Wednesday, April 8, 2015

फसल ऊपरवाला ले गया, नौकरी अखिलेश और जमीन मोदी

सात रुपये का चेक। किसी किसान को मुआवजे के तौर पर अगर सात रुपये का चेक मिले तो वह क्या करेगा। 18 मार्च को परी ने जन्म लिया। अस्पताल से 3 अप्रैल को परी घर आई। हर कोई खुश । शाम में पोती के होने के जश्न का न्योता हर किसी को। लेकिन शाम में फसल देखने गये परी के दादा रणधीर सिंह की मौत की खबर खेत से आ गई। समूचा घर सन्नाटे में। तीन दिन पहले 45 बरस के सत्येन्द्र की मौत बर्बाद फसल के बाद मुआवजा चुकाये कैसे। आगे पूरा साल घर चलायेंगे कैसे। यह सोच कर सत्येन्द्र मर गया तो बेटा अब पुलिस भर्ती की कतार में जा कर बैठ गया। यह सच बागपत के छपरौली के है। जहां से किसानी करते हुये चौधरी चरण सिंह देश के पीएम बन गये और किसान दिवस के तौर पर देश चरण सिंह के ही जन्मदिन को मनाता है। लेकिन किसान का हितैषी बनने का जो सियासी खेल दिल्ली में शुरु हुआ है और तमाम राज्यों के सीएम अब किसानों के हक में खड़े होने का प्रलाप कर रहे है, उसकी हकीकत किसानों के घर जाकर ही समझा जा सकती है। खासकर बागपत। वही बागपत जो चरण सिंह की राजनीतिक प्रयोगशाला भी रही और किसान के हक में आजादी से पहले खड़े होकर संघर्ष करने की जमीन भी। 1942 में पहली बार छपरौली के दासा दगांव में किसानो के हक के लिये संघर्ष करते चरण सिंह को गिरफ्तार करने अग्रेजों की पुलिस पहुंची थी। तब सवाल लगान और खेती की जमीन ना देने का था। दासा गांव के बडे बुजुर्ग आज भी 1942 को यादकर यह कहने से नहीं चूकते कि तब उन्होंने चौधरी साहब को गिरफ्तार होने नहीं दिया था। और उसके बाद किसी ने उनकी जमीन पर अंगुली नहीं उठायी। क्योंकि छपरौली का मतलब ही चौधरी चरण सिंह था। जहां खेती के लिये सिंचाई का सवाल उठता रहा। जहां खाद के कारखाने को लगाने की बात उठी। जहां मुआवजे को लेकर किसान को हाथ फैलाने की जरुरत न पड़ी। लेकिन हालात कैसे किस तरह बदलते गये कि पहली बार खुशहाल गांव के भीतर मरघट सी खामोशी हर किसी को डराने लगी है।

खामपुर गांव हो या धनौरा गांव या फिर रहतना गांव या जानी गांव। कही भी चले जाइये किसी के घर का भी सांकल खटखटा दीजिये और नाम ले लिजिये चौधरी चरण सिंह का। और उसके बाद सिर्फ यह सवाल खड़ा कर दीजिये कि चौधरी होते तो अब क्या कर लेते । सारे सवालों के जबाब बच्चो से लेकर बडे बुजुर्ग तक बिना सांस रोके लगातार देने लगेंगे। और यह सवाल छोटा पड़ जायेगा कि किसानों के लिये सरकार करें क्या जिससे किसान को राहत मिल जाये। किसान को अपनी फसल की कीमत तय करने का अधिकार होना चाहिये। खेती की जमीन पर क्रंकीट खड़ा करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करना चाहिये। खेतीहर किसान परिवारो के बच्चों के लिये शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। समर्थन मूल्य का आकलन फसल की बाजार की कीमत से तय होना चाहिये। लेकिन सच है क्या । गन्ना किसानों के घर में मिल मालिकों की दी हुई पर्चियों के बंडल हैं। जिसमें लिखा है कि इतना गन्ना दिया गया। इतने पैसों का भुगतान होगा। कब होगा , कोई नहीं
जानता। अब चीनी मिल ने गन्ने की एवज में रुपया देने के बदले पचास फीसदी रकम की चीनी बांटनी शुरु कर दी है। ले जाइये तो ठीक नहीं तो चीनी रखने का किराया भी गन्ना किसान की रकम से कट जायेगा। धान कल तक यूपी से हरियाणा जा सकता था। लेकिन हरियाण में सत्ता बदली है तो अब धान भी
हरियाणा की मंडी में यूपी का किसान वही ले जा सकता है।

और धान की मंडी बागपत के इर्द गिर्द कही है नहीं। 1977 में बागपत से चुनाव जीतने के बाद चौधरी चरण सिंह ने धान मंडी लगाने की बात जरुर कही थी। लेकिन उसके बाद तो कोई सोचता भी नहीं। टुकड़े में बटें खेतों की चकबंदी चौधरी चरण सिंहने शुरु कराई लेकिन अब आलम यह है कि बागपत के सोलह गांव में बीते 32 बरस में सिचाई के लिये अलग अलग एलान हुये। दासा गांव की सिचाई योजना पर 62 करोड़ खर्च हो गये लेकिन पानी है ही नहीं। जमीन के नीचे 123 फीट तक पानी चला जा चुका है। जो दो सौ फीट तक पानी निकाल लेता है वह यह कह कर खुश हो जाता है कि असल मिनरल वाटर तो उसके खेत या घर पर है। दिल्ली जिस भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के जरीये विकास का सपना संजो रही है, उसके उलट बागपत के किसान उसी थ्योरी पर टिका है जिसे चरण सिंह कह गये यानी जमीन पर किसान का मालिकाना हक बढाने पर जोर दिया जाना चाहिये। बागपत के लड़के नये प्रयोग कर डिब्बा बंद गन्ने का जूस की फैक्ट्री लगाने को तैयार हैं। लेकिन उनके पास पैसा है नहीं और सरकार तक वह पहुंच नही सकते। सरकार उनतक पहुंचती नही तो गन्ना जूस की टेकनालाजी घर में पडी बर्बाद फसलों के बीच ही सड़-गल रही है। रहतना गांव के गुलमोहर की मौत के बाद गुलमोहर के परिवारवालों को लग रहा है कि ना काम है। ना दाम । तो आगे वह करें तो क्या करें । लेकिन सरकार ने जगह जगह दीवारों पर नारे लिख दिये गये हैं कि गांव गांव को काम मिलेगा। काम के बदले दाम मिलेगा। लेकिन किसानों का सच है कि सिर्फ दशमलव तीन फीसदी लड़के नौकरी करते हैं। बाकि हर कोई खेती या खेती से जुडे सामानों
की आवाजाही के सामानो की दुकान खोल कर धंधे में मशगूल है। रोजगार के लिये सबसे बडी नौकरी पुलिस भर्ती की निकली है।

लेकिन वह भी जातीय आधार पर सैफई और मैनपुरी में सिमटी है तो बागपत के गांव दर गांव में पुलिस भर्ती का विरोध करते किसानो के बेटे सड़क किनारे नारे लगा रहे हैं। बैंक, कोओपरेटिव और साहूकार। अस्सी फिसदी किसान इन्हीं तीन के आसरे खेती करते है । जिन्हे हार्ट अटैक आया । जो बर्बाद फसल देखकर मर गये। उन परिवारों समेत बागपत के बीस हजार किसान औसतन दो से पांच लाख कैसे लौटेंगे। और ना लौटाने पर जो कर्ज चढ़ेगा वह अगले बरस कैसे तीन से नौ लाख तक हो जायेगा। इसी जोड़ घटाव में सोचते सोचते हर किसान के माथे पर शिकन बडी होती जा रही है। फिर मुआवजे को लेकर तकनीकी ज्ञान सबको लेकर उलझा है क्योंकि मुआवजा तो पटवरी, तहसीलदार,एसडीएम, डीएम,कमिश्नर, सीएण और फिर दिल्ली। यानी मुआवजे का रास्ता इतना लंबा है कि हर हथेली आखिरी तक खाली ही रहती है इसलिये मुआवजे का एलान लखनउ में हो या दिल्ली में उम्मीद या भरोसा किसी में जागता नहीं है। दासा गांव के रणधीर सिंह की मौत तो यह सोच कर ही हो गई कि कोपरेटिव का पैसा ना लौटाया और बैंक का कर्ज चढ़ता चला गया तो फिर घर का क्या क्या बिकेगा। उन्नीस प्राइवेट स्कूल के प्रिंसिपल ने बच्चों को कहा है कि अपने पिता से लिखवाकर लाये कि फीस दो महीने तक माफ की जा सकती है। उसके बाद माफ की कई महीनो की फीस भी चुकानी पड़ेगी। अभी तक कोई आदेश-निर्देश तो किसानों के घर नहीं पहुंचा लेकिन फसल बर्बाद होने के बाद डर ऐसा है कि हंसता-खिलखिलाता गांव सन्नाटे में नजर आने लगा है। और तमाम सवालों को उठाने पर हर जुबां पर बिखरे बिखरे शब्दो के बीच यह सोच है कि फसल ऊपर वाला ले गया । नौकरी अखिलेश ले जा रहे हैं। जमीन मोदी ले जायेंगे।

3 comments:

Unknown said...

Beautifully written

Anonymous said...

बहुत ही कमीनपंथी वाला बहुत क्रांतिकारी।

Anonymous said...

किसान होना ही गुनाह होता है अगर तो नेताओं की दुकान कैसे चलती है सर इनसे ।
कभी राष्ट्रीय परिदृश्य मे इस पर भी बताये