Friday, June 26, 2015

सत्ता की ताकत तले ढहते संस्थान

याद कीजिये तो एक वक्त सीबीआई, सीवीसी और सीएजी सरीखे संवैधानिक संस्थानों की साख को लेकर आवाज उठी थी। वह दौर मनमोहन सिंह का था और आवाज उठाने वाले बीजेपी के वही नेता थे जो आज सत्ता में हैं। और अब प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता के आगे नतमस्तक होते तमाम संस्थानों की साख को लेकर कांग्रेस
समेत समूचा विपक्ष ही सवाल उठा रहा है। तो क्या आपातकाल के चालीस बरस बाद संस्थानों के ढहने और राजनीतिक सत्ता की आकूत ताकत के आगे लोकतंत्र की परिभाषा भी बदल रही है। यानी आपातकाल के चालीस बरस बाद यह सवाल बड़ा होने लगा है कि देश में राजनीतिक सत्ता की अकूत ताकत के आगे क्यों कोई संस्था काम कर नहीं सकती या फिर राजनीतिक सत्ता में लोकतंत्र के हर पाये को मान लिया जा रहा है। क्योंकि इसी दौर में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर संसद की स्टैंन्डिग कमेटी बेमानी साबित की जानी लगी। राज्य सभा की जरुरत को लेकर सवाल उठने लगे। और ऊपरी सदन को सरकार के कामकाज में बाधा माना जाने लगा।

न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सत्ता ने सवाल उठाये। कोलेजियम के जरीये न्यायपालिका की पारदर्शिता देखी जाने लगी। कारपोरेट पूंजी के आसरे हर संस्थान को विकास से जोड़कर एक नई परिभाषा तय की जाने लगी। कामगार यूनियनें बेमानी करार दे दी गई या माहौल ही ऐसा बना दिया गया है जहां विकास के रास्ते में यूनियन का कामकाज रोड़ा लगने लगे। किसानो से जुड़े सवाल विकास की योजनाओं के सामने कैसे खारिज हो सकते है यह आर्थिक सुधार के नाम पर खुल कर उभरा। सत्ताधारी के सामने नौकरशाही चूहे में बदलती दिखी। और यह सब झटके में हो गया ऐसा भी नहीं है । बल्कि आर्थिक सुधार के बाद देश को जिस रास्ते पर लाने का प्रयास किया गया उसमें ‘ पंजाब, सिंध , गुजरात,मराठा / द्रविड, उत्कल बंग ...” सरीखी सोच खारिज होने लगी । क्योकि भारत की विवधता , भारत के अनेक रंगो को पूंजी के धागे में कुछ इस तरह पिरोने की कोशिश शुरु हुई कि देश के विकास या उसके बौद्दिक होने तक को मुनाफा से जोडा जाने लगा । असर इसी का है कि विदेशी पूंजी के बगैर भारत में कोई उत्पाद बन नहीं सकता है यह संदेश जोर-शोर से दी जाने लगी । लेकिन संकट तो इसके भी आगे का है ।

भारत को लेकर जो समझ संविधान या राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान तक में झलकती है उसे सत्ता ने अपने अनुकूल विचारधारा के जरीये हडपने की समझ भी विकसित कर ली। असर इसी का हुआ कि बाजारवाद की विचारधारा ने विकास के नाम पर संस्थानों के दरवाजे बंद कर दिये। तो एक वक्त सूचना के अधिकार के नाम पर हर संस्थान के दरवाजे थोड़े बहुत खोल कर लोकतंत्र की हवा सत्ता के जरीये बहाने की कोशिश हुई। तो मौजूदा वक्त में जनादेश के आसे सत्ता पाने वालो ने खुद को ही लोकतंत्र मान लिया और हर दरवाजे अपने लिये खोल कर साफ संकेत देने की कोशिश शुरु की पांच बरस तक सत्ता की हर पहल देश के लिये है । तो इस घड़ी में सूचना का अधिकार सत्ता की पंसद नापंसद पर आ टिका। और सत्ता जिस विचारधारा से निकली उसे राष्ट्रीय धारा मान कर राष्ट्रवाद की परिकल्पना भी सियासी विचारधारा के मातहत ही परिभाषित करने की कोशिश शुरु हुई। इसी का असर नये तरीके से शुरु हुआ कि हर क्षेत्र में सत्ता की मातृ विचारधारा को ही राष्ट्र की विचारधारा मानकर संविधान की उस डोर को ही खत्म करने की पहल होने लगी जिसमें नागरिक के अधिकार राजनीतिक सत्ता से जुड़े बगैर मिल नहीं सकते। हर संस्थान के बोर्ड में संघ के पंसदीदा की नियुक्ती होने लगी। गुड गवर्नेंस झटके में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आईने में कैसे उतारा गया यह किसी को पता भी नहीं चला या कहे सबको पता चला लेकिन इसे सत्ता का अधिकार मान लिया गया । बच्चों के मन से लेकर देश के धन तक पर एक ही विचारधारा के लोग कैसे काबिज हो सारे यत्न इसी के लिये किये जाने लगे। नवोदय विघालय हो या सीबाएसई बोर्ड। देश के 45 केन्द्रीय विश्विघालय हो या उच्च शिक्षा के संस्थान आईआईटी या आईआईएम हर जगह को भगवा रंग में रंगने की कोशिश शुरु हुई। उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्ता को सत्ता अपने अधिन लाने के लिये मशक्कत करने लगी। और विचारधारा के स्तर पर शिमला का इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च रेसंटर हो या इंडियन काउंसिल आफ सोशल साइंस रिसर्च या पिर एनसीईआरटी हो या यूजीसी। बोर्ड में ज्ञान की परिभाषा विचारधारा से जोड़कर देखी जाने लगी। यानी पश्चमी सोच को शिक्षा में क्यो मान्यता दें जब भारत की सांस्कृतिक विरासत ने दुनिया को रोशनी दी। और राष्ट्रवाद की इस सोच से ओत प्रोत होकर तमाम संस्थानो में वैसे ही लोग निर्णय लेने वाली जगह पर नियुक्त होने लगे जो सांस्कृतिक राष्ट्वाद की बीजेपी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजदीक रहे। यानी यहा भी यह जरुरी नहीं हा कि वाकई जो संघ की समझ हेडगेवार से लेकर गोलवरकर होते हुये देवरस तक बनी उसकी कोई समझ नियुक्त किये गये लोगो में होगी या फिर श्यामाप्रसाद मुखर्जी या दीन दयाल उपाध्याय की राजनीतिक सोच को समझने-जानने वाले लोगो को पदों पर बैठाया गया ।

दरअसल सत्ता के चापलूस या दरबारियो को ही संस्थानों में नियुक्त कर अधिकार दे दिये गये जो सत्ता या संघ का नाम जपते हुये दिखे । यानी पदों पर बैठे महानुभाव अगर सत्ता या संघ पाठ अविरल करते रहेंगे तो संघ का विस्तार होगा और सत्ता ताकतवर होगी यह सोच नये तरीके से विचारधारा के नाम पर विकसित हुई। जिसने उन संस्थानों की नींव को ही खोखला करना शुरु कर दिया जिन संस्थानों की पहचान दुनिया में रही। आईसीसीआर हो या पुणे का फिल्म इस्टीटयूट यानी एफटीआईई या पिर सेंसर बोर्ड हो या सीवीसी सरीखे
संस्थान, हर जगह दिन हाथो में बागडोर दी गई उनके काम के अनुभव या बौद्दिक विस्तार का दायरा उन्हें संस्थान से ही अभी ज्ञान अर्जित करने को कहता है लेकिन आने वाली पीढ़ियों को जब वह ज्ञान बांटेंगे तो तो निश्चित ही वही समझ सामने होगी जिस समझ की वजह से उन्हे पद मिल गया। तो फिर आने
वाला वक्त होगा कैसा या आने वाले वक्त में जिस युवा पिढी के कंघों पर देश का भविष्य है अगर उसे ही लंबे वक्त तक सत्ता अपनी मौजूदगी को श्रेष्ठ बताने वाले शिक्षकों की नियुक्ति हर जगह कर देती है तो फिर बचेगा क्या । यह सवाल अब इसलिये कही ज्यादा बड़ा हो चला है कि राजनीतिक सत्ता यह मान कर
चल रही है कि उसकी दुनिया के अनुरुप ही देश को ढलना होगा। तो कालेजों में उन छात्रों को लेक्चरर से लेकर प्रोफेसर बनाया जा रहा है,जो छात्र जीवन में सत्ताधारी पार्टी के छात्र संगठन से जुड़े रहे हैं। यानी मौजूदा वक्त बार बार एक ऐसी लकीर खींच रहा है जिसमें सत्ताधारी राजनीतिक दल या उसके संगठनों के साथ
अगर कोई जुड़ाव आपका नहीं रहा तो आप सबसे नाकाबिल हैं। या आप किसी काबिल नहीं है। मुस्किल तो यह है कि समझ का यह आधार अब आईएएस और आईपीएस तक को प्रभावित करने लगा है। बीजेपी शासित राज्यों में कलेक्टर, डीएम एसपी तक संघ के पदाधिकारियो के निर्देश पर चलने लगे है। ना चले तो नौकरी मुश्किल और चले तो सारे काम संघ के विस्तार और सत्ता के करीबियों को बचाने के लिये । तो क्या चुनी हुई सत्ता ही लोकतंत्र की सही पहचान है। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में भी मोदी सरकार को सिर्फ 31 फीसदी वोट ही मिले। वहीं जिन संवैधानिक संस्थानों को लेकर मनमोहन सिंह के दौर में सवाल उठे थे तब काग्रेस को भी 70 करोड़ वोटरों में से महज साढे ग्यारह करोड ही वोट मिले थे। बावजूद इसके कांग्रेस की सत्ता से जब अन्ना और बाबा रामदेव टकराये तो कांग्रेस ने खुले तौर पर हर किसी को चेतावनी भरे लहजे में वैसे ही तब कहा था कि चुनाव लड़कर जीत लें तभी झुकेंगे। लेकिन मौजूदा वक्त भारतीय राजनीति के लिये इसलिये नायाब है
क्योंकि जनादेश के घोड़े पर सवार मोदी सरकार ने अपना कद हर उस साथी को दबा कर बडा करने की कवायद से शुरु की जो जनादेश दिलाने में साथ रहा । और जो सवाल कांग्रेस के दौर में बीजेपी ने उठाये उन्ही सवालो को मौजूदा सत्ता ने दबाने की शुरुआत की। दरअसल पहली बार सवाल यह नहीं है कि कौन गलत है या कौन सही ।
सवाल यह चला है कि गलत सही को परिभाषित करने की काबिलियत राजनीतिक सत्ता के पास ही होती है । और हर क्षेत्र के हर संस्थान का कोई मतलब नहीं है क्योंकि विकास की अवधारणा उस पूंजी पर जा टिकी है जो देश में है नहीं और विदेश से लाने के लिये किसान मजदूर से लेकर उहोगपतियो से लेकर देसी कारपोरेट तक को दरकिनार किया जा सकता है। तो मौजूदा वक्त में सत्ता के बदलने से उठते सवाल बदलते नजरिये भर का नहीं है बल्कि सत्ता के अधिक संस्थानों को भी सत्ता की ताकत बनाये रखने के लिये कही ढाल तो कही हथियार बनाया जा सकता है । और इसे खामाशी से हर किसी को जनादेश की ताकत माननी होगी क्योंकि यह आपातकाल नहीं है।

6 comments:

सतीश कुमार चौहान said...

देश अभी औपचारिक लोकतंत्र के दौर से गुजर रहा हैं, जितनी तेजी से सरकार नाकामयब होगी लोकतंत्र उसी तेजी से दम तोडेगा ......

Kagbhagoda said...

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अब सांस्कृतिक आतंकवाद तक पहुँच चुका है.मुसलमानों,इसाईयों के विरुद्ध सतत हमले ,उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक मान लेने के छिपे आग्रह,उनके आर्थिक आधारों पर- पेट पर निरंतर प्रहार देश में खुले रूप से प्रजातांत्रिक तानाशाही के आग़ाज़ की सूचना देता है.

Unknown said...

election lad lo prasoon ji. lagta hai AAP walo ne ticket nahi diya pichli baar.chalo koi baat nahi isi tarha se modi ji ki buraion me lage raho kuch kuch na hath lag hi jayega. or kisi se na sahi to desh virodhi takato se hi sahi. bator lo jo bhi mile. kon jaane aage samay kaisa ho

Unknown said...

media ki haqikat bhi ab kisi se chupi nahi hai prasoon ji. Paise ka khel yahan bhi chal raha hai islie naitikta ki batain na hi hon to achha hai. ab desh me sirf wo hoga jo is desh me shanti or suraksha or vikas ke lie jaruri hoga chahe koi kitna bhi vidwhwa vilaap karta rahe.

Anonymous said...

सत्ता के चापलूस दरबारी, केजरू के 21 विधायक जिनको मुख्य सचिव का दर्जा देकर तमाम भोग विलास की सुख सुविधाओं से लैस किया गया है, उन पर तो तुम्हारे विचार कभी पढ़े नहीं। वो सब क्रान्तिकारी जो हैं। वैसे आज कल तुम्हारे लेखों में 'लुटियन्स की दिल्ली' शब्द का प्रयोग बंद हो गया है, शायद तब से जब से केजरू खुद लुटियन्स के बंगले में शिफ्ट हुआ है और सिसोदिया शीला दीक्षित के खाली किये बंगले में। तो अब नया ड्रामा ये है की खबरें ऐसी दिखाओ की मोदी ने संस्थानों को ख़त्म कर दिया, आपातकाल आ रहा है, लोकतंत्र खतरे में है। राहुल बाबा और केजरू किसानो के मसीहा। लगे रहो लेकिन एक बात याद रखो, तुम्हारे सहकर्मी राजदीप, उसकी पत्नी सागरिका, 2G घोटाले वाली बरखा ये सब मिल कर 12 बरस तक ऐसा ही कुप्रचार करते रहे, लेकिन मिला क्या? राजदीप, सागरिका को CNN IBN से अम्बानी ने खदेड़ा, बरखा ने कारगिल में जो इज्जत कमाई थी वो राडिया कांड में गँवा दी और आज इनकी ख़बरें सिर्फ नाम के लिए बची हैं। वैसे सुना है की राजदीप जल्द ही एक नया चैनल खोलने जा रहा है, पैसा कांग्रेस, केजरू और ओवैसी से आएगा और उसका लक्ष्य भाजपा की बदनामी होगा। सच मानिए आज कल मीडिया पे कोई भरोसा ही नहीं करता, फिर चाहे इसमें योगदान न्यूज़-ट्रेडर वाली फब्ती का हो या 1400 करोड़ में मीडिया बिक गया, इस केजरू के आरोप का हो। आपके चैनल से दर्शकों से ज़्यादा तो मोदी के फेसबुक-ट्विटर पे फॉलोवर हैं। अब तुम ही हिसाब लगाओ की तुम्हारी "टक्करों" की क्या हस्ती है।

prashant dwivedi said...

आप का यह लेख एक अच्छी खासी हास्य प्रति है, जिन उच्च पदों और संस्थानों पर संघ के करीबिओं के बैठाए जाने का प्रलाप आप कर रहे हैं वो तो जलन जैसा कुछ प्रतीत हो रहा है, ऐसा लग रहा है कि इस सरकार में आप को ज्यादा फायदा नहीं मिल रहा है, मौजूदा सरकार कोई यूपी की समाजवादी पार्टी की सरकार या बहुजन समाजवादी पार्टी की राज्य सरकार नहीं है जो जाति विशेष के लोगों को सरकारी रेवडियां बांटे और न ही कांग्रेस की सरकार है जो hindu