आजादी के मायने बदलने लगे हैं। या फिर आजादी के बाद सत्ताधारियों ने जिस तरीके से देश चलाया अब आवाम उसमें बदलाव चाहती है। नहीं, यह आवाज सिर्फ राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन या जनादेश के दायरे में सुनी कही नहीं जा रही है बल्कि राजनेताओ से घृणा। संसद पर सवालिया निशान। न्यायपालिका पर उठती अंगुली। नौकरशाहों का भ्रष्ट होना। और कहीं ना कही भारत की आत्मा जो गांव में बसती है उसे खत्म करने की बाजार व्यवस्था की साजिश। तो फिर इसमें भागीदार कौन है और परिभाषा बदल रहा है। दरअसल आजादी के महज 67 बरस बाद ही सूबों की सियासत से लेकर प्रांत और संप्रदाय की समझ से लेकर भाषा और जाति-धर्म के आस्त्तिव के सवाल जिस तरह राजनीतिक दायरे में उठने लगे है और राजनीति को ही सम्यता और संस्कृति की ताकत भी दे दी गयी है उसमें पहली बार आजादी के वह सवाल गौण हो चले है जो बरसो बरस किसी देश को जिन्दा रखने के लिये काम करते हैं। 15 अगस्त 1947 । नेहरु ने लालकिले से पहले भाषण में नागरिक का फर्ज सूबा, प्रांत, प्रदेश, भाषा, संप्रदाय, जाति से ऊपर मुल्क रखने की सलाह दी। और जनता को चेताया कि डर से बडा ऐब/ गुनाह कुछ भी नहीं है। वहीं 15 अगस्त 1947 को कोलकत्ता के बेलीघाट में अंधेरे घर में बैठे महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को यह कहकर लौटा दिया कि अंधेरे को रोशनी की
जगमग से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है।
तो पहला सवाल क्या आजादी के संघर्ष के बाद जिस आजादी की कल्पना बारत ने की थी वह अधूरी थी या फिर वह आजादी नहीं सिर्फ सत्ता भोगने की चाहत का अंजाम था। और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर देश को संवारा ना जा सका, आर्थिक तौर पर स्वावंबन ना लाया जा सका या कहे राजनीतिक तौर पर कोई दृष्टि १९४७ में कांग्रेस के पास थी ही नहीं इसलिये देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने पहली कैबिनेट हर तबके, हर संप्रदाय हर जाति और कमोवेश हर राजनीतिक धारा के नुमाइंदों को लेकर बना दी जिससे इतिहास उन्हे दोषी ना माने। दलितों के सवाल पर महात्मा गांधी से दो दो हाथ करने वाले बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने के खिलाफ हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक नेहरु की पहली कैबिनेट में थे। वैसे माना यही जाता है कि आजादी को अधूरा मानने वाले महात्मा गांधी ने ही नेहरु को सुझाव दिया था कि पहली सरकार राष्ट्रीय सरकार लगनी चाहिये । लेकिन इस राष्ट्रीय सरकार के मर्म में नेहरु या कहे कांग्रेस की सियासत ने सामाजिक सरोकार को ही राजनीतिक चुनाव के कंधे पर लाद दिया और वक्त के साथ
हर राजनीतिक विचारधारा भी राजनीतिक सत्ता के लिये संघर्ष करती दिखायी देने लगी। ध्यान दें बीते ६७ बरस की सबसे बडी उपलब्धि देश में राजनीतिक ताकत का ना सिर्फ बढ़ाना है बल्कि राजनीतिक सत्ता को ही हर क्षेत्र का पर्याय मान लिया गया। यानी वैज्ञानिक हो या खिलाड़ी। सिने कलाकार हो या संस्कृतकर्मी। या कहें देश के किसी भी क्षेत्र का कोई श्रेष्ट है और वह सत्ता के साथ नहीं खड़ा है सत्तादारी राजनीति दल के लिये शिरकत करता हुआ दिखायी नहीं दे रहा है तो फिर उसका समूचा ज्ञान बेमानी है। तो पहला संकट तो वहीं गहराया जब राजनीतिक सत्ता से अवाम का भरोसा दूटना शुरु हुआ। भरोसे टूटने को लेकर भी सियासी साजिश ने उसी संसदीय राजनीति को महत्ता दी जिसके आसरे कभी देश चला ही नहीं। यानी आजादी के बाद चुनाव में ७० फिसदी वोटिंग घटकर ४२ फिसदी तक पहुंची तो उसे ही राजनीतिक मोहभंग का आधार बनाया गया । और
जैसे ही २०१४ में वोटिंग दुबारा ६५ फिसदी तक पहुंची वैसे ही संसदीय राजनीतिक सत्ता के गुणगाण होने लगे। यानी हर पांच बरस में एक दिन की शिरकत को पीढ़ियों से नजर्ंदाज करती राजनीति पर बारी बनाने की कोशिश इस सियासत ने हर वक्त की। जबकि सच कुछ और रहा । नेहरु ने बेहद शालीनता से राजनीतिक विचारधारा को सत्ता की जीत से जोड़ा। इंदिरा गांधी ने अंध राष्ट्रवाद को सियासी ताकत से जोड़ा। आपातकाल के खिलाफ जनसंघर्ष को भी सत्ता पलटने और सत्ता पाने से जोडने के आगे देखा नहीं जा सका। और उसके
बाद कमजोर होती राजनीतिक सत्ता को भी जोडतोड के आसरे मजबूत दिखाने से कोई नहीं चूका। चाहे वह कांग्रेसी मिजाज के वीपी सिंह और चन्द्रशेखर हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच लिये अटलबिहारी वाजपेयी। देश की जरुरतें हाशिये पर रही क्योंकि राजनीतिक जरुरतें सर्वोपरि थी। और राजनीतिक जरुरतें
ही जब देश की जरुरत बना दी गयी या कहें देश में एक तरह की राजनीतिक शून्यता को मान्यता मिल गयी तो फिर सोनिया गांधी ने बेहिचक गद्दी पर गांधी परिवार की खडाउ रखकर मनमोहन सिंह को ही देश का प्रधा नमंत्री बना दिया। यानी आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक असमानता की जिस लकीर को राजनीतिक कटघरे में फकीर बना दिया उसे दुनिया का बाजर में बेचने का सिलसिला बीते दस बरस में खुल कर राष्ट्रीय नीतियों के तहत हुआ।
जिन खनिज संसाधनों को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय संपत्ति माना उसे सोनिया गांधी के दौर में मनमोहन सिंह ने मुनाफे के धंधे के लिये सबसे उपयोगी माना। बाजार सिर्फ जमीन के नीचे ही नहीं बना बल्कि उपर रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों, खेतिहर किसानो और मजदूरों को भी लील गया। लेकिन ताकतवर राजनीतिक सत्ता ने
इसे दुनिया के बाजार के सामने भारत को मजबूत और विकसित करने का ऐसा राग छेड़ा कि देश के तीस फिसद उपभोक्ताओं को खुले तौर पर लगने लगा कि बाकि ७० फिसदी आबादी के जिन्दा रहने का मतलब क्या है। सरोकार तो दूर, संवाद तक खत्म हुआ । भाषा की दूरिया बढ़ीं। सत्ता की भाषा और सत्ता की कल्याण
योजनाओ के टुकड़ों पर पलने वाले ७० फीसद की भाषा भी अलग हो गयी और जीने के तौर तरीके भी। इसलिये विकास की जो लकीर देश के तीस करोड़ उपभोक्ताओं के लिये खिंची जा रही है उसका कोई लाभ बाकि ८० करोड़ नागरिकों के लिये है भी नहीं। वहीं दूसरा संकट यह है कि जिस ६ करोड लोगों के लिये विकास की लकीर पचास के दशक में नेहरु खिंचना चाह रहे थे वही लकीर नयी परिभाषा के साथ मनमोहन सिंह २१ वी सदी में तीस करोड़ लोगों के लिये खिंचने में लग गये। असल यही हुआ कि १९४७ में बारत की जितनी जनसंख्या थी उसका तीन गुना हिन्दुस्तान २०१४ में दो जून की रोटी के लिये राजनीतिक सत्ता की तरफ
टकटकी लगाकर देखता है। और टकटकी बरकरार रहे इसके लिये राजनीतिक सत्ता पाने के संघर्ष में हर पांच बरस बाद सिर्फ चुनावी संघर्ष में इतना रुपया फूंक दिया जाता है जितने में हर दस बरस का भरपेट भोजन और शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का साफ पानी इस बहुसंख्यक तबके के लिये उपलब्ध हो जाये । फिर इसे ही लोकतंत्र का नारा दे कर दुनिया भर में एलान किया जाता है कि दुनिया का सबेस बडा लोकतांत्रिक देश आजाद है। असर इसी का है कि आजादी के बाद से तमाम प्रधानमंत्री हर बरस लालकिले से उन्हीं ७० फिसदी आबादी की बात करने से नहीं चूकते, जिनकी मुश्किले हर सरकार के साथ लगातार बढती चली जा रही है। यानी विकास की नयी आर्थिक लकीर धीरे धीरे लोकतंत्र का भी पलायन करवाने से नहीं चुक रही है। लोकतंत्र के पलायन का मतलब है , सिर्फ प्रभु वर्ग की तानाशाही, या कहें तंत्र के आगे लोकतंत्र का घुटना टेकना भर नहीं है। यह ऐसा वातावरण बनाती है जहां भूखे को साबित करना पडाता है कि वह भूखा नहीं है। किसान को साबित करना पड़ता है कि उसे किसानी में मुश्किल हो रही है । शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने का पानी जो
न्यूनतम जरुरत है उसे पाने के लिये जितनी भी जद्दोजहद करनी पड़ी लेकिन ना उपलब्ध होने पर यह साबित करना पडता है कि यह सब नहीं मिल पा रहा है तो ही सरकारी पैकेज या योजनाओं का लाभ मिल सकता है। यानी लालकिले पर लहराते तिरंगे के नीचे खडेहोकर कोई प्रधानमंत्री इस शपथ को नहीं ले सका कि जिन्दगी की न्यनतम जरुरतों को दिलाने के लिये वह सत्ता में आया है और उसे पूरा करने के बाद ही वह लालकिले पर तिरंगा फहरायेगा या पांच बरस बाद चुनाव लड़ेगा। मनमोहन सिंह ने इस सवाल को और ज्यादा बडा इसलिये बना दिया क्योंकि लोकतंत्र की नयी परिभाषा में संसद और संविधान के साथ बाजार और मुनाफा भी जुड़ गया है। इसलिये लोकतंत्र के पलायन के बाद नेता के साथ साथ बाजार चलाने वाले व्यापारी भी सत्ता का प्रतीक बन रहा है। और उसके आगे मानवाधिकार कोई मायने नहीं रखता। उन आंकड़ों को बताना अभी सही नहीं होगा
कि कैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ही बताती है कि कैसे सरकारे और सरकार की नीतिया मानवाधिकार हनन में जुटी है । उससे पहले उस लकीर को समझ ले कि कैसे देश के भीतर सियासी लकीर खिंची और जीने की सारी परिभाषा बदलने लगी।
१९९० में देश की ७६ फिसदी आबादी करीब साढे छह लाख गांव में रहती थी और बाकी २४ फीसदी आबादी करीब पचास हजार शहरो में। और पिछले दो दशक के दौरान ६३८००० गांव में देश की ६७ फिसदी आबादी है जबकि
५१०० शहरो में ३३ फिसदी आबादी। इस दौर में सरकार की सारी नीतियां या बजट का औसत ७२ फिसदी हिस्सा उन शहरों के नाम पर एलान किया गया जहां सड़क, पानी ,बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा तक हर नागरिक को उपलब्ध नहीं है। जबकि कमोवेश शहरों में रहने वाले ७२ फिसदी लोगों के पास छोटा बड़ा काम है । यानी शहरो के लिये भी कोई इन्फ्रस्टरक्चर जीने की न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने तक का सरकार उपलब्ध नहीं करा पायी। जबकि काम करने वाले ७२ फिसदी लोगों में से ५५ फिसदी लोग तो जिन्दगी जीने की न्यूनतम जरुरत पाने के एवज में सरकार को रुपये देने को तैयार है। यानी गांव और गांव में रहने वाले ६५
फिसदी आबादी के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर हो या ना हो इसकी दुहाई देने वाले महात्मा गांधी के बाद तो कोई बचा नहीं। इसके उलट जिन शहरों को लेकर सरकारे भागती-दौड़ती नजर आयी वहां भी कोई काम हुआ नहीं। इसका एक अर्थ तो साफ है कि सरकार की नीतिया बनी भी लागू भी हुई लेकिन वह नीतियां देश के हालात के अनुकुल नहीं थी। यानी भारत है क्या चीज इसे वही राजनीतिक सत्ता या तो समझ नहीं पायी जो बीते ६७ बरस में सबसे ताकतवर हुई या फिर राजनीतिक सत्ता पाने या बरकरार रखने के तौर तरीको ने ही भारत को जीते जीते रेंगना सिखा दिया। असर इसी का है कि दिल्ली में जो भी सरकार बने या जिस भी रकार को जनता वोट से पलट दें उसी की तरह वह खुद की जीत हार भी मान लेती है और यह सवाल किसी के जहन में नहीं रेघता कि राजनीतिक सत्ता की धारा जब मैली हो चुकी है तो पिर उससे निकलने वाली विकास की धारा हो या भ्रष्ट
धारा जनता को चाहते ना चाहते हुये आखिर में पांच या दस बरस का इंतजार करना ही पडेगा और यह इंतजार भी जिस परिणाम को लेकर आयेगा वह सियासी बिसात पर जनता को प्यादा ही साबित करेगा। जाहिर है ऐसे में यह हर जहन में सवाल उठ सकता है कि फिर होना क्या चाहिये या २०१४ के चुनाव में जिस जनादेश का
गुणगान दुनिया भर में हो रहा है उसे बडबोले तरीके से बताया दिखाया क्यों जा रहा है जबकि चुनाव के न्यूनतम नारों को पूरा करने में ही सरकार की सांस फूल रही है। महंगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन । कमोवेश यही तीन बातें तो चुनाव के वक्त गूंज रही थी और हर कोई मान कर चल रहा है कि इन तीनों के आसरे अच्छे दिन आ जायेंगे। लेकिन बीते ६७ बरस में जो तंत्र सरकार की नीतियों को जरीये बना या कहे राजनीतिक मजबूरियों ने जिस तंत्र के खम्भों पर सत्ता को खडा किया उसमें मंहगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन राजनीतिक कैडर को पालने-पोसने का ही यंत्र है इसे छुपाया भी गया। वहीं जनादेश की आंधी को हमेशा से दुनिया के बाजार ने अपने अनुकुल माना है क्योंकि सत्ता या सरकारे निर्णय तभी ले सकती है जब वह स्वतंत्र हो। और संयोग ऐसा है कि स्वतंत्रता सरकारों के काम करने के लिये मिलने वाले जनादेश पर आ टिकी है । राजीव गांधी को १९८४ में दो तिहाई बहुमत मिला तो अमेरिका ने राजीव गांधी को सिर पर बैठाया। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री मिले तो अमेरिका ने तरजीह दी क्योंकि दुनिया के बाजार में मनमोहन सिंह नुमाइन्दगी भारत की नहीं बल्कि विश्व बैंक की कर रहे थे। लेकिन अब सवाल आगे का होना चाहिये। परिवर्तन का माद्दा सरकार के भीतर होना चाहिये। बुनियादी भारत को देख-समझ कर नीतियां बननी चाहिये। क्योंकि पहली बार परीक्षा कांग्रेस छोड़ संघ का निर्माण करने वाले हेडगेवार की राष्ट्रीयता वाली सोच की भी है। सामाजिक शुद्दिकरण का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी है । आर्थिक स्वावलंबन की खोज करते भारत का भी है। और तीस बरस देश की गलियों में बतौर संघ के प्रचारक के तौर पर खाक छानने वाले नरेन्द्र मोदी का भी जो अखंड भारत का नारा लगाते हुये भारत की परंपरा को आधुनिक दुनिया से कही आगे मानने की सोच पाले रहे हैं। तो सवाल तीन है। पहला, क्या भारत की आत्मा जिन गांव में बसती है उसे पुनर्जीवित किया जायेगा या शहरीकरण तले गांव को ही खत्म किया जायेगा। दूसरा, रोजगार को भारत के स्वावंलबन से जोड़ा जायेगा या भारत निर्माण की सोच से। जो विदेशी निवेश पर आश्रित होगा । और तीसरा भारत को दुनिया का सबसे बडा बाजार बनाया जायेगा या फिर ज्ञान और सरोकार की भूमि।
ध्यान दें तो तीनों परिस्थितियां एक दूसरे से जुड़ी है और मौजूदा वक्त मोदी सरकार का पहला कदम नेहरु मॉडल से लेकर राजीव गांधी के सपनों और मनमोहन सिंह के मुनाफा बनाने की सोच के ही इर्द गिर्द घूम रहा है । यानी मोदी सरकार के पहले कदम या तो संघ के आचरण के उलट, भारत की समझ से दूर कदम उठाया है य़ा फिर भारत को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन संघ हर सुबह गली-मोहल्लों में जो पाठ पढ़ाता है और अपने २३ संगठनों के जरीये जिस हिन्दु पद्दति की बात करता भी है तो सिर्फ बताने के लिये है। क्योंकि
विकास का मतलब हथेली और जेब में रुपया या डालर रखने वालो को सुविधा देना नहीं हो सकता। वह भी तब जब भारत के हालात भारत को ही दरिद्र बनाते जारहे हो। यानी जिस देश में सिर्फ १३ फीसदी लोग देश का ६७ फिसदी संसधान अपने उपभोग के लिये इस्तेमाल करते हों। वहां इन १३ फिसदी लोगों की हैसियत इस्ट इंडिया कंपनी से तो कहीं ज्यादा होगी। और सरकार की नीतियां ही जब दुनिया के नौ ताकतवर देशों की ३७ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये यह सोच कर दरवाजा खोल रही हो कि देश में डॉलर वही लेकर आये। इन्फ्रास्ट्रक्चर वही बनाये। खनिज संसधानों को कौडियो के मोल चाहे ले जाये। लेकिन भारत को स्वर्णिम विकास के दायरे में कुछ इस तरह खडा कर दें जिससे बेरोजगारी खत्म हो। हर हाथ को काम मिलने लगे । और हर हथेली पर इतना रुपया हो कि वह अपनी जरुरत का सामान खरीद सके । यहा तर्क किया नहीं जा सकता क्योकि तीन सौ बरस की गुलामी का पाठ मोदी सरकार ही नहीं देश ने भी पढ़ा होगा। और मौजूदा
वक्त में इस सच से समूचा देश वाकिफ है कि पीने के पानी से लेकर खनिज संपदा और भूमि तक बढ़ नहीं सकती है। यानी भारत के सामाजिक-आर्थिक परिस्तियो के अनुरुप अगर विकास की नीतिया नहीं बनायी गयी तो हालात और बिगडेंगे। क्योंकि जो तंत्र विकसित किया जा रहा है उसकी विसंगतियों पर काबू पाना ही सबसे मुश्किल होता जा रहा है। मसलन बिहार, उत्तरारखंड, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश समेत सोलह राज्यों में साठ लाख से ज्यादा लोग मानवाधिकार हनन की चपेट में राजनीतिक प्रभाव की
वजह से आये। यानी राजनीति ने अपना निशाना साधा और आम आदमी की पुलिस-प्रशासन ने सुनी नहीं। अदालत में मामला पहुचने पर आम नागरिक के खिलाफ हर तथ्य उसी पुलिस प्रशासन ने रखे जो सिर्फ नेताओ की बोली समझ पाते है। इन राज्यों में करीब दो लाख मामले एसे है, जिनमें जेल में बंद कैदियो को पता ही नहीं है कि उन्हें किस आरोप में पकड़ा गया। ज्यादातर मामलो में कोई एफआईआर तक नहीं है। या एफआईआर की कापी कभी आरोपी को नहीं सौंपी गयी। यह मामला चाहे आपको गंभीर लगे लेकिन जिन राज्यों से लोकतंत्र का पलायन हो रहा है वहां यह सब सामान्य तरीके से होता है। सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छीनेगा। इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है। और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है ।
असल में संकट विचारधारा की शून्यता का पैदा होना है । समाजवादी थ्योरी चल नहीं सकती, सर्वहारा की तानाशाही का रुसी अंदाज बाजार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुका है और अब बाजार व्यवस्था की थ्योरी फेल हो रही है । इसलिये संकट आर्थिक विकास से कहीं आगे का है, जिसका रास्ता ना तो ब्रिक्स में मिलेगा ना ही अमेरिका या जापान में। नया सवाल उस राजनीतिक व्यवस्था का है जिसमें विचारधारा को परोस कर लोकतंत्र की दुहायी दी जायेगी । यह विचारधारा कौन सी होगी । अगर भारतीय राजनीति को इस बात पर
गर्व है कि अमेरिकी व्यवस्था से हटकर भारतीय व्यवस्था है , तो फिर भारतीय व्यवस्था के आधारों को भी समझना होगा जो अमेरिकी परिपेक्ष्य में फिट नहीं बैठती है। लेकिन अपने अपने घेरे में दोनो का संकट एक सा है। मंदी का असर अमेरिकी समाज पर आत्महत्या को लेकर सामने आया है और भारत में कृषि
अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुकुल पटरी पर लाने के दौर में आत्महत्या का सिलसिला सालो साल से जारी है । दरअसल जो बैकिंग प्रणाली ब्रिटेन और अमेरिका में फेल हुई है या खराब कर्जदारों के जरीये फेल नजर आ रही है, कमोवेश खेती से लेकर इंडस्ट्री विकास के नाम पर भारत में यह खेल 1991 के बाद से शुरु हो चुका है। देश के सबसे विकसित राज्यों में महाराष्ट्र आता है , जहां उद्योगों को आगे बढाने के लिये अस्सी के दशक से जिले दर जिले एमआईडीसी के नाम पर नये प्रयोग किये गये। और इसी दौर में किसान के लिये बैकिग का इन्फ्रास्ट्रक्चर आत्महत्या की दिशा में ले जाने वाला साबित हुआ । अमेरिका की बिगड़ी अर्थव्यवस्था से वहा के समाज के भीतर का संकट जिस तरह अमेरिकियों को डरा रहा है , कमोवेश यही डर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों में उसी दौर में बढा है जिस दौर में भारत और अमेरिकी व्यवस्था एकदूसरे के करीब आयें। दोनों देशों का आर्थिक घेरा अलग अलग है, समझ एक जैसी ही रही। मोदी सरकार जिस रास्ते पर निकलना चाह रही है वह क्यों खतरनाक है इसे खेती और उघोग के आसरे भी समझा जा सकता है । जिसका जीडीपी में सहयोग घटते घटते तीस फीसदी से भी कम हो चला है। इसके लिये आर्थिक सुधार की हवा देश में बहने के साथ जरा महाऱाष्ट्र के प्रयोग को समझ लें। बीते दस साल में विदर्भ के बाइस हजार से ज्यादा किसानो ने आत्महत्या की है । लेकिन इसी दौर में विदर्भ में उघोगपतियो की फेरहिस्त में सौ गुना की बढोतरी हुई
है । इसकी सबसे बडी वजह उघोगो का दिवालिया होना रहा है । लेकिन फेल या दिवालिया होना उघोगपतियो के लिये मुनाफे का सौदा है। नब्बे फिसदी उधोगों ने खुद को फेल करार दिया । उघोगो के बीमार होने पर कर्ज देने वाले बैंकों ने मुहर लगा दी। बैंक अधिकारियों के साथ साठ-गांठ ने करोडों के वारे न्यारे झटके में कर दिये। दिवालिया होने का ऐलान करने वाले किसी भी उघोगपति ने आत्महत्या नहीं की । उल्टे सभी की चमक में तेजी आयी और सरकार भी नही रुकी । फेल उघोगों की जमीन उद्योगपतियों को ही मिल गयी। वह रीयल स्टेट में तब्दील हो गये। फिर औघोगिक विकास के नाम पर किसानो से जमीन ली गयी। अगर विदर्भ के उघोगपतियों की फेरहिस्त देखे तो 75 उघोगों पर बैंकों का करीब तीन सौ करोड का कर्ज है। यह कर्ज 31 मार्च 2001 तक का है । बीते दस साल में इसमे दो सौ गुना की बढोतरी हुई है। उद्योगों के लिये कर्ज लेने वाले
कर्जदारों को लेकर रिजर्व बैक की सूची ही कयामत ढाने वाली है जिसके मुताबिक सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैंकों दस लाख करोड़ से ज्यादा का चूना देश के उघोगपति लगा चुके हैं। जिसमे महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा एक लाख 90 हजार करोड रुपये का कर्ज उघोगपतियो पर हैं। लेकिन किसी भी उघोगपति ने उस एक दशक में आत्महत्या नही की जिस दौर में महाराष्ट्र के 42 हजार किसानों ने आत्महत्या की। इसी दौर में नागपुर को ही अंतरर्राष्ट्रीय कारगो के लिये चुना गया। पांच देशो की सोलह कंपनियां यहा मुनाफा बना रही हैं। इसके लिये भी जो जमीन विकास के नाम पर ली गयी वह भी खेतीयोग्य जमीन ही है। करीब पांच सौ एकड खेती वाली जमीन कारगो हब के लिये घेरी जा चुकी है। कुल दो हजार परिवार झटके में खेत मजदूर से अकुशल मजदूर में तब्दील हो चुके है । शहर से 15 किलोमीटर बाहर इस पूरे इलाके की जमीन की कीमत दिन-दुगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। नागपुर शहर देश के पहले पांच सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में से है। अब जरा कल्पना कीजिये देश में इसी तर्ज पर सौ नये शहर विकसित करने का फैसला लिया जा चुका है। इसी तर्ज पर खेती
की जमीन हडपने का खाका भूमि सुधार के नाम पर पीपीपी मॉडल के तहत तैयार है । इसी तर्ज पर रोजगार देने और विकसित कहलाने को देश तैयार हो रहा है । और इसी तर्ज पर दुनिया की ३७ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि भारत के उस जनादेश वाली सरकार के फैसलों पर लगी हुई है जो स्वतंत्र है कोई भी फैसला लेने के लिये। यानी गठबंधन की कोई बाधा नहीं। तो फिर इस स्वतंत्रता दिवस यानी १५ अगस्त को लालकिले से क्या सुनना चाहेंगे आप।
Tuesday, August 12, 2014
तो इस 15 अगस्त लालकिले से क्या सुनना चाहेंगे आप ?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:56 PM
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6 comments:
पहले तो यह निश्चित किया जाऐ की 15 अगस्त 2014 को लाल किले से देश का शासक बोलेगेा कि विचारधारा का सिपाही बोलेगा ................
"और वो जो हाशिये पे पड़ा 80 फीसदी तबका है, उसपे नहीं बोलेंगे क्या? अब उसपे आ जाइये क्योंकि असल वोट बैंक तो वही है। हाँ उसपे बोलेंगे, ज़रूर बोलेंगे। अब ब्रेक के बाद उसपे ही सवाल पूछना" ये कह कर इंटरव्यू फिक्स करने वाले क्रन्तिकारी पत्रकार और युगपुरुष राजनेता आज गरीबों की दुहाई दे रहे हैं, जो खुद ही गरीबों को वोट बैंक से ज़्यादा नहीं मानते। 10 बरस तक रोम-राज के चिड़ी के ग़ुलाम मौन-मोहन को तो सुन लिया, अब ज़रा राष्ट्रवाद की सिपाही को भी सुनने का धीरज धरें।
Ab bolne ka samay nahi Kuch kar dikhane ka samay hai.
har bhartiya ko yeh intzar hai ki ab to Kuch accha aur naya kare bahumat se laba lab ye sarkar..
...प्रसून क्या ये संभव है की ऐसे दौर में जब पत्रिकारिता लगभग अपने मायने खोने की कगार पे है, ऐसे में इस बुझते दिये की लौ को बचाने के लिए कुछ इमानदार साथी आगे आयें और जनता की भागीदारी/सहयोग से एक चैनल चलायें।
इमानदार साथी से मेरा मतलब आप, रवीश,मधु,नवीन कुमार,उर्मिलेश,अजय कुमार, यशवंत,निधि कुलपति,शरद शर्मा,रमेश भट्ट जैसे जुनूनी लोगो से है।
हाथ जोड़ के विनिती है कुछ करिए साहेब खाली "दस्तक" से नहीं हो पायेगा वक़्त की ज़रूरत है प्रयोग।
यही पोस्ट आज से निरंतर आपके हर नयी पोस्ट पे चिपकाता रहूँगा जब तक जवाब न मिले :)
#गुस्ताखी माफ़
Santosh rai ji ki baat se bilkul sahmat hai sir ji
khali dus tak ya prime time se Kuch nahi hoga. Kuch kijiye jaroor . namaskar. .
प्रसूनजी मुझे लगता है की अब वक्त आ गया है की बदलाव मीडिया में हो। किसी मित्र ने जो आपसे गुजारिश की है की आप इस बारे में कुछ सोचे और जरुरी कदम उठाये। इस बात से में पूरी तरह सहमत हु। आशा करता हु आप इस बारे में कुछ जरूर सोचेगे।
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