Friday, December 5, 2014

16 मई के बाद कितना- कैसे बदला मीडिया- पार्ट 2


बरस भर पहले राष्ट्रपति की मौजूदगी में राष्ट्रपति भवन में ही एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने अपने पच्चीसवें जन्मदिन को मना लिया। वहीं हर तरह के कद्दावर तबके को आमंत्रित कर लिया। तब कहा गया कि मनमोहन सिंह का दौर है कुछ भी हो सकता है। एक बरस बाद एक न्यूज चैनल ने अपने एक कार्यक्रम के 21 बरस पूरे होने का जश्न मनाया तो उसमें राष्ट्रपति समेत प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट के अलावे नौकरशाहों, कारपोरेट, बालीवुड से लेकर हर तबके के सत्ताधारी पहुंचे। लगा यही कि मीडिया ताकतवर है। लेकिन यह मोदी का दौर है तो हर किसी को दशक भर पहले वाजपेयी का दौर भी याद आ गया । दशक भर पहले लखनऊ के सहारा शहर में कुछ इसी तरह हर क्षेत्र के सबसे कद्दावर लोग पहुंचे और तो और साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी समेत पूरा मंत्रिमंडल ही नहीं बल्कि संसद के भीतर एक दूसरे के खिलाफ तलवारे भांजने वाला विपक्ष भी सहारा शहर पहुंचा था। और इसी तर्ज पर संसद के भीतर मोदी सरकार को घेरने वाले कांग्रेसी भी दिल्ली के मीडिया समारोह में पहुंचे।

सवाल हो सकता है कि मीडिया को ताकत सत्ता के साथ खडे होकर मिलती है या फिर सत्ता को ताकत मीडिया का साथ खड़ेहोने से मिलती है। या फिर एक दूसरे की साख बनाये रखने के लिये क्रोनी कैपिटलिज्म का यह अद्भूत नजारा समाज में ताकतवर होते मीडिया की अनकही कहानी को कहता है। हो जो भी लेकिन मीडिया को बार बार अपने तरीके से परिभाषित करने की जद्दोजहद सत्ता भी करती है और सत्ता बनने की चाहत में मीडिया भी सरोकार की भाषा को नये तरीके से परिभाषित करने में रम जाता है । इस मुकाम पर विचारधारा के आसरे राजनीति या आम -जन को लेकर पत्रकारिता या फिर न्यूनतम की लड़ाई लडते देश को चकाचौंध के दायरे में समेटने की चाहत ही मीडिया को कैसे बदलती है यह 16 मई के जनादेश के बाद खुलकर सामने आने भी लगा है। जाहिर है ऐसे में मीडिया की भूमिका बदलने से कही आगे नये तरीके से परिभाषित करने की दिशा में बढ़ेगी और ध्यान दें तो 16 मई के जनादेश के बाद कुछ ऐसे ही हालात हो चले हैं। 16 मई के जनादेश ने मीडिया
के उस तबके को दरकिनार कर दिया जो राजनीति को विचारधारा तले परखते थे। पहली बार जनादेश के आइने में मीडिया की समूची रिपोर्टिंग ही पलटी और यह सीख भी देने लगी कि विचारधारा से आगे की जरुरत गवर्नेंस की है, जो मनमोहन सरकार के दौर में ठप थी और जनादेश ने उसी गवर्नेंस में रफ्तार देखने के
लिये नरेन्द्र मोदी के पक्ष में जनादेश दिया। यह जनादेश बीजेपी को इसलिये नहीं मिला क्योंकि गवर्नेंस के कठघरे में बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हुआ। इसी लिये नरेन्द्र मोदी को पार्टी से बाहर का जनादेश मिला। यानी देश के भीतर सबकुछ ठप होने वाले हालात से निपटने के लिये जनादेश ने एक ऐसे नायक को खोजा जिसने अपनी ही पार्टी की धुरधंरों को पराजित किया । और पहली बार मीडिया बंटा भी। बिखरा भी। झुका भी। और अपनी ताकत से समझौता करते हुये दिखा भी। यह सब इसलिये क्योंकि राजनीति के नये नये आधारों ने मीडिया की उसी कमजोर नसों को पकड़ा जिसे साधने के लिये राजनीति के अंतर्विरोध का लाभ मीडिया ही हमेशा उठाता रहा। सरकारी सब्सिडी के दायरे से न्यूज प्रिंट निकल कर खुले बाजार आया तो हर बडे अखबारों के लिये हितकारी हो गया। छोटे-मझौले अखखबारो के सामने अखबार निकालने का संकट आया। समझौते शुरु हुये। न्यूज चैनल का लाइसेंस पाने के लिये 20 करोड़ कौन सा पत्रकार दिखा सकता है, यह सवाल कभी किसी मीडिया हाउस ने सरकार से नहीं पूछा। और पत्रकार सोच भी नहीं पाया कि न्यूज चैनल वह पत्रकारिता के लिये शुरु कर सकता है।

पैसे वालों के लिये मीडिया पर कब्जा  करना आसान हो गया या कहें जो पत्रकरिता कर लोकतंत्र के चौथे खम्मे को जीवित रख सकते थे वह हाशिये पर चले गये। इस दौर में सियासत साधने के लिये मीडिया ताकतवर हुआ। तो सत्ता के ताकतवर होते ही मीडिया बिकने और नतमस्तक होने के लिये तैयार हो गया। और जो मीडिया कल तक संसदीय राजनीति पर ठहाके लगाता था वही मीडिया सत्ता के ताकतवर होते ही अपनी ताकत भी सत्ता के साथ खड़े होने में ही देखने समझने लगा। और पहली बार मीडिया को नये तरीके से गढने का खेल देश में वैसे ही शुरु हुआ जैसे खुदरा दुकाने चकाचौंध भरे मॉल में तब्दील होने लगी। याद कीजिये तो मोदी के पीएम बनने से पहले यह सवाल अक्सर पूछा जाता था कि मीडिया से चुनाव जीते जाते तो राहुल कब के पीएम बन गये होते। यह धारदार वक्तव्य मीडिया और राजनीतिक प्रचार के बीच अक्सर जब भी बोला जाता है तब खबरों के असर पडने वाली पत्रकारिता हाशिये पर जाती हुई सी नजर आने लगती। लेकिन पत्रकारिता या
मीडिया की मौजूदगी समाज में है ही क्यों अगर इस परिभाषा को ही बदल दिया जाये तो कैसे कैसे सवाल उठेंगे। मसलन कोई पूछे, अखबार निकाला क्यों जाये और न्यूज चैनल चलाये क्यों जाये।

यह एक ऐसा सवाल है जिससे भी आप पूछेंगे वह या तो आपको बेवकूफ समझेगा या फिर यही कहेगा कि यह भी कोई सवाल है । लेकिन 2014 के चुनाव के दौर में जिस तरह अखबार की इक्नामी और न्यूज चैनलों के सरल मुनाफे राजनीतिक सत्ता के लिये होने वाले चुनावी प्रचार से जा जुडे है उसने अब खबरों के बिकने या किसी राजनीतिक दल के लिये काम करने की सोच को ही पीछे छोड़ दिया है। सरलता से समझे लोकसभा चुनाव ने राह दिखायी और चुनाव प्रचार में कैसे कहा कितना कब खर्च हो रहा है यह सब हर कोई भूल गया । चुनाव आयोग भी चुनावी प्रचार को चकाचौंध में बदलते तिलिस्म की तरह देखने लगा। तो जनता का नजरिया क्या रहा होगा। खैर लोकसभा चुनाव खत्म हुये तो लोकसभा का मीडिया प्रयोग कैसे उफान पर आया और उसने झटके में कैसे अखबार निकलाने या न्यूज चैनल चलाने की मार्केटिंग के तौर तरीके ही बदल दिये यह वाकई चकाचौंध में बदलते भारत की पहली तस्वीर है। क्योंकि अब चुनाव का एलान होते ही राज्यों में अखबार और न्यूज चैनलों को पैसा पंप करने का अनूठा प्रयोग शुरु हो गया है। लोकसभा के बाद हरियाणा , महाराष्ट्र
में चुनाव हुये और फिर झारखंड और जम्मू कश्मीर । महाराष्ट्र चुनाव के वक्त बुलढाणा के एक छोटे से अखबार मालिक का टेलीफोन मेरे पास आया उसका सवाल था कि अगर कोई पहले पन्ने को विज्ञापन के लिये  खरीद लेता है तो अखबार में मास्ट-हेड कहां लगेगा और अखबार में पहला पन्ना हम दूसरे पन्ने को माने या तीसरे पन्ने को जो खोलते ही दायी तरफ आयेगा। और अगर तीसरे पन्ने को पहला पन्ना मान कर मास्टहेड लगाते हैं तो फिर दूसरे पन्ने में कौन सी खबर छापे क्योकि अखबार में तो पहले पन्ने में सबसे बड़ी खबर होती है। मैंने पूछा हुआ क्या । तो उसने बताया कि चुनाव हो रहे हैं तो एक राजनीतिक दल ने नौ दिन तक पहला पन्ना विज्ञापन के लिये खरीद लिया है। खैर उन्हें दिल्ली से निकलने वाले अखबारों के बार में जानकारी दी कि कैसे
यहां तो आये दिन पहले पन्ने पर पूरे पेज का विज्ञापन छपता है। और मास्ट-हेड हमेशा तीसरे पेज पर ही लगता है और वही फ्रंट पेज कहलाता है । यह बात भूलता तब तक झारखंड के डाल्टेनगंज से एक छोटे अखबार मालिक ने कुछ ऐसा ही सवाल किया और उसका संकट भी वही था। अखबार का फ्रंट पेज किसे बनायें। और वहां भी अखबार का पहला पेज सात दिन के लिये एक राजनीतिक दल ने बुक किया था। यानी पहली बार अखबारों को इतना बड़ा विज्ञापन थोक में मिल रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन बात सिर्फ विज्ञापन तक नहीं रुकी।

अगला सवाल था कि इतने विज्ञापन से तो हमारा साल भर का खर्च निकल जायेगा। तो इस पार्टी के खिलाफ कुछ क्यों छापा जाये। बहुत ही मासूमियत भरा यह सवाल भी था और जबाव भी। और संयोग से कुछ ऐसा ही सवाल और जबाब कश्मीर से निकलते एक अखबार के पहले पन्ने पर उर्दू में पूरे पेज पर विज्ञापन छपा देखा। जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर के साथ घाटी का चेहरा बदलने का सपना था। अजीबोगरीब लगा। उर्दू के शब्दों के बीच मोदी और पूरे पेज के विज्ञापन के लालच में संपादक का सवाल, क्या करें। इतना बड़ा विज्ञापन। इससे तो अखबार के सारे बुरे दिन दूर हो जायेंगे। और विज्ञापन छाप रहे हैं तो पार्टी के खिलाफ कुछ क्यों लिखें। वैसे भी चुनाव तो होते रहते हैं। नेता बदलते रहते हैं। घाटी में कभी तो कुछ बदला नहीं। तो हम किसी से कुछ मांग तो नहीं रहे सिर्फ विज्ञापन चुनाव तक है। पैसे एंडवास में दे दिये गये हैं। सरकारी विज्ञापनों के तो पैसे भी मांगते मांगते मिलते हैं तो हमने सोचा है कि घाटी में क्या होना चाहिये और जनता किन मुश्किलों में है और इसी पर रिपोर्ट फाइल करेंगे। यानी नेता भ्रष्ट हो या आपराधिक छवि का। पार्टी की धारा कुछ भी हो। पार्टी की धारा कुछ भी हो। आतंक के साये से चुनावी उम्मीदवार निकला हो या आतंक फैला कर चुनाव मैदान में उतरा हो। बहस कही नहीं सिवाय सपने जगाने वाले चुनाव के आइने में लोकतंत्र को जीने की। असर यही हुआ कि पूंजी कैसे किसकी परिभाषा इस दौर में बदल कर सकारात्मक छवि का अनूठा पाठ हर किसी को पढ़ा सकती है, यह कमोवेश देश के हर मीडिया हाउस में हुआ। इसका नायाब असर गवर्नेंस के दायरे में भ्रष्ट मीडिया हाउसों पर लगते तालो के बीच पत्रकार बनने के लिये आगे आने वाली पीढ़ियो के रोजगार पर पड़ा। मनमोहन सिंह के दौर की आवारा पूंजी ने चिटफंड और बिल्डरों से लेकर सत्ता के लिये दलाली करने वालों
के हाथो में चैनलों के लाइसेंस दिये। मीडिया का बाजार फैलने लगा। और 16 मई के बाद पूंजी, मुनाफा चंद हथेलियों में सिमटने लगा तो मीडिया के नाम पर चलने वाली दुकाने बंद होने लगी। सिर्फ दिल्ली में ही तीन हजार पत्रकार या कहें मीडिया के कामगार बेरोजगार हो गये। छह कारपोरेट हाउस सीधे मीडिया
हाउसो के शेयर खरीद कर सत्ता के सामने अपनी ताकत दिखाने लगे या फिर मीडिया के नतमस्तक होने का खुला जश्न मनाने लगे। जश्न के तरीके मीडिया के अर्द्ध सत्य को भी हडपने लगे और सत्ता की ताकत खुले तौर पर खुला नजारा करने से नहीं चूकी। यानी पहली बार लुटियन्स की दिल्ली सरीखे रेशमी नगर की तर्ज पर हर राज्य की राजनीति या तो ढलने लगी या फिर पारंपरिक लोकतंत्र के ढर्रे से उकता गयी जनता ही जनादेश के साये में राजनीति का विकल्प देने लगी । और मीडिया हक्का बक्का होकर किसी उत्पाद [ प्रोडक्ट ] की तर्ज पर मानने लगा कि अगर वह सत्ता के कोठे की जरुरत है तो फिर उसकी साख है । यानी जिन समारोहों को, जिन सामाजिक विसंगतियों और जिस लोकतंत्र के कुंद होने पर मीडिया की नजर होनी चाहये अगर वह खुद ही समारोह करने लगे। सामाजिक विसंगतियों को अनदेखा करने लगे और लोकतंत्र के चौथे पाये की जगह खुद को सत्ता की गोद में बैठाने लगे या खुद में सत्ता की ठसक पाल लें, तो सवाल सिर्फ पत्रकारिता का है या देश का। सोचना तो पड़ेगा।

10 comments:

ajay said...

क्रांतिकारी महोदय आपकी कुंठा दिन व् दिन बढ़ती ही जा रही है इलाज करा लीजिये बर्ना आप बामपंथियों और केजरीवाल जैसे नेताओ के लिये लॉबिंग कैसे कर पाएंगे।
कैसे सांठगांठ करता है पत्रकार ये सबने देख लिया था वीडियो में और आप जैसे क्रांतिकारी पत्रकार के लिये अब फ्री की दारु और मुर्गा मिलना भी बंद हो गया नई सरकार में तो आपके अंदर क्रोध पैदा होना स्वाभिक ही है आखिर हराम का खाने की आदत आसानी से थोड़े ही जाती है किसी की

Karwan said...

Well thoughful blog. Very informative and mind opeopener.

Karwan said...

Is kalyug main saccha jhootha aur jhootha saccha lagta hai. Buddhi bharasht ho gayi hai. Bhakti se upar utho aur sochsocho

Deepak Kumar said...

सर मैंने आपके दोनों पार्ट पढ़ें बहुत अच्छा लेखन और ज्ञान से सुशोभित मिलें ! ऐसे लेखन के लिए हार्दिक बधाई ! आपके आलोचकों के जवाब भी पढ़ें उन्होंने आपकी आलोचना जरूर की है पर आपके लेख के किसी बिंदु को झूठला न सके

When I will be on Sky said...

Awesome post Sir..

Sagar said...

agar media sirf paison k liye khabar banati h, to ek unemployed jo 2 saal se apne chote laptop pe web search engine bana raha h (a few days of work left) wo kya soche? kya media uske achievement ko kabhi cover karegi?

hosake to iska jawab email: mishra.sagar@live.com
ya fir 8130115975 (mobile) pe zarur dijiye.

Thank you

Anonymous said...

जनाब ये सब सुविचार आपको 16 मई के बाद ही क्यों आने लगे? तब नहीं आये जब राडिया टेप में बरखा दत्त जैसी पत्रकार 2G घोटाले की दलाली कांग्रेस के मंत्रियों से करती सुनाई पड़ीं और जब उसी राडिया टेप में आपके अपने "आप-तक" के प्रभू चावला और रिलायंस के मुकेश अम्बानी की बातचीत सुनाई पड़ी जिसमें अम्बानी ने चावला से कहा की 'कांग्रेस तो अपनी ही दुकान है' । सच तो ये है की ये दौर सेलेक्टिव क्रोनी जर्नलिज्म का है....क्रन्तिकारी बात है न??

rohijeet said...

Well done sir

tapasvi bhardwaj said...

Very well written

Unknown said...

prasun mahoday aapne charan cast ke prati jo jansata news paper me date 6 Dec 2014 ko Aalekh lika usse hamari jati ka apmaan or maan hani apke dwara hue hai.
Ham aapke khilaf kanooni karaywahi karenge.