Friday, August 7, 2015

आतंक के बदलते चेहरे से कैसे निपटे भारत ?

कसाब फरीदकोट के ओकारा गांव का था। नावेद फैसलाबाद की शहरी कालोनी गुलाम मोहम्मद अबद का है। कसाब गरीब परिवार का था । नावेद मध्यम वर्ग के परिवार का है। कसाब पेट के लिये लश्कर के साथ जुड़ा। नावेद इस्लाम के नाम पर जमात-उल-दावा के साथ जुड़ा। कसाब के वक्त लश्कर की पूरी ट्रेनिग तालिबानी अंदाज में थी। नावेद के वक्त इस्लाम और आईएसआईएस की थ्योरी ने जमात उल दावा की तकरीर में जगह ले ली थी। कसाब के वक्त लश्कर चीफ हाफिज सईद कश्मीर की आजादी के नाम पर उसी तरह गरीब परिवारो से एक लड़का मांगा करता था जैसे अफगानिस्तान में तालिबान के लिये लश्कर समेत आंतक की कई तंजिमो ने पाकिस्तान के गरीब इलाको में तक को हील रोजगार और ताकत से जोड़ दिया था। वहीं नावेद के वक्त तक पाकिस्तान में तालिबान को लेकर मोहभंग होने लगा था। और आईएसआईएस के जरीय इस्लामिक राज्य को नये तरीके से परिभाषित करने की दिशा में तमात-उल-दावा के चीफ हाफिज सईद ने तकरीर शुरु कर दी थी। तो 1986 में बने लश्कर तोएबा के भारतीय संसद पर हमले के बाद ही 2002 में जमात-उल-दावा बनाकर हाफिज सईद ने आंतक को सामाजिक कार्यों से जोड़ कर खुद को विस्तार दे दिया। और पाकिस्तान मे भी किसी सरकार ने पहले लश्कर फिर जमात-उल-दावा को रोकने की कोशिश इसलिये नहीं की क्योंकि सामाजिक- आर्थिक तौर पर जिन बदनसीब हालातो का सामना पाकिस्तान का एक बड़ा तबका कर रहा है उसमें लश्कर ने अपनी फौज में भर्ती कर गरीब परिवारों के लिये रोजगार के अवसर भी खोले और इस्लाम को लेकर पाकिस्तान के रईसों के सामने चुनौती भी रखी। जब दुनिया भर में लश्कर-ए-तोएबा पर प्रतिबंध लगाया जाने लगा तो जमात-उल-दावा बनाकर आंतकी गतिविधियों के लिये सामाजिक-आर्थिक कार्यो को ढाल बनाया गया।

लेकिन भारत के लिये यह सारे सवाल कोई मायने नहीं रखते है कि पाकिस्तान में किस तरह आंतक सामाजिक जरुरतों से जुड़ गया। लेकिन भारत सरकार यह अब भी नहीं समझ पा रही है कि पाकिस्तान ही नहीं दुनिया भर में आंतक की परिभाषा बदल रही है। और उसी की झलक हर शुक्रवार को जुमे की नवाज के बाद श्रीनगर ने निचले इलाके की जामा मस्जिद के बाहर आईएसआईएस के झंडे उसी तर्ज पर लहराते हैं, जैसे कभी पाकिस्तान के झंडे लहराया करते थे । अंतर सिर्फ झंडो का ही नही आया है बल्कि चेहरा ढक कर जो हाथ झंडे लहराते है और नारे लगाते है वह युवा चेहरे गरीब या अनपढ़ नहीं है बल्कि पढ़े लिखे है और अच्छे परिवारों से आते हैं। यानी कश्मीर में भी आतंकवाद का चेहरा बदल रहा है। अब कश्मीर का पढा-लिखा युवा मौजूदा मुफ्ती सरकार या दिल्ली की मोदी सरकार के खिलाफ नारे लगाते हुये अपनी मौजूदगी आतंक के साथ जोडने से नहीं कतरा रहा है । यानी एक तरफ लश्कर-ए-तोएबा और जमात-उल-दावा के साथ पाकिस्तान का पढा लिखा युवा जुड़ रहा है या कहें पहली बार पाकिस्तान के भीतर नजर यह भी आ रहा है कि कालेज और यूनिवर्सिटी तक में जमात-उल-दावा की तकरीर होती है । और जिस फैसलाबाद से नावेद निकला वहां के शहरी मिजाज और पाकिस्तान के तीसरे सबसे सपन्न जिले फैसलाबाद के कालेजों में भी हाफिज सईद बीते दो बरस में छह बार पहुंचे। यानी जिस नावेद का एक बाई कालेज में पढ़ाता है। एक भाई बिजनेस करता है । बहन यूनिवर्सिटी में पढ़ती है। उस परिवार से नावेद जमात-उल-दावा की तकरीर से प्रभावित होकर लश्कर से जुड़ता है। वही कश्मीर में डाक्टरी की पढाई करने वाले से लेकर इंजीनियर और पीएचडी करने वाले छात्र हाथो में बंधूक थाम कर जब खुद को आतंकवादी करार देने से नहीं कतराते और अपनी तस्वीर को सोशल मीडिया में शेयर करने से नहीं कतराते। तो संकेत साफ उभरते है कि युवाओं को मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाये या आंतकवाद को लेकर जो परिभाषा कश्मीर या दिल्ली की सरकारें अभी तक गढ़ती रही है और आतंकवाद पर नकेल कसने के लिये उसने जो भी उपाय किये है वह या तो फेल हो रहे है या उन्हीं तरीको को लेकर युवाओं में आक्रोश है।

पाकिस्तान की अपनी मजबूरी उसके पावर सेंटर को लेकर हो सकती है। क्योंकि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार के सामानांतर सेना और आईएआई की अपनी भूमिका ना सिर्फ बड़ी है बल्कि मौजूदा वक्त में तो नवाज शरीफ के हर कदम के उलट पाकिस्तानी सेना प्रमुख राहिल शरीफ ने पहल की है । लेकिन भारत में तो ऐसा बिलकुल नहीं है । चुनी हुई सरकार के साथ विदेश नीति को लेकर तो विपक्ष भी हम शा साथ खड़ा होता है। लेकिन पहली बार कश्मीर में पढे-लिखे युवा ही नहीं बल्कि कभी मुंबई, तो कभी हैदराबाद , कभी बैगलूर तो कभी केरल से किसी ना किसी युवा की आवाज आईएसआईएस को लेकर उभरती है तो नया सवाल यह होता है कि क्या आतंक की नई परिभाषा को गढते आईएस के लेकर युवा तबका समझ नहीं पा रहा है । कह सकते है कि आतंकवाद को लेकर बारत सरकार की पॉलसी हमेसा जीरो टालरेन्स की रही है। और पाकिस्तान के लिये आंतकवाद एक नेशवल पालेसी के तौर पर उभरती दिखायी देती है। जहां उसके कर्ता-धर्ता अलग अलग वक्त में अलग अलग प्लेयर हो जायें। क्योंकि आज अगर पाकिस्तानी सेना और आईएसआई भारत में तकवादियो की घुसपैठ करा रही है तो याद कीजिये मुशर्रफ के वक्त सरकार ही कश्मीर की आजादी की राग अलापने से नहीं कतरा रही थी । लेकिन फिर सवाल भारत की ही है। कश्मीर की सबसे बडी समस्या आज भी दिल्ली की नजर में आतंकवाद है। लेकिन इसके उलट अगर हकीकत को समझने का प्रयास करें तो कश्मीर का सबसे बडा संकट वह पढा लिखा है जिसके सामने आगे बढ़ने का कोई रास्ता है ही नहीं । क्योंकि कश्मीर को जब दिल्ली भी तक की जमीन के तौर पर देखती है तो वहां के युवा के लिये रास्ते खुद ब खुद बंद हो जाते हैं । जबकि होना तो यही चाहिये कि श्रीनगर देश के अलग अलग हिस्सो से वीकएंड स्पाट हो जाये । यानी दिल्ली , मुंबई, हैदराबाद या बैंगलूरु से शनिवार-रविवार रात गुजारने की जगह बन जानी चाहिये । विकास की जिस चकाचौंध को दिश में सरकार लाना चाहती हैल उतने ही जीने के विक्लप कश्मीरी युवाओं के पास होने चाहिये। यानी देश की मुख्यधारा में कश्मीरी खुद को जुड़ा आ कैसे महसूस करें और उसके भीतर कैसे यह एहसास जागे कि वह भारत से ना सिर्फ जुडा हुआ है बल्कि उसी के लिये उसे जीना-मरना है। यह मुश्किल इसलिये नहीं है क्योंकि घाटी में कल तक अलगाववादी पाकिस्तान के हक में खड़े थे तो युवा भी राजनीतिक विकल्प के साथ पाकिस्तान के हक में नारे लगाता था ।
लेकिन मौजूदा वक्त में पाकिस्तान के नहीं बल्कि आईएसआईएस और फिलिस्तीन के झंडे लेकर युवा लहराता है तो जुमे की नवाज के बाद हुर्रियत नेता उमर फारुक भी युवाओ के साथ खड़े हो जाते हैं। यानी अलगाववादियों को भी समझ में आ रहा है कि कश्मीर में आंतकवाद की 1989 वाली परिभाषा बदल रही है और अगर कश्मीरी युवा ही कोई लकीर खिंचना चाहता है तो वह उसके साथ चलेंगे।

अंतर सिर्फ यह नहीं आना चाहिये कि दिल्ली को लेकर कश्मीरी युवा का गुस्सा बरकरार रहे। तो अब सवाल तीन है । पहला क्या सरकार को कश्मीर समझने के लिये कश्मीरी युवाओं को समझना होगा । दूसरा क्या पाकिस्तान के साथ बातचीत को उस धरातल पर लाना होगा जहा पाकिस्तानी सत्ता के तीन ध्रुव भी उभरे और आंतक को लेकर उसकी स्टेट पॉलिसी भी दुनिया के सामने आये । और तीसरा पाकिस्तानी घुसपैठ करने वाले आंतकवादियो को मारने की जगह नावेद की तर्ज पर पकड़ कर संयुक्त राष्ट्र या दुनिया के अन्य मंचो को सबूत के तौर ऐसे जीवित आतंकवादियों को दिखाना चाहिये। यानी अभी तक पाकिस्तान और आंतकवाद को लेकर जो रास्ते अपनाये गये उन्हें बदलने की जरुरत है। क्योंकि मौजूदा हालात यह भी बताते है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी पंजाब में खालिस्तान को फिर से जिवित करना चाहता है । और खालिस्तान को लेकर पाकिस्तान का के-टू यानी कश्मीर-टू फार्मूला कोई आज का नहीं है । बल्कि दो दशक पहल  ही इसकी बिसात बिछायी गई थी । लेकिन तब पंजाब पुलिस ने इसकी कमर तोड दी । लेकिन अभी पंजाब भी जिस तरह ड्रग का अड्डा है और वहा भी युवाओ के सामने मुख्यदारा को लेकर अंधियारी ज्यादा है । वैसे में गुरुदासपुर का हमला
चिंता का विषय तो है । और सबसे बडा सवाल यही है कि कश्मीर में अभी भी पाकिस्तानी घुसपैठ करने वाले आंतकवादियो को स्थानीय पनाह मिल रही है । नावेद के लिये सारे रास्ते अबु कासिम ने बनाये। लेकिन अबु कासिम के लिये कश्मीर में कौन रास्ते बताता रहा और कौन पनाह दिये हुये है यह भी सेना-पुलिस के पास जानकारी नहीं है । यानी नावेद तो रमजान के वक्त भारत में धुसा । लेकिन अबु कासिम तो 2008 में घुसा और कई आतंकी हिसा को अंजाम दिया । यानी किजिये तो 2013 में सेना के ट्रक पर किये गये हमले के पीछे भी अबु कासिम ही था, जिसमें 8 फौजी शहीद हो गये थे । ऐसे में आखिरी सवाल यही हाल कि जब 23 अगस्त को दिल्ली में पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज बारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मिलेगें तो कसाब के तर्ज पर नावेद को लेकर भी सबूत और डोजियर सौपने का जिक्र होगा । या फिर भारत पहली बार जिन्दा तकवादी को पकडने के बाद भी बातचीत कर दुनिया को नया संदेश देगा कि अब पाकिस्तान क लेकर भारत का रवैया सिर्फ आंतक के मद्देनजर नहीं है बल्कि पाकिस्तान के भीतर का सच भी अब वह दुनिया के सामने ले कर आयेगा । इंतजार कीजिये क्योकि यह हर कोई जानता है कि पाकिस्तान पड़ोसी है जिसे बदला नहीं जा सकता।

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