संसद सदस्य बनने के बाद ऱाष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था, “हो गया एक नेता मैं भी !तो बंधु सुनो, / मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूं, / जनता तो चट्टानों का बोझ सहा करती, / मैं चादंनियों का बोझ किस विध सहता हूं /दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल पहल, /पर,भटक रहा है, सारा देश अंधेरें में ।” तो क्या वाकई कोई भी दिल्ली आकर बेदिल हो जाता है । यह सवाल किसी को भी अंदर तक झकझोकर सकता है जब उसे पता चले कि अंधेरे में रहने वाले भारत के दर्द की टीस मौत मांग रही है । सीएम ने सुनी नहीं। पीएम मनमोहन सिंह से कोई आस जगी नहीं और बीते दस बरस से देश में दो राष्ट्पति बदल गये लेकिन कभी किसी ने दो घड़ी मिलने का वक्त वैसे युवाओं के लिये नहीं निकाला जिन्होंने शादी इसलिये नहीं की क्योंकि गांव के मरघट की आवाज वह कभी ना कभी दिल्ली को सुना सकें। और ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला जबाब राष्ट्रपति भवन से पहुंचा । उसमें लिखा गया है कि , “आपका पत्र मिला । लेकिन राष्ट्रपति बहुत व्यस्त है और उनके पास आपसे मिलने के लिये कोई वक्त नहीं है और ना ही वह आपकी समस्या सुन सकते हैं।" राष्ट्पति का यह जबाब दिलीप और अरुण को है । दोनो भाई । पढ़े लिखे । रिटायर्ड टीचर के बेटे । इन दस बरस में किताब “अंधेरे हिन्दुस्तान की दास्तान “ लिख डाली । प्रतिष्ठित प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने किताब छापी। लेकिन सुनवायी सिफर ।इस हाल में पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गांव आने का निमंत्रण देता पत्र पहली बार ९ जून २०१४ को लिखा गया । पत्र दर्द की इंतहा है । तो जैसे ही मेरे मेल पर इसकी कॉपी पहुंची वैसे ही फोन लगाकर मैंने परिचय देते हुये बात करनी चाही वैसे ही दिलीप रोने लगा। उसे भरोसा नहीं हुआ कि कोई फोन कर यह कहे कि उसकी आवाज दिल्ली में सुनी जा सकती है। रोते हुये सिर्फ इतना ही कहा, "मनमोहन सिंह को कभी मैंने पत्र नहीं लिखा । नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो ९ जून २०१४ को मैंने पत्र लिखकर भारत की जमी अपने गांव के नरक से
हालात का जिक्र कर मैंने आग्रह किया कि हो सके तो एक बार मेरे गांव को भी देख लें। क्योंकि यहां कोई जीना नहीं नहीं चाहता है। क्योंकि मौत से बदतर जिन्दगी हो चुकी है । लेकिन बीते ११० दिनो में तो कोई जवाब नहीं आया। पहली बार मई २००४ में मैं राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गया था । लेकिन मिल नहीं पाया । मुझसे वक्त लेने को कहा गया। मैंने मिलने का वक्त मांगा और ७९ दिनों तक इंतजार किया । लेकिन मुलाकात फिर भी न हो सकी । उसके बाद मैंने ६ दिसबंर २००४ से पत्र सत्याग्रह शुरु किया । हर दिन राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखकर गुहार लगाता हूं कि कि कालाजार से मरते अपने गांव को हर क्षण हर कोई देख रहा है लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं । अभी तक राष्ट्रपति को साढ़े तीन हजार से ज्यादा पत्र लिख चुका हूं । हर पत्र की रसीद मेरे पास है। लेकिन कभी कोई पत्र नहीं आया । और कल ही ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला पत्र आया उसमें राष्ट्रपति ने वक्त ना होने का जक्र किया । अब सोचता हू कि जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं । मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं तो फिर संविधान ने जीने का जो हक हमको दिया है तो अब गुहार कहां लगाऊं । पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा । यह सोच कर लिखा कि कि कम से कम मेरा गांव सीतामडी में है तो सीता की जन्म भूमि
को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें। इसलिये जो पत्र मैंने प्रधानमंत्री मोदी को भेजा उसकी कॉपी आपको भेज दी।
प्रणाम,
मैं दिलीप + अरुण दोनों भाई आपको अपने गॉंव - तेमहुआ , पोस्ट - हरिहरपुर, थाना - पुपरी, जिला - सीतामढ़ी, पिन - 843320 , राज्य - बिहार, आने का निमंत्रण देता हूँ, क्योकि मै आपको वहां ले जाना चाहता हूँ जहाँ की फिजा में 48 दलित मुसहर भाई - बहन की अकाल मृत्यु की सांसों से मेरा दम घुटता है। मैं आपको उन्हें दिखाना चाहता हुं जो मारना तो चाहते है मगर अपने बच्चे, अपने परिवार के खातिर किसी तरह जी रहे हैं। मैं आपको उनसे मिलाना चाहता हुं जो जिन्दा रहना तो नहीं चाहते मगर जीवित रहने रहने के लिए मजबूर हैं| मैं आपको उस वादी में ले जाना चाहता हु जहाँ के लोग या तो भूखे हैं या फिर भोजन के नाम पर जो खा रहे हैं, उसका शुमार इंसानी भोजन में नहीं किया जा सकता हैं! मै आपको उन कब्रों तक ले जाना चाहता हु जिसमे दफ़न हुए इंसानों के भटकते रूह इस मुल्क की सरकार से यह आरजू कर रही है, कि कृपया हमारे बच्चों के जिन्दा रहने का कोई उपाय कीजिये ।
मै आपको हकीकत की उस दहलीज़ पे ले जाना चाहता हु जहाँ से खड़ा होकर जब आप सामने के परिदृश्य को देखेंगे तो आपके आँखों के सामने नज़ारा उभर कर यह आएगा क़ि आज़ाद भारत में आज भी इंसान और कुत्ते एक साथ एक ही जूठे पत्तल पर अनाज के चंद दाने खा कर पेट की आग बुझाने को मज़बूर हैं। मै आपको उस बस्ती से रु-ब-रु करना चाहता हुं जो बस्ती हर पल हर क्षण हर घड़ी भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रही है कि बता हमारे बच्चे कालाजार बीमारी से क्यूँ मर गए? मै आपको उन बदनसीब इंसानों से मिलाना चाहता हु जो अपनी शिकायत या समस्या का हल ढूंढने में खुद को पाता है।
मै आपको यहाँ इसलिए बुलाना चाहता हूं क्योंकि पिछले 10 सालो में 3600 से अधिक पत्रों द्वारा की गई हमारी फरियाद उस पत्थर दिल्ली के आगे तुनक मिज़ाज़ शीशे की तरह टूट कर चूर - चूर हो जाती है । मैं आपको यह सब इसलिए कह रहा हुं क्योकि बचपन से लेकर आज तक मैं ऐसे लोगो से घिरा हुआ हुं जो अपनी जिंदगी की परछाइयों में मौत की तस्वीर तथा कब्रो के निशान देखते हैं। जो भोजन के आभाव में और काम की अधिकता के कारण मर रहे है ! जिनका जन्म ही अभाव में जीने और फिर मर जाने के लिए हुआ है। ये लोग इस सवाल का जवाब खोज रहे है कि मेरी जिंदगी की अँधेरी नगरी की सीमा का अंत कब होगा ? हम उजालों की नगरी की चौखट पर अपने कदम कब रखेंगे ? लिहाजा ऐसी निर्णायक घड़ी में आप हमारे आमंत्रण को ठुकराइए मत क्योंकि यह सवाल क्योकि यह केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है । यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है। बल्कि यह हमारे गावं में कालाजार बीमारी से असमय मरने वाले नागरिक के जीवन मूल्यों का प्रश्न है। यह उन मरे हुए लोगों के अनाथ मासूमों का प्रश्न है! यह उन मरे हुए इंसानो के विधवाओं एवं विधुरो का प्रश्न है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी का प्रश्न है! यह हमारे द्वारा भेजे गए उन हजारों चिठ्ठियों का प्रश्न है जिसमें हमने अपने गावं के गरीबों की जान बचाने की खातिर मुल्क के राष्ट्रपति से दया की भीख मांगी थी।
इसलिए देश और मानवता के हित में कृपया हमारा आमंत्रण स्वीकार करें!
धन्यवाद, दिलीप कुमार/अरुण कुमार/सीतामढ़ी (बिहार) [+919334405517]
अब दिल्ली सुने या ना सुने लेकिन दिनकर की कविता, “भारत का यह रेशमी नगर “की दो पंक्तिया दिल्ली को सावधान और सचेत तो जरुर करेगी, “तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो / सब दिन को यह मोहिनी न चलने वाली है / होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसे, / मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है।
Monday, November 3, 2014
४८ मौत, ५०० बीमार, राष्ट्रपति का इंकार और अब प्रधानमंत्री मोदी का इंतजार
Posted by Punya Prasun Bajpai at 12:05 AM
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6 comments:
joshim27ji nahi dikhe rahe is muudee per.. khai soyee huee hai kyaa...
सीतामढ़ी (बिहार) में कालाजार बीमारी से मरते लोग और उनके इलाज को लेकर देश के शीर्ष नेतृत्व के रवैये की पोल खोलता मार्मिक आलेख।383
जनाब केजरू पर फ़र्ज़ी क्रन्तिकारी विशेष दिखाने से अच्छा इसी ख़बर को थोड़ा ज़्यादा चला दें....बड़ा रिएक्शन आएगा और शायद गाँव का भी भला हो जाये।
भाई joshim मैं आपका फैन हो गया कौन सी चक्की का आता खाते हो मोदी चक्की का
आज मुसहर दुआ ये मांगते हैं
मौत दी है तो ज़िंदगी भी दो
प्रसुन जी, बड़ा मार्मिक लेख पढ़कर सन्न रह गया... बिहार में सत्ता परिवर्तन के लिए साधन ढूंढ़ने वालों की नज़र काश इनपर भी पड़ जाए...
चलो आटा ही खाते हैं....दलाली तो नहीं। लेकिन ये बात क्रन्तिकारी गैंग के मंदबुद्धुओं को समझ में नहीं आने वाले....वो पता नहीं केजरू का क्या खाते हैं....हा हा हा....अब फैन तो हो ही गए हो....क्योँ न दुसरे (आशीष) खेतान फैन की तरह आपिस्ट भी बन जाओ....बोलो केजरू बाबा की जय।
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