यह कल्पना के परे है कि मरते किसानों के बीच से कुछ किसानो को चुन लिया जाये और फिर उनके परिवारो के रुदन में शरीक होकर सियासत साधी जाये। राजस्थान में दर्जनो किसानो की मौत हो गई लेकिन आप ने दौसा के किसान गजेन्द्र को चुना। कांग्रेस के नेता सचिन पायलट और गहलोत को लगा यह घोखा होगा तो वह गजेन्द्र की मौत के 48 घंटे बाद एक और किसान परिवार के घर ढांढस बंधाने पहुंचे। बीजेपी के नेता खुदकुशी करते किसानो में से चंद के घरो की सांकल बजा आये। और अब राहुल गांधी विदर्भ के उस इलाके में किसानों के बीच सियासी अलख जगाने निकलेगें जो इलाका किसानो के लिये मरघट हो चुका है। 30 अप्रैल को नागपुर से 145 किलोमीटर दूर अमरावती के घामनगांव तालुका और चांदुर तालुका के दर्जन भर गांव में 15 किलोमीटर पैदल चल कर चुने गये उन नौ किसानों के घर पर दस्तक देंगे जो अब दुनिया में नहीं है। यह ठीक वैसे ही है जैसे 29 जून 2006 को मनमोहन सिर्ह बतौर प्रधानमंत्री यवतमाल पहुंचकर 34 विधवाओ से मिले थे। और उसके बाद किसानो के लिये करोडों के पैकेज का एलान कर दिल्ली वापस लौट आये। लेकिन उसके बाद देश विकास की चकाचौंध तले दौड़ने लगा। और चकाचौंध से आहत तब विदर्भ के बीजेपी के ही नेता देवेन्द्र फडनवीस हो जो अब महाराष्ट्र के सीएम हो या फिर नीतिन गडकरी जो अब मोदी सरकार में मंत्री हैं, अक्सर विदर्भ के किसानों के दुख में यह कहकर शरीक होते रहे कि मनमोहन सरकार का कोई ध्यान किसान पर नहीं है। उस वक्त निशाने पर महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार भी आई। देवेन्द्र फडनवीस ने तो किसानों को लेकर काग्रेस एनसीपी सरकार को इस तरह कटघरे में खड़ा किया जैसे हर किसान को लगा कि वाकई सत्ता बीजेपी की होती तो किसानों का भला हो जाता। लेकिन किसे पचा था कि दिल्ली और महाराष्ट्र दोनों जगहों पर बीजेपी की सरकार होगी लेकिन किसानों की आत्महत्या का आंकडा नया रिकार्ड बनाने लगेगा।
यानी जो किसानो की जो मौत 2006-07 में सबसे ज्यादा होती थी उसे भी 2014-15 का दौर पीछे छोड़ देगा। तब हर सात घंटे में एक किसान खुदकुशी करता था और मौजूदा वक्त में हर छह घंटे में किसान खुदकुशी कर रहा है। विदर्भ में इसी बरस 468 किसान खुदकुशी कर चुका है। लेकिन नया सवाल तो खुदकुशी करते किसानो की कब्र पर सियाली रोशनी फैलाने का है । क्योंकि अमरावती में इसी बरस 54 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। मनमोहन सिंह की सत्ता के दौर में तेरह सौ से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की । लेकिन राहुल गांधी के लिये खास तौर से आत्महत्या कर चुके नौ किसानों को चुना गया जिनके घर राहुल गांधी जायेंगे। अब कल्पना किजिये कि जिस अमरावती के हर गांव में किसान आत्महत्या कर रहा है वहा के तलेगांव, आर्वी, कोन्डण्पुर , अंजनसिंगी को चुना गया । और इन चार गांव में से तीन किसान परिवार की विधवाओं के साथ या जिन बच्चो के सिर से बाप का साया उठ गया उन बच्चों के साथ बैठकर राहुल गांधी दर्द बांटेंगे। तो क्या पहला सवाल गांव के बीच यह नहीं उठेगा कि जब दर्जनों किसानों ने यहा खुदकुशी की है तो फिर खुदकुशी कर चुके सिर्फ तीन किसान निलेश भारत वाडके, अंबादास महादेव वाहीले और किशोर नामदेव कांबले के दरवाजे पर ही राहुल गांधी क्यों पहुंचे। और इसके बाद अमरावती के ही चांदुर रेलवे ताल्लुका के तीन गांव के छह किसानों के घर जा
कर परिजनो से दुख दर्द बांटेंगे जिनके घर आत्महत्या की आग अभी भी सुलग रही होगी। खुदकुशी कर चुके किसान कचरु गोमा तुपसुंदरे ,मारोतराव नेवारे , माणिक लक्ष्मण ठवकार,अशोक मारोतराव सातपैसे ,रामदास अडकिने और शंकर अडकिने के घर पर भी दुखियारे मां बाप होंगे। विधवाएं होंगी। छोटे छोटे बच्चे होंगे।
राहुल गांधी वहां पहुंचेंगे तो न्यूज चैनलो के कैमरे भी पहुंचेंगे। और उसके बाद समूचा देश उन घरो के भीतर के हालातों को देखेगा। परिजनो के आंसुओं को देखेगा। भर्रायी आवाजों से नौ किसानों के परिवार के दर्द को देश का दर्द मान कर किसानो का रोना रोयेगा। हो सकता है इसके बाद महाराष्ट्र की सीएम भी जागे। चूंकि वह खुद नागपुर के है तो विदर्भ के खुकुशी करते किसानो के बीच जाकर अपने होने का एहसास करें। फिर मोदी सरकार के मंत्री नितिन गडकरी भी विदर्भ के किसानों की फिक्र कर सकते हैं। यानी जिस तरह 2006 में मनमोहन सिंह पहुंचे । 2007 में वर्धा के किसान वानखेडे की खुदकुशी के बाद सोनिया गांधी पहुंचीं। 2008 में किसान यात्रा निकालने राजनाथ सिंह वर्धा पहुंचे। और अमरावती से लेकर यवतमाल तक नाप आये। 2009 में उद्दव ठाकरे नागपुर पहुचे और चन्द्रपुर से लेकर यवतमाल तक किसानों के दर्द को समेट वापस मुब्ई पहुंच गये । 2010 में शरद पवार पहुंचे । वह भी विदर्भ का रोना रोकर दिल्ली की सियासत में यह कहते हुये गुम हो गये कि किसान तो राज्य का मसला है केन्द्र इसमें क्या कर सकता है । यह सिलसिला हमेशा हर बरस चलता रहा। वैसे याद कीजिये तो 2009 में राहुल गांधी विदर्भ से कलावती को खोज लाये थे और दिल्ली के राजनीतिक गलियारे
में कलावती अंधेरे में रोशनी दिखाने वाला नाम हो गया। यानी जब जब दिल्ली अंधेरे में समाती है तब तब उसे अंधेरे में समाये किसानों की याद आती है और उसी उर्जा को लेकर दिल्ली की सियासत तो हर बार चमक जाती है लेकिन किसानों का अंधेरा कही ज्यादा घना हो जाता है। और इस बार तो यह अंघेरा इतना घना है कि 2015 के पहले सौ दिनो में देश में 1153 किसान खुदकुशी कर चुके हैं।यानी हर दो घंटे एक किसान की खुदकुशी।
Tuesday, April 28, 2015
किसानों के अंधेरे घर से सियासी दीया जलाने का हुनर
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:39 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
एक ऐसा देश जहाँ की दास्तान कलपना से परे हो चली है।
बात तो भारत बर्ष की है जिस देश कभी कृषि प्रधान देश देश कहा जाता था,अब उस देश की हालत राजनीतिक हो चली है।
समय की स्थिति पर राजनीति भारी पडती दिख रही है ।
क्योंकि कि किसानों की मदद कोई करना नही चाहता है। तो फिर किसानों के साथ भी सियासत क्यो होरही है। बीते बीस वर्षों मे किसी भी दल ने किसानोंकी चिन्ता नही बल्कि अपने लिए सियासी रणनीति बानाते हुए किसानों के साथ के भेदभाव करते रहे
आज की परिस्थिति को भाते हुए कोई भी राजनीतिक दल किसानों के साथ होने की बात कहता आरहा है। वजह सिर्फ इतनी सी है कोई अपनी राजनीतिक विसाख विछा रहा है।
तो कोई राजनैतिक जमीन को भापते हुए भाषण देरहा है महज चंद किसानों के साथ अपना थोड़ा सा वक्त देकर यह जता रहाहै कि हम उन के साथ है।
Post a Comment