Wednesday, December 24, 2014

'भारत रत्न' के एलान से राजधर्म का कर्ज उतर गया !

"मेरा एक ही संदेश है कि राजधर्म का पालन करें। राजधर्म....। यह शब्द काफी सार्थक है। मै इसी का पालन कर रहा हूं। पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिये शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं हो सकता। ना जन्म के आधार पर ना जाति के आधार पर ना संप्रदाय के आधार पर। [ हम भी वही कर रहे हैं साहेब] मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र भाई भी यही करेंगे।"

राजधर्म शब्द भी सियासी कटघरा हो जायेगा, यह न तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने बोलते वक्त सोचा होगा ना ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा कि २००२ से २०१२ तक राजधर्म के कटघरे में बार बार उन्हें आजमाने की कोशिश होगी।  बारस बरस पहले वाजपेयी के सिर्फ साठ सेकेंड के इस वक्तव्य ने नरेन्द्र मोदी के सामने राजधर्म का इम्तिहान बार बार रखा। और हर बार गुजरात चुनाव जीतने के बाद भी राजधर्म शब्द ने २०१२ तक मोदी का पीछा भी नहीं छोड़ा। और दस बरस तक यह ऐसा सवाल बना रहा जो बार बार वाजपेयी और मोदी के नाम का एकसाथ जिक्र होते ही हर जुबा पर बरबस आया ही। संयोग देखिये जैसे ही बुधवार की सुबह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने का ऐलान हुआ, वैसे ही राजनीतिक गलियारे में पहला शब्द यही गूंजा कि चलो राजधर्म का कर्ज आज उतर गया। लेकिन भारत रत्न के एलान के साथ ही मोदी के लिये कहे गये राजधर्म शब्द का दायरा भी बड़ा हो गया और २००२ में जिस राजधर्म शब्द का प्रयोग करते हुये वाजपेयी जी यह बोलते बोलते बोल गये थे कि, ‘मैं भी राजधर्म का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं।’तो भारत रत्न वाजपेयी के राजधर्म को भी समझना जरुरी है, जिन्हें संसद के भीतर पहली बार बोलते हुये सुनने के बाद १९५९ में नेहरु भी यह कहने से नहीं चुके थे कि यह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। इंदिरा गांधी ने भी जिस वाजपेयी को सराहा और आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई सरकार की कश्मकश से आहत जेपी से पटना मिलने गये जिस वाजपेयी ने पत्रकारों को मुहावरे में जबाब देकर मोरारजी देसाई सरकार के बारे में सबकुछ कह दिया और जेपी भी वाजपेयी की साफगोई पर खुश हुये बिना ना रह सके वह मुहावरे वाला बयान था, उधर कुंड, इधर कुंआ बीच में धुआं ही धुआं। [ दरअसल उस वक्त सूरज कुंड और पटना में जेपी के घर कदम कुआं के बीच मोरारजी सरकार झूल रही थी ] यूं वाजपेयी पर तो वीपी और चन्द्रशेखर भी तब मुरीद हुये जब आडवानी की रथयात्रा के दौर में वाजपेयी विदेश यात्रा पर निकल गये। लेकिन राजधर्म के दायरे में वाजपेयी का असली इम्तिहान तो अयोध्या कांड के वक्त हुआ। ५ दिसंबर १९९२ को वाजपेयी के भाषण ने राजधर्म की लकीर पर चलने वाले वाजपेयी को अयोध्या में धर्मराज के तौर पर देखा समझा। वाजपेयी ने १५ मिनट के भाषण में जो कहा वह २००२ के राजधर्म पर भारी था। हजारों हजार कारसेवकों को संबोधित करते हुये वाजपेयी बोले,

‘सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला लिया है उसका अर्थ मै बताता हूं। वो कारसेवा रोकना नहीं है। सचमूच में सुप्रीम कोर्ट ने हमे अधिकार दिया है कि हम कारसेवा करें। रोकने का तो सवाल ही पैदा नहीं है। कल कारसेवा
करके अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय की अवहेलना नहीं होगी। कारसेवा करके सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का सम्मान किया जायेगा। ये ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक अदालत में वकीलों की बेंच फैासला नहीं करती आपको निर्माण का काम बंद रखना पड़ेगा। मगर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि आप भजन कर सकते हैं। कीर्तन कर सकते हैं। अब भजन एक व्यक्ति नहीं करता। भजन होता है तो सामूहिक होता है। और कीर्तन के लिये तो और भी लोगो की आवश्यक्ता होती है। और भजन कीर्तन खड़े खड़े तो हो नहीं सकता। कब तक खड़े रहेंगे। वहां नुकीले पत्थर निकलते हैं तो उन पर तो कोई बैठ नहीं सकता। तो जमीन को समतल करना होगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ निर्माण भी होगा। कम से कम वेदी तो बनेगी।’

जाहिर है राजधर्म के यह सवाल अब इतिहास के पन्नों में खो गये से लगे। लेकिन देश भी तो बनते बनते बनता है। और आजादी के ६७ बरस के दौर में भारत रत्न समयकाल से तो कम ही मिले। ६७ बरस में ४५ भारत रत्न। और राजधर्म का सवाल तो इसलिये भी बड़ा है क्योकि राजनेताओं ने खुद को ही भारत रत्न माना। सबसे पहले तो नेहरु ने ही खुद को १९५५ में भारत रत्न से नवाज दिया। इस लीक पर इंदिरा गांधी भी
चली और १९७१ में उन्होने भी खुद को भारत रत्न के सम्मान से नवाजे जाने में कोताही नहीं बरती। वैसे इस राह पर राजीव गांधी तो नहीं चले लेकिन राजीव गांधी की मौत से निकली कांग्रेसी सत्ता की कमान थामे पीवी नरसिंह राव ने पीएम बनते ही राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करार दिया। यूं पीवी नर्सिमह राव ने हिम्मत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भी भारत रत्न देने के ऐलान के साथ दिखायी। लेकिन नेताजी का मामला विवादों में घिर गया । क्योंकि नेताजी के अधिकांश अनुयायी यह मानते है कि उनकी मृत्यु की कथा मनगढंत और संदेहास्पद है। मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया। और एक बहुत बड़े वर्ग को ध्यान में रखकर इसे ४ अगस्त १९९७ को रद्द भी कर दिया गया। लेकिन तब भाजपा ने मुद्दा उठाया कि नेताजी की मौत से जुड़ी सारी फाइलें सार्वजनिक की जायें। लेकिन नेताजी की फाइलें सार्वजनिक करने की हिम्मत ना तो वाजपेयी ने दिखायी ना ही मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिखा पा रहे हैं। और राजधर्म राजा बनते ही हर किसी से कई मुद्दो पर चूका। लेकिन १३ दिन और १३ महीने की सरकार गंवाने के बाद जब तीसरी बार वाजपेयी राजा बने तो संसद में यह कहने से नहीं चूके कि बहुमत होता तो राम मंदिर, धारा ३७० और कॉमन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में नहीं डालते।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के बाद जवाब देते हुये वाजपेयी ने खुले तौर पर कहा,

"राम मंदिर के निर्माण का जिक्र नहीं है। धारा ३७० को खत्म करने का जिक्र नहीं है। कामन सिविल कोड का जिक्र नहीं है। आपने तो स्वदेशी का भी परित्याग कर दिया। और यह बातें इस तरह कहीं गई जैसे इस बात को कहने वाले बेहद दुखी हैं । वो तो इन बातो की आलोचना करते रहे। हमें इसलिये दोषी ठहराते रहे कि हम राममंदिर बनान चाहते हैं। ३७० खत्म करने की बात कह रहे हैं। तो हम देश की एकता कैसे कायम रखेंगे। शादी ब्याह का सामान कानून भले ही संविधान में लिखा हो। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मोहर लगायी है। आप कैसे कह सकते हो । और आप कहेंगे तो आप देश को तोड़ देंगे। और अगर हम कहते है कि कि यह सारे कार्यक्रम नहीं है। तो यह इसलिये नहीं है क्योंकि हमें बहुमत नहीं है । हमने कुछ छुपने छुपाने की बात नहीं की। हम बहुमत के लिये लड़ रहे हैं। जो जनमत मिला उसने आपको अस्वीकार कर दिया। हमे भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। हम तो बहुमत चाहते थे।"

तो वाजपेयी के राजधर्म के अक्स में भाजपा तो आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है । फिर विकास के दायरे में दिल के मुद्दे सत्ता के लिये खामोश है या फिर दिल बदल गया है क्योंकि देश बदल रहा है। लेकिन राजधर्म तो राजधर्म ही होता है। और राजधर्म निभाते हुये किसी राजा की घर वापसी नहीं होती। ना तो २००२ के राजधर्म की परिभाषा बदली और ना ही राजधर्म निभाने का प्रयास करते वाजपेयी के कथन की भाषा बदली है कि शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं होता । ना जाति के आधार पर । ना जन्म के आधार पर । ना संप्रदाय के आधार पर । शायद इसीलिये वाजपेयी को भारत रत्न के एलान ने राजधर्म के सियासी कटघरे के बारह बरस के वनवास को खत्म कर दिया।

4 comments:

Unknown said...

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Anonymous said...

अटल बिहारी बाजपेई महान नेता थे लेकिन हमेशा दुविधा से ग्रस्त रहे, और यही दुविधा थी जिसने भाजपा को 2004 में सत्ता से दूर कर दिया और माँ-बेटे ने 10 बरस तक देश का बेड़ा-गर्क किया। जहाँ बाजपेई ने एक तरफ ज़मीन को समतल अर्थात बाबरी विध्वंस करने की सीख कारसेवकों को दी वही रामभक्त और देशभक्त का फ़र्क़ भी बताते दिखे और संसद में बाबरी विध्वंस का विरोध भी करते दिखे। एक तरफ गुजरात में जा के राजधर्म की बात की वही दूसरी तरफ गोआ कार्यकारिणी में इस्लाम के खिलाफ ज़हरीला भाषण दिया। एक तरफ बाजपेई बोले की हम गुजरात दंगों के कारण 2004 का चुनाव हारे, वहीँ मोदी ने उसी सेकुलरिस्म-कम्युनलिस्म को हथियार बना कर 12 बरस तक गुजरात में और फिर 2014 के चुनाव में कांग्रेस का किला ध्वस्त कर दिया। आज हालात ये है की दिग्विजय सिंह जैसे मुंहफट जो 26/11 को संघ की साज़िश बताते थे, वो आज गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने पे बयान देने से बचते दिख रहे हैं। बाजपेई-अडवाणी ने दुविधा के कारण 2004 का चुनाव हिंदुत्व पे न लड़ कर सोनिया के विदेशी मूल के मुद्दे पर लड़ा और परास्त हुए, जबकि उस समय गुजरात दंगो का मुद्दा ज़्यादा गर्म था। ख़ैर जो हुआ सो हुआ, ख़ुशी है की आज बाजपेई भारत रत्न हैं।

sanjit kumar said...


सुभाष चंद्र बोस कि गुम हुई दस्तावेज पर मुझे शंका है कि कहीं उन महान व्यक्ति का नाम तो नहीं है जिन्हें सभी एक स्वर मे पूजते है , जिसे हमने नोट कि शुद्धी के प्रमाण मना है .... ?

Unknown said...

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