Friday, August 21, 2015

मोदी ट्विस्ट है डोभाल-अज़ीज़ मुलाकात


मोदी सरकार के लिये कल पहला दिन होगा जब पाकिस्तान के साथ कोई अधिकारिक स्तर की बातचीत का श्रीगणेश होगा। यानी सवा साल लग गये बातचीत की टेबल पर आने के लिये जबकि ताजपोशी के अगले ही दिन 27 मई 2014 प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली के उसी हैदराबाद हाउस में डेढ़ घंटे तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से बात की थी, जिस हैदराबाद हाउस में कल पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज से अजीत डोभाल मुलाकात करेंगे। तो यह सवाल हर जहन में कल जरुर उठेगा कि 27 मई 2014 और 23 अगस्त 2015 के दरम्यान दोनों देशो के बीच फासले कितने कम हुये। या फिर वह कौन से हालात है जिसने दोनो देशो को बातचीत की टेबल पर ला दिया। क्योंकि इस दौर में ऐसा कुछ भी नहीं बदला है जिसका जिक्र कर प्रधानमंत्री मोदी कह सके कि, “चुनाव से पहले पाकिस्तान को लेकर जो हम कहते थे अब उस रास्ते पर चल निकले हैं।“ हालात बिलकुल उलट हैं। फिर भी बातचीत होगी । हालात ही नहीं बल्कि मोदी सरकार ने ठीक साल भर पहले जिस हुर्रियत को वजह बनाकर विदेश सचिवों की बातचीत रद्द करने का निर्णय लिया था, वही हुर्रियत साल भर बाद यानी 23 अगस्त को ही कही ज्यादा बडे दायरे में दिल्ली में ही उन्ही सरताज अजीज के साथ मुलाकात करेगा जिन सरताज अजीज के साथ भारत के एनएसए अजीत डोभाल को बात करनी है। तो मोदी सरकार की पहली रणनीतिक हार कश्मीर के उन्हीं अलगाववादियों को लेकर हो गई जिसे खारिज कर पहले पाकिस्तान फिर जम्मू-कश्मीर चुनाव में अपनी जमीन तैयार करने का रास्ता तेवर के साथ दिखाया बताया गया। दूसरे हालात आतंकवाद को लेकर समझौता करने का है या आतंकवाद पाकिस्तान की स्टेट पालेसी नहीं है यह मानने का है। क्योंकि मुंबई हमलो के वक्त ही जब लश्कर-ए-तोएबा का फिदायीन अजमल कसाब जिन्दा पकड़ में आया था तो पहली आवाज भाजपा की ही संसद के भीतर उठी थी कि, “आतंकवाद पाकिस्तान की स्टेट पॉलिसी है और अब पाकिस्तान के साथ सारे राजनयिक रिश्ते तोड़ देने चाहिये। “ और संयोग देखिये कसाब के बाद जो दूसरा पाकिस्तानी आतंकवादी जिन्दा पकड में आया वह नवेद है। और पंजाब में गुरुदासपुर पर हमला हो या जम्मू-कश्मीर के उघमपुर में। दोनों हमलों को लेकर संसद में देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जबाब यही दिया कि आतंकी हमला करने वाले पाकिस्तान से आये। फिर आंतकी नवेद से पूछताछ में जब यह सच भी सामने आ गया कि लश्कर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान की खुफिया एंजेसी आईएसआई के आला अधिकारियो से भी नवेद की मुलाकात हुई ।

तो अगर सवाल फिर वहीं उठा कि आंतकवाद पाकिस्तान की स्टेट पालेसी है कि नहीं । और नवाज शरीफ की सत्ता और आईएसआई की सत्ता को दो अलग अलग ध्रूव मान कर क्या भारत को चलना चाहिये । तो क्या कल की मुलाकात पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की दूसरी बडी रणनीतिक हार नहीं होगी । और तीसरे हालात कहीं ज्यादा भाजपा के दिल के निकट है । क्योकि सीमा पार से फायरिंग । सीज फायर का उल्लघन । सीमा पर मरते जवान । यह सारे सवाल तो सवा बरस पहले चुनाव में जय जवान जय किसान के नारे के साथ ही देश में चुनाव प्रचार के वक्त गूंजा करते थे । एक तरफ चुनावी रैलिया तो दूसरी तरफ संसद के भीतर भाजपा का पाकिस्तान को लेकर सीधा हमला। याद किजिये तो 2012 में जो भारत पाकिस्तान के बीच आखिरी अधिकारिक मुलाकात थी, जिसमें 50 आंतकवादियो के नाम और उनके खिलाफ आरोपों के सबूत पाकिस्तान को सौपे गये थे तब ससंद में भाजपा ने ही सवाल उठाया था कि जब पाकिस्तान लाहौर घोषणापत्र को नहीं मानता । सीमा पर हमारे जवानों के सिर काट लिये जाते है । ऐसे में पाकिस्तान के साथ बातचीत का मतलब है भारत मां की रक्षा के लिये जान गंवाने वाले जवान सपूतो के शहीद होने का मखौल उड़ाना। तो क्या पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की यह तीसरी रणनीतिक कमजोरी है। क्योंकि हालात तो सीमा पर कहीं ज्यादा तेजी से बिगड़े हैं। सीजफायर उल्लघंन से आगे रिहाइश इलाको में भी गोलाबारी ने आम नागरिकों को अपने घर छोडने पर मजबूर किया है। यानी पाकिस्तानी सेना का रुख भारत के साथ बातचीत का नहीं है और यह बात आज भी भारत की ही खुफिया एजेंसी रॉ भी मान रही है । और इससे पहले भी मान रही थी। अंतर सिर्फ इतना आया है कि पहले विपक्ष में रहते हुये भाजपा ही नहीं आरएसएस भी एक सुर में पीओके पर हमला कर कश्मीर को वापस लाने की बोली बोलते रहे। और अखंड भारत के सपने को अपने जुबां पर जिलाये रहे। 26/11 के बाद संसद में ही भाजपा ने छह मौकों पर कहा कि सेना को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में घुस जाना चाहिये। और सरसंघचालक मोहन बागवत ही दो बार दशहरा के मौके पर नागपुर में शस्त्र पूजा के बाद यह बोलने से नहीं चूके कि अंखड भारत ही असल भारत है। और इसके लिये सेना को युद्द करना होगा जिसके लिये दिल्ली में बैठी सरकारों में नैतिक बल नही है। सवाल पाकिस्तान के साथ युद्द का नहीं है बल्कि पाकिस्तान देश की सियासत। देश की भावनाओं के साथ खिलवाड़। और राष्ट्रवाद के जिस पराकाष्ठा को छूने के लिये उपयोग में लगातार लाया गया है और लाया
जा रहा है उसका कोई त या कोई शुरुआत किसी भी सरकार के पास क्यों नहीं है । क्योंकि भाजपा के लिये ही पाकिस्तान को लेकर सत्ता में आने के बाद हालात इस कदर बदले है कि कल की मुलाकात में माना यही जा रहा हैल कि अजीत डोभाल पीओके में चल रहे आतकी कैंपो के लोकेशन और समूची जानकारी पाकिस्तान के सरताज अजीज को सौपंगे। 2012 में 50 आतंकियों की लिस्ट सौपी गई थी। इस बार 65 आतंकियों की सूची सबूतो के साथ सौपने की तैयारी है । यानी रास्ता घूम-फिर कर उस डिपलोमेसी की तरफ जा रहा है जहा नई बहस यह शुरु हो जाये कि अब पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार देश की पुरानी – पारंपरिक नीतियो को बदल रही है । यानी पाकिस्तान से बातचीत को लेकर भारत की पालेसी बदल रही है ।

क्योकि बातचीत रोकने के बाद भी अगर कोई नतीजा बीते 30 बरस में नहीं निकल पाया है और पाकिस्तानी सरकार लगातार बातचीत बंद करने के लिये भारत पर ही दोष मढती रही है तो नया सवाल यह भी है कि क्या मोदी सरकार अब पाकिस्तान को कोई मौका देना नहीं चाहती है । जिससे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में यह संदेश जाये कि भारत आंतकवाद को ढाल बनाकर बातचीत रोकता रहा है।  ध्यान दें तो मोदी सरकार की पाकिस्तान को लेकर पॉलिसी में कई स्तर पर बदलाव आया है। मसलन अब सीजफायर उल्लधन का जबाब सीमा पर दिया जा रहा है । टैरर अटैक में पाकिस्तानी आंतकवादी को जिन्दा पकड कर दुनिया के सामने लाने की नीति भी अपनायी जा रही है। और हुर्रियत को पाकिस्तान तरजीह दे लेकिन भारत कश्मीर में अलगाववादियो को महत्व नहीं देगा । लेकिन इससे होगा क्या। क्योंकि पाकिस्तान की बातचीत का आधार ही जब कश्मीर है और कश्मीर
में आतंक की नयी बिसात पढे-लिखे युवा कश्मीरियो के हाथों में लहराते आईएसआईएस के झंडे तले पनप रही है जिस पर पाकिस्तान में जमात-उल-दावा के मुखिया हाफिज मोहम्मद सईद गर्व करते है [ 14 अगस्त 2015 को लाहौर में भाषण ] । और पाकिस्तान के साथ आखिरी समझौते, लाहौर घोषणापत्र में जब इस बात का खुले तौर पर जिक्र किया गया कि पाकिस्तान अपनी जमीन पर आंतकवादियों को कोई जगह नहीं देगा तो फिर पाकिस्तान से बातचीत को लेकर पॉलिसी में बदलाव की वजह क्या हो सकती है। दरअसल भारत की सबसे बडी मुश्किल यही है कि सच और सत्ता के बीच विभाजन की त्रासदी आज भी सियासत करने से चूकती नहीं और कोई भी सत्ता इसी सच और मुश्किल से दो दो हाथ करने से कतराती है । मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने पाकिस्तान के बदले भारत में रहना चुना तो भी वह देश के नहीं बल्कि मुस्लिम नेता बने रहे इसके लिये नेहरु ने उन्हे कांग्रेस का टिकट रामपुर से दिया, जहां मुस्लिम बहुसंख्यक थे। और मौजूदा वक्त में एमआईएम सासंद असदुद्दीन औवेसी मोदी की सत्ता में इसलिये खलनायक हैं क्योंकि उनकी खलनायकी ही बहुसंख्यक हिन्दुओं के बीच भाजपा को चुनावी नायक बनाये रख सकती है। और राष्ट्रवाद की लौ पाकिस्तान से दो दो हाथ
करने की बात कहकर ही जगायी जा सकती है चाहे आंतकवाद का दायरा बढे या कश्मीर की युवा पीढी दिल्ली के जरीये ही हाशिये पर ढकेले जाने से हैरान-परेशान होकर आंतक की गलियो में भटकने कौ तैयार होती दिखी । यानी पाकिस्तान का सबसे सरल रास्ता बातचीत करने और बातचीत ना करने के फैसले के बीच आ खडा हुआ है इससे कौन इंकार कर सकता है । और सवा बरस पहले मोदी –नवाज की साडी-शांल की डिप्लोमेसी और सवा साल बाद डोभाल-अजीज की आंतकी कैप की लोकेशन और आंतकवादियो की नयी सूची सौपने की डिप्लोमैसी में वाकई कोई अंतर है । क्या इसका जबाब प्रधानमंत्री मोदी देश को दे पायेगें ।

1 comment:

Unknown said...

#deshdrohimedia is correct word for u morons ..shame on u #presstitutes