गंगा और बुनकर। एक काशी के आस्तित्व की पहचान तो दूसरा प्रतीक और रोजी रोटी। नरेन्द्र मोदी ने बनारस में पर्चा भरते वक्त इन्ही दो मुद्दों को उठाया। लेकिन इन दोनों मुद्दों के साय में अगर बनारस का जिक्र होगा और वह भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर तो फिर आने वाले वक्त में काशी के भाग्य बदलेंगे या काशी देश की सत्ता परिवर्तन भर का प्रतीक बनकर रह जायेगा। हो जो भी लेकिन सच यही है कि बुनकर मजदूर बन चुका है और गंगा किसी बरसाती नाले में तब्दील हो चली है। दरअसल, गंगा की अविरल धारा अब गंगोत्री से काशी तक सिर्फ लोगों के जहन में ही बहती है। शहर दर शहर, गांव दर गांव। सौ पचास नहीं बल्कि ढाई हजार गांव इसी गंगा पर पूरी तरह आश्रित है और गंगा सिर्फ मां नहीं बल्कि आधुनिक दौर में जिन्दगी भी है। रोजगार है। कारखाना है। उद्योग है। सरकारी योजनाओं को समेटे है गंगा। लेकिन बिगड़े बच्चों की तरह गंगा को मां मानकर भी किसी ने गंगा के उस सच को नहीं देखा जिसके दायरे में गंगा का पानी पीने लायक नहीं बचा और सैंट्रल पौल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड को कहना पड़ा कि कन्नौज, कानपुर, इलाहबाद और काशी में तो गंगा नहाने लायक तक नहीं है।
गंगोत्री से बंगाल की खाडी तक देश के 42 सासंद गंगा किनारे के क्षेत्र से ही चुने जाते हैं। अपने सासंद को चुनने वाले इन 42 लोकसभा क्षेत्रों के करोड़ों वोटरों के लिये सबकुछ गंगा ही है। लेकिन गंगा किसी के लिये कभी मुद्दा नहीं बना। ऐसा भी नहीं है कि राजनेताओं या सरकारों के पास पैसे की कमी है। 1985 में गंगा एक्शन प्लान शुरु हुआ तो विश्व बैंक से लेकर गंगा के लिये काम करने वाले एनजीओ के अपनी थैली खोल दी। 2011 में 7 हजार करोड़ तो विश्व बैंक से आ गया। करीब 10 हजार करोड की मदद पर सहमति दुनियाभर के एनजीओ और सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों से आ गयी। लेकिन काम सिर्फ कागजो पर ही रेंगता रहा। 896 करोड रुपये सीवेज के लिये दिये गये। कानपुर में बहते कूडे को गंगा में गिरने से रोकने के लिये 145 करोड रुपये दिये गये। लेकिन सिवाय संसद से विधानसभा में गंगा सफाई को लेकर गूंज और निराशा के आगे बात कभी बढ़ी नहीं। गंगा के पानी को टिहरी में पठारो से रोक कर भविष्य के गर्भ में प्रकृतिक से खिलवाड़ का रोना भी रोया गया। लेकिन मुनाफे और गंगा तक से कमाई के लोभ ने कभी राजनेताओ के दिल को डिगाया नहीं। लेकिन पहली बार कोई पीएम पद का उम्मीदवार काशी पहुंचकर जब इस भावुकता से बोला कि गंगा ने बुलाया है तो ही काशी आना हुआ तो शाय़द पहली बार राजनीति भी गंगा नहा गई। तो क्या गंगा की तस्वीर मोदी के सत्ता में आने के बादल सकती है। यकीनन कोई भी ठान लें तो गंगा फिर उसी अविरल धारा के साथ जिन्दगी का गीत सुनाती हुई बह सकती है। तो पहला सवाल क्या साबरमति के लाल ने आजादी दिलायी और अब काशी को गंगा लौटाकर मोदी भी गंगा के लाल तो हो ही सकते है। वही बुनकरों को लेकर जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने मार्केटिंग का सवाल उठाया उसने झटके में बनारस के करीब डेढ लाख बुनकरो की दुगती रग पर हाथ रख दिया। क्योंकि बनारस की पहचान सिल्क साड़ी भी है। मुगलिया सल्तनत तक बनारस के बुनकरों के हुनर पर रश्क करती थी। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि मुगलिया सल्तनत की तरह हुनरमंद बुनकर भी अस्त हो गये। अग्रेजों ने मुगलों को खोखला बना दिया तो चीन के सिल्क ने बुनकरो की कमर तोडी। बीते 10 बरस में बनारस के 175 से ज्यादा बुनकरों से आत्महत्या कर ली। बुनकरों के हुनर को चुनौती मशीन ने दी। फिर मशीन भी बिजली की किल्लत में बैठ गई। हथेलियो पर रेंगते हुनर पर पेट की भूख भारी पड़ी और देखते देखते सिर्फ बनारस में 20 हजार से ज्यादा परिवार मजदूरी में लग गयी। खेती से लेकर शहर में बडी बडी अट्टलिकाओ की चमक दमक बरकरार रखने के लिये ईंट और सीमेंट की बोलिया उठाते मजदूरो को रोक कर आज भी पूछ लीजिये हर पांच में एक बुनकर ही निकलेगा। बनारस के जिस राजा तालाब पार बस्ती में एक वक्त करघो का संगीत दिन रात चलता रहता था। वही बस्ती अब सुबह होते ही मजदूरी के लिये निकलती दिखायी पड़ती है। कैसे हुनर लौटेंगे। कैसे पुश्तैनी काम दुबारा बनारस की गलियो में बिखरी पडी बस्तियों के आसरे दुबारा पुरानी रंगत में लौटेगा। भरोसा अब भी किसी को नहीं होता ।
ढाई बरस पहले राहुल गांधी ने सरकारी पैकेज देकर बुनकरो की भूख मिटायी थी। लेकिन चुनाव जीता समाजवादी पार्टी ने और सीएम होकर भी बुनकरों के जख्म में मलहम ना लगा सके अखिलेश यादव। अब पीएम पद के दावेदार मोदी ने हुनरमंद हाथों को दोबारा संवारने के लिये आंखो में सपने जगाये है। सवाल सिर्फ इतना है कि सत्ता की होड के साथ ही सपनो को जोडा गया है । जिसे बनाना या तोडना सिर्फ बनारस के हाथ में नहीं। तय देश को करना है। क्योंकि समूचे देश में ही हर हुनरमंद सियासी चालों तले बार बार ठगा गया है । और मजदूर बनकर जीने को अभिश्पत हो चला है। सपना टूटे नहीं उम्मीद तो की जा ही सकती है। लेकिन जिस तरह पर्चा भरने को ही सियासी ताकत का प्रतीक बना दिया गया । उसमें अगले 18 दिन तक यह मुद्दे मायने रहेंगे भी या नहीं यह देखना भी दिलचस्प होगा। क्योंकि महाभारत 18 दिन ही चला था। और जब युद्द खत्म हुआ तो युद्दभूमि में मौत से भी भयावह सन्नाटा था। घायल और मरे लोगों से पटे पडे युद्द भूमि के आसमान पर चील कौवे मंडरा रहे थे। लेकिन बनारस की राजनीति के अक्स में क्या काशी 2014 के चुनाव का एक ऐसा युद्द स्थल बन रहा है जो महाभारत से कम नहीं है तो फिर मौजूदा वक्त में देश की राजनीतिक सत्ता की दौड में जिस जुनुन के साथ बनारस की गलियो में जन सैलाब उमड़ा। केजरीवाल के साथ सफेद टोपिया और लहराते सफेद झंडो के बाद मोदी के साथ केसरिया रंग से बनारस पटा गया। गगन भेदी नारो के बीच जनसैलाब लोकतंत्र की उस राजनीति को ही हड़पने को बेताब दिखा । जिसमें कोई मुद्दा मायने भी रखता हो या बहस की भी गुंजाइश हो। और अगर मोदी को ताकत जनसैलाब से मिली तो भी गंगा या बुनकर की त्रासदी चुनावी तंत्र में क्या मायने रखती है। हर किसी को चुनावी जीत के लिये अगर भीड़ ही चाहिये तो फिर जीतने के लिये हहर हथकंथे को न्याय युद्द ही मान कर लडा जा रहा होगा । उसमें केजरीवाल इमानदारी या व्यवस्था परिवा रत्न का नारा लगाये और मोदी गंगा की सौगन्ध खाने लगे तो फर्क किसे पड़ता है।
हां, लोकतंत्र का पर्व झटके में बनारस को एक ऐसे सियासी कुरुक्षेत्र में तब्दील करने को आमादा है, जहां महाभारत की आहट दिखायी देने लगी है। मोदी के पर्चा दाखिल करने के ठीक 18 दिन बाद वोटिंग होनी है। और 18 दिन चले महाभारत के बाद के दृश्य को अंधा युग ने बाखूबी खींचा है-टुकडे टुकडे हो बिखर चुकी मर्यादा/उसको दोनो ही पक्षों ने तोडा/ पांड्व ने कुछ कम..कौरव ने कुछ ज्यादा / यह रक्तपात अब समाप्त होना है / यह अजब युद्द है । नहीं किसी की भी जीत /दोनो पक्षों को खोना ही खोना है।
लेकिन वह अंधा युग था। अब कलयुग है । जहा हर किसी को कुछ पाना ही पाना है । तो इंतजार कीजिये अगले 18 दिन के महाभारत का जिसकी मुनादी काशी में हो चुकी है।
Friday, April 25, 2014
कलयुग के महाभारत में काशी कैसे कुरुक्षेत्र बन गयी
Posted by Punya Prasun Bajpai at 4:34 PM
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4 comments:
lazawaab.......
lazawaab.......
Lazawab
Once again it is being difficult to do postmartum of your article because of your logical explanation of facts and retentiveness of two topics .Outstanding
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