यह वाकई अजीब है कि अपने बचपन की यादों को तलाशने के लिये हमे बुजुर्गों की जरुरत पड़ती है। मुझे भी टैगौर गार्डन केंद्रीय विद्यालय की बिखरी यादों को जोड़ने के लिये किसी बुजुर्ग की जरुरत थी। जिसके जहन में कुछ भी धुंधला ना हो। या फिर मैं खुद जो अपनी धुंधली यादों को साफ करने की कोशिश कर रहा था। केंद्रीय विद्यालय स्कूल के दरवाजे के ठीक सामने किताब की दुकान पर नजर गई, तो यह सोच कर अंदर चला गया कि हो सकता है दुकान वाले का कोई पुराना ताल्लुक केंद्रीय विद्यालय से रहा हो । दुकान में केन्द्रीय विघालय की स्कूल यूनीफार्म भी बिक रही थी। कुछ आस जगी। लेकिन चालीस बरस के शख्स को देख कर निराश भी हुआ। सोचा इसका तो जन्म ही 1975 का होगा। यानी मेरे लिये तो यह छोटा है और मुझे ही इसे बताना होगा कि पहले स्कूल कैसा था। खैर संवाद शुरु हुआ। कब से दुकान चला रहे हैं। पन्द्रह से बीस बरस तो हो गये। और उससे पहले। उससे पहले हमारी दुकान परली तरफ थी। इलाके की सबसे पुरानी दुकान है। लेकिन आप क्यों पूछ रहे है। तभी पत्नी बोल पड़ी -इनका बचपन इसी स्कूल में बीता है। कब पढ़ते थे। जी मैं 1975 तक इसी केंद्रीय विद्यालय में था। तब तो मेरे दादा जी इसी स्कूल में कैंटिन चलाते थे। उस वक्त तो स्कूल टैंट में था जी। मेरे दादा जी ने बताया कि कैसे ईंट की दीवार ही कैंटिन थी। झटके में मै भी कैटिंन को याद कर बचपन में चला गया। सिर्फ एक, दो, तीन और पांच पैसे। यही रकम हर बच्चे की जेब में होती। पांच पैसे में कैंटिन से ब्रेड पकौडा और चाकलेट मिल जाती थी। मेरी जेब में शायद ही कभी पांच पैसे आये होंगे। हमेशा एक या दो पैसे। एक पैसे में छोटी से डिबिया में छोटी छोटी मीठी गोलियां मिलतीं। सफेद रंग की इन मीठी गोलियों को ना जाने कितनी बार कैंटिन से खरीद कर चूसते हुये घर आता। दो पैसे में इमली-खटाई के छोटे छोटे पकौड़े मिलते थे । और कभी हाथ में तीन पैसे का सिक्का होता तो खुद को रईस समझकर शान से कैंटिन जाकर बिस्कुट खरीदता था। लेकिन इन यादों के बीच चाहकर भी मुझे कैंटिनवाले का चेहरा याद नहीं आ पा रहा था। कैसे दिखते थे आपके दादाजी। मैंने ना चाहते हुये भी किताब दुकान वाले से पूछ लिया कि तो क्या दादाजी की मौत हो गई। और वह दिखते कैसे थे। हां दादाजी की मौत तो काफी पहले हो गई । लंबे थे। लेकिन जहां तक मुझे याद आ रहा है कोई एक सरदार जी भी कैंटिन में थे। हां वह दादाजी के साथ ही कैंटिन में हाथ बटाथे थे। आपको तो काफी याद है। लेकिन दादाजी अक्सर कहते कुछ भी करना लेकिन कैंटिन ना चलाना जिसके बाद पिताजी ने परली तरफ किताबों की दुकान खोली। जनता बुक डिपो ।
इस इलाके की सबसे पुरानी दुकान है। लेकिन वह दुकान भी 1979 में खुली। मैं भी सोचने लगा कि मै कितना पुराना हो चुका हूं। तभी वह दुकान वाला ही बोल पड़ा। आप तो और भी पुरानी बात कर रहे हो। उस वक्त से इलाके में कुछ भी नहीं था। अभी आप जहां खड़े हों, वहां पर स्कूल की बसे लगी रहती थी। यह जो कालोनी देख रहे हो यहा पर खाली मैदान ही तो था। और स्कूल के पीछे श्मशान घाट। हां, मुझे भी बाद में पता चला कि यह पूरा इलाका ही बंजर था। वह जो बड़ी बड़ी झाड़ खुद ही सडक किनारे नहीं लग जाती है वैसी झाड़ों से पूरा इलाका भरा पड़ा था। मरघट की तरह था इलाका। लेकिन 1980 के बाद से इलाका भरने लगा और 84 के दंगो के बाद तो ऐसी दरार पड़ी कि जो सरदार थे वह सरदारों के मोहल्ले में एकजुट होकर रहने लगे। और जहां सरदार कम थे, वहां उन्होंने अपने घर-जमीन बेच कर सरदारों के मोहल्ले में चले गये। इन्द्रपाल सिंह और इन्द्रजीत सिंह। यही तो मेरे सबसे प्यारे दोस्त थे । कई बार टिफिन में
तो इन्द्रपाल या इन्द्रजीत के घर चला जाता। बागते दौड़ते घर पहुंचता। और उनकी मम्मी भी फटाफट रसोई में लकडी के पीढे पर बैठाकर घी लगी रोटियां खिलाती। जल्दी जल्दी छोटे छोटे कौर से खाते। और अक्सर पानी पिये बगैर ही दौड़ते हुये स्कूल के फाटक के बंद होने से पहले पहुंच जाते। वैसे फाटक लकड़ी का था तो नीचे से भी निकल जाते। लेकिन दरबान का डर रहता तो सिर्फ तीस मिनट की टिफिन में भागकर घर जाकर खाना और लौटना भी उस वक्त चुनौती ही रहती। चूंकि क्लास के बाकि दोस्तो को बताकर भागते तो कई मनाते की हम छठी पिरियड के शुरु होने से पहले ना लौटे। जिससे हमे सजा मिले। लेकिन कभी ऐसा हुआ नहीं। उनका घर तो स्कूल के बहुत ही करीब हुआ करता था। तो क्या वह अब भी कहीं आसपास रहते होंगे। दुकान वाले से पूछा कि सरदार यह कहा रहते है। नहीं मैंने बताया ना 84 के बाद हालात बदले। जो वक्त थे उनमें से तो शायद ही कोई यहां बचा होगा। सभी 80 के बाद के ही है। कोई इक्का-दुक्का होगा तो मुझे जानकारी नहीं है। तो क्या 84 ने इस हद तक दिल्ली को बांटा। उसके दर के सुकून को बांटा। मुझे तुरंत अपने बचपन का घर याद आ गया। वह तो रिफ्यूजी कालोनी के तौर पर ही जाना जाता था। और वहा तो बहुत सारे सरदार थे। मेरे बचपन के सारे दोस्त तो सरदार ही थे।
मैं खुद अच्छी पंजाबी बोल लेता था। और आज भी बोल लेता हूं। चूंकि बेटे की परीक्षा साढ़े नौ बजे से साढे बारह तक होनी थी। तो मैंने पत्नी से तुरंत कहा चलो जरा आज अपने पुराने घर को भी देख लें। वह कहां पर है। रमेश नगर बगल में ही है। दो-चार किलोमीटर दूर होगा । और तत्काल ही वक्त का लाभ उठाते हुये हम रमेश नगर चल पड़े। टैगौर गार्डन के बाद राजौरी गार्डन मेट्रो स्टेशन और उसके बाद रमेश नगर। आप तुरंत पहुंच जायेंगे। दुकानवाले ने रास्ता दिखाया। जी, हम गाड़ी से आये हैं तो तुरंत ही चले जाते हैं फिर लौटना भी तो है। और रमेश नगर की तरफ बढ़ती गाड़ी के साथ ही मेरी जिन्दगी के पन्ने पलटने लगे। सी-20, रमेश नगर । यही तो घर का पता था। मेन रोड से घर दिखायी देता था । अक्सर शाम के वक्त बस स्टैंड की तरफ एक भाई की नजर होती कि पिताजी बस स्टैंड पर दफ्तर से जैसे ही पहुंचे, हमें तुरंत घर के भीतर पहुंच कर किताब खोलकर बैठ जाना है। बरसो बरस तक यह सिलसिला चला। कोई नीचे खेल रहा है या कोई छत पर पतंग उड़ा रहा है। पिताजी को जिसने भी देखा तुरंत सीटी बजाकर या आवाज देकर बोल देगा और सभी घर में घुस जायेंगे। मां का खूब साथ रहता। जो पिताजी के पूछने पर खामोशी से बता देती- बच्चे तो काफी देर से पढ़ाई कर रहे हैं। उस वक्त पढ़ाई का ज्यादा मतलब स्कूल का होमवर्क ही तो था। लेकिन अकसर पूरा होमवर्क भी नहीं हो पाता था। रमेश नगर के सारे मकान एक सरीखे ही थे। पीले रंग के मंजिल बिल्डिंग। एक साथ चार -चार मकान। हर किसी की छत सटी हुई। यानी कूदते फांदते एक छत से दूसरे की छत पर हर ब्लाक में जाना बेहद आसान। हमारा घर पहली मंजिल पर था। तो सीढियां भी याद आने लगीं। करीब अठारह सीढियां थीं। हर सीढी पर दो बार कदम रखता तो अगली सीढी पर कदम रखता तो मेरी लिये बचपन में 18 सीढ़ी भी 36 सीढियों के बराबर थीं। घर के सामने छोटा सा मैदान था। जिसमें हाकी खेलते थे। हर ब्लाक के बीच में गली थी। और गलियो में हर शाम नीते रहने वालों
की अंगठी सुलगती। धुआं जब तक निकलता तबत क अंगेठी गली में रख दी जाती। और अक्सर दीवाली के दौर में हम अंगठी में फुटफुटिया पटाखे डाल देते। पटाखों से कोयला उड़कर जमीन पर आ जाता। सजी हुई अंगेठी बिगड़ जाती। जिसकी अंगेठी बिगड़ती वह गालियां देता। और हम मजा लेते। मोहल्ले में ज्यादातर पंजाबी थे। हमारा घर भी किन्ही जुलका साहेब का था। जहां तक याद है। किराया 15 रुपये महीने था। याद करने लगा कि कौन कौन कहा रहता था। सी 21 में सरदार जी रहते थे। आज भी याद है कि कैसे उनका बेटा किसी से लड़कर आया और उन्होंने तलवार निकाल ली थी। सी 16 में पप्पू और अनिल भैया रहते थे। उनके पिता अक्सर पेंटिग बनाते हुये ही दिखायी दिये।
धीरे धीरे पता चला कि वह मैग्जीन में काम करते हैं। धर्मयुग या हिन्दुस्तान। ठीक से आज भी याद नहीं आ रहा लेकिन वह मैग्जिन के कवर पेज से लेकर दर के पन्नों के लिये चित्र बनाते थे। तूलिका । यही उनका नाम था । जिस नाम से पेंटिंग छपती । सारी यादें समेटे जैसे जैसे रमेश नगर के करीब पहुंचा । और फिर बदलती
कालोनियों में सबकुछ बदला सा चला। सी ब्लाक खोजने में बीस मिनट लग गये। और जब सी ब्लाक पहुंचा और अपने घर के सामने यानी सी-20 । तो झटका सा लगा । नीचे यानी सी 19 में डेटल अस्पताल खुला हुआ था। उसके बगल में यानी सी 17 में पोस्टआफिस। उपर पीले रंग के मकान रंगीन मिजाज में चमक रहे थे ।
हर घर की बालकोनी का अंदाज अलग था। कोई चेहरा ऐसा नहीं, जिसे पहचान कर 1975 में लौट सकूं । नजर सी21 यानी सरदार जी के घर की तरफ गई तो वहां गाडियों के सामान की दुकान खुली थी। उसमें सरदार को बैठा देखर उसके पास गया और पूछा यह आपकी ही दुकान है। जी यह मेरा ही है । आप लोग अभी आये हैं या पहले से रह रहे हैं। आजादी के बाद से इसी कालोनी में रह रहे हैं। मेरे दादाजी सबसे पहले यहा आये थे। उन्हीं का नाम तो घर के आगे लिखा हुआ है। स्वर्ण बंगला। हां, उनका नाम स्वर्ण सिंह था। अब मुझे भी याद आया। और
उनके बेटे। जी पिताजी की भी मौत हो गई। क्या नाम था। दिलबाग सिंह । मैं उन्हीं का बेटा हूं। मुझे याद आ नहीं रहा था कि स्वर्ण सिंह का कौन सा बेटा था जो पूरे मोहल्ले में हंगामा मचाये रखता था। लेकिन मुझे स्वर्ण सिंह का तलवार निकालना।
रोज शाम होते ही ङर के बाहर सड़क पर ही चारपाई लगाकर सोना। और उसके बाद धीरे धीरे हर घलर के आगे चारपाई बिछती चली जाती थी। ज्यादातक नीचे के घरवाले बाहर खुले आसमान तले बेखौफ सोते । हर कोई एक दूसरे की खुसे दिल से मदद करता । 1974 तक घर में पुराने दौर का ही बाथरुम था। तो मैला ढोने वाली महिला हर सुबह आती । उसके बाद घर में बाथरुम नये तरीके का बनने लगा तो तीन दिन तक स्वर्ण सिंह जी के घर पर ही सुबह शाम बाथरुम के लिये आना जाना होता। घर के सामने ग्राउंड इतना छोटा होगा। यही हाकी खेला करता था। और पहली मंजिल तक जाने वाली सीढियां। इतनी छोटी। जो 18 सीढियां बचपन में 36 लगती, अब वह नौ लगती हैं। बचपन की सारी बड़ी चीजें कितनी छोटी लग रही हैं। तमाम यादों को समेटे मैंने पत्नी को गली के मुहाने पर दुकान दिखायी और बताया उस वक्त यहां राशन दुकान थी। चावल-गेंहू, चीनी, किरासन तेल, दाल। सबकुछ यही से मिलता था। पूरा मोहल्ला अपनी अपनी ईंट लगाकर लाइन बनाते । और राशन दुकान वाला सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हो जाता। पिताजी हमेशा खामोशी से एकदम अकेले पूरे मोहल्ले में नजर आते । सरकारी कर्मचारी के तौर पिताजी पूरे मोहल्ले में अकेले थे । तो हर कोई उन्हे सम्मान से देखता भी । एक बार घर की दीवार परकिसी राजनीतिक दल ने पोस्टर चिपका दिया तो पिताजी ने पुलिस से शिकायत
कर दी। मोहल्ले वालो को समझ नहीं आया कि पुलिस में शिकायत क्यों की गई । मां ने भी कहा पुलिस में कहने की क्या जरुरत है। तो पिताजी ने कहा कि सरकारी कर्मचारी के घर पर कैसे कोई राजनीतिक दल पोस्टर लगा सकता है। और आखिर में उस वक्त के नेता ने आकर माफी मांगी और कार्यकर्ताओं ने पोस्टर निकाल लिया। और मोहल्ले में पहली बार हमें लगा कि हमारा रुतबा बढ़ गया।
Thursday, April 9, 2015
दिल्ली 1975 : मेरा खोया बचपन - पार्ट-टू
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:17 PM
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1 comment:
SIR VERY NICE. BACHPAN KI YAADON KO PADHKAR MAI KHUD APNE BACPAN ME LOUT GAYA THA...
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