दिल्ली ! सत्ता का प्रतीक। ताकत का अहसास। लोकतंत्र की दुहाई। संविधान के रास्ते चलने के वादे को ढोती दिल्ली। लोकतंत्र के हर पाये की स्वतंत्रता का सुकून छिपाये दिल्ली। बिहार-बंगाल में जंगल राज हो सकता है, दिल्ली में नहीं। यूपी में सत्ता जाति में सिमटी दिखायी दे सकती है, लेकिन दिल्ली में नहीं । विकास की अनूठी पहचान बना चुका पंजाब आतंक से लेकर ड्रग्स में डूब जाता है , लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हो सकता। तमिलनाडु तमाम विकास के दावे करते हुये भी अम्मा भोजन के भरोसे जीता है , लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं होता । महाराष्ट्र की सियासत कभी लुंगी को पुंगी बनाने की धमकी देती है तो कभी यूपी-बिहार के लोगो को घुसने से रोकने पर नहीं कतराती और सत्ता खामोशी से तमाशा देखती है। लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हो सकता । राजस्थान-हरियाणा-यूपी में सत्ता के भरोसे दामादों को सहूलियत दी जा सकती है लेकिन दिल्ली में ये संभव नहीं है।
दिल्ली ने तो आपातकाल के दौर में सत्ता के राजकुमार से भी दो दो हाथ किये । और दिल्ली में तो नौकरशाही भी मंडल–कमंडल के दौर में टकराए। अदालतों ने भी ग्रीन दिल्ली से लेकर टूजी तक में ना सिर्फ अपने फैसलों से सत्ता को हकबकाया । बल्कि जेल की सीखचों के पीछे कारपोरेट-नेता-मंत्री तक को पहुंचाया। यूं हर दौर में दिल्ली की ताकत लुटियन्स की दिल्ली में सिमटी दिखी। साउथ ब्लाक से लेकर आईआईसी तक के चेहरे सत्ता का मुखौटा कुछ यूं लगाते कि लड़ाई राजपथ की हो या जनपथ की, बात भ्रष्टाचार की हो या घोटालों की, सबकुछ संसद के भीतर बाहर समझौतों में ही सिमट जाता । लेकिन इस दौर में एक आस मीडिया ने जगाई। जब जब देश में ये बहस हुई कि मीडिया सत्ता की चाकरी कर रही है, तब किसी एक्टिविस्ट की तर्ज पर दिल्ली में ही एक
मीडिया संस्थान ने इंदिरा की सत्ता से दो दो हाथ किये। इमरजेन्सी के दौर में संघर्ष करते हुये सत्ता पलटने में खासी भूमिका निभायी। इंडियन होने के बावजूद इंदिरा इज इंडिया कहने वालो से वह मीडिया संस्थान टकराया । जब बोफोर्स घोटाले के आग सत्ता के खिलाफ सत्ता के भीतर से निकली तो दक्षिण भारत से निकलने वाले एक अखबार ने सत्ता की हवा सच छाप कर निकाल दी। हिन्दुत्व के दायरे में सबसे बेहतरीन हिन्दू शब्द के तेवर अखबार की रिपोर्टिग ने दिखला दिये। और जब देश में सत्ता का दामन हवाला रैकेट में फंसा तो एक संस्थान ने बेहिचक ऐसी रिपोर्ट छापी कि सत्ता का ऊपरी आवरण ही ढहढहाकर गिर गया । तो दिल्ली में पत्रकारिता का अपना सुकून है । क्योंकि यहा लोकतंत्र भी जागता है तो मीडिया के हमले सत्ता को भी लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते हैं। और सत्ता भी अपने अपने तरीके से मीडिया पर हमले कर लोकतंत्रिक व्यवस्था के बरकरार रखने के लिये एक सियासी वातावरण खुद ब खुद तैयार करती चली जाती है।
लेकिन इस बार हालात बदले हैं। तरीका बदला है। लोकतंत्र की परिभाषा भी बदली बदली सी लग रही है। क्यों........क्योंकि खबर को छूने से हर कोई कतरा रहा है। हर कोई जान रहा है कि खबर सत्ता की चूलें हिला सकती है लेकिन हवा में तैरती सत्ता की मदहोशी ने पहली बार खुमारी कम खौफ ज्यादा पैदा कर दिया है। तो इंदिरा की सत्ता को एक वक्त चुनौती देने वाला मीडिया संस्थान भी खामोश है। एक वक्त बोफोर्स घोटाले से सत्ता की कमीशनखोरी से देश में सियासत गर्म करने वाला अखबार भी खामोश रहना चाहता है। हवाला के जरीये लाखों की हेराफेरी करने नेताओं के नाम तक छापने वाला और कागज में दर्ज हस्ताक्षर और छोटे छोटे इंगित करते नामों की पूरी व्याख्या करने वाला मीडिया संस्थान भी इस बार खामोश है। कहीं रिपोर्टर तो कही संपादक तो कही मालिक ही सिमटे है। लेकिन खबर सबको पता है । खबर छापने का दंभ भरने वाले दिल्ली के तमाम ताकतवर मीडिया संस्थानों की हवा पहली बार दस्तावेजों को देखकर ही हवा हवाई क्यों हो रही है? तो क्या दिल्ली बदल चुकी है? लोकतंत्र की परिभाषा भी अब दिल्ली की अलग नहीं रही । या फिर पहली बार सत्ता ने हर संस्थान को सत्ता का हिस्सा बनाकर लोकतंत्र का अनूठा पाठ शुरु कर दिया है । जहां सहूलियत है । जहां खौफ है । जहां बदलाव है । जहां मुनाफा है । जहां सत्ता ना बदल पाने की सोच है। जहां विकल्पहीन हालात हैं। जहां धारा के खिलाफ चलने पर बगावती होने का तमगा लगने वाली स्थिति है। यानी पत्रकारिता कुछ इस तरह गायब की जा रही है, जहां रिपोर्टर को भी लगने लगे कि वह सत्ता के सामने या सत्ता के पीछ खड़ा है। संपादक भी मैनेजर नहीं बल्कि वैचारिक तौर पर लकीर के इस या उस पार खड़ा होने का सुकून भी पाल रहा है और हवा में घुलते राष्ट्रवाद को राजपथ पर चलते हुये ही देख-समझ पा रहा है। तो क्या पहली बार मीडिया के लिये खबर छापना या ना छापना पत्रकारिता या धंधा नहीं राष्ट्रवाद है।
राष्ट्रवाद पहली बार अदालत के दायरे में नही लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था चुनावी राजनीति में जा सिमटा है। जो जीते उसी का राष्ट्रवाद सबसे बेहतरीन । जिसका अपना संविधान है । और इस संविधान के दायरे में एक सा खुलापन है, जहां बोलने का आजादी है । जहा कुछ भी खाने-पीने की आजादी है । जहां चीन-अमेरिका को लेकर तर्क करने की आजादी है । जहां आतंक पर चर्चा की पूरी गुंजाइश है । जहां विदेशी निवेश को स्वदेशी मानने की पूरी छूट है। जहा भ्रष्टाचार ,घूसखोरी, कमीशनखोरी, नीतियों के लागू ना होने के हालात पर आरोप लगाने की छूट है। और संविधान से मिली इस स्वतंत्रता को भोगने के लिये सिर्फ बिना कहे ये समझने की जरुरत है कि देश से बढ़कर कुछ भी नहीं। और देश का मतलब ही सत्ता है। और सत्ता पर कोई आंच पांच बरस तक नहीं आनी चाहिये, इसकी जिम्मेदारी नागरिकों की है । क्योंकि पहले की सत्ता में देश के नाम पर धंधा करने वाले मौजूदा दौर में तो समझ चुके हैं कि उनका मुनाफा, उनकी सहूलियत, उनकी सुविधा का खास ख्याल रखा जा रहा है । सवाल है कि कैसे लोकतंत्र का यह मिजाज अनंतकाल के लिये हो जाये। बस यही समझ नहीं आ रहा है क्योंकि जो खबर दिल्ली के बाजार में है। जो खबर हर कोई जान रहा है। जिस खबर को देखकर हर पत्रकार की बांछे खिल जाती हैं। जिस खबर के छपने से पत्रकारीय साख मजबूत हो जाती है। फिर भी उस खबर को कोई क्यों खुद से अलग कर रहा है। इस दिलचस्प कहानी के भीतर इतने चरित्र हैं, जिन्हें कुरेदना दिल्ली को दौलताबाद ले जाने से कम नहीं है। आइये फिर भी मीडिया संस्थानों की अट्टलिकाओ में घुस कर देखा जाये मुश्किल है कहां। क्योंकि हर मीडिया संस्धान के भीतर खबरों को लेकर नायाब तरीके की उथल-पुथल लगातार चल रही है। और खामोशी से हर कोई खबरों से ज्यादा बदलते देश की तासीर को समझ कर खामोश है कि जो खबरों के झंडाबरदार उस दौर में बने पड़े हैं दरअसल वह रामलीला के चरित्रो को जीते हुये अपनी अपनी भूमिका को ही सच मान रहे हैं।
“आपको जिसके खिलाफ लिखना है लिख लें, लेकिन इन दो को छोड़ना होगा"
"क्यों, तब तो बहुत ही मोटी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी।"
" ये तो बेहद महीन लकीर खिंचने की बात है। बाकी तो आपको हर पर कलम चलाने की छूट है। अब आप लोग जो समझें। लेकिन हम झुकते नहीं हैं और हमारी पत्रकारीय धार का लोहा दुनिया मानती है। तो सोचिये धार भी बरकरार रहे और समझौता होते हुये भी ना लगे कि हमने कुछ छुपाया। ठीक है।"
“नहीं हम ऐसी खबरो के पीछे नहीं भाग सकते जिसे छापना मुश्किल हो । रिपोर्टरो को भी ऐसी खबरो के पिछे मत भगाइये । नहीं तो वह खबर ले कर आयेंगे । दस्तावेज जुगाड कर लायेंगे । उन दस्तावेजो को लेकर आप उन्हें लंबे वक्त तक जांच कर रहे हैं, कहकर भटका भी नहीं सकते है । तो इस रास्ते पर चले ही नहीं।"
"और अगर कोई भूले भटके ऐसी खबर ले आया जो हमारे अखबार के खांचे में सही नहीं बैठती है तो"
" ......तो क्या आप सिनियर है । आप संपादक है । अब ये हुनर तो आपके पास होना ही चाहिये ।"
"खबरों को आने से मत रोकिये । जो आ रही है आने दें । लेकिन कोई भी ऐसी खबर जो देश की हवा बिगाड दे उसे ना छापें। ना ही डिस्कस करें ।"
"लेकिन ऐसी खबरों का मतलब होगा क्या । देश की हवा का मतलब क्या है ? पाकिस्तान से युद्द का माहौल या आतंकवाद को लेकर कोई गलत पहल। "
"ना ना ....देश की राजनीति को समझिये । इस दौर में देश संकट से भी गुजर रहा है और विकास की नई परिभाषा गढने के लिये मचल भी रहा है । तो हमें देश के साथ खडा होना होगा। जो देश के हक में निर्णय ले रहा है उसके हक में ।"
"तब तो विपक्ष की राजनीति का कोई मतलब ही नहीं होगा । और उनके कहे को कोई मतलब ही नहीं बचेगा।"
" सही । आपकी खबर ही ये तय कर देगी कि जो सही है आप वहीं खडे हैं ।"
"तो फिर गलत या सही-गलत के बीच फंसने की जरुरत ही क्या है ।"
अखबारी जगत के तीन मित्रो की तीन कहानियां। ये शॉर्टकट कहानी है। क्योंकि संपादकों को बीच मौजूदा दौर में कहे जाने वाले शब्द और अनकहे शब्दों के बीच रहकर आपको सही गलत का पैसला करना होगा । तो अपने अपने संस्धानों को लेकर पत्रकार मित्रो के बीच संपादकों की इस बैठक को कितना भी लंबा खींचें। इसी बीच मुझे एक दिन एक पुराने मित्र ने कॉफी पीने का ऐसा आंमत्रण दिया कि मैं चौक गया । यार दो तीन घंटे। कॉफी पीते हुये बात करेंगे।
वह तो ठीक है। लेकिन शाम के वक्त दो तीन घंटे। बंधु शॉर्टकट में बतला देना।
और आखिर में तय यही हुआ कि जहॉ मुझे लगेगा कि मै बोर हो रहा हू तो मैं चल दूगा । शाम छह बजे फिल्म सिटी के सीसीडी पहुंचा। मित्र इंतजार कर रहे थे। बिना भूमिका उसने नब्बे के दशक में हवाला रैकेट
के दौर के दस्तावेजों और उस दौर की अखबार–मैग्जिन की रिपोर्टिंग दिखाते हुये पूछा कि क्या इस तरह के दस्तावेज अब कोई मायने रखते हैं।
बिलकुल मायने रखते हैं।
मायने से मेरा मतलब है कि अगर किसी दस्तावेज पर इसी तरह देश के तमाम राजनेताओ के नाम दर्ज हो तो क्या आज की तारीख में कोई मीडिया संस्धान छाप पायेगा।
ये क्या मतलब हुआ। अरे यार कोई भी दस्तावेज जांचना चाहिये। गलत भी हो सकता है।
मौजूदा दौर में जब सबकुछ सत्ता में जा सिमटा है तो फिर एक भी गलत खबर या कहें बिना जांचे परखे किसी दस्तावेज को सही कैसे कोई मान लेगा। और तुम खुद ही कह रहे हो कि राजनेताओं को कठघरे में खड़ा करने वाले दस्तावेज । जो भी सवाल मेरे जहन में उठे मैंने झटके में कह दिये। लेकिन मेरे ही सवालो को जबाब देकर मित्र ने फिर मुझे
कहा.....यार खबर गलत होगी तो हम यहां क्यों बैठे होते । मैं चर्चा क्यों कर रहा होता। जरा कल्पना करो सिस्टम चल कैसे रहा है । आप संस्धानों को टटोलेंगे । आप अधिकारियो से पूछेंगे । आप खबरों की कड़ियो को पकडेंगे । तथ्यों को उनके साथ जोडेंगे । और अगर सब सही लगे तब किसी संपादक का क्यों रुख होना चाहिये। तुम ही बताओ कि अगर तुम होते तो क्या करते। जाहिर है लंबी बहस के बाद ये ऐसा सवाल था जिसका जबाब तुरंत मैं क्या दूं। मेरे जहन में तो मौजूदा दौर के सारे हालात उभरने लगे। मौजूदा हालातों से टकराते उस दौर के हालात भी टकराने लगे, जब सत्ता में एक खामोश पीएम हुआ करते थे । दिल्ली में पत्रकारिता का सुकून ये तो है कि आप सत्ता की चाकरी करने वालों से लेकर सत्ता से टकराते पत्रकारों को बखूबी जान समझ लेते हैं। एक दौर में राडिया। एक दौर में भक्ति। एक दौर में धंधा। एक दौर में संघी। तो क्या इस या उस दौर में पत्रकारिता उलझ चुकी है। या उलझी पत्रकारिता को पहली बार पत्रकार ही सत्ता की गोद में बैठ कर सुलझाने लगे हैं। लेकिन सवाल को खबर का है । और सवाल मुझसे मेरा मित्र क्यों पूछ रहा है मैंने थाह लेने की कोशिश की । क्यों ये सवाल तो कोई सवाल हुआ नहीं । मुझे अजीब सा लग रहा था ये कौन से हालात हैं।
मैंने जोर से उसकी बात काटते हुये कहा , यार तुम ये सब मुझे कह रहे हो जबकि तुम खुद जिस जगह काम करते हो......वहां के संपादक । वहा का प्रबंधन तो खबरों पर मिट जाने वाले हैं। और तुम तो भाग्यशाली हो कि ऐसी जगह काम करते हो जहां खबरों को लेकर कोई समझौता नहीं होता ।
गुरु ...सही कह रहे हो । लेकिन जरा सोचो हम कर क्या करें।
मैंने भी भरोसा दिया, रास्ता निकलेगा। और हम मिलकर रास्ता निकालेगें। हम दो चार दिन में फिर मिलते है । तुम मुझे भी वो दस्तावेज दिखाओ । मै भी देखता हूं
.....अरे यार तुम्हारे ये न्यूज चैनल कितने भी बड़े हो जाये..कितना भी कमा लें लेकिन एक चीज समझ लो देश की सुबह आज भी अखबारो से होती है।
अरे ठीक है यार रात तो चैनलों से होती है। तो तय रहा अगली मुलाकात में
......लेकिन ये लिखते लिखते सोच रहा हूं अब अगली मुलाकात.....तो आप भी इंतजार कीजिए...
(जारी....)
Sunday, July 31, 2016
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किन्हें नाज है मीडिया पर ........ |
Saturday, July 30, 2016
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ये मेरा इंडिया |
दिल्ली देश की राजधानी । सड़क कम गाड़ियां ज्यादा । बारिश कम लोग ज्यादा। अगर आप इस हुजूम में फंस गये तो क्या रात क्या दिन। बसर सड़क पर ही हो जायेगी। तो लाखो की गाड़ी हो या करोड़ों का बैंक बैलेंस । सडक पर इस तरह फंसे तो सबकुछ धरा का धरा रह जायेगा। क्योंकि यहां सिस्टम नहीं पैसा काम करता है। और पैसा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं सुविधा देखती है । तो जनता के लिये 20 मेट्रो , 10 हजार बस टेम्पो टैक्सी पर अस्सी लाख कार इस कदर हावी है कि आधी उम्र तो सडक पर गाड़ी में बैठे बैठे बीत जाती है क्यों ये दिल्ली है । लेकिन झांकी अगर देश की देखनी हो तो फिर नजर आयेगा सिर्फ पानी । पानी और सिर्फ पानी । जी ये हाल उत्तराखंड , यूपी, बिहार, बंगाल, असम समेत आधे भारत का है । और इस पानी तले खेती की दो करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन डूबी हुई है। यानी देश में खेती की कुल 15 करोड 96 लाख हेकटेयर जमीन में से 2 करोड़ 30 लाख ङेक्टेयर जमीन डूबी हुई है। खेती की जमीन पर निर्भर साढे तीन करोड किसान-मजदूरो के परिवारों को कोई पूछने वाला नहीं । 215 से ज्यादा जान बीते हफ्ते भर में पानी की वजह से जा चुकी है। और ये वही देश है, जहां बीते साल भर में सूखे के वजह से 1800 से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी कर ली । तो सूखे से जुझना और बरसात में पानी में डूबना देश का ऐसा अनूठा सच है जहां इक्सवी सदी में विकास का हर नारा झूठा लगता है । और बच्चों को कौन सा पाठ पढाये ये सवाल बन जाता है । क्योंकि मुश्किल कल की नहीं मुश्किल तो आज की है । दिल्ली से सटे गाजियाबाद में स्कूल की फीस ना चुका पाने के हालात एक लड़की को खुदकुशी करने पर मजबूर कर देते हैं । क्योंकि मां बाप से ही स्कूल के शिक्षक मारपीट करने लगते हैं । और बेरोजगारी की त्रासदी हर दिन दो सौ से ज्यादा बच्चों को घर छोडने पर मजबूर करने लगे ।
तो आने वाले वक्त में कौन सी पौध देश संभालेगी ये सवाल इसलिये क्योंकि संविधान के तहत दिया गया शिक्षा का अधिकार भी कटघरे में दिखायी देता है । खासकर तब देश का सच ये हो कि 22 फिसदी बच्चे तो अब भी स्कूल नहीं जा पाते । -8 वी तक 37 फिसदी बच्चे मजदूर बनने के लिये स्कूल छोड़ देते हैं। 10 वीं पास करने वाले महज 21 फीसदी बच्चे होते हैं। सिर्फ दो फिसदी उच्च शिक्षा ले पाते है । और उसमें से भी 70 फीसदी देश में पढाई के बाद काम नहीं करते सभी विदेश रवाना हो जाते है । और इसी देश में शिक्षा के नाम पर कमाई करने वाले हर बरस साढ़े चार लाख करोड़ का कारोबार करते है । सरकार के शिक्षा के बजट से तीन गुना ज्यादा रईस परिवार अपने बच्चों को विदेश में पडाने के लिये हर बरस खर्च कर देते है । और तो देश कहां जा रहा है कौन सोचेगा । ये भी तो नहीं कह सकते ये सब कल की बाते है इन्हें छोड दें । क्योंकि जो कल बन रहा है उसका सच यही है कि देश की इक्नामी ही चंद हथेलियों पर सिमट रही है । हालात किस दिशा में जा रहे है ये इससे समझा जा सकता है कि देश की कुल इक्नामी 65,20,000 करोड की है । जिसमें 10,00,000 करोड का कर्ज सिर्फ 12 कारपोरेट ने लिया है । सीबीआई बैक फ्राड के 150 मामलों की जांच कर रही है जिसकी रकम महज 20,000 करोड है । तो देश की मजबूती किन हाथों में सौपे खासकर तब जब देश में सबसे ज्यादा व्यवस्था मोबाईल पर आ टिकी है । क्योंकि हाथों में मोबाईल से पानी के खौफ को भी सेल्फी में उतारने का जुनून है तो लातूर जैसे सूखे इलाके में पानी लाने की जगह सूखे को ही सेल्फी में उतारने की सोच मंत्री की है । तो क्या विदेशी पूंजी । विदेशी तकनालाजी से रास्ता निकल सकता है । क्योंकि स्वदेशी की सोच विदेशी पूंजी तले कैसे काफूर हो गई और मान लिया गया कि एफडीआई के जरीये देश विकास के रास्ते चल सकता है । उद्योग धंधों में रफ्तार आ सकती है । रोजगार बढ सकता है । तक्नालाजी का आधुनिकरण हो सकता है । जबकि उद्योग धंधों की रफ्तर रुकी हुई है । रोजगार पैदा हो नहीं पा रहे । नई इंडस्ट्री लग नहीं रही । खेती-उघोग का योगदान जीडीपी में घटते घटते 1950 के 86 फिसदी से घटते घटते 34 फिसदी पर आ गया है । और स्वदेश का पाठ वाकई पीछे छूट गया । जो हुनर को रोजगार देता । जो रोजगार से सरोकार बनाता । जो सरोकार से देश बनाता । और जो देश को एक धागे में पिरोता है । तो इस अक्स में जरा स्मार्ट सिटी के सच को समझ लें । क्योकि जिस वक्त दिल्ली में स्मार्ट सिटी पर राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था । उसी वक्त दिल्ली से सटे मिलेनियम सिटी यानी गुडगांव में सबकुछ ठप पडा था । और पीएमओ में राज्य मंत्री जीतेन्द्क सिंह ये समझा ही नहीं पा रहे थे कि आखिर स्मार्ट सिटी होगें कैसे । क्योकि अभी तो हम जिन शहरों को हम साइबर सिटी से लेकर स्मार्ट शहरों के रुप में जानते-पहचानते आए हैं-उनका हाल कैसे हर किसी को बेहाल कर देता है ये हर बरसात में सामने आ जाता है तो सवाल उन स्मार्टसिटी का है,जिन्हें स्मार्ट बनाने का दावा करते हुए कहा तो यही जा रहा है कि स्मार्टसिटी बनते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन सच तो यही है कि स्मार्ट सीटी का तमगा जिन शहरो को दिया गया है वहा के इन्फ्र्सट्क्चर को मजबूत माना गया ।
यानी स्मार्ट शब्द उस आधुनिकता से जुडा है जहा टेकनालाजी पर टिकी पूरी व्यवस्था होगी । तो क्या स्मार्ट सीटी में पैर जमीन पर नहीं आसमान में रखे जायेंगे । क्योंकि देश में सौ स्मार्ट सिटी के लिये जो बजट है और शहरी व्यवस्था को सुधारने का जो बजट है अगर दोनो को मिला दिया जाये तो 7296 करोड़ रुपया है । जिसमें स्मार्ट सीटी के लिये 4091 करोड बजट रखा गया है । तो कल्पना किजिये जो गुडगांव सिर्फ एक बरसात में कुछ ऐसा नाले में तब्दील हुआ कि वहां 22 घंटे का जाम लग गया और हालात नियंत्रण में लाने के लिये धारा 144 लगानी पडी । उस गुडगांव नगर निगम का सालाना बजट 2000 करोड़ का है । यानी गुडगांव के अपने बजट से सिर्फ दुगने बजट में देश में 20 स्मार्ट सिटी बनाने की सोची गई है । और असर इसी का है कि सरकारी स्मार्ट सिटी की रैकिंग में नंबर एक पर भुवनेशवर में भी बारिश हुई नहीं कि शहर की लय ही बिगड गया । तो सवाल दो है । स्मार्ट सीटी का रास्ता सही दिशा में जा नहीं रहा या फिर भारतीय मिजाज में स्मार्ट सीटी की सोच ही भ्रष्टाचार की जननी है । क्योंकि गुडगांव ही नहीं बल्कि बैंगलोर हो या मुबंई । या फिर देश का कोई भी शहर। किसी भी शहर का इन्फ्रास्ट्रक्चर इस तरह तैयार किया ही नहीं गया कि अगल दस से बीस बरस में शहर की आबादी हर नजर से अगर दुगुनी हो ये तो क्या शहर की व्यवस्था चरमरायेगी नहीं । 70 से 90 के दशक के बाद से किसी शहर के इन्फ्रस्ट्क्चर में कोई बदलाव किया ही नहीं गया । 30 एमएम से ज्यादा बरसात होने की निकासी की कोई व्यवस्था किसी शहर में नहीं है । जबकि दस लाख से उपर की आबादी वाले सौ से ज्यादा शहरों में बीते दो दशक में आबादी तीन गुना से ज्यादा बढ गई । ग्लोबल वार्मिग ने मौसम बदला है । लेकिन बदलते मौसम का सामना करने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर बदल कर मजबूत कैसे किया जाये इस दिशा में कोई गंभीरता किसी सरकार ने कभी दिखायी ही नहीं । और स्मार्ट सीटी का खाका तैयार करने वाले नौकरशाहों के आंकडों को समझें तो उनके
मुताबिक 13 करोड लोगो को स्मार्ट सिटी के बनने से फायदा होगा । यानी सवा सौ करोड के देश में जब जीने की न्यूनतम जरुरतों के लिये -हर बरस गांव से 80 लाख से एक करोड ग्रामीणों का पलायन शहर में हो रहा है । तो शहरो के बोझ को सहने की ताकत बढ़ाने की जरुरत है या गांव को स्मार्ट या कहें सक्षम बनाने की जरुरत है। या कहे देश की इकनामी से ग्रामीण भारत को जोड़ने की जरुरत है। अगर ये नहीं होगा तो देश में स्मार्ट इलाके तो बन सकते है जो असमान भारत के प्रमाण होंगे । जिन्हे ठसक के साथ दुनिया को दिखाया जा सकेगा कि ये इंडिया है।
Wednesday, July 27, 2016
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संघ परिवार को संतुष्ट करना है मोदी सरकार का काम ? |
26 महीने बीत गए और 34 महीने बाकी हैं । तो विपक्ष हो या संघ परिवार के भीतर के संगठन पहली बार खुले सवाल लेकर हर कोई अपना रास्ता बनाने की दिशा में बढना चाह रहा है । और प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करते हुये एकतरफ क्षत्रप एकजुट हो रहे है । तो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर संघ परिवार में विरोध के स्वार ना उठे उसकी मशक्कत खुद सरसंघचालक मोहन भागवत और सुरेश सोनी अब खुलकर कर रहे हैं। हालात को परखें तो नीतिश कुमार संघ परिवार पर सीधे चोट कर देश भर के साहित्यकार लेखकों को जमा कर अपनी राजनीतिक हैसियत बिहार के बाहर राष्ट्रीय स्तर पर देखना चाह रहे हैं। यानी निगाहों में 2019 अभी से समाने लगा है। ममता बनर्जी संघीय. ढांचे का सवाल उठाकर ना सिर्फ मोदी सरकार पर सीधी चोट कर रही है बल्कि नीतीश कुमार और केजरीवाल से मुलाकात कर 2019 की बिसात तीसरे मोर्चे की दिशा में ले जाने का प्रयास कर रही है ।
केजरीवाल तो सीधे अब प्रदानमंत्री मोदी से टकराने के रास्ते निकल पड़े हैं । इसलिये हर उस मुद्दे के साथ खुद को खड़ा कर रहे हैं, जहां मोदी पर सीधे निशाना साधा जा सके । जाहिर है बिहार, बंगाल और दिल्ली की इस आवाज में कितना दम होगा या 2019 तक क्या ये वाकई कोई विकल्प बना पायेंगे ये अभी दूर की गोटी है । लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के लिये असल सवाल तो संघ परिवार को अपने साथ सहेज कर रखने का है । क्योंकि दूसरी तरफ बीएमएस मोदी सरकारी की आर्थिक नीतियों को मजदूर विरोधी मान रहा है । और उसे लग रहा है कि ऐसे में उसके सरोकार मजदूर संगठन के तौर पर कैसे बचेगें । तो स्वदेशी जागरण मंच के सामने मुस्किल हर क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर बढती मोदी सरकार की लालसा है । ऐसे में ििस्वदेशी जागरण मंच के सामने अपनी महत्ता को बनाये रखने का होता जा रहा है। वहीं संघ के भीतर के ठेंगडी गुट को लगने लगा है कि मोदी सरकार की इक्नामी वाजपेयी दौर के ही समान है तो वह अब खुली अर्थव्यस्था के विकल्प का सवाल उटा कर ये चेताने लगा है कि अगर चुनाव अनुकुल इक्नामी नहीं अपनायी गई तो 2019 में चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जायेगा । लेकिन खास बात ये है कि संघ परिवार के भीतर की हलचल की आंच मोदी सरकार पर ना आये इसके लिये शॉक आब्जर्वर का काम खुद संघ के मुखिया मोहन भागवत और दो बरस बाद छुट्टी से लौटे सुरेश सोनी कर रहे हैं।
और दोनों ही स्वयंसेवक इस हालात को बनने से रोक रहे है कि 2004 वाले हालात 2019 में कही ना बन जाये जब स्वयंसेवको ने खुद को वाजपेयी सरकार के चुनाव से खुद को अलग कर लिया था । इसीलिये दिल्ली के गुजरात भवन में आर्थिक नीति को लेकर तो दो दिन पहले हरियाणा भवन में शिक्षा नीति को लेकर जिस तरह संघ के मुखिया की मौजूदगी में संघ के संगठनो के नुमाइन्दे और सरकार के आला मंत्रियों से चर्चा हुई । उसने ये संकेत तो साफ दे दिये मोदी सरकार के हर मंत्रालय का कच्चा चिट्ठा अब आरएसएस देखना नहीं बताना चाहता है । यानी संघ की लकीर पर सरकार कैसे चले । और जहा ना चले वहा तालमेल कैसे बिठाये । क्योकि आर्थिक नीतियों पर संघ परिवार की तरफ से और सरकार की तरफ से बैठा कौन ये भी कम दिलचस्प नहीं । संघ के सात संगठन बीएमएस , स्वदेशी जागरण मंच, किसान संघ , ग्राहक पंचायत, लघु उघोग भारती, सहकार बारती, दीनदयाल संस्धान बैठ तो दूसरी तरफ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ अरुण जेटली । वैकेया नायडू, पीयूष गोयल, निर्माला सितारमण, कलराज मिश्र , बंडारु दत्तात्रेय । तो शिक्षा नीति को बनाने के लिये संघ के विघा भारती , भारतीय शिक्षा मंडल , एबीवीपी , शिक्षक महाविघालय , शिक्षा संस्कृति न्यास , संस्कृत भारती तो सिक्षा मंत्री प्रकाश जावडेकर , राज्य मंत्री महेन्द्र नाथ पांडे और उपेन्द्र कुशवाहा बैठे । । और सहमति बनाने तके लिये संघ के मुखिया मोहन भागवत के अलावे दत्तात्रेय होसबोले , सुरेश सोनी , कृष्ण गोपाल और बीजेपी संगटन
मंत्री रामलाल मौजूद रहे । यानी लग ऐसा रहा है कि सरकार का कामकाज संघ परिवार को संतुष्ट करना है । क्योंकि मोदी सरकार को भी साफ लगने लगा है कि सरकार से ज्यादा आम जनता से सरोकार स्वयंसेवकों के ही है । और राजनीतिक तौर पर सरकार की सफलता नीतियो से नहीं चुनावी जीत से समझी मानी जाती है । और अगर वाजपेयी के दौर की तर्ज पर कही संघ के भीतर सरकार को लेकर ही टकराव हो गया तो हर चुनाव में मुश्किल होगी । इसीलिये बैठक में जब संघ ने एफडीआई, विनिवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आपत्ति जतायी । तो अमित शाह समेत सात मंत्रियों ने संघ के सुझाव के पालन का भरोसा जता दिया । इसी तर्ज पर शिक्षा नीति को लेकर पहली बार जब एचआरडी मंत्री प्रकाश जावडेकर के साथ संघ के संगठन शिक्षा भारती के साथ एवीबीपी, शिक्षा संस्कृति न्यास बैठे और उन्होने महंगी शिक्षा , व्यवसायिक होती शिक्षा , शिक्षा के कारपोरेटीकरण का सवाल उठाया । तो प्रकाश जावडेकर ने संघ के सुझाव के पालन का भरोसा जताया । और बैठक में दीनानाथ बत्रा हो या अतुल कोठारी उनकी लीक को ही शिक्षा नीति का हिस्सा बनाने पर सहमति जतायी गई । जाहिर है ये सिलसिला यही रुकेगा नहीं । क्योकि मोदी सरकार के दो बरस बीत चुके है और बैचेनी हर किसी में है कि नीतिया ना संघ के अनुकुल बन पा रही है ना ही नीतियो से चुनावी जीत मिलेगी । ऐसे मोड पर विहिप भी अब विचार समूह के तहत राम मंदिर ही नहीं बल्कि धर्मातरण और क़ॉमन सिविल कोड पर भी सरकार से बात करने पर जोर दे रहा है । तो सवाल यही है कि 26 महीने बीते चुके मोदी सरकार के सामने वक्त वाकई 34 महीने का है । या फिर अगले 16 महीनो में यूपी, पंजाब, गोवा और गुजरात के चुनाव की जीत हार ही सबकुछ तय कर देगी ।
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इरोम के राजनीति में आने के मायने |
सोलह बरस पहले इरोम ने सरकार के एक फैसले का विरोध किया । और रास्ता आमरण अनशन का चुना । वही रास्ता जिसपर कभी महात्मा गांधी चले थे । लेकिन इरोम के अनशन को आत्महत्या की कोशिश माना गया । हिरासत में लेकर । नाक में नली लगाकर जबरन भोजन दिया गया । और बीते 15 बरस 8 महीने से अस्पताल के 15 गुणा 10 फीट के कमरे को इरोम की जिन्दगी बना दी । और जिस सवाल से लगातार इरोम जुझती रही कि जब महात्मा गांधी को भी अपनी असहमति जाहिर करने की इजाजत थी तो भारत के नागरिक के तौर पर उन्हें क्यों ये आजादी नहीं है । तो क्या इरोम ने भी मान लिया कि उसे आजादी राजनीतिक व्यवस्था से लड़कर लेनी होगी और इसके लिये चुनाव लड़कर उसी सिस्टम का हिस्सा बनना होगा, जिस सिस्टम ने बीते 16 बरस के उसके आंदोलन को ये कहकर खारिज किया कि मणिपुर से आफ्सपा यानी सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम खत्म नहीं किया जा सकता । तो क्या देश में हर संघर्ष हर आंदोलन को चुनाव के मैदान में जाना ही पड़ेगा । क्योंकि सिस्टम का हर रास्ता राजनीतिक सत्ता ने हड़प लिया है । क्योंकि सवाल तो हर जगह पर है । संघर्ष हर जगह पर है । आंदोलन हर इलाके में है ।मणिपुर में आफ्सपा तो छत्तीसगढ के बस्तर में माओवाद, उडीसा के कालाहांडी की भूखमरी , विदर्भ के किसानो की खुदकुशी , बुंदेलखंड का सूखा और बेरोजगारी , तमिलनाडु के कुडनकुल्लम में परमाणु संयत्र का विरोध । और कश्मीर में भी आफ्सा का सवाल और इस कतार में देश भर में तीन दर्जन से ज्यादा इलाको में कही संघर्ष तो कही आंदोलन चल रहा है । तो क्या वाकई हर मुद्दे को लेकर संघर्ष करते लोगो के सामने आखरी रास्ता राजनीतिक मैदान में ही कूदना मजबूरी है क्योकि संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मातहत कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में जो चैक एंड बैलेस किया गया उसे राजनीतिक सत्ता ने वाकई हडप लिया है । और राजनीतिक सत्ता के सारे तौर तरीके या कहे सारी नीतिया भी चुनाव जीतने पर जा टिकी है । और 16 बरस के संघर्ष के बाद अब इरोम शर्मिला जब ये कह रही है कि वह संघर्ष छोड़ चुनाव लडेंगी । तो क्या ये उस सिस्टम की जीत है जो संघर्ष को खत्म कराती है या फिर सिस्टम को बदलने के लिये आंदोलनों की नई जिद है । कि वह सिस्टम
में घुस कर सिस्टम को ठीक करेंगे।
तो याद किजिये हाल ही में रिलिज हुई फिल्म मदारी का डॉयलाग , जिसमें नायक पूछता है क्या सरकार भ्रष्ट है । तो गृह मंत्री की भूमिका को जी रहा कलाकार कहता है सिस्टम भ्रष्ट नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार के लिये ही सिस्टम है । तो फिर याद कीजिये भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन को । और सोचिये क्या वाकई राजनीति में जाकर सत्ता पाकर भी क्या सिस्टम बदला जा सकता है । क्योकि दिल्ली में भी लोकपाल का सवाल को हाशिये पर है । और दिल्ली के ही ये दस विधायक ऐसे जो सत्ता पाने के बरस भर के भीतर दागी हो गये । जेल पहुंच गये । और दूसरी तरफ एसोशियसन फार डेमोक्टेरिक रिफार्म यानी एडीआर की रिपोर्ट की माने तो 543 सांसदो में से 182 सांसद दागी है देश भर के कुल 4032 विधायको में से 1258 विधायक दागी है औरयाद किजिये प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता में आते ही कहा था कि दागी केस का सामना करें । पाक साफ होकर संसद पहुंचे । लेकिन एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक मोदी कैबिनेट में भी 24 मंत्रियो के खिलाफ अपराधिक मामले दर्ज है । जिसका जिक्र एफिडेविट में है । और राज्यों के मंत्रियों में भी 23 फिसदी दागी हैं । और तीन दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग से पूछा कि द गी सांसदों पर वह क्या कारावाई कर रही है । तो क्या सिस्टम वाकई भ्रष्ट है । क्योंकि याद किजिये तो 1993 में वोहरा कमेटी ने राजनीतिक भ्ष्टाचार को लेकर अपनी रिपोर्ट में पुलिस , नौकरशाह, सरकारी मुलाजिम , मीडियाकर्मी और राजनेताओ का गठजोड़ बताया था । बावजूद इसके केजरीवाल सिस्टम साफ करने की कसम खाते हुये सत्ता तक पहुंचे। और अब बीते 16 बरस से मणिपुर में आफ्सा के खिलाफ संघर्ष कर रही इरोम शर्मिला भी चुनाव लडकर हालात बदलना चाहती है । और बकायदा कहती है कि , "किसी भी राजनीतिक दल ने मेरे लोगों की आफ़्सपा हटाने की मांग को नहीं उठाया. इसीलिए मैंने ये विरोध ख़त्म करने और 2017 के असेंबली चुनावों की तैयारी करने का फ़ैसला किया है। मैं 9 अगस्त को अदालत में अपनी अगली पेशी के समय भूख हड़ताल ख़त्म कर दूँगी।" तो सवाल यही कि क्या इरोम शर्मिला सिस्टम से हार गईं ? क्योंकि असल सवाल यही से बडा होता कि क्या वाकई सिस्टम में घुस कर सिस्टम को बदला जा सकता है । या फिर सिस्टम के जरीये राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने वाले हो या संघर्ष करने वाले सिर्फ अपनी पहचान ही बना पाते है । और भारत में पहचान पाने का मतलब है राजनीतिक चुनाव लडने में आसानी । क्योंकि ध्यान दीजिए तो मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता आईएफएस संजीव चतुर्वेदी को आज तक दिल्ली में डेपुटेशन नहीं मिल पाई।
यूपी सरकार में बालू माफिया को चुनौती देने वाली दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबन झेलना पड़ा । आखिर में यूपी सीएम के दरबार में हाजिरी के बाद ही निलंबन वापस हुआ। और यूपी में बालू माफिया का खेल बदस्तूर जारी है। अशोक खेमका का 23 साल के करियर में 47 बार ट्रांसफर हो चुका है, और किसी सरकार ने उन्हें एक जगह पर दो साल पूरे होने नहीं दिए । यूपी में तैनात आईपीएस अमिताभ ठाकुर को सत्ता से जान का खतरा लगता है तो वो केंद्र से डेपुटेशन पर बुलाए जाने की मांग कर रहे हैं। यानी राजनीतिक सत्ता से कोई टकरा नहीं सकता । गलत को गलत तभी कह सकता है जब राजनीतिक सत्ता के अनुकूल हो । तो क्या कड़वा सच यही है कि सिस्टम को कोई बदल नहीं सकता, और सिस्टम बड़े बड़ों को झुका भी सकता है, और मार भी सकता है । क्योंकि कर्नाटक में आईएएस डीके रवि के खुदकुशी कर ली । कारण इमानदार छवि । बिहार में स्वणिम चतुर्भुज सड़क योजना से जुडे सत्येन्द्र दुबे की हत्या हो गई । कारण भ्रष्ट नहीं थे । इंडियन आयल के मंजूनाथ की हत्या कर दी गई । कारण गलत होने नहीं दिया। तमिलनाडु के दलित आईएएस उमाशंकर की इमानदारी ना जयललिता को रास आई ना करुणानिधी को । और राजनीतिक सत्ता ही कैसे सबकुछ है ये इस बार की आईएएस टापर टीना डाबी और 6 बरस पुराने आईएस अजय यादव से भी समझा जा सकता है । टीना को टापर होने पर भी मनचाहा कैडर हरियाणा नहीं मिला । उन्हे राजस्थान भेज दिया गया ।और वो कहने को मजबूर हैं कि सारे कैडर एक समान हैं । तो यूपी की सत्ता की पहचान शिवपाल यादव के दामाद अजय यादव के लिये मोदी सरकार ने ही नियम कायदे ताक पर रख कर तमिलनाडु कैडर में नौ बरस पूरे किये बिना यूपी डेपुटेशन पर भेज दिया । क्योकि शिवपाल यादव ने पीएम को पत्र लिखा और डीओपीटी ने अपने ही नियमो को सत्ता की सुविधा के लिये बदल दिये ।
Sunday, July 24, 2016
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सिल्वर स्क्रीन का डॉन "महानायक" क्यों ? |
कबाली का अंदाज गुस्से का है । कबाली का अंदाज हाशिये पर पड़े व्यक्ति के चुनौती देने का है । कबाली का अंदाज सिस्टम से मार खाये नायक का है । कबाली का अंदाज खुद न्याय करने का है । सही मायने में ये अंदाज उस तलयवर का है जो आम आदमी का नायक है । और जब समाज में नायक बचे नहीं है तो सिल्वर स्क्रीन ही आम आदमी के दिलो में उतर कर एक एसा महानायक देता है जो सिस्टम को अपनी हथेली पर नचाता है । चकाचौंध की माफियागिरी को टक्कर देते हुये तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस करता है । तो क्या रजनीकांत की उड़ान सिर्फ इतनी है । क्योकि याद किजिये सिल्वर स्क्रीन पर डॉन की भूमिका में पहली बार रजनी कांत दिखायी भी दिये तो बालीवुड स्टार अमिताभ बच्चन की फिल्म डॉन के रिमेक बिल्ला में । हर स्टाइल अमिताभ का । और 1980 में माना यही गया कि रजनीकांत तमिल फिल्मों के अमिताभ बच्चन हैं। लेकिन साढे तीन दशक
बाद सिल्वर स्क्रीन का वही तमिल नायक बालीवुड के नायकों को पीछे छोड़ इतना आगे निकल जायेगा कि मुंबई के सिनेमाघर भी उसकी फिल्म के लिये सुबह चार बजे खुल जायेंगे । या किसने सोचा होगा ।
वैसे याद किजिये तो एनटीआर ने भी अमिताभ बच्चन की डॉन के रिमेक के तौर पर युगान्धर फिल्म में बतौर डॉन की भूमिका को ही सिल्वर स्रिकन पर जिया । लेकिन बालीवुड को कभी छू भी नहीं पाये एनटीआर । और तमिल फिल्मो के लोकप्रिय एमजीआर तो दक्षिण भारत से आगे निकल ही नहीं पाये । कमाल हसन ने प्रयास जरुर किया लेकिन उनकी लोकप्रियता नायकन से आगे निकल नहीं पायी । तो रजनीकांत ने वह कौन सी नब्ज पकडी है जिसे बालीवड के खान बंधु हो या अमिताभ बच्चन वह भी इस नब्ज को पकड नहीं पाये । और समाज या राजनीति में भी नायक खत्म होते चले गये । तो समझना होगा कि निजी जिन्दगी में कुली बढई और कंडक्टरी करते हुये सिल्वर स्क्रीन के नायक बने रजनीकांत ने उस खोखले पन को हमेशा नकारा जो चकाचौंध और पावर तो देता है लेकिन आम आदमी से काट देता है । इसलिये उनके दरवाजे को जब भी राजनेताओं ने खटखटाया उन्हे ना ही सुनने को मिला । और रजनीकांत ने निजी जीवन से लेकर सिल्वर स्क्रीन पर भी उसी समाज से निकले उसी चरित्र को जीया जो समुदाय , जो समाज आज भी हाशिये पर है । इसीलिये तमाम तकनीकी माध्यमों से गुजरने वाली रजनीकांत की अदा सिल्वर स्किरन पर एक ईमानदार अदा बन जाती है । जो उन्हे आम जनता का नायक बना देती है ।
लेकिन सवाल यही कि आखिर डॉन का चरित्र ही नायक कैसे गढता है । वरदराजन मुदलियार ,हाजी मस्तान , दाउद , छोटा राजन ये नाम अंडरवर्लड डॉन के है । जाहिर है ये खलनायक है । लेकिन इन्ही डॉन की भूमिका को गढते हुये सिल्वर स्क्रीन पर जिस जिस कलाकार ने इसे जिया वह नायक बन गया । फिल्मों की कतार देखे । दीवार-, डॉन , दयावान , कंपनी-, सत्या , ब्लैक फ्राइडे , सरकार , अग्निपथ और वह सारी फिल्मे सफल हुई जो डॉन का ताना बाना बुनते हुये सिल्वर स्क्रिन पर आई और लोगो के दिमाग में छा गई । हिन्दी सिनेमा ही नहीं बल्कि दक्षिण की फिल्मो की फेरहसित देखे तो वहा भी हर वह फिल्म सफल हुई जो अ डरवर्ल्ड डॉन को लारजर दैन लाइफ बनाती । तमिल फिल्म बिल्ला , बाशा , जेमनी , अरिन्थुम अरियामुलुम , पुधुपेट्टई , पोक्किरी , मनकथा , सुदुकावुम और इसी कतार में अब कबाली का नाम भी लिया जा सकता है । जिसमें रजनीकांत डॉन की भूमिका में है । यानी लकीर बारिक है लेकिन डॉन का मतलब कही ना कही आम आदमी के हक में खड़ा शख्स होता है । जो सिल्वर स्किरन पर नायक । लेकिन कानून के नजर में अपराधी । तो क्या सिल्वर स्क्रीन का पोयटिक जस्टिस राजनीतिक न्याय व्यवस्था पर भारी पडने लगा है । या फिर सिनेमा महज मनोरंजन है । ये सवाल इसलिये क्योकि सिनेमा में ज्यादातर डॉन दलित-पिछडे समाज से ही निकलते है । गरीबी और मुफलिसी में संघर्ष करते तबके में से कोई चुनौती देता है तो ही वह नायक बनता है । याद किजिये मुब्ई में वरदराजन मुदलियार डॉन के तौर पर तब खडा होता है जब लुंगी को मराठी मानुष की राजनीति चुनौती देती है ।
जीना मुहाल करती है ।और इसपर बनी फिल्म दयावान का नायक भी सिल्वर स्क्रीन पर कुछ इसी पहचान के साथ खड़ा होता है । तो क्या राजनीतिक तौर पर कोई नायक समाज को इसीलिये नहीं मिल पा रहा है क्योकि राजनीतिक न्याय व्यवस्था कानून के राज के बदले कानून पर ही राज करने लगती है । और समाज के भीतर का संघर्ष राजनीतिक सत्ता अपने अपने वोट बैक के नजरिये से हर जगह दबाती चली जाती है । ये सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण है जब मुनाफा और मार्केट इकनामी राजनीतिक सत्ता का भी मूलमंत्र बन चुका है तब समझाना होगा कि अंडरवर्ल्ड पर बनी फिल्मो का मुनाफा कमोवेश किसी भी सामान्य फिल्म की तुलना में 75 से 200 फिसदी ज्यादा होता है । और डॉन के चरित्र को लेकर बनी कबाली भी पहले ही दिन सारी फिल्मों की कमाई के सारे रिकार्ड तोड़ चुकी है ।
Wednesday, July 20, 2016
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देश के भीतर का सच |
आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सवाद में सुलगता देश
कश्मीर में आतंकवाद , नार्थ इस्ट में उग्रवाद तो मध्य भारत में नक्सलवाद। और बीते 16 बरस का सच यही कि कुल 45 हजार 469 लोगों की मौत हो चुकी है।तो कश्मीर के आतंकवाद के मद्देनजर पहले राज्यसभा फिर लोकसभा में चर्चा केदौरान जब कई सवालो का जिक्र उठा तो सवाल ये भी उठा कि कश्मीर नार्थ इस्टऔर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को लेकर सरकार की नीति होनी क्या चाहिये ।क्योंकि तीनों जगहों पर सुरक्षाकर्मियों को लगातार उस हिंसा का सामना करना पड़रहा है, जिसके तार कहीं ना कही सीमा पार से भी जा जुड़े है। गृह मंत्रालयकी ताजा रिपोर्ट भी तीनों जगहों को लेकर उस चिता को ही उभारती है, जहांकश्मीर में आतंक के पीछे पाकिस्तान है । तो नार्थ इस्ट में उग्रवाद के पीछे चीन का होना और बांग्लादेश की जमीन के इस्तेमाल को करना है । और -नक्सलवाद के पीछे अंतराष्ट्रीय माओवादी विचारधारा से मिलती मदद का होना है । यानी तीनो जगहों में लगातार हो रही हिंसा के मद्देनजर केन्द्र की सत्ता बदली हो या राज्यो में सत्ता परिवर्तन हुआ हो । हालातों में कोई अंतर नहीं आया। क्योंकि बीते 16 बरस में केन्द्र की सत्ता भी 360 डिग्री में घूम कर बीजेपी के पास आ चुकी है। और राज्यों में भी र राजनीतिक दल ने सत्ता भोगी है । और मौत के आंकडे तीनो जगहों पर डराने वाले है । कश्मीर में 21 हजार 63 मौतों के अगर बांट दें तो 5262 नागरिक मारे गये । 3335 सुरक्षा कर्मी शहीद हो गये और 12466 आतंकवादी मारे गये । लहुलूहान नार्थ इस्ट भी हुआ है। जहां का 90 फिसदी हिस्सा अंतराष्ट्रीय बार्डर है । और वहां उग्रवाद की वजहों से 12281 लोग मारे जा चुके हैं, जिसमें 5112 नागरिक मारे गये तो 1130 सुरक्षाकर्मी शहीद हो गये । और 6 हजार 39 उग्रवादी मारे गये । वही नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ, झारखंड,बिहार, उडिसा,महाराष्ट्र, आध्रप्रेदेश और तेलंगाना के 35 जिलों में बीते सोलह बरस में 12 हजार 125 लोग मारे जा चुके है । जिसमें 5900 नागरिक गरीब पिछड़े आदिवासी किसान रहे हैं । 5628 माओवादी मारे जा चुके हैं। और देश के भीतर की हिसा से जुझते ढाई हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। और 48 घंटे पहले ही बिहार-झारखंड सीमा पर 10 सुरक्षाकर्मी मारे गये तो सुरक्षाकर्मी ही अपनी सुरक्षा और सुविधा को लेकर फूट पड़े । यानी सुरक्षाकर्मियो के सामने भी आंतक , उग्रवाद या नक्सली हिसा से जुझते हुये अपने अपने संकट है । कही राजनीति आडे आती है । कहीं राज्यों के आपसी टकराव सामने आते है । तो कही केन्द्र राज्य टकराते है । तो कही सुरक्षाकर्मियों को सारी सुविधायें नहीं मिल पाती हैं।
और इन तीन हिस्सों को लेकर ठोस नीति ना होने की वजह से ही सेना, सुरक्षाकर्मी या कहें पुलिस को ही हर परिस्थितियों से जूझना पड़ रहा है। आलम ये है कि देश के इन तीन जगहों पर करीब नौ लाख सुरक्षाकर्मियों की तैनाती है । यानी राजनीतिक सरोकार पीछे छूट रहे हैं और युद्द से हालात देश के भीतर आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर कैसे बनते चले जा रहे हैं, इस सच को कोई सरकार क्यों नहीं समझ रही है ये भी सवाल है । जाहिर है ऐसे में आतंकवाद , उग्रवाद और नक्सली हिंसा से प्रभावित देश के इन तीन क्षेत्रो का एक सच ये भी है कि यहा राजनीति फैसलो से ज्यादा राजनीतिक सत्ता ने सुरक्षाकर्मियो के आसरे ही हालात पर नियंत्रण को चाहा है । क्योकि इन इलाको के सियासी अंतर्विरोध को संभालने की हालात में कोई राजदनीतिक सत्ता कभी आ नहीं पाय़ी और देश में सेना हो या अद्दसैनिक बल या फिर राज्यो की पुलिस । सबसे ज्यादा तैनाती उन्हीं इलाकों में है । ग्लोबल सिक्यूरटी रिपोर्ट की माने तो सिर्फ इन तीन इलाकों में करीब नौ लाख सुरक्षाकर्मीयो की तैनैाती हा । जिसमें कशमीर में करीब 4 लाख सुरक्षाकर्मी , नार्थ इस्ट में करीब तीन लाख और नक्सलप्रभावित इलाको में 164 667 सुरक्षाकर्मी । और बीते सौलह बरस में सिर्फ इन्ही क्षेत्रो में 7062 सुरक्षारर्मी शहीद हो चुके है । और इन इलाको को लेकर लगातार यही सवाल बडा होता चला गया कि सुरक्षाकर्मियो के आसरे कैसे आंतकवाद पर या उग्रवाद पर या पिर माओवाद पर नकेल कसी जा सकती है ।
यानी सुरक्षाकर्मियो क्या क्या उपलब्ध कराया जाये जिससे वहा के हालात का सामना सेना, इद्दसैनिक बल कर सके । महत्वपूर्ण है कि गृहमंत्रालय की ताजा रिपोर्ट में ही तैनात सुरक्षाकर्मियो को दी जाने वाली सुविधा, आधुनिकीकरण और मुआवजे को लेकर सवाल है । यानी सेना के आधुनिकरण के साथ साथ । तैनात सुरक्षाकर्मियो को दी जाने वाली सुविधा और शहीद होने के बाद परिनजनो की राहत की राशी बढाने का जिक्र किया गया है । यानी तीनो क्षेत्रो का सुरक्षा बजट बीते 16 बरस में 200 फिसदी तक बढ गया । लेकिन हालात फिर भी नियत्रंण में नहीं आ रहे है तो सवाल समाजिक-राजनीति समाधान के ना खोजने का है । क्योंकि याद कीजिए दंतेवाड़ा में जिस वक्त 76 सीआरपीएफ के जवानों को नक्सलियों ने खूनी भिडंत के बाद मार गिराया था-उस वक्त केंद्र में मनमोहन सरकार थी और उस वक्त बीजेपी ने यह कहते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा था कि पूरी सरकार ही फेल है। और अब तो बीजेपी ही सत्ता में है । और बिहार -झारखंड सीमा पर नक्सली हिसा में 10 सुरक्षाकर्मी मारे जाते है तो सत्त खामोश हो जाती है । लेकिन सवाल सियासत का नहीं सवाल नहीं । सवाल सरकारो के फेल पास का नहीं । बल्कि सवाल हालातो पर नियंत्रण को लेकर किसी नीति के ना होने का है । और असर इसी का है कि 2014 में 1091 नक्सली घटनाओ में 310 मौते हुई । तो 2015 में 1088 नक्सली घटनाओ में 226 मौते हुई । जबकि सरकार के ही आंकडे बताते है कि मौजूदा वक्त में 10 से 15 हजार नक्सली है और डेढ़ लाख से ज्यादा सुरक्षा बल तैनात है । यानी एक नक्सली पर 10 सुरक्षाकर्मी । और सुरक्षाकर्मियो की तैनाती का आलम ये है कि सीआरपीएफ की 85 बटालियन , बीएसएफ की 15 बटालियन, आईटीबीपी और एसएसबी की पांच -पांच बटालियन नक्सलप्रभावित क्षेत्रो में है । तो सवाल यही कि क्या सुरक्षाकरमियो के आसरे ही सामाजिक-आर्थिक हालातो से राजनीति मुंह चुरा रही है । या फिर राजनीतिक चुनावो के अंतविरोधो की वजह से सरकारे कोई ठोस नीति बना नहीं पा रही है । या फिर नीतिया बनाकर भी अमल में ला नहीं पा रही है । और संसद में बार बार यही सवाल कश्मीर को लेकर भी उठा कि समाधान का रास्ता तो राजनीतिक तौर पर ही निकलना होगा । अन्यथा घायलों की बढती तादाद और मौत की बढती संख्या को ही हमेशा गिनना पडेगा ।
Monday, July 11, 2016
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जन्नत कैसे लाल हो गई ? |
लाल चौक पर जब 1975 में शेख अब्दुल्ला ने जीत की रैली की तो लगा ऐसा कि समूची घाटी ही लाल चौक पर उमड पड़ी है। और 1989 में जब रुबिया सईद के अपहरण के बाद आतंकवाद ने लाल चौक पर खुली दस्तक दी तो लगा घाटी के हर वाशिंदे के हाथ में बंदूक है। और अब यानी 2016 में उसी लाल चौक पर आतंक के नाम पर खौफ पैदा करने वाला ऐसा सन्नाटा है कि किसी को 1989 की वापसी दिखायी दे रही है तो किसी को शेख सरीखे राजनेता का इंतजार है। वैसे घाटी का असल सच यही है कि कि लाल चौक की हर हरकत के पीछे दिल्ली की बिसात रही । और इसकी शुरुआत आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हो गई । नेहरु का इशारा हुआ और 17 मार्च 1948 को कश्मीर के पीएम बने शेख अब्दुल्ला को अगस्त 1953 में ना सिर्फ सत्ता से बेदखल कर दिया गया बल्कि बिना आरोप जेल में डाल दिया गया। और आजाद भारत में पहली बार कश्मीर घाटी में यह सवाल बड़ा होने लगा कि कश्मीर कठपुतली है और तार दिल्ली ही थामे हुये है। क्योंकि बीस बरस बाद कश्मीर का नायाब प्रयोग इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के साथ 1974 में समझौता किया तो झटके में जो शेख अब्दुल्ला 1953 में दिल्ली के लिये खलनायक थे, वह शेख अब्दुल्ला 1975 में नायक बन गये। और पह बार लाल चौक पर कश्मीरियों के महासमुद्र को उतरते हुये दुनिया ने देखा। और हर किसी ने माना अब कश्मीर को लेकर सारे सवाल खत्म हुये। और सही मायने में 1982 तक शेख अब्दुल्ला के जिन्दा रहते कश्मीर में बंदूक उठाने की जहमत किसी ने नहीं की। लेकिन 1989 की तस्वीर ने ना सिर्फ दिल्ली। बल्कि समूची दुनिया का ध्यान कश्मीर की तरफ ले गई। क्योंकि अफगानिस्तान से रुसी फौजें लौट चुकी थीं। तालिबान सिर उठा रहा था। पाकिस्तान में हलचल तेज थी। और दिल्ली के इशारे पर कश्मीर के चुनाव ने लोकतंत्र पर बंदूक इस तरह भारी कर दी। कि देश के गृहमंत्री की बेटी का अपहरण जेकेएलएफ ने किया ।
और पहली बार घाटी के सामने दिल्ली लाचार दिखी। तो लाल चौक पर लहराते बंदूक और आजादी के लगते नारो ने घाटी की तासिर ही बदल दी । और पहली बार जन्नत का रंग लाल दिखायी देने लगा। एक के बाद एक कर दर्जनों आतंकी संगठनों के दफ्तर खुलने लगे। रोजगार ही आतंक और आतंक ही जिन्दगी में कैसे कब बदलता चला गया इसकी थाह कोई ले ही नहीं पाया। आतंकी संगठनों की फेरहिस्त इतनी बढ़ी कि सरकार को कहना पड़ा कि आतंक के स्कूल हर समाधान पर भारी है । फेरहिस्त वाकई लंबी थी। हिजबुल मुजाहिदिन , लश्कर-ए-तोएबा , हरकत उल मुजाहिदिन , जैश-ए-मोहम्मद,जमात-उल मुजाजहिदिन ,हरकत - उल -जेहाद-अल-इस्लामी , अल-उमर-मुजाहिद्दिन , दुखतरान-ए-मिल्लत , लश्कर-ए-उमर , लश्कर -ए जब्बार , तहरीक उल मुजाहिद्दिन , जेकेएलएफ , मुत्तेहाद जेहाद काउंसिल के साथ दर्जन भर आंतकी संगठन । असर इसी का हुआ पहली बार गृह मंत्रालय ने माना कि घाटी में 30 हजार से ज्यादा आतंकवादी है । सेना ने मोर्चा संभाला तो घाटी ग्रेव यार्ड में बदली। 1990 से 1999 तक 20 हजार से लोग मारे गये । इनमें पांच हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी थे। और इसके बाद घाटी में अमन चैन का दावा करने वाले हर प्रदानमंत्री के दौर को भी देख लें तो आंकडे डराते है
। क्योकि 1999 से 2016 यानी वाजपेयी से मोदी तक के दौर में 22504 लोग मारे गये । वाजपेयी के दौर में सबसे ज्यादा 15627 मौतें हुई. तो मनमोहन सिंह के दस बरस की सत्ता के दौर में 6498 लोगो की मौत हुई । तो मोदी के दो बरस के दौर में 419 लोगो की मौत हुई । यानी 22 हजार से मौत या कहें हत्या में नागरिक भी और सुरक्षा कर्मियो की लंबी फेरहसित भी और आतंकवादी भी । सेकिन इस सिलसिले् को रोके कौन और रुके कैसे यह सवाल दिल्ली के सामने इस दौर में बडा होता चला गया । तो कश्मीर की सियासत बिना दिल्ली के चल नही सकती इसका एहसास बाखूबी हर राजनीतिक दल को हुआ । कभी नेशनल कान्फ्रेंस तो कभी पीडीपी । बिना काग्रेस या बिना बीजेपी के दोनो सत्ता में कभी आ नहीं पाये । और कश्मीरी सियासत ने दिल्ली को ही ढाल बनाकर सत्ता भी भोगी और जिम्मेदारियो से मुंह भी चुराया । इसीलिये जो सवाल नेशनल कॉन्फ्रेंस की सत्ता के वक्त पीडीपी उठाती रही। वही सवाल अब पीडीपी की सत्ता के वक्त नेशनल कान्फ्रेंस उठा रही है । दोनो दौर में कश्मीरी राजनीति ने खुद को कैसे लाचार बताया या कहे बनाया। इसका अंदाजा इससे भी मिल सकता है कि फिलहाल घाटी में सडक पर सिर्फ सेना है । सीआरपीएफ है। पुलिस है । सीएम अपने मंत्रियों के साथ कमरे में गुफ्तगू कर दिल्ली की तरफ देख रही है । उमर अब्दुल्ला ट्वीट कर राजनीतिक समाधान खोजना चाह रहे है। और तमाम विधायक अपने घरों में कैद हैं। जो यह कह कर खुद को कश्मीरी युवकों के साथ खड़े कर रहे है कि बुरहान को जिन्दा पकड़ना चाहिये था । एनकाउंटर नहीं करना चाहिये था । तो क्या वाकई हालात 1989 वाले हो चले है । लेकिन घाटी में मरने वालो की फेहरिस्त देखें तो सड़क पर गुस्सा निकालते मारे गये 15 लड़कों का जन्म ही 1990 के बाद हुआ है। शब्बीर अहमद मीर [तंगपूरा बटमालू ] , अरफान अहमद मलिक [नेवा ], गुलजार अहमद पंडित [मोहनपोरा शॉपिया ], फयाज अहमद वाजा [ लिट्टर ], साकिब मंजूर मीर [खुंदरु अचाबल], खुर्शिद अहमद [हरवात, कुलवाम ] , सफीर अहमद बट [चरारीगाम ] ,अदिल बशीर [ दोरु ] , अब्दुल हमीद मौची [अरवानी ], दानिश अय्यूब शाह [ अचबल ], जहॉगीर अहमद गनी [ हासनपुरा, बिजबेहरा ] , अजाद हुसैन [ शॉपिया ] , एजाज अहमद ठॉकुर [ सिलिगाम, अनंतनाग ] , मो. अशऱफ डार [हलपोरा, कोकरनाग ] , शौकत अहमद मीर [ हासनपौरा, बिजबेहरा ] , हसीब अहमद गनई [डाईगाम, पुलवामा ] तो सभी का जन्म 1990 के बाद हुआ । हर की उम्र 18 से 26 के बीच और ये सभी बीते 72 घंटों में आंतकवादी बुरहान के मारे जाने के बाद सुरक्षाकर्मियो का विरोध करते हुये सडक पर निकले और मारे गये । तो क्या वाकई कश्मीर घाटी के हालात एक बार 1989 की याद दिलाने लगे है ।
या फिर आंतक को जिस तरह अब के युवा आजादी के सवालो से जोडते हुये रोमान्टिीसाइज कर रहे है वह 1989 के आतंक से कही आगे के हालात है। क्योंकि आजादी के नारे तले जो विफलता बार बार दिल्ली की रही और जो सियासत घाटी में खेली जाती रही। असर उसी का है कि घाटी के अंदरुनी हालात इतने तनावपूर्ण हैं कि हर छोटी सी चिंगारी उसमें भयानक आग की आशंका पैदा कर रही है । और ये चिंता इसलिए ज्यादा है क्योंकि नारे लगाने या पत्थर चलाने वाली पीढ़ी आधुनिक तकनालाजी के दौर की पीढी है । पढी लिखी पीढी है । विकास और चकाचौंध को समझने वाली पीढी है । और उसके सरोकार लोकतंत्र की मांग कर रहे है । जाहिर है ऐसे में याद महात्मा गांधी को भी कर लेना चाहिये । क्योंकि बंटवारे के ऐलान के साथ जिस वक्त देश में सांप्रदायिक हिंसा का दौर शुरु हो गया था-कश्मीर घाटी में शांति थी। या कहें लोगों में ऐसा मेलजोल था कि महात्मा गांधी भी दंग रह गए। 1 अगस्त 1947 को कश्मीर पहुंचे बापू ने उस वक्त अपनी प्रार्थना सभा में कहा भी- -"जब पूरा देश सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रहा है, मुझे सिर्फ कश्मीर में उम्मीद की किरण नजर आती है" या विभाजन के बाद सजिस तरह देश सांप्रदायिक हि्सा में जल रहा था उस वक्त जिस कश्मीर की शांति में गांधी को एकता की उम्मीद दिखी और जिस कश्मीर की संस्कृति में उन्हें हिन्दू मुसलमान सब एक लगे-वो घाटी आजादी के 68 साल बाद एक ऐसे मोड़ पर है,जहां गांधी की सोच बेमानी लग रही है या कहें कि सरकारों ने जिस तरह घाटी को राजनीति की बिसात पर मोहरा बना दिया-उसमें मात गांधी के विचारों की हो गई। क्योंकि-आज का सच यही है कि कश्मीर जल रहा है। आज का सच यही है कि घाटी में एक आतंकवादी के पक्ष में हुजूम उमड़ रहा है। और आज का सच यही है कि घाटी में आजादी के नारे भी लग रहे हैं और लोग सेना के सामने आकर भिड़ने से नहीं घबरा रहे। और सबके जेहन में एक ही सवाल है कि कश्मीर का होगा क्या। वैसे यही सवाल महात्मा गांधी से भी पूछा गया था कि आजादी के बाद कश्मीर का क्या होगा। तो गांधी ने जवाब दिया था "-कश्मीर का जो भी होगा-वो आपके मुताबिक होगा। " इतना ही नहीं, 27 अक्टूबर 1947 को महात्मा गांधी ने एक सभा में कहा-, " मैं आदरपूर्वक कहना चाहता हूं कि कश्मीर को राज्य में लोकप्रिय शासन लाना है। ऐसा ही हैदराबाद और जूनागढ़ के मामले में भी है। कश्मीर के वास्तविक शासक कश्मीर के लोग होने चाहिए। " यानी गांधी ने कश्मीर के लोगों की इच्छा को सर्वोपरि माना लेकिन सरकारों ने लोगों को ही हाशिए पर डाल दिया। नतीजा इसी का है कि घाटी के भीतर एक झटपटाहट है, और बुरहान उस आक्रोश को निकालने की तात्कालिक वजह।
Saturday, July 9, 2016
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स्मृति इरानी के पर किसने कतरे? |
संघ नाराज है स्मृति को हटाया क्यों?
28/29 जून को दिल्ली में भैयाजी जी जोशी के साथ स्मृति इरानी की शिक्षा नीति पर लंबी बातचीत होती है। 30 जून को स्मृति ईरानी ने एमएमयू मुद्दे पर एटॉर्नी जनरल से बातचीत करती है। 1 जुलाई को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर स्मृति ईरानी हलफनामा तैयार करती है और सुप्रीम कोर्ट में इसे दाखिल भी किया जाता है। और 5 जुलाई मंत्रिमंडल विस्तार से ठीक पहले पीएमओ से नागपुर फोन जाता है। पीएमओ भैयाजी जोशी जानकारी देता है कि एचआरडी मिनिस्टर यानी स्मृति इरानी को बदला जा रहा है। यानी एक तरफ पीएमओ ने आखरी लम्हे में तय किया कि स्मृति इरानी को एचआरडी मनिस्टर से हटाया जायेगा। तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आखरी वक्त तक स्मृति ईरानी शिक्षा मंत्री है और बनी रहेगीं के आसरे शिक्षा को लेकर अपनी रणनीति बनाने में ही लगा रहा । तो सवाल तीन है । पहला क्या स्मृति का हटना संघ के लिये भी झटका है । दूसरा, क्या शिक्षा नीति को लेकर संघ-सरकार टकरायेगें । और तीसरा क्या एचआरडी मंत्रालय में सिर्फ चेहरा बदला है बाकि सब स्मृति के दौर का ही रहेगा । जाहिर है तीसरा सवाल सबसे बडा है । क्योकि स्मृति ईरानी को मानवसंसाधन मंत्रालय से हटाने की सिर्फ जानकारी ही संघ को दी गई । उससे मैसेज यही गया कि सरकार के फैसले के आगे संघ की चलती नहीं । और स्मृति ईरानी की तरह कोई भी मंत्री अगर ये सोच कर काम कर रहा है कि संघ उसके साथ खड़ा है तो फिर स्मुति की तर्ज पर उसका पत्ता भी कभी भी कट सकता है और संघ चाहे ताकतवर दिखे लेकिन अमित शाह के सुझाव और मोदी के फैसले के आगे उसकी चलती नहीं है। खास बात तो ये भी है कि ना सिर्फ एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा या भारतीय शिक्षा नीति बल्कि स्मृति इरानी ने संघ के कहे मुताबिक ही सारी नियुक्ति कीं। चाहे वह नेशनल बुक ट्रेस्ट में बलदेव शर्मा हो या फिर आईसीएचआर में वाई सुदर्शन राव । और कमोवेश देश की हर यूनिवर्सिटी में वीसी की नियुक्ति में संघ की ही चली ना कि बीजेपी की। बीएचयू, डीयू और जेएनयू तक में वीसी की नियुक्ति के पीछे संघ ही ज्यादा सक्रिय रहा। यानी जो स्मृति इरानी संघ के इशारे पर देश की शिक्षा नीति बनाती रहीं अब उनके बदले प्रकाश जावडेकर आये तो क्या नीतियो में कोई परिवर्तन आयेगा या फिर संघ खामोश रहेगा या टकराव बढेगा । इन सवालों के मद्देनजर सरकार ने संध को कहा क्या महत्वपूर्ण यह भी है ।
लेकिन उससे पहले समझना ये भी होगा कि स्मृति इरानी नहीं बल्कि संघ ही शिक्षा मंत्रालय को कैसे चला रहा था ये 18 जून को दिल्ली के यूनिवर्सिटी एरिया में पटेल चेस्ट हासपिटल के एडिटोरियम में तब नजर आया जब एएमयू के अल्संपख्यक दर्जे की मान्यता खत्म करने को लेकर आरक्षण का सवाल उठाया गया । इस सभा में सवाल एएमयू का उठा लेकिन एएमयू के अल्पसंक्यक दर्जे को चुनौती देते हुये आंबेडकर की दलित नीति पर चर्चा हुई। और आरक्षण नीति के आसरे कैसे अल्पसंख्यक दर्जे को खारिज किया जा सकता है। इस पर बाखूबी चर्चा हुई और इसमे संघ, बीजेपी और सरकार के बीच तालमेल भी मानव संसाधन मंत्रालय के जरीये ही बनाया गया। यानी संध के लिये कितना महत्वपूर्ण है मानव संसाधन मंत्रालय यह इससे भी पता चलता है कि एएमयू की चर्चा में संघ और सरकार के बीच तालमेल बैठाने के लिये नियुक्त कृष्ण गोपाल के साथ बलवीर पुंज। सासंद कमलेश पासवान। और प्रो राजकुमार फलवारिया पहुंचे जिन्होंने एएमयू से आरक्षण जोडने का सवाल उठाकर किताब लिख डाली और इसे ही आधार बनाकर स्मुति इरानी ने हलफनामा तैयार कर दाखिल किया गया और अब 11 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करेगा। लेकिन इस सभा में साक्षी महराज, विजय सोनकर, यूपी बीजेपी के अद्यक्ष केशव मोर्या, संगठन महामंत्री राम लाल । सांसद मूपेन्द्र यादव समेत यूपी बीजेपी के 50 विधायक तो करीब इतने ही सांसद जुटे। और मेघवाल जी का भाषण तो इतना जबरदस्त रहा कि उन्हें मोदी मंत्रीमंडल में जगह मिल गई। लेकिन इन सबसे इतर संघ के भीतर तो सवाल यही है कि जब स्मृति इरानी उनके कहे मुताबिक काम कर रही थी तो फिर उन्हे शिक्षा मंत्री के पद से हटाया क्यों गया। और सबसे महत्वपूर्ण यही है कि प्रकाश जावडेकर को कैबिनेट और डा महेन्द्र नाथ पांडे को राज्यमंत्री बनाकर कही ना कही संघ से टकराव ना हो इसे ध्यान में रख कर पैसला किया गया । क्योंकि सरकार की भीतर माना यही गया कि पुणे के प्रकाश जावडेकर अगर मराठी मानुष होकर नागपुर को समझा सकते है तो बीएचयू के डा पांडेय सरकार से तालमेल बनाने के लिये नियुक्त संघ के कृष्ण गोपाल को साध सकते है ।
लेकिन खामोश हालातों में भी संघ हो या सरकार दोनो की नजरे इसी पर टिकी है कि स्मृति इरानी अब कपड़ा मंत्री बनकर किसे निशाने पर लेगी। क्योंकि बनारस समेत समूचे पूर्वी यूपी में बड़ा सवाल बुनकरों का है। और माना जा रहा है कि स्मृति इरानी अब बुनकरो को साध कर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी राजनीतिक समझ और ताकत दोनो दिखानी चाहती है। क्योंकि स्मृति के करीबियों का मानना है कि यूपी की नेता स्मृति इरानी ना बन पाये इसलिये बीजेपी अध्यक्ष ने उनके पर कतरे हैं।
Tuesday, July 5, 2016
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जात ही पूछो नेता की |
अजय टम्टा, कृष्णा राज, रमेश जिगजिनेगी , अर्जुन मेघवाल, रामदास आठवले । राजनीतिक तौर पर इन सभी की पहचान दलित नेता के ही तौर पर है । यानी मोदी मंत्रिमंडल में 19 नये चेहरों में पांच चेहरे दलित राजनीति को साधने वाले। यानी यूपी में 20 फिसदी दलित वोट बैंक को लेकर मायावती की राजनीतिक हवा कैसे निकाली जा सकती है, इस पर मोदी मंत्रिमंडल का ध्यान होगा ही इसे कैसे कोई इंकार करे। अगर और राजनीति की इस लकीर को मंत्रिमंडल के नये चेहरो तले खीचेंगे तो अनुप्रिया पटेल कुर्मी वोट बैंक में सेंध लगाने वाली लगेंगी। यानी नीतीश कुमार जिस तरह यूपी में चुनावी बिगुल कुर्मी वोट बैक को साथ समेटे नजर आने लगे हैं और समाजवादी पार्टी जिस तरह बेनी प्रासद वर्मा को साथ ले आई है, उन्हें अनुप्रिया पटेल के जरीये खारिज किया जा सकता है। यानी यूपी में 8 फीसदी कुर्मी वोट बैंक के लिये अनुप्रिया पटेल मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हो गई है। तो प्रशांत किशोर जिस तरह काग्रेस को यूपी में बिखरे 13 फिसदी ब्राह्मण वोट बैक के अपने साथ लाने के लिये किसी ब्राह्मण चेहरे को सामने लाने की वकालत कर रहे हैं तो फिर चंदौली के सांसद महेन्द्र नाथ पांडे कांग्रेस की बिसात को ध्यान रखकर मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किये गये हैं। गुजरात में भी 2017 नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। और हार्दिक पटेल का आंदोलन गुजरात की सीएम आनंदी बेन से लेकर दिल्ली में बैठे अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी की नींद उड़ा रहा है तो करुअ पटेल पुरुषोत्तम रुपाला को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। जिससे पाटीदार समाज भी बंटे या फिर रुपाला केपी छे खडा हो जाये । और लेउवा पटेल का समाज मनसुख मांडविया के पीछे खड़ा हो जाये। यानी गुजरात की राजनीति के लिये रुपाला और मनसुख भाई फिट बैठते हैं । यानी सामाजिक समीकरण में ही कैसे मंत्रिमंडल फिट हो जाये इसके लिये आदिवासी नेता के तौर पर गुजरात में पहचान बना चुके जंसवत सिंह भभोर हो या मध्यप्रदेश के फग्गन सिंह कुलस्ते। दोनों मोदी मंत्रिमडल में जगह पा गया ।
और इसी तर्ज पर राजस्धान में जाट आरक्षण के राजनीतिक आंदोलन के सिरे को पकड़ने के लिये पूर्व नौकरशाह या शिक्षक के तौर पर पहचान बनाने वाले सीआर चौधरी की पहचान जाट राजनीति को थामने वाली हो गई। और उन्हें मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिल गई। यानी चुनावी राजनीति कुछ इस तरह सत्ता चलाने तक पर हावी हो चुकी है कि पहली नजर वोट बैक को साधने के लिये उसी समाज के नेता को मंत्री पद देकर होती है। और दूसरी नजर नेता रहित किसी समुदाय केआंदोलन को सियासी नेता मंत्री बना कर देने की होती है। यानी सवाल यह नहीं कि सरकारें काम कर क्या रही है। सवाल यही है कि सरकार हो तो आने वाले वक्त में कहां कौन चुनाव जीतना है उसके लिये मंत्रिमंडल को ही हथियार बना लिया जाये। और अगर वाकई मंत्रिमंडल विस्तार के जरीये नजरें यूपी चुनाव पर ही हैं। तो नरेन्द्र मोदी, मायावती. मुलायम सिंह यादव और प्रियंका गाधी की पहचान है क्या। जाहिर है चारों को या तो देश का नेता होना चाहिये या फिर किसी प्रदेश का। लेकिन चुनाव के खेल में सत्ता के लिये देश हो या प्रदेश। हर नेता की पहचान उसके वोट बैंक से चाहे अनचाहे इस तरह जोड़ दी गई कि हर किसी की जाति ही उसकी पहचान है। और आलम ये हो चला है कि देश के प्रधानमंत्री मोदी को ओबीसी कहने में बीजेपी अध्यक्ष को भी हिचक नहीं होती। और पीएम के ओबीसी होने का जिक्र हर राज्य के चुनाव में बीजेपी ने लगातार किया । तो आप लोहिया को याद कर कह सकते हैं कि जाति तो देश का सच है इसे झुठलाया कैसे जाये। लेकिन क्या जाति के आसरे देश या प्रदेश आगे बढ़ सकता है। क्योंकि बीते 25 बरस से यूपी में कभी मायावती बतौर दलित नेता । तो कभी मुलायम बतौर यादवो के ऐसे सेकुलर नेता जिके साथ मुसलमान जुड़ जायें तो सत्ता मिल जाये। यानी मायावती के राज में दलित घर से बाहर निकलता है,बेखौफ होता है । तो मुलायम के दौर में यादव दबंग हो जाता है । और मुसलिम दोनो ही के दौर में खुद सत्ता के करीब पाकर भी वोट बैक की सहुलियत पाने से आगे बढ़ नहीं पाता। ऐसे में एक नजर प्रियंका गांधी पर भी जा सकती है। क्योंकि प्रियंका की पहचान जाति या धर्म से नहीं बल्कि गांधी परिवार से है।
और यही वजह है कि यूपी चुनाव में जब राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी मंडल की राह पर है और यूपी की बिसात पर जितने भी खिलाड़ी हैं सभी जाति की पहचान के साथ ही अपना अपना वोट बैंक देख रहे हैं। तो प्रियंका गांधी के आसरे कांग्रेस नेहरु इंदिरा से लेकर राजीव तक की छवि को यूपी में भुनाने के लिये तैयार हो रही है। तो क्या इससे कांग्रेस को सत्ता मिल जायेगी। या फिर जिस राष्ट्रीय शंखनाद के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में राष्ट्रीय पहचान बनायी अब वह छोटे छोटे नेताओं के वोट के आसरे बीजेपी को यूपी में सत्ता पाते हुये देख रहे हैं। या बीजेपी की राष्ट्रीय छवि को राज्यों की राजनीति के आसरे बंटते हुये देखना चाह रहे हैं । क्योकि इसी से सत्ता मिलती है तो देश के हर चेहरे के आसरे सवाल यही बड़ा है कि सत्ता के लिये सभी देश को वोट बैंक में बांट रहे हैं। या फिर मंडल पार्ट टू की एसी थ्योरी देश में चल पड़ी है कि देश को स्टेट्समैन नहीं दांव-पेच कर सत्ता पाने वाला नेता ही चाहिये।
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पढ़ा लिखा युवा गढ़ रहा है आतंक की नयी परिभाषा |
9/11 यानी अमेरिका के ट्विन टावर पर अटैक । और बगदाद में दो दिन पहले दो धमाके । यानी बीते 15 बरस में आतंक के साये में दुनिया ही कुछ इस तरह आई कि 12 लाख से ज्यादा मौत आतंकी हिसा में हो गई । पचास लाख से ज्यादा लोगघायल हो गये । और ये सवाल बड़ा होने लगा कि क्या आतंक दुनिया को अपने मेंसमेटने वाला सबसे बडा धर्म और अर्थतंत्र तो नहीं बन रहा है । क्योंकि आतंकके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र से ही पांच स्थायी सदस्य देशों की हथियारलॉबी ने बीते 15 बरस में नब्बे लाख करोड का सीधा मुनाफा बनाया । धंधाकितने का हुआ और कुल लाभ कितना हो सकता है इसका कोई आंकड़ा कहीं नहीमिलेगा । लेकिन इसी आतंक ने दुनिया में तेल की राजनीति और कीमत दोनों परअसर डाल दिया । और दुनिया में अमेरिका , चीन रुस और यूरोपिय देशों के बीच नये गठबंधन बाजार अर्थव्यवस्था को लेकर अपरोक्ष तौर पर बने । लेकिन किसआतंक के खिलाफ कौन किसके साथ खडा है इसपर संबंध सीधे बने । और शायद आतंकके ग्राउंड जीरो एक नये पहचान के साथ उभरे ।
क्योंकि अफगानिस्तान , सिरिया और इराक में आतंक ने ऐसे पैर पसारे कि सिर्फइन तीन देसो में 11 लाख से ज्यादा मौतें हुई । तीस लाख से ज्यादा लोग घायलहो गये । और इन तीन देशो में आतंक पर नकेल कसने के लिये दुनिया के तमामताकतवर देश कुछ इस तरह कूदे कि आतंक ने पहली बार दुनिया को ही बांट दिया। क्योंकि 9/11 के आतंकी हमले ने सम्यताओं के टकराव के तौर पर अगर दुनियाको बांटा । तो बीते 15 बरस में रंगो में बांटी जा रही दुनिया में यह सवाल बड़ा होने लगा है कि क्या आतंक दुनिया को बांट देगा । जहा एक तरफ ईसाई 2 अरब 20 करोड़ है तो मुस्लिम एक अरब 60 करोड़ । और हिन्दू एक अरब । लेकिन टकराव धर्म के आदार पर नहीं बल्कि अर्थतंत्र की लडाई को ज्यादा उम्मीद से देख रही है । इसीलिये आतंक की पीठ पर सवार बाजार को महत्व देने वालीइक्नामी को संभाले दुनिया के सामने नया संकट खत्म होते विक्लपो का है । तो ध्यान दिजिये 2001 से पहले अगर आतंकवाद गरीबो के जरीये दुनिया में पैर पसार रहा था । तो 9/11 के बाद घार्मिक कट्टरता और पश्चिमी सम्यता के विकल्प की सोच लिये आतंकवाद को थामने वाला युवा आधुनिक शिक्षा-समाज-बाजार
सबसे जुडा है । संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की रिपोर्ट ही बताती है कि बीते 15 बरस में दुनिया भर में 2 हजार से ज्यादा आतंकी हिंसा हुई । इसमें शामिल 58 फीसदी आतंकवादी उच्च शिक्षा लिये हुये थे । 48 फिसदी तमाम सुख सुविधाओ को भोग चुके युवा थे । और 72 पिसदी कभी छात्र राजनीति या किसी ट्रेड यूनियन से इससे पहले कभी नहीं जुडे थे । यानी आतंक को लेकर जो चौकाने वाला सच 9/11 के वक्त पहली बार मिस्र के मोहम्मद अता के जरीये सामने आया कि जो हैम्बर्ग में उच्च शिक्षा लेने के बाद आतंक से जुडा । वह सच 2016 आते आते दुनिया की हकीकत बन जायेगा यह किसने सोचा होगा । क्योकि बीते एक महीने में यानी रमजान के दौर में ही अगर दुनिया के नक्शे पर जार्डन,लेबनान , यमन टर्की, बांगलादेश और इराक में हुये आतंकी हमलो में शामिल 60 फिसदी युवा उस परिवेश से निकला जिसे आधुनिक विकास के दायरे में आतंक से डरना चाहिये था । लेकिन इन युवा आतंकवादियो ने धर्म को भी अपने आतंक से परिभाषित किया । लेकिन परखना इस सच को भी होगा कि आखिर क्यो पढा लिखा और रईसी में जीने वाले आतंक के राह पर क्यो आ गये । क्योकि फेरहिस्त खासी लंबी है । मसलन ओसामा बिन लादेन, अल जवाहिरी , मोहम्मद अता ,अनवर अल अवलाकी ,निदाल हसन, बगदादी , जेहादी जॉन । यानी अलकायदा से लेकर आईएस तक के आतंकवादी गरीबी से नहीं बल्कि रईसी से निकले । उच्च सिक्षा के साथ निकले । और ढाका में ही जिन युवा आतंवादियों के क्रूरता के साथ हत्या की । वह भी उच्चतर समाज के हिस्सा रहे है । याद कीजिए 9-11 के हमले के बाद नोबेल पुरस्कार विजेता एलि वेसेल ने तर्क दिया था कि , " शिक्षा के जरीये आतंक पर नकेल कसी जा सकती है । " तो 9-11 के बाद आतंकवाद ने पढ़े लिखे और संपन्न परिवारों के युवाओं को लुभाना क्यो शुरु किया इसका जबाब किसी ने नहीं दिया । क्योंकि गौर कीजिए तो ढाका में खूनी खेल खेलने वाले आतंकियों ने न केवल जवानी की दहलीज पर कदम रखा था बल्कि अच्छी यूनिवर्सिटी से पढ़े लिखे थे।
आतंकवादी निब्रस , ढाका की नॉर्थ साउथ यूनिवर्सिटी से पढ़ने के बाद मलेशिया के मोनाश यूनिवर्सिटी गया। तो आतंकवादी मुबाशीर, ढाका के टॉप इंग्निश मीडियम स्कूल में पढ़ा लिखा।और आतंकवादी रोहन इम्तियाज के तो पिता ही अवामी लीग के नेता हैं। और घर में हर सुविधा । समाज में हर मान्यता । यानी पढ़े लिखे रईस परिवार के युवा आतंक की राह चल रहे तो सच यही है कि समस्या की जड़ें कहीं गहरी हैं। दरअसल, समाजशास्त्रियो की नजर में छह वजहे है । पहला अलग अलग देशो के राजनीतिक अतंरविरोध का लाभ आतंक को मिलता है । दूसरा, आतंक को लेकर संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा भी अलग अलग है । तीसरा आतंक और विद्रोही हिंसा के बीच लकीर राजनीतिक है । चौथा , राजनीतिक सत्ता से मोहभंग की स्थिति में युवा कही ज्यादा है । पांचवा, राजनीतिक विचारधाराओ का खत्म होना आतंकवाद के लिये अच्छा साबित हो रहा है । छठा विकास में लोगो से ज्यादा पूंजी की बढती भागेदारी मोहभंग पैदा कर रही है । वजह भी यही है कि जॉर्डन,मोरक्को,पाकिस्तान और टर्की में 2004 में एक एक सर्वे में पढ़े लिखे नौजवानों ने अमेरिका और पश्चिमी देशों के खिलाफ आत्मघाती हमलों की ज्यादा वकालत की बनिस्पत उन लोगों ने,जिनकी शिक्षा कम थी। कम पढ़े लिखे लोगों ने नो ओपनियन यानी कोई राय नहीं वाला विकल्प चुना। तो पढ़े लिखे युवा रेडिकलाइज हो रहे हैं-इससे इंकार किया नहीं जा सकता, और कोई सरकारें इन युवाओं की बेचैनी को साध नहीं पा रही-ये दूसरा सच है।