राहुल गांधी का लालू प्रसाद यादव की तरफ हाथ बढ़ाना। राहुल गांधी का शपथग्रहण के बीच झटके में खड़ा होना और अपने ही विरोधियों से लेकर भिन्न विचारधारा के नेताओं से भी हाथ मिलाना। चाहे वह अकाली दल के नेता हो या शिवसेना के। या फिर केजरीवाल हो । यानी ना वक्त ना मौका हाथ से जाने देना। तो क्या काग्रेस अब बीजेपी की स्थिति मे है और बीजेपी कांग्रेस की स्थिति में। यानी बीजेपी के खिलाफ देश भर के राजनीतिक दलों को एकजुट कर अपने आस्त्तिव की लडाई कुछ इसी तरह कांग्रेस को लड़नी पड़ रही है जैसे एक वक्त कांग्रेस के खिलाफ खडी हुई वीपी सिंह सरकार को समर्थन देने के लिये बीजेपी और वामपंथी एक साथ आ गये थे। यानी पटना गांधी मैदान ने यह साफ संकेत दे दिये कि बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता अपने अपने राज्य में सामाजिक दायरे को बढाकर बीजेपी को चुनावी जीत से रोक सकती है और केन्द्र में कांग्रेस हर राजनीतिक दल को एक साथ लाकर संसद से सडक में मोदी सरकार और बीजेपी के लिये मुश्किल हालात पैदा कर सकती है। पटना गांधी का मंच वाकई उपर से देखने पर हर किसी को लग सकता है कि मोदी के राजनीतिक विकल्प के लिये बिहार ने जमीन तैयार कर दी है। लेकिन गांधी मैदान के जुटान के भीतर की उलझी गुत्थियों को समझने के बाद यह लग सकता है कि शपथ ग्रहण के बहाने समूचे देश के नेताओ का यह जुटान इतना पोपला है कि कि जो विरोध यह सभी अपने अपने स्चर पर करते सभी ने मिलकर उसी की हवा निकाल दी। क्योंकि इस जुटान में ना सिर्फ इनके अपने अंतरविरोध है बल्कि अपनी ही जमीन को भी इन नेताओं ने सरका लिया है।
मसलन केजरीवाल और लालू की गले मिलने की तस्वीर इतिहास में दर्ज हो गई। यानी आंदोलन से लेकर दिल्ली की सत्ता पाने तक के दौर में भ्रष्टाचार को लेकर जो कहानियां केजरीवाल दिल्ली और देश की जनता को सुनाते रहे वह ना सिर्फ लालू के साथ गलबहियो ने खारिज कर दिया बल्कि मंच पर शीला दीक्षित। शरद पवार और हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की मौजूदगी ने तार तार कर दिया । यानी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ केजरीवाल के तेवर अगर कडे दिखायी दे रहे थे तो उसके पीछे अभी तक केजरीवाल की वह ताकत थी जो उन्हे भ्रष्ट नेताओं से अलग खड़ा करती थी। लेकिन अपनी राजनीति को विचारधारा में लपेट कर अगर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचे तो गांधी मैदान के मंच ने उसी विचारदारा को धो दिया जिस विचारधारा को वाकई राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था । लेकिन उसकी सियासी गूंज वैसी ही थी । दूसरी तस्वीर ममता और वामपंथियों के एक साथ एक मंच पर मौजूदगी ने एक तरफ शारदा घोटाले की आवाज को गठजोड की नयी सियासत तले मान्यता दे दी। तो दूसरी तरफ यह सवाल भी खड़ा कर दिय़ा कि वामपंथी बंगाल देखे या मोदी को। ममता को संभाले या बडे गठजोड़ के लिये सबकुछ भूल जाये। यानी अपने आसत्तिव का संघर्ष और मोदी सरकार से टकराव दोनों अगर आपस में टकरा रहे है तो फिर रास्ता दिल्ली की तरफ कैसे जायेगा।
वही असम में कांग्रेस और डेमोक्रेटिक फ्रंट के बदरुद्दीन अजमल मंच पर एक साथ थे तो असम की राजनीति में दोनो एक साथ कैसे आ सकते हैं। यानी असम में अपने आस्त्तिव को मिटाकर कांग्रेस के साथ मोदी को ठिकाने लगाने के लिये बदरुद्दीन अजमल क्यों आयेंगे यह भी दूर की गोटी है । फिर शिवसेना और अकाली के नेताओ की मौजूदगी मोदी सरकार को हड़का तो सकती है लेकिन शिवसेना कांग्रेस के साथ कभी आ नहीं आ सकती और अकाली दल बीजेपी का साथ छोड नहीं सकता क्योकि 1984 के दंगे बार बार कांग्रेस के खिलाफ सियासी हवा को तीखा बनाते है । तो फिर मोदी के खिलाफ दोनों कांग्रेस या नये गठबंधन में कैसी और किस तरह की भूमिका निभायेगें यह भी दूर की गोटी है । और आखरी सवाल जो इस मंच पर नहीं दिखा वह है मुलायम मायावती का मंच से दूर रहना । जबकि बिहार के बाद आने वाले वक्त में सारी राजनीति यूपी में ही खेली जायेगी । और जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ दोनो है या दोनो ही सत्तानुककुल होकर एक दूसरे के खिलाफ रहते है उसमें ना तो काग्रेस का साथ फिट बैठता है और ना ही मोदी का विरोध । और यही से यह सवाल बडा होता है कि 2014 के लोकसभा के जनादेश के बाद जब दिल्ली विधानसभा में बीजेपी तीन सीट पर सिमट गई तब राजनीति व्यवस्ता के विकल्प की सोच लोगो की भावनाओ के साथ जुडी थी । और बिहार के जनादेश ने चुनावी जीत के रथ को रोक कर अजेय होते मोदी को घूल चटा दी। लेकिन भारतीय राजनीति का असल जबाब फिर उसी सिरे को पकड कर ठहाका लगाने लगा जहा एक तरफ दुनिया की नजर बिहार पर थी और सरकार बनने पर जो निकला वह सिर्फ लालू के वंश की सियासत ही नहीं बल्कि वह फेरहिस्त निकली जहां देश को चुनावी जीत के रास्ते जाना किधर है यह भी घने अंधेरे में समाना लगा। क्योंकि उपमुख्यमंत्री - नौवीं फेल तो स्वस्थ्य, सियाई और पर्यावरण मंत्री 12 पास है। वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री,ग्रामीण विकास मंत्री भी बारहवीं पास हैं। तो पंचायती राज मंत्री मैट्रिक पास भी नहीं कृषि मंत्री मैट्रिक पास है। और इन सभी के पास एसयूवी गाडियां जरुर हैं।
Friday, November 20, 2015
गांधी मैदान से निकला क्या?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:18 PM
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3 comments:
"राजनेतिक शिष्टाचार" भी स्थान रखता है।
पुण्य जी आपने मेरे देहरादून आनेके न्योते को "शिष्टाचारवश" स्वीकार किया जबकि आपके पास मेरा कोई सम्पर्क नही।
आपके लेख की कमी ये प्रतीत होती है कि आप वर्गीकरण में चूक गये--जैसे कि जिस खांचे में आप रख रहे हैं तो वहां राजीव प्रताप रुड़ी और वेंकैया नायडू भी थे तो उनकी क्या संभावना है CPM से गठजोड़ की ?
मेरा मानना है दो वर्ग हैं---(१) मोदीपरस्त---सुखबीर,नायडू,रूडी,शिव सेना
(२) मोदी विरुद्ध--ममता,केजरीवाल,सीताराम येचुरी,फारुख अब्दुल्ला,उमर अब्दुल्ला,राहुल गाँधी
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