सर ये मछली खाइये । कांटा तो नहीं है । बोनलैस । एकदम ताजी । सर ये खीर खाइये । एकदम नये तरीके से तैयार । शुगर फ्री है । शानदार । मैनेजर खुद ही ख्नाना परोस रहा था और मंत्री-नेता का समूह चटखारे ले रहे थे । खाना शानदार है । जी सर । तो सर एक और मिठाई दें । अरे नहीं । तो एक अक्टूबर को विजन डाक्यूमेंट जारी करने का बाद पटना के मोर्य़ा होटल के कमरा नंबर 301 में जुटे बीजेपी के नेता और मोदी कैबिनेट के आधे दर्जन मंत्रियों के इस सामूहिक भोजन की इस तस्वीर के बीच मेरे हाथ में विजन डाक्यूमेंट की कॉपी आ गई । और आदतन आखरी पन्ने से ही विजन डाक्यूमेंट पढ़ना शुरु किया तो आखिरी लाइनों पर ही पहली नजर गई । कुल पचास वादों में 48 नंबर पर लिखा था सभी दलित,महादलित टोलों में एक मुफ्त रंगीन टीवी दिया जायेगा। और 47 वें नंबर पर लिखा था प्रत्येक गरीब परिवार को एक जोड़ा धोती साडी प्रतिवर्ष दिया जायेगा।
यानी गरीबी ऐसी कि साल में दो धोती-साडी । जिसकी कुल कीमत दो सौ रुपये से ज्यादा नहीं । और दो जून की रोटी के लिये जिंदगी गुजार देने वाले दलित-महादलितों को रंगीन टीवी देने का वादा । कही तो बिहार को लेकर जो नजरिया नेताओ के जहन में है या सत्ता पाने की होड में बिहार चुनाव विचारधारा की प्रयोगशाला के तौर पर देखा जा रहा है उसमें सत्ता और जमीनी सच में कितना अंतर है यह पटना के पांच सितारा होटल के कमरा नंबर 301 के माहौल से सिर्फ जाना-समझा नहीं जा सकता । दरअसल एक तरफ लाखों के बिल के साथ एक वक्त का लंच-नर है तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय के नारे तले बिहार के हालात को जस का तस बनाये रखने की सियासत । और इसके बीच बेबस बिहार की अनकही कहानियां । लालू यादव जीने की न्यूनतम जरुरतों पर ही बिहार को इसलिये टिकाये रखना चाहते है जिससे गांव चलते हुये पटना-दिल्ली तक ना पहुंच जाये । नीतिश कुमार साइकिल पर सवार बिहार के विकास माडल को न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के उस सामूहिक संघर्ष से जोडते है जहा भोग-उपभोग के बीच लकीर दिखायी दें ।
यानी हर क्षेत्र को छूने भर की ऐसी ख्वाइश जिससे हर तबके को लगे कि सीएम उनतक पहुंच गये । जाहिर है हर तक पहुंचने की नीतिश कुमार की सोच बिहार के बिगडे हालात को जातिय समीकरण और जातिय टकराव के बीच लाकर खडा कर ही देती है । और खुद ब खुद चुनाव प्रचार के दौर में एक आम बिहारी यह सवाल खुले तौर पर उछालने से कतराता नहीं है कि जब कुर्मी सिर्फ 4 फिसदी है तो नीतिश कुमार के रास विकल्प क्या है । और यादव अगर 15 फिसदी है तो लालू यादव के पास यदुवंशी गीत गाने के अलावे विकल्प क्या है । और 17 फिसदी मुसलमानों और 15 फिसदी उंची जातियों के पास अपना कुछ भी नहीं है तो दोनो को अपने सामाजिक सरोकार और आर्थिक जरुरतों के मद्देनजर देखने के अलावे और विकल्प है क्या। ऐसे में कोई नेता कुछ भी भाषण दें और दिल्ली से चलकर कोई मुद्दा कितना भी उछले उसका असर बिहार में होगा कितना यह मापने के लिये मौर्या होटल से भी बाहर निकलना होगा और पटना के अणे मार्ग की ताकत को भी चुनाव के वक्त खारिज करना होगा । क्योंकि जमीन पर जो सवाल है उसमें कौन किसकी ताकत को खत्म कर सकता है और किसकी ताकत जाति या समाज को आश्रय दे सकती है यह भी सवाल है । लालू यादव के वोटबैक की ताकत को बरकरार रखने के लिये नीतिश कुमार झुक गये और अंनत सिह को जेल जाना पड़़ा। लेकिन मोकामा ये अनंत सिह निर्दलीय चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंच जायेंगे इसे कोई रोक नहीं सकता । यह आवाज मोकामा के हर गली-सडक पर सुनी जा सकती है । क्योंकि मोकामा के लिये अंनत सिंह किसी राबिन-हुड की तरह है । और यहा की गलियों में ना तो नीतिश कुमार के शानदार सीएम होने का कोई असर है ना ही पीएम मोदी की ठसक भरी आवाज में विकासवाद का नारा लगाने की गूंज । हां, लालू यादव को लेकर गुस्सा है । तो क्या हुआ । लालू का वोट पावर सब पर भारी है तो वह मनमर्जी करेगें । वोट-पावर का मतलब है जो वोट डालने पहुंचे । खगडिया के सुरेश यादव को यह बोलते हुये कोई शक –शुबहा नहीं है कि लालू की जीत का मतलब यादवो की सामाजिक ताकत में बढोतरी । यानी हर यादव की पुलिस सुनेगी । और नहीं सुनेगी तो लालू यादव उस पुलिस वाले को हटाकर न्याय कर देगें । तो सामाजिक न्याय का मतलब क्या है । लालू के पोस्टर सिर्फ पटना में चस्पा है जिसपर लिखा गया है कि , जब रोटी को पलट दिये तो कहते है जंगल राज । यानी सामाजिक न्याय की लालू की जंगल राज की कहानी का पोस्टर सिर्फ पटना में ही क्यों चस्पा है । इस अनकही कहानी पर से पर्दा उठाया प्रधानमंत्री मोदी की बांका रैली में पहुंचे सूरज यादव ने । उनकी अपनी व्याख्या है । यादव को सामाजिक न्याय पर नहीं सामाजिक ताकत पर भरोसा है । उसे लगता है कि उसकी लाठी हर किसी को हाक सकती है । और जब सामाजिक ताकत नहीं होती तो यादव मेढक की तरह दुबक कर बैठ जाता है । लेकिन अब यादव को लगने लगा है कि नीतिश के जरीये लालू की सत्ता लौट सकती है । तो यादव को भी लगने लगा है कि मेढकों के बाहर निकल कर कूदने का वक्त आ गया । मजा यह है कि जो बात बांका के अमरपुर में एक गांव वाला कहता है उसे ही अपने तरीके से पटना में मौजूद एक आईपीएस कहता है । पुलिस अधिकारी का मानना है कि लालू यादव के मेढक तो मोहल्ले मोहल्ले में मौजूद है । बीजेपी सत्ता में आयेगा तो उसे अपने मोढको को बनाने में वक्त लगेगा लेकिन लालू सत्ता में लौटते है तो सभी यादव कूदते-फांदते सड़क पर आ जायेगें । यानी बिहार के लिये बदलाव का मतलब उतना ही वक्त है जितने वक्त में सत्ता के मेढक हर चौक-चौराह पर कूदने की स्थिति में आये । यानी बिहार में जंगल राज भी सियासी शब्द है और विकासवाद भी । और इसकी सबसे बडी वजह सत्ता की वह मानसिकता है जहां उसे सत्ता में आते ही तीन स्तर के झटके आते हैं। यह तीन स्तर के झटके क्या होते हैं।
तो पटना के नामी डाक्टर की माने तो पहली झटका सत्ता पाने के बाद सत्ता समेटने की चाहत होती है । जिसे जात के लोग पूरा करते है और भीतर भीतर उबाल भी मारते है । दूसरा झटका सत्ता का स्वाद खुद चखने से ज्यादा अपने विरोधियो को चखाने का स्वाद लेना होता है । इसमें भी जात के लोग आगे आते है और जातीय टकराव के साथ अपनी जाति की सत्ता का एहसास कराते है । और तीसरा झटका सत्ता में आते ही सत्ता ना गंवाने का होता है । इसके लिये राजनीतिक प्रयास भी जातिय वोट बैंक पर ही आ टिकते है । भागलपुर दंगों के बाद कांग्रेस मुसलमान को संभाल नहीं पायी तो दंबगई के जरीये लालू यादव के मुसलमानो की कमजोर आर्थक हालातो को यादवों की ताकत तले ढकेला ।
पांच बरस बाद पसमांदा का सवाल खड़ा किया। नीतिश भी सत्ता में आने के बाद सत्ता बरकरार रखने के लिये महादलित के सियासी प्रयोग को लेकर चल पडे । और बीजेपी भी सत्ता में आने के लिये जातिय राजनीति को ही धार दे रही है । चाहे उसका नाम सोशल इंजीनियरिंग का रख रही हो । यूं बिहार की त्रासदी पटना में सुकून देती है क्योंकि पटना में लोकतंत्र है । लेकिन पटना से बाहर निकलते ही लोकतंत्र पीछे छूटता है तो त्रासदी धाव बनकर गुस्सा और आक्रोष पैदा करती है । दरअसल लोकतंत्र का मतलब है कमाई । ताकत । लालू सत्ता में आ जाये तो पुलिस महकमा खुश हो जायेगा । उसका ताकत बढेगी क्योकि दारोगा तक को हर उत्सव में हर खाता-पीता घर निमंत्रण देगा । जिससे अपराधी डरे । यानी छुट्मैया मेढक छंलाग मारने की कोशिश ना करे । वहीं डाक्टर भी खुश । क्योकि कमाई बढेगी । गोलियां चलेगी । जातीय संघर्ष होगा । हर कोई खुले-आम अपनी ताकत दिखायेगा तो नर्सिग होम का महत्व पढ़ जायेगा । वैसे यह किस्सा एक डाक्टर ने सुनाया कि जब पहली बार अंनत सिंह को गोली लगी तो कोई भी डाक्टर इलाज के लिये भर्ती करने से कतराने लगा। लेकिन जिस डाक्टर ने इलाज किया उसे शूटर का ही फोन आया कि अंनत सिंह मर गया तो एक करोड रुपये देंगे । अंनत सिंह बच गया । तो डाक्टर का मुरीद हो गय़ा । और उसके बाद जो भी अपराधी या राजनेता गोली खाता वह उसी डाक्टर के पास जाने लगा । कमाल यह भी है कि जातीय संघर्ष में कमाई और बिहार की गरीबी को बरकार रखने की सोच ने सोशल इंडेक्स भी बिहार में पैदा कर रखा है । यानी हर वस्तु सस्ती लेकिन उसे पाने के लिये अलग से रकम देनी ही होगी । मसलन पटना की सडकों पर बड़े बड़े बैनर पोस्टर किसी भी दूसरे राज्य के चुनाव से इतर दिखायी देगें । बाकि जगहो पर कोई भी पोलिटिकल पार्टी बचना चाहती है कि पोस्टर-बैनर चस्पा कर
वह क्यो अपना खर्च बढाये । लेकिन बिहार में पोस्टर-बैनर चस्पा करने का खर्च बेहद कम है । कल्पना कीजिये कि समूचे पटना में अगर चालीस फीट के दर्जन भर बैनर कोई लगा लें तो भी खर्चा लाख रुपये नहीं पहुंचेगा । लेकिन बैनर पोस्टर लेने के लिये अलग से दस लाख से ज्यादा रकम देनी होगी।
कमोवेश यह सोशल इंडेक्स ऐसा है जो बिहार के प्रति व्यक्ति आय के सामानातंर हर वस्तु की किमत दिखाता बताता है लेकिन उसे पाने के लिये जितना पैसा होना चाहिये वह किसी रईस के पास ही हो सकता है । तो कालेधन की सामानांतर अर्थव्यवस्था सिस्टम का ही कैसे हिस्सा है यह बिहार में नौकरशाही और व्यापारियों की माली हालत देख कर समझी जा सकती है जिनके बच्चे बिहार से बाहर और बारह फिसदी के बच्चे तो विदेशो में पढ़ते है । हर किसी का दिल्ली में कई फ्लैट है । बिहार से निकल कर दिल्ली पहुंचे कई बिल्डर है जो बिहार
में दिल्ली के घर बेतने के लिये कैंप लगाते है और हर बार खुश होकर लौटते है क्योकि बिहार में नौकरी करने वाला हो या दुकान चलाने वाला वह बिहार में संपत्ति रखने के बजाय दिल्ली या देश के दूसरे हिस्सो में लगाता है । यानी बिहार जस का तस दिखायी देते रहे लेकिन बिहार से कालेधन या मुनाफाबनाकर बिहार के बाहर संपत्ति बनाते जाये । तो बिहार की पांरपरिक सत्ता हर किसी के अनुकूल है जो अपने अपने दायरे में सत्ता में है । लेकिन
बाहर क्या आलम है । बाहर किसान सडक या इन्फ्रास्ट्रक्चर क्या मांगे।
सत्ता ही किसान से उसका इन्फ्रास्ट्रक्चर छीन लेती है । जिससे किसान गुलाम बनकर रहे । मसलन खगडियो दुनिया में सबसे ज्यादा मक्का पैदा करने वाला जिला है । लेकिन 52 फिसदी किसान गरीबी की रेखा से नीचे है । और इसकी सबसे बडा वजह है मक्का के औने पौने दाम में बिकना । और इसकी सबसे बड़ी वजह खगडिया का किसान खगडिया के बाहर मक्का लेकर जाये कैसे । हालात कितने बदतर है इसका अंदाज इससे भी लग सकता है 2009 में बीपी मंडल पुल बनाया गया । जिस सड़क से जुड़ा वह पुल होने के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग में बदल दी गयी।
तो दो सौ करोड़ से ज्यादा की लागत से बना पुल ही टूट गया । फिर 19 करोड़ की लागत से स्टील का पुल बनाया गया । यह पुल 19 महीने भी नहीं चला । और पुल ना हो तो वान से नदी पार करनी ही पडेगी और इसके लिये विधायक या कहा सत्ताधरियो को घर बैठे हर महीने तीन से चार लाख की कमाई शुरु हो गई । भागलपुर में भी यही हाल । कहलगांव जाते वक्त त्रिमुहान और गोगा गांव के बीच तीन पुल है लेकिन कभी पुल काम नहीं करता क्योंकि वहा भी वही नजारा । किसान मजदूर को इस पार उसपार जाना कतो है ही । तो नाव सेवा और नाव वा
के मतलब है सत्ता की बैठ बैठे लाखो की कमाई । वहां कांग्रेस के सदानंद सिंह की सत्ता है । जो राजनीति में आये तो संपत्ति अंगुलियो पर गिनी जा सकती है लेकिन वक्त के साथ साथ विधायक महोदय इतने ताकतवर हो गये कि संपत्ति तो आज कागजों और दस्तावेजों में भी नहीं गिनी जा सकती । और कहलगांव सीट पर जीत इस तरह पक्की है कि सोनिया गांधी ने भी बिहार में चुनाव प्रचार के लिये अपनी पहली सभा कहलगांव में ही रखी । और बीते चालीस बरस से कहलगांव के किसानो की आय में कोई बढोतरी हुई ही नहीं । स्कूल, कालेज या हेल्थ सेंटर
तो दूर रोजगार के लिये कोई उघोग भी इस क्षेत्र में नहीं आ पाया । उल्टे तकनीक आई तो कहलगांव एनटीपीसी में भी छंटनी हो गई । वैसे बिहार को जातीय राजनीतिक के चश्मे से हटकर देखने की कोशिश कोई भी करें तो उसे चुनाव से बडा अपराध कुछ दिखायी देगा नहीं । क्योंकि जिस चुनाव में प्रति उम्मीदवार चुनाव आयोगके नियम तले चालिस लाख खर्च कर सकता है वहा बिहार में 243 सीटो में से 108 सीट ऐसी है जहा चालिस लाख का बेसिक इन्फ्र्स्ट्रक्चर भी अगर लोगो की जिन्दगी को आसान बनाने के लिये खर्च कर दिया जाये तो भी लोगो का भला हो । नेता कैसे सत्ता में कर बिहार की अनदेखी करते है इसकी एक मिसाल रामविलास पासवान का वह कोसी कालेज है जहा से वह पढ कर निकले । कोसी कालेज 1947 में बना और 2015 में इस कालेज में बिजली तक नहीं है । 4500 छात्र-छात्राएं पढ़ते है । लेकिन पढाने वाले हैं सिर्फ 16 टीचर । छात्रों से फिस ली जाती है बारह और चौदह रुपये । और पढाई एमए और एमएससी तक की है । छात्राओं को फीस माफ है । और नीतिश कुमार ने साइकिल बांट दी है तो सामाजिक विकास का तानाबाना साइकिल पर सवार होकर कालेज की चारदिवारी को छूने से ज्यादा है ही नहीं । कालेज की लेबोर्ट्री हो या कन्वेशन हाल । घुसते ही आपको लग सकता है कि पाषण काल में आ पहुंचे । लेकिन गर्व किजिये कि कालेज की इमारत तो है ।
जिसे चुनाव के वक्त अर्धसैनिक बलो के रहने के लिये प्रशासन लगातार कालेज के प्रचार्य पर दबाब बना रहा है और प्रचार्य अपनी बेबसी बता रहे है कि जवान कालेज में रुकेगें तो कुछ दिन पढ़ाई ही ठप नहीं होगी बल्कि जो टेबल – डेस्क मौजूद है उसके भी अस्थि पंजर अलग हो जायेगें । औपृर हर डेस्क की किमत है साढे तीन सौ रुपये । यानी मोर्या होटल में एक प्लेट मछली की कीमत है तेरह सौ रुपये । जिसे कितने नेता कितने प्लेट डकार लेते होंगें इसकी कोई गिनती नहीं । पटना हवाई अड्डे पर चौपर और हेलीकाप्टर की तादाद चुनाव में इतनी बढ गई है कि शाम ढलने के बाद उन्हे गिनने में अंगुलिया कम पडा जाये । 15 से 25 लाख तक की एसयूवी गांडिया का काफिला समूचे बिहार के खेत-पगडडी सबकुछ लगातार रौद रहे है । लेकिन कोई यह जानने समझने और देखने की स्थिति में नहीं है कि एसी कमरे, एसी गाडी और एसी के ब्लोअर से बनाये जा रहे प्रधानमंत्री के चुनावी मंच का खर्चा ही अगर बिहार के विकास के लिये इमानदारी से लगा दिया जाये तो छह करोड़ अस्सी लाख वोटर के लिये एक सुबह तो होगी । नही तो लालू के दौर का पुलिस महकमे का सबसे मशहुर किस्सा । रात दो बजे राबडी देवी का फोन पटना एसी को आया । साहेब को परवल का भुछिंया खाने का मन है । और रात दो बजे एसपी साहेब परवल खोजने निकल पड़े ।
Friday, October 9, 2015
बिहार का सच दफन कर लोकतंत्र का राग
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:10 AM
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4 comments:
Aap ka ye article pad ke pata chalta h ki bihar mein naksalvadi kyun badte ja rahe hain......kyun naksalvaadu aandolan badte ja rahe hain.........bahut badiya likha h sir aapne
Bahut badiya likhte hain sir aap....aapka har article bahut dhyaan se padta hn.......yunhi likhte rahiye sir
ये लोकलुभावनी सरकारे देश में चंद रोटिया फेंक लोगो के गले में वोट बैंक का पटटा बांध रही हैं ,
सर आपने शीशे के सामने बिहार को तोला है परन्तु यह दुभागयपुन घटना पुरे भारत वर्ष में होती है लेकिन हिन्दुस्तानी बड़ी आसानी से सोच लेते हैं कि भारत दुनिया का नंबर एक देश बने। जब तक हमारे देश के राजनीति के कचरे को बाहर नहीं निकाला जाता
तब तक इस देश का कुछ नहीं हो सकता।।
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