Tuesday, April 1, 2014

जनादेश के जश्न से पहले कद्दावर नेताओं की तिकड़म


1977 में देश की सबसे कद्दावर नेता इंदिरा गांधी को राजनारायण ने जब हराया तो देश में पहली बार मैसेज यही गया कि जनता ने इंदिरा को हरा दिया। लेकिन राजनारायण उस वक्त शहीद होने के लिये इंदिरा गांधी के सामने खड़े नहीं हुये थे बल्कि इमरजेन्सी के बाद जनता के मिजाज को राजनारायण ने समझ लिया था। लेकिन इंदिरा उस वक्त भी जनता की नब्ज को पकड़ नहीं पायी थीं। और 52 हजार वोट से हार गयीं। राजनारायण 1971 में इंदिरा से हारे थे और 1977 में इंदिरा को हरा कर इतिहास लिखा था। लेकिन उसी रायबरेली में इस बार सोनिया गांधी के खिलाफ किसी कद्दावर नेता को कोई क्यों खड़ा नहीं कर रहा है यह बड़ा सवाल है। तो क्या 2014 के चुनाव में जनता की नब्ज को हर किसी ने पकड़ लिया है इसलिये कद्दावर नेताओ के खिलाफ कोई शहीद होने को तैयार नहीं है या फिर जिसने जनता की नब्ज पकड़ ली है वह कद्दावर के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने को तैयार है। यह सवाल पांच नेताओं को लेकर तो जरुर है। रायबरेली में सोनिया गांधी, बनारस में नरेन्द्र मोदी,लखनऊ में राजनाथ सिंह, आजमगढ़ में मुलायम सिंह यादव और अमेठी में राहुल गांधी ।

हर नेता का अपना कद है। अपनी पहचान है। लेकिन पहली बार इन पांच नेताओं के खिलाफ कौन सा राजनीतिक दल किसे मैदान में उतार रहा है हर किसी की नजर इसी पर है। यानी कद्दावर नेता के खिलाफ कद्दावर नेता चुनाव मैदान में उतरेंगे या कद्दावर के सामने कोई नेता शहीद होना नहीं चाहता इसलिये कद्दावर हमेसा कद्दावर ही नजर आता है। 2014 के चुनाव को लेकर यह सवाल बड़ा होते जा रहा है। राहुल गांधी के खिलाफ बीजेपी स्मृति इरानी को उतारा है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने अभी तक किसी कद्दावर के नाम का एलान किया नहीं है। सोनिया गांधी के खिलाफ भी बीजेपी ने खामोशी बरती है। सपा ने तो उम्मीदवार ना उतारने का एलान इस खुशी से किया जैसे उसके सियासी समीकरण की पहली जीत हो गयी। राजनाथ के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने जावेद जाफरी को उतारकर लखनवी परंपरा को ही बदल दिया है। मुलायम के खिलाफ कांग्रेस और बीजेपी अभी तक खामोश हैं।

तो क्या पहलीबार कद्दावर नेताओं को घेरने के लिये उम्मीदवारों के एलान में देरी हो रही है या फिर सियासी जोड-तोड मौजूदा राजनीति में कद्दावर को बचाने में जुटी हुई है। यह सावल इसलिये बड़ा है क्योंकि राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति इरानी के लड़ने का मतलब है बीजेपी में ऐसा कोई नेता नहीं जो ताल ठोक कर राहुल गांधी को चुनौती दें। क्योंकि स्मृति इरानी को हारने में ही लाभालाभ है। स्मृति फिलहाल राज्यसभा की सदस्य हैं। और चुनाव हार भी जाती हैं तो राज्यसभा की सीट पर आंच आयेगी नहीं। वैसे बीजेपी में हर बड़ा नेता अमेठी में चुनाव लडने की एवज में राज्यसभा की सीट मांग रहा था। लेकिन स्मृति को तो कुछ देना भी नहीं पड़ा। और चुनाव राहुल गांधी के खिलाफ लड़ रही है तो प्रचार मिलेगा ही। और राहुल गांधी के लिये स्मृति इरानी का लडना फायदेमंद भी साबित होगा क्योंकि स्मृति की पहचान कही ना कही टीवी सीरियल कलाकर से जुडी हुई हैं और अमेठी में ताल ठोंक रहे आप के कुमार विश्वास भी मंचीय कवि हैं तो तो झटके में राहुल बनाम कलाकार-अदाकार का केन्द्र अमेठी हो गया। यानी अमेठी 77 वाले हालात से दूर है जब गांधी परिवार के सबसे ताकतवर बेटे संजय गांधी अमेठी में चुनाव हारे थे। लेकिन उस वक्त भी संजय गांधी के खिलाफ खडे उम्मीदवार को कोई नहीं जानता था उल्टे जनता के फैसले को बडा माना गया था। वहीं सोनिया गांधी को लेकर कोई रणनीति किसी के पास नहीं है। रायबरेली में 37 बरस पहले इंदिरा गांधी हारी थीं। लेकिन रायबरेली में सोनिया गांधी हार सकती है यह 2014 में कोई मानने को तैयार नहीं है। इसलिये रायबरेली में कोई कद्दावर नेता शहीद होना भी नहीं चाहता। बीजेपी की उमा भारती हो या आप की शाजिया इल्मी दोनों ने ही रायबरेली से कन्नी काटी। और बीजेपी ने जिसे मैदान में उतारा वह विधायक का सीट भी नहीं जीत सकता। सपा छोड कर बीजेपी में शरीक हुये अजय अग्रवाल को सोनिया के खिलाफ उतार कर बीजेपी ने साफ कर दिया कि मोदी के खिलाफ वह कांग्रेस से किसी कद्दावर काग्रेसी नेता को मैदान में देखना नहीं चाहती। तो सवाल तीन हैं। बीजेपी ने अमेठी और रायबरेली को वाकओवर दिया। तो बनारस में उम्मीदवार के एलान को लेकर रुकी कांग्रेस भी मोदी को वाकओवर दे देगी। या फिर पीएम पदत्याग से बना सोनिया का कद आज भी हर कद पर भारी है। या सोनिया 2014 के चुनाव में महज एक प्रतीक है। क्योंकि राहुल दौड़ में है। हो जो भी लेकिन गांधी परिवार सरीखी सुविधा बाकि कद्दावर नेताओ के लिये तो बिलकुल ही नहीं है। राजनाथ या मोदी को लेकर राजनीतिक दलों की बिसात उलट है। राजनाथ हो या नरेन्द्र मोदी सत्ता के लिये दोनो ही रेस में हैं। दोनो को पता है कि लखनऊ या बनारस से जीत का मतलब दोनों नेताओ के लिये होगा क्या । इसलिये मोदी के खिलाफ चुनावी गणित को ठोक बजाकर हर दल देख रहा है और राजनाथ को हर दल ने अपने उम्मीदवारों के आसरे घेरने का प्रयास किया है। लखनऊ में चुनावी जीत हार मुस्लिम और ब्राहमण वोटरों पर ही टिकी है । 5 लाख से ज्यादा मुस्लिम और -करीब 6 लाख ब्रह्ममण वोटर लखनऊ में हैं। और राजनाथ के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने जैसे ही फिल्मी कलाकार जावेद जाफरी को उतारा वैसे ही कई सवाल सियासी तौर पर उठे। क्या आप मुसलिम वोटर को अपने साख देख रहा है। वहीं बाकी तीनों दल यानी सपा, बीएसपी और कांग्रेस तीनों माने बैठे हैं कि मुस्लिम वोटर अगर उनके साथ आता है तो जीत उन्हीं की होगी क्योंकि तीनो ही दलो के उम्मीदवार ब्राह्णमण हैं।

ऐसे में राजनाथ का नया संकट यही है कि अगर ब्राहमण वोटर बीजेपी से छिटका या राजनाथ से छिटका तो राजनाथ मुश्किल में पड जायेंगे क्योंकि जातीय समीकरण के लिहाज राजपूतों की तादाद लखनउ में 80 हजार से भी कम है । लेकिन मुस्लिम उम्मीदवार के मैदान में उतरने से राजनाथ को लाभ है कि मुस्लिम वोटर अगर जावेद जाफरी में सिमटा तो कांग्रेस, सपा और बीएसपी के लिये यह घातक साबित होगा। वहीं राजनाथ से उलट बिसात मोदी को लेकर बनारस में हर राजनातिक दल की है क्योंकि वहां केजरीवाल को सामने कर सीधी लड़ाई के संकेत हर राजनीतिक दल की लगातार खामोशी दे रही है। बनारस में हर कोई बनारसी दांव ही चल रहा है। मोदी बनारस में मोदी से ही लड़ रहे हैं। मोदी का कद बीजेपी से बडा है । मोदी पीएम पद के उम्मीदवार है। 2014 में सरकार बीजेपी की नहीं मोदी की बननी है। सोमनाथ से बाब विश्वानाथ के दरवाज में मोदी यूं ही दस्तक देने नहीं पहुंचे हैं। यह सारे जुमले मोदी को मोदी से ही लड़ा रहा है इसलिये नया सवाल यही हो चला है कि मोदी के खिलाफ कांग्रेस मैदान में उतारेगी किसे। नजरें हर किसी की है। कांग्रेस के पांच नेता दिगग्विजय सिंह , आनद शर्मा , प्रमोद तिवारी , राशीद अल्वी और पी चिंदबरम अभी तक जिस तरीके से मोदी को चुनौती देने के लिये अपने नाम आगे किये है और काग्रेस हाईकमान ने कोई गर्मजोशी नहीं दिकायी उससे अब नये संकेत उभरने लगे है कि मोदी को घेरने के लिये क्या हर राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार को उतारने से बनारस में बच रहे है । क्योकि मोदी के खिलाफ केजरीवाल चुनाव लडने की मुनादी कर चुके है और वोट बिखरे या कटे नहीं इसपर खास ध्यान हर राजनीतिक दल दे रहा है ।

बनारस में जितनी तादाद यहा ब्राह्मण की है उतने ही मुसलमान भी हैं। और पटेल-जयसवाल को मिला दें तो इनकी तादाद भी ब्रह्मण-मुसलमान के बराबर हो जायेगी। तो १६ लाख वोटरों वाले काशी में मोदी के शंखनाद की आवाज को खामोश तभी किया जा सकता है जब जाति और धर्म का समीकरण एक साथ चले। और यह तभी संभव है जब मुलायम-मायावती एक तरीके से सोचें और कांग्रेस मोदी को ही मुद्दा बनाकर केजरीवाल की परछाई बन जायें। असल में कांग्रेस की खामोशी या उम्मीदवार खड़ा करने को लेकर देरी इसकी संकेत देने लगी है कि वोटों के समीकरण और मोदी की परछाई को ही मोदी के खिलाफ खड़ा करने की एक नयी सियासत कांग्रेस भी बना रही है और आजमगढ पहुंचे मुलायम सिंह यादव भी बनारस में आजगढ की हवा बहाने में लगे हैं। यानी मुसलिम वोटर के गढ में मुलायम खुद के मौलाना होने का तमगा लेने पहुंचे हैं और बनारस के कबीरपंथी सोच में मोदी सेंध लगाने पहुंचे हैं। सवाल सिर्फ इतना है कि पहली बार कद्दावर नेताओं की तिकड़मी राजनीति के सामने उसी जनादेश को छोटा कर आंका जा रहा है जो जनादेश नेताओं के कद्दावर बनाता है। तो आजादी के बाद चुनावी इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण पन्ना लिखा जा रहा है 2014 में । क्योंकि जनादेश तिकडमी कद्दावरों को धूल चटायेगा और धूल से कुर्सी तक पहुंचायेगा। इसके लिये सिर्फ इंतजार करना पड़ेगा।

5 comments:

Kulwant Happy said...

जोरदार विश्लेषण

Unknown said...

Kejriwal ke support me aur kitne sting karoge. Kya tumhare channel ko kejriwal be khareed liya hai.

Unknown said...

Bahut badiya analysis.....

Unknown said...

Bahut badiya analysis.....

Ramanuj Mishra said...

krantikari... bahut hi krantikari
kyun???? thik kaha naa.