों को लेकर बढ़ते आक्रोश को थाम सकेगा। क्योंकि संसद के गलियारे में लोकपाल का जश्न तो यही एहसास कराता है कि जिस जनलोकपाल के आंदोलन से दो बरस पहले संसद थर्रायी थी, उसी संसद ने जब लोकपाल पास कर दिया तो आम आदमी का आक्रोश भी खत्म हो गया। लेकिन जमीनी सच है क्या। खासकर यूपीए -2 के दौर के भ्रष्टाचार के पैमाने में अगर संसद के जश्न को गौर करें तो हर किसी को 2 जी स्पेक्ट्रम, कोयला घोटाला और कॉमनवेल्थ घपले जरुर याद आयेंगे। क्योंकि यह तीन धब्बे यूपीए 2 की खास पहचान हैं और इसके कटघरे में पहली बार सरकार, नौकरशाह और कॉरपोरेट तीनो आये। और सरकार पर निगरानी रखने वाले मीडिया के नामचीन चेहरे भी दायरे में आये। तो देश में पहली बार हर स्तर पर यह सवाल उठा की रास्ता निकलेगा कैसे। क्योंकि देश की सबसे बडी जांच एजेंसी भी इसी दौर में सरकारी पिजंरे में कैद तोता करार दे दी गयी। तो हर किसी के सामने दो सवाल सबसे बड़े थे। अगर प्रधानमंत्री के दामन पर दाग लगे तो उसकी जांच कौन करेगा। और जांच करने वाली एजेंसी सीबीआई ही अगर सरकार के अधीन है तो वह अपने ही बास पीएम की जांच सामने आने पर क्या करेगी।
क्योंकि जैसे ही सीबीआई पीएम से पूछताछ करेगी वैसे ही नैतिकता के आधार पर पीएम से इस्तीफे की मांग देश में सबसे महत्वपूर्ण हो जायेगी। फिर ध्यान दें तो 2जी घोटाले की जांच हो या फिर कोयला घोटाले की जांच दोनों ही जांच सीबीआई कर जरुर रही है लेकिन यह जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है। यानी इन घोटालो में सरकार की भूमिका ही नहीं बल्कि सीबीआई जांच में सरकार की भूमिका को लेकर भी सवाल उठे। इसलिये सुप्रीम कोर्ट ने सीधे कमान अपने हाथ में ली। ऐसे में अब सवाल है कि लोकपाल अगर पहले से होता तो क्या देश में सरकार के स्तर पर घोटाले ना होते। घोटाले होते तो जांच के लिये हंगामा ना मचता।
हंगामा नहीं मचता तो आरोपी दोषी भी साबित होता। वह भी एक समयसीमा में। तो आखरी सवाल यह खड़ा होता है कि क्या वाकई पीएम और सीबीआई को लेकर जो सवाल जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से उठे थे उनका समाधान हो गया या फिर यह फरेब है जैसा अरविन्द केजरीवाल लगातार कह रहे हैं। असल में लोकपाल के दायरे में पीएम पर लगने वाले आरोपो को भी खास प्रावधान के तहत जांच के दायरे में रखा गया है। और सीबीआई को भी सिर्फ लोकपाल के किसी जांच के दौरान ही लोकपाल के अधीन रखा गया है। यानी पीएम के लिये सामान्य कटघरा न है और सीबीआई भी सामन्य परिस्थिति में स्वतंत्र है। और सबसे महत्वपूर्ण है कि लोकपाल हो या राज्यो में लोकायुक्त दोनों चाहे राजनेता ना बन पाये। लेकिन दोनो की नियुक्ति में राजनेताओं की ही सबसे बड़ी भूमिका होगी। और तो और लोकपाल को हटाने की शुरुआत भी उसी संसद से होगी, जिस संसद में मौजूदा दौर में 242 सांसद दागी हैं। क्योंकि 100 सांसद लोकपाल के खिलाफ लिख कर देंगे तो ही सुप्रीम कोर्ट जांच करेगा और जांच में अगर लोकपाल का कोई सदस्य दोषी पाया गया तो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति से सस्पेंड करने की गुहार लगायेगा। इसी तर्ज पर लोकायुक्त की नियुक्ति से लेकर सस्पेंड कराने तक में उसी विधानसभा की भूमिका बड़ी होगी, जिसमें दागी नेताओ की भरमार है। तो सवाल यही है कि राहुल गांधी हों या नरेन्द्र मोदी या जातिय राजनीति के आधार पर टिके क्षत्रप वह अरविन्द केजरीवाल से घबराये हुये इसीलिये हैं क्योंकि केजरीवाल पहली जनता की भागेदारी से आगे निकल कर आम आदमी को ही सत्ताधारी बनाने का रास्ता दिखा रहे हैं। और सियासत अब भी तिकड़मों के आसरे खुद को पाक साफ बताने-बनाने पर चल रही है।
Thursday, December 19, 2013
केजरीवाल की बिसात पर राहुल और मोदी
Posted by Punya Prasun Bajpai at 6:10 PM
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4 comments:
Punya Prasun Bajpai is an Executive Editor of Aaj Tak. He had been with ZEE NEWS as prime time Anchor and Editor for four years. Punya has more than 20 years experience in both print and electronic journalism. Recently, Prasun received the Indian Express Goenka award for excellence in journalism for the year 2005. The Prime Minister of India, Dr. Manmohan Singh, conferred the award.
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Anurag Pandey
Kya such mai kejriwal itne bade ho chale hai ki Namo or Rago ko ek naya darr sata raha hai,Iska jawab to aane vale wakt mai milega. Par ye nayi rajneeti khaphi aachi hai.
दरअसल अरविंद ने कोई कमाल नही किया......... बस इतना बताया है कि जो चीजें हम नामुमकिन समझते है वो सब संभव है. लोकपाल संसद से पास हो गया इसमे अण्णा जी का बेहद अहम् योगदान है पर दोनों पार्टियों को मजबूर किया है वो अरविंद. दिल्ली के नतीजों ने दोनों पार्टियों को हिला के रख दिया है. भाजपा को झटका दिया है कि सुधार जाओ और कांग्रेस को कोमा में पहुँचा दिया. कांग्रेस हर झगह अपना आधार खो चुकी है और राहुल इनके ताबूत कि आखरी कील है. राहुल ने कहा था वो अरविंद से सीखेंगे अजी घंटा सीखेंगे जो अपने खानदान से नही सीखा वो अरविंद से क्या सीखेगा. कांग्रेस ने तो अपना सब कुछ खत्म कर लिया अपना जनाधार, कार्यकर्ता, सबसे ऊपर अपनी साख. हालत ये है कि राजस्थान में भी कोंग्रेस को किरोड़ी जैसे क्षेत्रीय नेता के साथ गठबंधन करना पड़ रहा है. भाजपा के लिए अच्छी बात है कि मोदी बदल रहे है और बदलना भी चाहिए क्योकि जब सामने अरविंद जैसा व्यक्ति, जिसके लिए लगता है सब कुछ संभव है तो सब कुछ सही करना पड़ेगा. लगता है इस लोकसभा में नही तो अगले लोकसभा चुनाव में मुक़ाबला भाजपा और अरविंद के बीच होगा.
भारत का लोकतंत्र सही दिशा में है.
और आख़िर में काश राहुल, अरविंद का कुछ प्रतिशत मात्र भी होते.
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