Friday, February 5, 2016

अब देश का कंधा नहीं सत्ता का धंधा देखें

दलित, किसान और अल्पसंख्यक । तीनों वोट बैक की ताकत भी और तीनों हाशिये पर पड़ा तबका भी । आजादी के बाद से ऐसा कोई बजट नहीं । ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना नहीं , जिसमें इन तीनो तबके को आर्थिक मदद ना दी गई हो और सरकारी पैकेज देते वक्त इन्हे मुख्यधारा में शामिल करने का जिक्र ना हुआ हो । नेहरु को भी आखिरी दिनों [ 1963-64 ] में किसानों के बीच राजनीतिक रैली के लिये जाना पड़ा और लालबहादुर शास्त्री ने तो जय जवान के साथ जयकिसान का नारा लगाया। पटेल से लेकर मौलाना कलाम तक मुस्लिमों को हिन्दुस्तान से जोड़ते हुये उन्हे उनके हक को पूरा करने का वादा करते रहे । आंबेडकर से लेकर वीपी सिंह तक दलितो के हक के सवालों को उठाते रहे । साधते रहे । तो मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी अगर किसान रैली की तैयारी कर रहे हैं और राहुल गांधी दलित अधिवेशन करना चाह रहे है तो कई सवाल एक साथ निकल सकते है । पहला , क्या देश को देखने का नजरिया अभी भी जाति , धर्म या किसान-मजदूर में बंटा हुआ है । दूसरा , राजनीतिक मलहम में ऐसी कौन सी खासियत है जो सियासत को राहत देती है लेकिन समाज को घायल करती है । तीसरा, अगर हिन्दू राष्ट्र की सोच तले मुसलमान खुद को असुरक्षित मानता है तो फिर बढती विकास दर के बीच भी किसानो की खुदकुशी अगर बढ़ती है । गरीबो के हालात और बदतर होती जाती है । तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठ पाता कि सांप्रदायिकता हो या अर्थ नीति दोनो में ही अगर नागरिकों की ही जान जा रही है तो फिर सवाल हिन्दू-मुस्लिम या गरीब-बीपीएल में क्यों उलझा दिया जाता है ।

यानी अपराध है क्या और देश के विकास के लिये कौन सा मंत्र अपनाने की जरुरत है । इस पर संविधान कुछ नहीं कहता या फिर राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीको ने संविधान को भी हड़प लिया है ।  क्योंकि जिस रास्ते पर मौजूदा राजनीति चल रही है अगर इसके असर को ही देख लें तो दलित उत्पीड़न के मामले बीते तीन बरस में ही पचास फिसदी बढ़ गये । 2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीडन के थे । तो 2015 में यह आंकडा 50 हजार पार कर गया । किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई । सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा । करीब साढे चार हजार किसानो ने खुद को इसलिये मार लिया क्योंकि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की । वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे । और कर्ज बढता जाता । कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली । खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानो ने ग्रामीण बैक से कर्ज लिया था । यानी साहूकारी या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे । बल्कि खुद सरकार ही थी । उसी का तंत्र था । वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बडी कंपनियों को करीब तेरह लाख करोड़ दे चुका है और वह आजतक लौटाया नहीं गया । और एनपीए की यह रकम लगातार बढ़ ही रही है।  इससे हटकर सरकार ही औद्योगिक संस्थानों या कारपोरेट सेक्टर को हर बरस अलग अलग टैक्स में ही तीन लाख करोड़ माफ कर देती है । लेकिन खेती और उससे जुडे संस्थानो पर दो लाख करोड़ की सब्सिडी सरकार को भारी लगती है । इसी तर्ज पर अलग दलित और मुस्लिमों के आर्थिक-सामाजिक हालात को परख लें तो हैरत होगी कि सांप्रदायिक हिंसा में 70 फिसदी मौत अगर इस तबके की हुई तो देश में दरिद्रता की वजह से होती मौतों में दलित आदिवासी और मुस्लिमों की तादाद 90 फिसदी के पार है । तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है कि क्या हिन्दुस्तान का मतलब सिर्फ वहीं 12 से 20 फीसदी है जिसकी जेब में जीने के सामान खरीदने की ताकत है । जिसके पास पढने के लिये पूंजी है ।

जिसके पास इलाज के लिये हेल्थ कार्ड है । कह सकते है हालात तो यही है । क्योंकि मौजूदा वक्त में किसी राज्य के पास किसानों के लिये कोई नीति नहीं है । दलित उत्पीड़न रोकने की कोई सोच नहीं । हिन्दू-मुस्लिमों के सवाल को साप्रदायिक हिंसा के दायरे से बाहर देखने का नजरिया नहीं है । क्योंकि सत्ता पाना और सत्ता में टिके रहने का हुनर ही अगर गवर्नेंस है तो हर की हालत एक सरीखी है । चाहे वह सरकार कर्नाटक में कांग्रेस की हो या फिर गुजरात झारखंड, महाराष्ट्र,हरियाणा , छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की । या फिर आंधप्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की या तेलगांना में केसीआर की । या फिर उडिसा में नवीन पटनायक की या यूपी में अखिलेश यादव । हर राज्य में सूखा है । आलम यह है कि देश के 676 जिले में ले 302 जिले सूखाग्रस्त है । और इनकी पहचान उस शाईनिग इंडिया की सोच से बिलकुल अलग है जो हर राज्य का सीएम राजधानी में बेठकर देखना चाहता है । बारिकी को समझे तो हर सीएम चकाचौंध खोजने के चक्कर में गांव और किसान को अंधेरे में ढकेल रहा है । यही वजह है कि न्यूनतम जरुरत पूरी करने के लिये बनाये गये कार्यक्रम मनरेगा और खाद्द सुरक्षा मौजूदा वक्त में इतना महत्वपूरण हो गया है कि सुप्रिम कोर्ट को भी कहना पड रही है कि इसे लागू क्यो नहीं
किया गया । मुश्किल इतनी भर नहीं है कि 2013-14 में जो कृर्षि विकास दर 3.7 फिसदी थी । वह 2014-15 में घटकर 1.1 फिसदी हो गई । मुश्किल यह है कि एक तरफ वित्त मंत्री देश की विकास दर 8 से 9 फिसदी तक पहुंचाने को बेहद आसान मान रहे है । तो दूसरी तरफ भारत सूखे की वजह से जमीन के नीचे पानी इतना कम हो गया है कि हैडपंप की बिक्री में 30 पिसदी की कमी आ गई है । टैक्टर की बिक्री में 20 फिसदी की कमी आ गई है 20 फिसदी किसान मजदूर का पलायन बढ गया है । जो किसान गांव में है वह हार्ट्रीकल्चर और पेड लगाने के काम से जा जुडे है । यानी काम वहा भी कम हो रहा है । दूसरी तरफ शहरो में मजदूरो के बढते बोझ ने उनकी मजदूरी को स्थिर कर दिया है । यानी न्यूनतम मजदूरी में कोई वृद्दि नहीं है । और हर राज्य सरकार का रुख भी उस इक्ननामी पर जा टिका है जो अपनी जमीन , अपने मानव संसाधन और अपने उत्पाद से दूर हो । यानी विदेशी निवेश के जरीये शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर की प्रथमिकता तले ही बेहाल भारत की यह तस्वीर उभर रही है । तो फिर गडबडी महज सिस्टम की नहीं है बल्कि सिस्टम को किस तंत्र के तहत चलाना है गड़बडी वहीं है । और सिस्टम का मतलब ही राजनीतिक सत्ता पाना हो जाये तो उस  नमूना पहले बिहार में नजर या अब असम में नजर  रहा है । बिहार से पहले दिल्ली चुनाव में केन्द्र के 39 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर वोटरो को सरकार के करीब लाने की कोशिश की । फिर बिहार में 27 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर बिहार में चुनाव जीतने में मशक्कत की । और अब असम चुनाव है तो प्रधानमंत्री मोदी 5 परवरी की रैली के बाद सात कैबिनेट मंत्रियो की रैली की तैयारी में असम है । सुषमा स्वराज , नीतिन गडकरी, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्मला सीतारमण, नजमा हेपतुल्ला के अलावे बंगाल और असम के जो भी मोदी सरकार में मंत्रीन है सभी को चुनाव एलान से पहले जाकर असम में रैली करनी है । वादे करने है । यानी चुनाव होगें तो केन्द्रीय मंत्री भी पहुंचेगें लेकिन सरकारो के पास अगर कोई नीति ही नहीं है कि देश किस रास्ते जाना है तो एक दौर का असफल मनरेगा भी अन्हे सफल वगेगा और राजनीतिक जीत के लिये केन्र्य मंत्रियो का समूह ही उम्मीद जगायेगा । जाहिर में ऐसे में समाज के भीतर अंसतोष तो पनपेगा ।

वजह भी यही है कि न्यूनतम के लिये ही 2005 में नरेगा को समाज की भीतर शाकअब्जरवर माना गया । यानी किसान-मजदूर, दलित मजदूर, गरीबी में जिन्दगी गुजारने वाले अल्पसंख्यक तबके के भी   राजनीतिक सत्ता को लेकर अंसतोष ना पनपे इसके लिये नरेगा लाया गया था । जिसके पांच बरस पूरे हुये तो याद किजिये देश में राजनीतिक बहस क्या छिडी । बहस थी नरेगा से मनरेगा होने वाली स्कीम के फेल होने का । क्योकि मजदूरी बढी नहीं , किसानी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई । मनरेगा रोजगार से किसी योजना को अमली जामा पहनाया नहीं गया । मनरेगा बजट की लूट हर स्तर पर हुई । फिर एक वक्त मनमोहन सिंह को भी समझ में नही आया था कि मनरेगा और फूड सिक्यूरिटी को लेकर वह बजट कहा से लायेगा । और मनरेगा को लेकर यह सवाल प्रदानमंत्री मोदी का भी सत्ता संभालते वक्त रहा । लेकिन जिस इक्नामी को मोदी सरकार अपनाये हुये है उसमें गांवों में अंसतोष ना पनपे इसके लिये मनरेगा मोदी सरकार के लिये भी शाकअब्जर्वर का काम करने लगी ।यानी असफल योजना के सामने खुद सफल ना हो तो इसके लिये योजनायें कैसे सफल हो जाती है इसका हर चेहरा नेहरु के दौर से लेकर अभी तक की योजनाओ तले समझा जा सकता है । क्योकि दलितो और आदिवासियों को मुख्यधारा से जोडने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर बीते 68 बरस में 2450 से ज्यादा योजनाये बनायी गई । दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमो का एलान किया गया । लेकिन   52 के पहले चुनाव और 2014 के चुनाव के बीच अंतर यही आया कि धीरे धीरे हर संस्था चाहे वह संवैधानिक संस्था हो या दबाब समूह के तौर पर काम करने वाली सामाजिक संस्था । हर संस्था राजनीतिक सत्ता की जद में आ गई । और राजनीति सत्ता के लिये ही दलित, आदिवासी, किसान , मुस्लिमों की पहचान बना दी गई ।

1 comment:

Anonymous said...

जनाब आप बहुत नकारात्मक सोच के इंसान हो, नकारात्मकता में केजरू की पार्टी और उसके समर्थक न्यूज़ ट्रेडर्स का कोई मुकाबला नहीं।